गीता जयंती – करें श्रीमद्भगवद्गीता का रस पान

गीता जयंती -करें श्रीमद्भगवद्गीता का रस पान

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे   जिस दिन श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया था उस दिन मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी थी, इसीलिए इस दिन को गीता जयंती के रूप में मनाया जाता है। आज के दिन लोग गीता सुनते हैं, सुनाते हैं, और बाँटते हैं | उनका उद्देश्य होता है कि गीता के ज्ञान को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाया जाए| ये पूरी तरह से एक ऐसा ग्रन्थ है जो ना सिर्फ आध्यात्मिक बल्कि , सफलता , रिश्तों और सही जीवन शैली की व्याख्या करता है |  ये पूरी तरह से एक ऐसा ग्रन्थ है जो ना सिर्फ आध्यात्मिक बल्कि , सफलता , रिश्तों और सही जीवन शैली की व्याख्या करता है |  ये पूरी तरह से एक ऐसा ग्रन्थ है, जो ना सिर्फ आध्यात्मिक बल्कि, सफलता, रिश्तों और सही जीवन शैली की व्याख्या करता है |गीता की यात्रा अततः तो आध्यात्मिक ही होती है पर शुरुआत में ही ये चमत्कार हो जाए ऐसा नहीं होताl पढ़ने वाला जिस अवस्था या मानसिक दशा में होता है उसी के अनुसार उसे समझता है l यह गलत भी नहीं है, क्योंकि बच्चों कि दवाइयाँ मीठी कोटिंग लपेट के दी जाति है l  पर जरूरी है जिज्ञासु होना और उसे किसी धर्मिक ग्रंथ की तरह ना रट कर नए नये अर्थ विस्तार देना l गीता जयंती – करें श्रीमद्भगवद्गीता का रस पान   गीता की शुरुआत ही प्रश्न से होती है | प्रश्न और उत्तर के माध्यम से ही जीवन के सारे रहस्य खुलते जाते हैं | यूँ तो बचपन से ही मैंने गीता पढ़ी थी, पर पर गीता से मेरा विशेष अनुराग मेरे पिताजी के ना रहने पर शुरू हुआ | उस समय एक मित्र ने मुझे सलाह दी कि आप अपने पिता ने निमित्त करके गीता का १२ वां अध्याय रोज पढ़िए उससे आप को व् आपके पिता को उस लोक में शांति मिलेगी | उस समय मेरी मानसिक दशा ऐसी थी कि चलो ये भी कर के देखते हैं के आधार पर मैंने गीता पढना शुरू किया | मैंने केवल १२ वां अध्याय ही नहीं शुरू से अंत तक गीता को पढ़ा | बार –बार पढ़ा | कुछ मन शांत हुआ | जीवन के दूसरे आयामों के बारे में जाना | लेकिन जैसे –जैसे मैं गीता बार –बार पढ़ती गयी, हर बार कुछ नयी व्याख्या समझ में आयीं| दरअसल गीता एक ऐसा ग्रंथ है, जो पाठक के अंदर चिंतन कि प्रक्रिया प्रारंभ करती है l खुदी से ही खुदा मिलता है l एक आम समझ में गीता पुनर्जन्म की बात करती द्वैत दर्शन का ग्रंथ है पर आचार्य प्रशांत उसे अद्वैत से जोड़कर बहुत सुंदर व्याख्या करते हैं l जैसे जब कृष्ण कहते हैं, “इन्हें मारने का शोक मत करो अर्जुन ये तो पहले से मर चुके हैंl तो द्वैत दर्शन इसकी व्याख्या सतत जीवन में इस शरीर के निश्चित अंत की बात करता है, परंतु आत्मा अमर है वो अलग- अलग शरीर ले कर बार -बार जन्म लेती है l पर अद्वैत इसकी व्याख्या चेतना के गिर जाने से करता है l  जिसकी चेतना गिर गई, समझो उसकी मृत्यु ही हो गई l उसे जीवित होते हुए भी मारा समझो l ऐसे के वाढ से या मर जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता l द्वैत और अद्वैत दोनों ही भारतीय दर्शन के सिद्धांत हैं, जैसे रुचिकर लगे समझ सकते हैं l दोनों की मंजिल एक ही है l आजकल संदीप माहेश्वरी / विवेक बिन्द्रा विवाद वाले विवेक जी ने इसकी व्याख्या कोरपेरेट जगत के अनुसार की थी lउनकी “गीता इन एकशन”  जितनी लोकप्रिय हुई उसकी आलोचना भी कुछ लोगों ने यह कह कर की, कि गीता की केवल एक और एक ही व्याख्या हो सकती है l पर मेरे विचार से जैसे भूखे को चाँद भी रोटी दिखता है, तो उसे रोटी ही समझने दो l लेकिन वो चाँद की सुंदरता देखना सीखने लगेगा l जब पेट भर जाएगा तो चाँद की सुंदरता को उस नजरिए से देखने लगेगा जैसा कवि चाहता है l लेखक, गुरु, ऋषि को हाथी नहीं होना चाहिए l जरूरी है जोड़ना जो जिस रूप से भी पढ़ना शुरू कर दे, अगर चिंतन करता रहेगा तो आगे का मार्ग खुलता रहेगा l कुछ उद्धरणों के अनुसार इसे देखें, हम जिसे लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन कह कर अंग्रेजी पुस्तकों में पढ़ते हैं | हजारों साल पहले कृष्ण ने गीता में कहा है …. यं यं वापि स्मरण भावं, त्यजयति अन्ते कलेवरं जैसा –जैसा तेरा स्मरण भाव होगा तू  वैसा –वैसा बनता जाएगा | यही तो है लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन … आप जैसा सोचते हो वैसा ही आपके जीवन में घटित होता जाता है | जो कहता है कि आप की सोच ही आप के जीवन में होने वाली घटनाओं का कारण है l जैसे आप ने किसी की सफलता देख कर ईर्ष्या करी  तो आप की सोच नकारात्मक है और आप को सफलता मिलेगी तो भी थोड़ी l लेकिन अगर किसी की सफलता देखकर दिल खुश होकर प्रेरणा लेता है तो मन में उस काम को करने के प्रति प्रेम होगा नाकि जीतने का भाव l फिर तो उपलबद्धियाँ भी बेशुमार होंगी l इसी को तो फिल्म सरल लहजे में रणछोड़ दास छाछण उर्फ फुनशूक वाङडू समझाते हैं l कहने का अर्थ है विदेशी बेस्ट सेलर हों या देशी फिल्में … आ ये सारा ज्ञान गीत से ही रहा है l अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः संशय से बड़ा कोई शत्रु नहीं है क्योंकि ये हमारी बुद्धि का नाश करता है | आज कितने लोग जीवन में कोई भी फैसला ले पाने में संशय ग्रस्त रहते हैं | असफलता का सबसे बड़ा कारण संशय ही है | मैं ये कर पाऊंगा या नहीं की उधेड़ बुन  में काम आधे मन से शुरू किये जाते हैं या शुरू ही नहीं किये जाते | ऐसे कामों में असफलता मिलना निश्चित है | अब जरा इस श्लोक को देखिये … व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन | बहुशाखा ह्यनन्ताश्र्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् || ४१ || किसी लक्ष्य को पाने के लिए इससे बेहतर ज्ञान और क्या … Read more

