पूर्वा- कहानी किरण सिंह

“जिस घर में भाई नहीं होते उस घर कि लड़कियाँ मनबढ़ होती हैंl” उपन्यासिक कलेवर समेटे चर्चित साहित्यकार किरण सिंह जी की  कहानी ‘पूर्वा’  आम जिंदगी के माध्यम से रूढ़ियों की टूटती बेड़ियों की बड़ी बात कह जाती है l वहीं  बिना माँ की बेटी अपूर्व सुंदरी पूर्वा का जीवन एक के बाद एक दर्द से भर जाता है, पर हर बार वो जिंदगी की ओर बढ़ती है l  जीवन सुख- दुख का संयोग है l दुख तोड़ देते हैं पर हर दुख के बाद जिंदगी को चुनना ही हमारा उद्देश्य हो का सार्थक सकारात्मक दृष्टिकोण देती है ये कहानी l वहीं  ये कहानी उन सैनिकों की पत्नियों के दर्द से भी रूबरू कराती है, जो सीमा पर हमारे लिये युद्ध कर रहे हैं l सरल – सहज भाषा में गाँव का जीवन शादी ब्याह के रोचक किस्से जहाँ पाठक को गुदगुदाते हैं, वहीं भोजपुरी भाषा का प्रयोग कहानी के आस्वाद को बढ़ा देता है l तो आइए मिलते हैं पूर्वा से – पूर्वा- कहानी किरण सिंह प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष भी गणतंत्र दिवस के पूर्व संध्या पर संदूक से तिरंगा को निकालते हुए पूर्वा के हृदय में पीड़ा का सैलाब उमड़ आया और उसकी आँखों की बारिश में तिरंगा नहाने लगा । पूर्वा तिरंगा को कभी माथे से लगा रही थी तो कभी सीने से और कभी एक पागल प्रेमिका की तरह चूम रही थी ।ऐसा करते हुए वह अपने पति के प्रेम को तो महसूस कर रही थी लेकिन लग रहा था कलेजा मुह को आ जायेगा। यह तिरंगा सिर्फ तिरंगा ही नहीं था। यह तो उसके सुहाग की अंतिम भेंट थी जिसमें  उसके पति  लेफ्टिनेंट कर्मवीर मिश्रा का पार्थिव शरीर  लिपटकर आया था। तिरंगा में वह अपने पति के देह की अन्तिम महक को महसूस कर रही थी जो उसे अपने साथ – साथ अतीत में ले गईं । पूर्वा और अन्तरा अपने पिता ( रामानन्द मिश्रा) की दो प्यारी संतानें थीं। बचपन में ही माँ के गुजर जाने के बाद उन दोनों का पालन-पोषण उनकी दादी आनन्दी जी ने किया था। बहु की मृत्यु से आहत आनन्दी जी ने अपने बेटे से कहा – “बबुआ दू – दू गो बिन महतारी के बेटी है आ तोहार ई दशा हमसे देखल न जात बा। ऊ तोहार बड़की माई के भतीजी बड़ी सुन्नर है। तोहरा से बियाह के बात करत रहीं। हम सोचली तोहरा से पूछ के हामी भर देईं।” रामानंद मिश्रा ने गुस्से से लाल होते हुए कहा – “का माई – तोहार दिमाग खराब हो गया है का? एक बात कान खोल कर सुन लो, हम पूर्वा के अम्मा का दर्जा कौनो दूसरी औरत को नहीं  दे सकते। पूर्वा आ अन्तरा त अपना अम्मा से ज्यादा तोहरे संगे रहती थीं। हम जीते जी सौतेली माँ के बुला के आपन दूनो बेटी के  अनाथ नहीं कर सकते ।” आनन्दी जी -” हम महतारी न हईं। तोहार चिंता हमरा न रही त का गाँव के लोग के रही। काल्ह के दिन तोहार दूनो बेटी ससुराल चल जइहें त तोहरा के कोई एक लोटा पानी देवे वाला ना रहिहें। हमार जिनगी केतना दिन के है। ” रामानंद मिश्रा – “माई तू हमार चिंता छोड़के पूर्वा आ अन्तरा के देख।” बेटे की जिद्द के आगे आनन्दी जी की एक न चली। अपनी दादी की परवरिश में पूर्वा और अन्तरा बड़ी हो गईं। अब आनन्दी को उनके विवाह की चिंता सताने लगी। यह बात उन्होंने अपने बेटे से कही तो उन्होंने कहा – “माई अभी उमर ही का हुआ है इनका? अभी पढ़ने-लिखने दो न।” आनन्दी – “बेटा अब हमार उमर बहुते हो गया। अउर देखो बुढ़ापा में ई कवन – कवन रोग धर लिया है। इनकी मैया होती त कौनो बात न रहत। अऊर बियाह बादो त बेटी पढ़ सकत है। का जानी कब भगवान के दुआरे से हमार बुलावा आ जाये। माँ की बात सुनकर पूर्वा के पिता भावनाओं में बह गये और उन्होंने अपनी माँ की बात मान ली। अब वह पूर्वा के लिए लड़का देखने लगे। तभी उनकी रजनी (पूर्वा की मौसी) का फोन आया – “पाहुन बेटी का बियाह तय हो गया है। आप दोनो बेटियों को लेकर जरूर आइयेगा। रामानन्द मिश्रा -” माई का तबियत ठीक नहीं रहता है इसलिए हम दूनो बेटी में  से एकही को ला सकते हैं। ” रजनी -” अच्छा पाहुन आप जइसन ठीक समझें। हम तो दूनो को बुलाना चाहते थे, बाकिर……… अच्छा पूर्वा को ही लेते आइयेगा, बड़ है न। रामानंद मिश्रा – हाँ ई बात ठीक है, हम आ जायेंगे, हमरे लायक कोई काम होखे त कहना। ” रजनी -” न पाहुन, बस आप लोग पहिलहिये आ जाइयेगा। हमार बेटी के बहिन में  अन्तरा अउर पूर्वे न है। रामानंद मिश्रा – ठीक है – प्रणाम। पूर्वा अपने पिता के संग बिहार के आरा जिला से सटे एक गाँव में अपनी मौसेरी बहन शिल्पी की शादी में पहुंच गई । सत्रह वर्ष की वह बाला गज्जब की सुन्दर व आकर्षक थी। तीखे – तीखे नैन नक्स, सुन्दर – सुडौल शरीर, लम्बे – लम्बे घुंघराले केश, ऊपर से गोरा रंग किसी भी कविमन को सृजन करने के लिए बाध्य कर दे। मानो  ब्रम्ह ने उसको गढ़ने में अपनी सारी शक्ति और हुनर का इस्तेमाल कर दिया हो। ऊपर से उसका सरल व विनम्र स्वभाव एक चुम्बकीय शक्ति से युवकों को तो अपनी ओर खींचता ही था साथ ही उनकी माताओं के भी मन में भी उसे बहु बनाने की ललक जगा देता था। लेकिन पूर्वा इस बात से अनभिज्ञ थी। अल्हड़ स्वभाव की पूर्वा चूंकि दुल्हन की बहन की भूमिका में थी इसलिए  विवाह में सरातियों के साथ – साथ बारातियों की भी केन्द्र बिन्दु थी। गुलाबी लहंगा-चोली पर सिल्वर कलर का दुपट्टा उसपर बहुत फब रहा था । उस पर भी सलीके से किया गया मेकप उसके रूप लावण्य को और भी निखार रहा था। ऐसे में किसी युवक का दिल उस पर आ जाना स्वाभाविक ही था। दुल्हन की सखियाँ राहों में फूल बिछा रही थीं और पूर्वा वरमाला के लिए दुल्हन को स्टेज पर लेकर जा रही थी। सभी की नज़रें दुल्हन को देख रही थी लेकिन एक नज़र पूर्वा पर टिकी हुई थी। … Read more

दीपक शर्मा की कहानी -सिर माथे

दीपक शर्मा की कहानी सिर माथे

