आत्मनिर्भरता- कितनी जरूरी
अंग्रेजी में एक कहावत है- “God helps those,who help themselves”यानि, ईश्वर भी उसी की मदद करता है जो अपनी मदद खुद कर सकता है। अंग्रेजी की यह कहावत आत्मनिर्भरता की संकल्पना सामने लाती है। व्यक्ति या देश जब अपनी क्षमताओं और अपने प्रयत्नों पर आश्रित होकर कार्य करता है,किसी अन्य के सहारे या किसी अन्य पर निर्भर रहने की उसे जब आवश्यकता नहीं होती है, तब वह व्यक्ति या देश आत्मनिर्भर कहलाता है। ‘आत्मनिर्भरता’या ‘स्वावलंबन’ किसी भी काल में किसी भी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र के लिए अनमोल धरोहर है। “आत्मनिर्भरता- कितनी जरूरी” आत्मनिर्भरता का अर्थ है – खुद के ऊपर निर्भर होना, स्वयं पर विश्वास रखना अर्थात् भाग्य या दूसरों के सहारे न बैठकर अपनी क्षमताओं का विकास करना। अब सवाल उठता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है,तो एक दूसरे के साथ रहकर एक दूसरे के काम आना उसका स्वभाव भी है और जरूरत भी, तब ऐसे में, सारा काम वह अपनी क्षमताओं के आधार पर स्वयं ही कर ले, तभी पूर्णतया आत्मनिर्भर कहलाएगा, तो क्या यह संभव है? कदापि नहीं । एक ही आदमी सारे सामान पैदा करना, बनाना, खरीदना,उपभोग करना-सब कैसे कर सकता है ? एक दूसरे की सहायता की जरूरत तो पड़ेगी ही। कोई खाद्य सामग्री बनाएगा तो कोई रहन-सहन की व्यवस्था करेगा, कोई सुरक्षा का जिम्मा लेगा तो कोई यातायात की व्यवस्था करेगा, कोई प्रशासन देखेगाऔर कोई अर्थ की व्यवस्था करेगा… कहने का तात्पर्य है कि एक दूसरे का सहयोग अनिवार्य है। ऐसे में, आत्मनिर्भरता का क्या तात्पर्य हुआ ? यही प्रश्न किसी देश की आत्मनिर्भरता के संदर्भ में भी उठाया जा सकता है। आज के इस वैश्वीकरण के समय में कोई एक देश पूर्णतया आत्मनिर्भर हो कर रहे या यूं कहें कि रॉ मटेरियल से लेकर उत्पादन और उपभोग तक सब कुछ स्वयं ही कर सके यह संभव नहीं दिखाई पड़ता क्योंकि तकनीकि, पेट्रोल, व्यवसाय, संस्कृति- लगभग सभी चीजों के लिए हम परस्पर निर्भर हैं। दुनिया जितनी सिमट रही है, बाजारवाद और प्रतिस्पर्धायें उतनी ही हर क्षेत्र में पनप रही हैं और अगर देखा जाए तो वस्तुओं की विविधता और गुणवत्ता की दृष्टि से यह जरूरी भी है। यह पारस्परिक आदान-प्रदान एक सीमा तक उचित प्रतीत होता है परंतु यह गलत तब प्रमाणित होता है जब केवल आयात हो और बदले में दिया कुछ न जा सके। जब अधिकारों का उपभोग विश्व में बिना कृतज्ञता का निर्वाह किए भिक्षावृत्ति तथा चोरी और लूट-खसोट में हो लेकिन विनिमय न हो, लेने वाला देने वाले के दबाव में रहे, उसकी नाराजगी से डरने लगे, उसकी इच्छा की गुलामी करने को विवश होने लगे तब ऐसे में,आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता को जागृत करना अनिवार्य हो जाता है। सामान्यतया, जब हम दूसरों पर आर्थिक रूप से निर्भर होते हैं, जरूरत से ज्यादा दूसरों की सहायता,सहानुभूति, हमदर्दी, नेकी पर विश्वास करने लगते हैं तब यह स्थिति किसी व्यक्ति, समाज या देश के लिए बहुत हानिकारक होती है।इससे हमारी शक्ति और आत्म उद्योगी भावनाओं का ह्रास होता है। यह आदत हमें निज मददहीनता से भर देती है ।