दूसरी पारी – समीक्षा

दूसरी पारी

कुछ दिनों पहले एक साझा संस्मरण संग्रह ‘दूसरी पारी’ मेरे हाथ आई थी। समयाभाव या अन्य कारणों से पढ़ने का मौका नहीं मिला। लेकिन जब पढ़ा तो …वह आपके सामने है। दस मिनट समय हो पढ़ने को जरूर निकालेंगे। क्योंकि यह पुस्तक सिर्फ संस्मरणों का संग्रह मात्र नहीं है, महिला लेखिकाओं ने परिवार और समाज को जीने की व्यथा: कथा का सजीव चित्रण किया है। पुस्तक जबतक आपके हाथ नहीं आती है, मेरे पढ़े को ही एक नजर देख लें। शायद हमने जो आजतक न सोचा हो, आज के बाद सोचने को मजबूर हो जाएं। अपनों के दिए दंश की गाथा: ‘दूसरी पारी’ “छोरी निचली बैठ, क्यों घोड़ी सी उछल रही है.. तन के मत चल, नीची निगाह करके चल..मुंह फाड़ के क्यों हंस रही है.. छत पे अकेली मत बैठ..दरवज्जे पे क्यों खड़ी है? फ्रॉक नीची करके बैठ।” ये पंक्तियां मेरी नहीं, अर्चना चतुर्वेदी जी की है। सत्रह महिलाओं के आत्मकथात्मक संस्मरणों का संग्रह “दूसरी पारी” की एक लेखिका का। एक लेखिका की मां, चाची, बुआ, दादी की इन नसीहतों में ही समाज का आईना है। बेटी के लिए किसी एक मां को नहीं, माओं को समझने की जरूरत है। किसी समाज को समझना हो, तो पहले उस समाज की महिलाओं को समझना होगा और महिलाओं को समझने के लिए रीति-रिवाजों और परंपराओं की जड़ों में जाना भी जरूरी है। क्योंकि भारतीय समाज की अधिकांश मध्यवर्गीय महिलाएं पुरुषों की नहीं, परंपराओं की गुलाम हैं। परंपराओं की जंजीरों से बंधी हैं। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक परंपराओं और रीति-रिवाजों की वाहक हैं। रीति-रिवाजों और परंपराओं को निभाने का सर्वाधिकार इनके नाम सुरक्षित है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिवर्तित ऐसी सत्ता की पात्रता भी उन्हीं के पास है। क्योंकि दिखने में तो लगता है कि शायद ही किसी पुरुष ने अपने घर की महिलाओं को किसी रीति-रिवाजों या परंपराओं को मानने के लिए बाध्य किया हो। क्योंकि ऐसे कार्यों के लिए महिलाओं को महिलाएं ही प्रेरित करती रही हैं, चाहे सास हो, मां या पड़ोसन। भले ही दिखने में न लगे, लेकिन अदृश्य शक्ति के रूप में पितृसत्तात्मक समाज अपना फन काढ़े डराने को बैठा होता है और फनों का विष लिए तथाकथित पंडित और मौलबी घर-घर घूमते रहते हैं। यही कारण है माओं का अंतर्विरोध दिखाई भी नहीं देता, क्योंकि ज्यादातर महिलाएं अपने परिवार के पुरुषों के साथ ही खड़ी दिखती हैं। पुरूष पति हो, पिता या पुत्र। मतलब घर का अंतर्विरोध कभी विरोध बन ही नहीं पाता। इन लेखिकाओं के लिए बीते कल की बातों को जगजाहिर करना कितना आसान था? – ‘अपने बारे में लिखना आसान नहीं है। हमसब के अंदर बहुत कुछ छिपाने की प्रवृत्ति होती है, खासकर महिलाओं में। कभी खंगालिए अपने आसपास के औरतों के दिलों को ‘सब ठीक है’ के अंदर कितने समंदर दबे होते हैं।’… ‘अच्छी लड़कियां जुबान नहीं खोलती’- (मुझे बस चलते जाना है – वंदना वाजपेयी, पृष्ठ 143 ) इसी समंदर से कुछ सीपियां चुनने का साहस कल की कुछ स्वयंसिद्धाओं और आज की लेखिकाओं ने कर दिखाया है। सत्रह लेखिकाओं ने अपनी बात साझा करने के लिए भी साझे संग्रह का ही सहारा लिया। कारण भी इसी संग्रह की एक लेखिका से ही पूछ लेते हैं – ‘जब बाहर के रास्ते बंद हों, तो एक दूसरे का सहारा बन जाओ।