दीपक शर्मा की कहानी-सिर माथे” पढ़कर मुझे लगा कि  तथाकथित गेट टुगेदर में एक  साथ मौज-मजा, खाना-पीना, डिनर-शिनर के बीच असली खेल होता है कॉन्टेक्ट या संपर्क बढ़ाने का l बढ़े हुए कॉन्टेक्ट मतलब विभाग में ज्यादा सफलता l कॉन्टेक्ट से मिली सफलता का ये फार्मूला रसोई में पुड़ियों  के साथ छन कर आता है तो कभी मोरपंखी साड़ी और लिपस्टिक कि मुस्कुराहट में छिपी बीमार पत्नी के अभिनय में l लाचारी बस अभिनय की एक दीवार टूट भी जाए तो तमाम दीवारे यथावत तनी हैं,जहाँ  अस्पताल में भी नाम पुकारने,हाथ बढ़ाने और हालचाल पूछने में भी वरिष्ठता क्रम की चिंता है l लजीज खाने की चिंता बीमार से कहीं ज्यादा है, और खुद को किसी बड़े के करीब दिखा देने की ललक उन सब पर भारी है l अस्पताल सड़क घर यहाँ  तक डाइनिंग टेबल पर भी गोटियाँ सज जाती है l हालांकि कहानी एक खास महकमे की बात करती है  पर वो कहानी ही क्या व्यक्ति में समष्टि ना समेट ले, खासतौर से वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कलम से, जो कम शब्दों में बहुत कुछ कह देने का माद्दा रखती हैं l  शुरुआत में कहीं भीष्म सहानी की कहानी “चीफ की दावत” की याद दिलाती इस कहानी में आगे बढ़ते हुए गौर से देखेंगे तो इसमें शतरंज के खेल का ये बोर्ड काले-सफेद गत्ते के टुकड़े तक नहीं रहता, हर विभाग, हर शहर, हर सफलता इसमें शामिल है l इसमें शामिल हैं  सब कहीं चाले चलते हुए तो कहीं प्यादा बन पिटते हुए l साधारण सी दिखने वाली इस कहानी के की ऐंगल देखे जा सकते हैं l जिसे पाठक खुद ही खोजें तो बेहतर होगा l बड़ी ही बारीकी से रुपक के माध्यम से  एक बड़ी बात कहती कहानी… दीपक शर्मा की कहानी -सिर माथे   ’’कोई है?’’ रोज की तरह घर में दाखिल होते ही मैं टोह लेता हूँ। ’’हुजूर!’’ पहला फॉलोअर मेरे सोफे की तीनों गद्दियों को मेरे बैठने वाले कोने में सहलाता है। ’’हुजूर!’’ दूसरा दोपहर की अखबारों को उस सोफे की बगल वाली तिपाई पर ला टिकाता है। ’’हुजूर!’’ तीसरा मेरे सोफे पर बैठते ही मेरे जूतों के फीते आ खोलता है। ’’हुजूर!’’ चौथा अपने हाथ में पकड़ी ट्रे का पानी का गिलास मेरी तरफ बढ़ाता है। ’’मेम साहब कहाँ हैं?’’ शाम की कवायद की एक अहम कड़ी गायब है। मेरे दफ्तर से लौटते ही मेरी सरकारी रिवॉल्वर को मेरी आलमारी के सेफ में सँभालने का जिम्मा मेरी पत्नी का रहता है। और उसे सँभाल लेने के एकदम बाद मेरी चाय बनाने का। मैं एक खास पत्ती की चाय पीता हूँ। वेल ब्रू…ड। शक्कर और दूध के बिना। ’’उन्हें आज बुखार है,’’ चारों फॉलोअर एक साथ बोल पड़ते हैं। ’’उन्हें इधर बुलाओ….देखें!’’ पत्नी का दवा दरमन मेरे हाथ में रहता है। मुझसे पूछे बिना कोई भी दवा लेने की उसे सख्त मनाही है। सिलवटी, बेतरतीब सलवार-सूट में पत्नी तत्काल लॉबी में चली आती है। थर्मामीटर के साथ। ’’दोपहर में 102 डिग्री था, लेकिन अभी कुछ देर पहले देखा तो 104 डिग्री छू रहा  था….’’ ’’देखें,’’ पत्नी के हाथ से थर्मामीटर पकड़कर मैं पटकता हूँ, ’’तुम इसे फिर से  लगाओ…’’ पत्नी थर्मामीटर अपने मुँह में रख लेती है। ’’बुखार ने भी आने का बहुत गलत दिन चुना। बुखार नहीं जानता आज यहाँ तीन-तीन आई0जी0 सपत्नीक डिनर पर आ रहे हैं?’’ मैं झुँझलाता हूँ। मेरे विभाग के आई0जी0 की पत्नी अपनी तीन लड़कियों की पढ़ाई का हवाला देकर उधर देहली में अपने निजी फ्लैट में रहती है और जब भी इधर आती है, मैं उन दोनों को एक बार जरूर अपने घर पर बुलाता हूँ। उनके दो बैचमेट्स के साथ। जो किसी भी तबादले के अंतर्गत मेरे अगले बॉस बन सकते हैं। आई0पी0एस0 के तहत आजकल मैं डी0आई0जी0 के पद पर तैनात हूँ। ’’देखें,’’ पत्नी से पहले थर्मामीटर की रीडिंग मैं देखना चाहता हूँ। ’’लीजिए….’’ थर्मामीटर का पारा 105 तक पहुँच आया है। ’’तुम अपने कमरे में चलो,’’ मैं पत्नी से कहता हूँ, ’’अभी तुम्हें डॉ0 प्रसाद से पूछकर दवा देता हूँ….’’ डॉ0 प्रसाद यहाँ के मेडिकल कॉलेज में मेडिसिन के लेक्चरर हैं और हमारी तंदुरूस्ती के रखवाल दूत। दवा के डिब्बे से मैं उनके कथनानुसार पत्नी को पहले स्टेमेटिल देता हूँ, फिर क्रोसिन, पत्नी को आने वाली कै रोकने के लिए। हर दवा निगलते ही उसे कै के जरिए पत्नी को बाहर उगलने की जल्दी रहा करती है। ’’मैं आज उधर ड्राइंगरूम में नहीं जाऊँगी। उधर ए0सी0 चलेगा और मेरा बुखार बेकाबू हो जाएगा,’’ पत्नी बिस्तर पर लेटते ही अपनी राजस्थानी रजाई ओढ़ लेती है, ’’मुझे बहुत ठंड लग रही है…’’ ’’ये गोलियाँ बहुत जल्दी तुम्हारा बुखार नीचे ले आएँगी,’’ मैं कहता हूँ, ’’उन लोगों के आने में अभी पूरे तीन घंटे बाकी हैं….’’   मेरा अनुमान सही निकला है। साढ़े आठ और नौ के बीच जब तक हमारे मेहमान पधारते हैं, पत्नी अपनी तेपची कशीदाकारी वाली धानी वायल के साथ पन्ने का सेट पहन चुकी है। अपने चेहरी पर भी पूरे मेकअप का चौखटा चढ़ा चुकी है। अपने परफ्यूम समेत। उसके परिधान से मेल खिलाने के उद्देश्य से अपने लिए मैंने हलकी भूरी ब्रैंडिड पतलून के साथ दो जेब वाली अपनी धानी कमीज चुनी है। ताजा हजामत और अपने सर्वोत्तम आफ्टर सेव के साथ मैं भी मेहमानों के सामने पेश होने के लिए पूरी तरह तैयार हो चुका हूँ। पधारने वालों में अग्निहोत्री दंपती ने पहल की है। ’’स्पलैंडिड एवं फ्रैश एज एवर सर, मैम,’’ (हमेशा की तरह भव्य और नूतन) मैं उनका स्वागत करता हूँ और एक फॉलोअर को अपनी पत्नी की दिशा में दौड़ा देता हूँ, ड्राइंगरूम लिवाने हेतु। इन दिनों अग्निहोत्री मेरे विभाग में मेरा बॉस है। छोनों ही खूब सजे हैं। अपने साथ अपनी-अपनी कीमती सुगंधशाला लिए। अग्निहोत्री ने गहरी नीली धारियों वाली गहरी सलेटी कमीज के साथ गहरी नीली पतलून पहन रखी है और उसकी पत्नी जरदोजी वाली अपनी गाजरी शिफान के साथ अपने कीमती हीरों के भंडार का प्रदर्शन करती मालूम देती है। उसके कर्णफूल और गले की माला से लेकर उसके हाथ की अँगूठी, चूड़ियाँ और घड़ी तक हीरे लिए हैं। वशिष्ठ दंपती कुछ देर बाद मिश्र दंपती की संगति में प्रवेश लेता है। वशिष्ठ और उसकी पत्नी को हम लोग सरकारी पार्टियों … Read more