मेरे संधिपत्र – सूर्यबाला
एक स्त्री के द्वारा कभी ना लिखे गए संधिपत्रों का जब-जब खुलासा होगा तब पता चलेगा के घर -परिवार की खुशहाली बनाए रखने के लिए वो क्या क्या करती है ? सब कुछ अच्छा दिखने की भीतरी परतों में एक स्त्री का क्या -क्या त्याग छिपा हुआ है? क्यों घर संसार उसकी निजी खुशी से ऊपर हो जाता है| और कई बार ये फैसला उसका खुद का लिया होता है | एक ऐसी कहानी जिसमें कोई खलनायक नहीं है| सब कुछ अच्छा है | फिर भी … कदम -कदम पर संधियाँ हैं संधिपत्र है उपन्यास पर चर्चा आप यहाँ सुन सकते हैं –यू ट्यूब लिंक 2019 में एक सुंदर आवरण से सजा राजकमल द्वारा प्रकाशित वरिष्ठ लेखिका सूर्यबाला जी का पहला उपन्यास “मेरे संधिपत्र” वो उपन्यास है जो स्त्री जीवन के त्याग, समर्पण, सुख-दुख और दर्द और उपलब्धियों सब को निरपेक्ष भाव से प्रस्तुत करता है | पात्र को शब्दों में ढालते हुए लेखिका सहज जीवन प्रस्तुत करती जाती हैं | और जीवन के तमाम दवंद आसानी से चित्रित हो जाते हैं | अगर आप अपने आस -पास के आम जीवन की घटनाओं को कहानी में बदल सकते हैं तो आप एक बड़े लेखक है |~चेखव मेरे संधिपत्र -समझौते हमेशा दुख का कारण नहीं होते मेरे संधिपत्र उपन्यास एक आम स्त्री के मल्टीलेयर जीवन की अंत: परतों को खोलता है | कॉम्प्लेक्स ह्यूमन इमोशन्स के जरिए ये उपन्यास स्त्री मन के दवंद और उसके द्वारा लिए गए फैसलों की बात करता है | ये संधिपत्र एक स्त्री द्वारा लिए गए वो फ़ैसलें हैं जो वो समझौते के रूप में अपने परिवार की खुशहाली के लिए करती है, पर कहीं ना कहीं इससे वो अपने लिए भी सुंदर दुनिया का सृजन करती है | आज के दौर में जब विद्रोह ही स्त्री कथाकारों की कलम की शरण स्थली बनी हुई है, ऐसे समय में इसका नए दृष्टिकोण से पुन:पाठ आवश्यक हो जाता है |और यह उपन्यास कई प्रश्नों पर फिर से विचार करने का आग्रह करता है … क्या स्त्री का माय चॉइस हमेशा परिवार के विरोध में है ? अपने घर परिवार के हक में फैसला करती स्त्री को हम सशक्त स्त्री के रूप में क्यों नहीं देखते जब की हम पुरुष से ऐसी ही आशा करते हैं ? क्या इस पार स्व विवेक से लिया गया फैसला स्त्री को सशक्त स्त्री नहीं घोषित करता है ? ये कहानी है एक लड़की शिवा की .. पढ़ाई में तेज, विभिन्न प्रतिभागी परीक्षाओं में तमाम पदक जीतने वाली गरीब लड़की शिवा का कम उम्र में विवाह एक लखपति व्यवसायी से हो जाता है |शिवाय उसकी दूसरी पत्नी और दो नन्ही बछियों की माँ बन कर घर में प्रवेश करती है | उपन्यास की शुरुआत ही “मम्मी आ गई, मम्मी आ गई” के हर्षित स्वर के साथ स्वागत कति बच्चियों से होती है | सद्ध ब्याहता माँ के आँखों में मोतियों कीई झालर देखकर बच्ची पानी ला कर मुँह धुलाने की कोशिश करती है | यहीं से सौतेली माँ और बच्चों का एक नया