यह बिल्कुल उसी प्रकार है जब किसी शिशु को स्वतंत्र रूप से चलने, दौड़ने या गिरने न दिया जाए और उसके अंदर के आत्मविश्वास में अपंगता भर दी जाए। दूसरों पर निर्भरता किसी राष्ट्र को ऐसे ही आर्थिक और नैतिक रूप से अपंग कर सकती है, देश का स्वरूप विकृत कर सकती है।इसके अतिरिक्त, दूसरों से हमेशा अपेक्षा रखना लगभग स्वयं को दयनीय और तिरस्कार का पात्र बना लेने जैसा है।हम धीरे-धीरे परजीवी होने लगते हैं और अपनी स्थिति दयनीय बना लेते हैं। इसके ठीक विपरीत, यदि व्यक्ति या राष्ट्र वीर है,संकल्पी है, तो मुसीबतों से संघर्ष कर सकता है, आत्मविश्वासी बन सकता है और सब के लिए प्रशंसा का पात्र बन जाता है।प्रयत्न ही किसी को महान बनाता है; सफलता असफलता तो घटती रहती है। आत्मनिर्भरता ही व्यक्ति एवं राष्ट्र को मानसिक दृढ़ता,सहनशीलता एवं नैतिक सुरक्षा प्रदान करती है। कमजोर और पिछड़ा वर्ग भी सीख ग्रहण करता है, प्रयत्नों का हिस्सेदार बनता है और साहसिक प्रवृत्ति से संघर्ष करने तथा उन पर विजय प्राप्त करने की प्रेरणा पाता है। अंततोगत्वा, एक मजबूत और सुनहरे भविष्य का निर्माण कर पाता है। आत्मनिर्भर व्यक्ति या देश प्रेम और आदर प्राप्त करता है और खुशहाल प्रसिद्ध एवं यशस्वी बनता है, विश्व का नेतृत्व कर सकता है।परहितकारों द्वारा की गई दया आत्म सम्मान के लिए भी घातक है। लेकिन, जब किसी वस्तु के लिए परिश्रम एवं अर्थ हम स्वयं खर्च करते हैं, खून पसीना एक करते हैं तो ऐसी स्थिति में नैतिक दृष्टिकोण बहुत ऊंचा और शांति भरा होता है। आत्मनिर्भरता से ही व्यक्ति समाज और देश की उन्नति होती है और वह निरंतर सफलता की ऊंचाइयों को छूता जाता है। शास्त्रों में भी कहा गया है- “यल्लमसे निज कर्मोपातम्, वित्त विनोदय चित्तम”…अर्थात स्वयं अर्जित किए गए धन का उपयोग करने में एक अकथनीय सुख की प्राप्ति होती है ।आत्मनिर्भरता राष्ट्र या समाज के प्रत्येक व्यक्ति में अद्भुत आत्मविश्वास उत्पन्न करती है और आत्मविश्वासी एवं कर्मठ व्यक्ति ही दुनिया की हर समस्या से जूझने को तैयार हो सकता है।परावलंबी सोच समाज और राष्ट्र को अपाहिज करती है,जबकि आत्मनिर्भरता अमृत का अक्षय स्रोत है।राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने बिल्कुल सही लिखा है- ” यह पापपूर्ण परावलंबी चूर्ण होकर दूर हो, फिर स्वावलंबन का हमें प्रिय पुण्य पाठ पढ़ाइए..” वास्तव में,आत्मनिर्भरता ही वह गुण है जो जीवन की कठिन राह को आसान बना देता है।स्वावलंबन में वह पुरुषार्थ छिपा है, जिसके आगे सारी वैश्विक शक्ति नतमस्तक हो सकती है।जो दूसरों के सामर्थ्य पर ऊँचाई पाते हैं,वे एक हल्के से आघात से जमींदोज हो सकते हैं क्योंकि दूसरों की सहायता हमारी स्वाभाविक क्षमता के विकास में बाधा बनती है, अपने पैरों को मजबूत बनाने का प्रयास ढीला पड़ जाता है और हर समय एक अनिश्चितता की तलवार लटकती रहती है।इसके विपरीत, जिस देश और समाज के नागरिक आत्मनिर्भरता की बुनियाद पर जीते हैं,वहाँ भूखमरी, बेरोजगारी, निर्धनता जैसी सामाजिक और आर्थिक समस्याएँ नहीं के बराबर होती हैं और वह समाज एवं वह देश उत्तरोत्तर उन्नति करता जाता है। एक समय था जब भारत सोने की चिड़िया कहा जाता था और काफी हद तक आत्मनिर्भर था।परंतु, कालांतर में विदेशी व्यापारियों ने खासकर अंग्रेजी हुकूमत ने इसी व्यापार के रास्ते भारत … Read more