….दरअसल पितृसत्ता की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि एक दूसरे का साथ दिए बिना खुल नहीं सकती, जो इसे समझ जाते हैं वो अपने ही नहीं, पूरे समाज में परिवर्तन के वाहक बनते हैं।’ – (मुझे बस चलते जाना है – वंदना वाजपेयी, पृष्ठ 149) वंदना जी का संस्मरण साफ तौर पर इशारा करता है कि कविता कहानी के लिए प्रेरित करने वाले पिता को अपनी बेटी के मेडिकल की परीक्षा में सफलता पर गर्व नहीं होता, उससे अधिक डॉक्टर जमाई की खोज का दुरूह कार्य सताने लगता है। पिता की इच्छा-अनिच्छा को देख सपनों को संजोए लड़की अपने चयन की खुशी का इजहार भी नहीं कर सकती, उल्टे पूरी रात तकिया भिंगोने के बाद सुबह होते ही आगे बीएससी और एमएससी की पढ़ाई के निर्णय की सूचना पिता को इस तरह देती हैं, जैसे अपने लिए चाव से बनाए गए भोजन में छिपकली गिर गई पापा, तो क्या हुआ घर में जो कुछ उपलब्ध है वही खा लेंगे, जैसा ही था। अक्सर ये छिपकलियां मेहनत से तैयार करने वाली लड़की के भोजन की थाली में ही क्यों गिरती है? किसी पुरूष की थाली में क्यों नहीं? जीवन के लिए ऐसे निर्णय पर भी पिता की आंखें नम नहीं होती(होती भी होंगी, तो दिखती नहीं), नजर सामने के समाचार पत्र से नहीं हटती, बेटी को प्रश्नवाची निगाहों से नहीं देख पाते कि ऐसा त्याग! किसके लिए और क्यों? क्योंकि पिता के लिए बेटी का डॉक्टर बनना महत्वपूर्ण नहीं था। शादी कर घर से विदा कर देना प्राथमिकता में था। लेकिन तब भी मां तटस्थ रही। पिता-पुत्री के बीच की संवेदनाओं की अनकही दीवार को गिराने में मदद को आगे नहीं बढ़ी, अगर बढ़ी होती तो शायद पिता अपनी लाडली के सपनों को ढहते हुए नहीं देखते रहते। उल्टे ‘पापा जो कह रहे हैं ठीक ही होगा’ की निश्चिंतता पितृसत्तात्मक समाज के फन का दंश नहीं तो और क्या है? कोई मां भला ऐसा क्यों चाहेगी? मां अपने पति के निर्णय के प्रति आश्वस्त हैं और पति के पेपर पढ़ने से नजर नहीं हटने की तरह वह भी अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त है। क्या गरीबी, भुखमरी पर बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’ की ‘लपक चाटते जूठा पत्तल….आग आज इस दुनिया भर को’ जैसा आक्रोश कहीं दिखा? नहीं न। फिर हम क्यों कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण है? दर्पण तो वही दिखाता है जो हम दिखाना चाहते हैं और दर्पण पुरुष सत्ता के हाथ में है। क्योंकि ऐसा थोड़े न है कि एक अकेली वंदना है, समाज की नजरों से ओझल हो गई होगी? वन्दनाओं की भरमार है। हर वन्दनाओं ने तकिया और बाथरूम को अपना साथी बनाया हुआ है। ऐसा भी नहीं है कि ये संस्मरण लिखने वाली किसी एक वंदना का दर्द है। आज भी लाखों वन्दनाएं किसी कोने में सिसकने, तकिया भिंगोने और बाथरूम में सूजे चेहरे पर पानी का छींटा मार फ्रेश होकर किचेन और घर की जिम्मेदारियों … Read more