रिश्ता शुरू होता है | एक बेहद खूबसूरत रिश्ता, जहँ सौतेला शब्द ना दिल में है ना जेहन में | सौतेली माँ की तथाकथित खल छवि को तोड़ता है यह उपन्यास | उपन्यास तीन भागों में बांटा गया है | पहले दो भागों में दोनों बच्चियों के अपने अपने दृष्टिकोण से माँ और जीवन को देखती हैं | मेरी क्षणिकाएँ ऋचा उपन्यास के पहले भगा में बड़ी बेटी ऋचा का माँ के माध्यम से जीवन को समझने का प्रयास है | वो अपनी माँ के गरिमामाई व्यक्तित्व से प्रभावित है | वो माँ के जीवन को उनकी खुशियों, उनके दर्द को उसी तर्ज पर समझती है | धीरे धीरे वो उन्हीं में ढलती जाती है |समय -समय पर वो माँ की ढाल बनती है पर मौन मूक स्वीकार भव के साथ | रिंकी मेरा विद्रोह इस भाग में छोटी बेटी रिंकी का माँ के साथ जीवन को समझने का दृष्टिकोण है | रिंकी विद्रोही स्वभाव की है | वो माँ की ढाल नहीं बनती अपनी वो विद्रोह कर माँ के लिए सारी खुशियाँ जीतना चाहती है | मेरे संधिपत्र ये हिस्सा शिवा के दृष्टिकोण का है | इसमें वो तमाम संधिपत्र.. वो समझौते हैं जो वो अपने जीवन को खुशहाल बनाने के लिए करती है | वो बेमेल विवाह जहाँ मेंटल मैच नहीं मिलता उसे स्वीकारती है साथ ही ये भी स्वीकारती है कि उसका पति जीवन पर्यंत उसे बहुत प्रेम करता रहा | भले ही उसका प्यार उस तरह से नहीं ठा जिस तरह से वो कहती थी पर उसने प्यार किया है | हर सफलता पर वो उसे जेवरों से लादता है |उसके लिए रबड़ी के कुल्ले लाता है | गरीब मायके जाने पर कोई रोक टोंक नहीं यही | वो स्वीकारती है कि सौतेली माँ होने का उस पर दवाब है कि वो अपनी बच्ची से दूर रहे पर साथ ही ये भी कि दोनों बच्चियों ने उसे निश्चल प्रेम और विश्वास की अथाह संपत्ति दी है | जिसने उसके जीवन को खुशियों से भर दिया है | सास उस अपेक्षाकृत छोटे घर की बेटी को बड़े राइस खानदान की बहु के साँचे में ढालती हैं | पर उन्हें समझ है की इसे यह सब करने में समय लगेगा | इस उपन्यास की शुरुआत में लेखिका लिखती हैं .. मेरे संधिपत्र बनाम शिवाय के संधिपत्र उसकी जिंदगी के नाम … जिंदगी है भी यही संधियों का अटूट सिलसिला, निरंतर प्रवाहित, जीवन की इस निसर्ग, निर्बाध धारा में एक चीज बस शिवाय की अपनी थी -इस धारा की गहराई | जीवन भर डूब -डूब कर वह अपने को थहाती रही, यही उसकी नियति थी |छप्पर फाड़ कर मिले सुख- सौभाग्य, ऐश्वर्य-मातृत्व सबकी दुकान लगाए बैठी रही |सब अपने -अपने बाँट लेकर आए और जो जिसने चाहा, तौलती बांटती चली गई |और अंत में दुकान बंद करने का समय आने तक उसके पास बचे रहे जिंदगी के नाम लिखे कुछ संधिपत्र, बस पाठक भी इसे अपने -अपने बाँट के हिसाब से पढ़ सकता है | क्योंकि इस कहानी की खूबसूरती ही जीवन के बाह्य और अंतर्मन के बहुपरतीय आयाम को खोलना है | इंसान के फैसले … Read more