अष्टावक्र गीता -2 

अष्टावक्र गीता

अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्त का महत्वपूर्ण ग्रंथ है | इसके रचियता महान ऋषि अष्टावक्र थे | कहा जाता है की उन्हें गर्भ में ही आत्मज्ञान प्राप्त हो गया था | उनका नाम अष्टावक्र उनके शरीर के आठ स्थान से टेढ़े -मेढ़े होने के कारण पड़ा | यह गीता दरअसल मिथिला के राज्य जनक को को उनके द्वारा दिए गए उपदेश के रूप में है जो प्रश्न उत्तर शैली में है | इस ज्ञान को प्राप्त करके ही राज्य जन्म विदेह राज कहलाये | आइए जानते हैं अष्टावक्र गीता के बारे में | अष्टावक्र गीता -2  अष्टावक्र गीता के बारे में जानने से पहले जरूरी है कि ऋषि अष्टावक्र के बारे में भी जान लिया जाए | हालांकि इस जानकारी से उस ज्ञान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा पर एक दिव्यअङ्ग बालक का आत्मबोध व ज्ञान से भरा  हुआ होना  आश्चर्य का विषय है तो प्रेरणा दायक भी | हालांकि अष्टावक्र के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं मिलती पर जितनी मिलती है उस आधार पर उनके प्रति श्रद्धा बढ़ती है | कौन थे अष्टावक्र अष्टावक्र को जानने के लिए उद्दालक ऋषि के आश्रम में जाना पड़ेगा |प्राचीनकाल में उद्दालक ऋषि के आश्रम में उनके एक शिष्य उनसे शिक्षा ग्रहण कर रहे थे | उनका नाम था कहोड़ | कहोड़ आत्मज्ञानी तो नहीं थे पर वेद मंत्रों आदि को कंठस्थ कर लेते थे | उद्दालक ऋषि की दो संतानें थीं एक पुत्री सुजाता और दूसरा पुत्र श्वेतकेतु | सुजाता और श्वेत केतु की उम्र में 15- 16 वर्ष का अंतर था | जब सुजाता विवाह योग हुई तो उद्दालक ऋषि ने कहोड़ से उनका विवाह किया | कहोड़ ज्ञानी नहीं थे वो वेद पाठी विद्वान थे | अक्सर उनके उच्चारण में गलतियाँ हो जाती थीं | अष्टावक्र की प्रारम्भिक शिक्षा  एक बार उन्होंने किसी श्लोक का आठ बार गलत उच्चारण किया तब अपनी माता के गर्भ में बैठे अष्टावक्र ने गर्भ से ही कहा पिताजी आपने आठ बार गलती की है इसे ऐसे कहें | कहोड़ को यह अपने ज्ञान का अपमान लगा |उन्होंने कुपित होकर अष्टावक्र को श्राप दिया,”तूने मेरी आठ बार गलतियाँ निकाली हैं जा  तेरा शरीर आठ जगह से वक्र हो जाए | कुछ कथाएँ कहती हैं कि उन्होंने गुस्से में सुजाता के पेट पर लात मार दी थी |जिस कारण वो पेट के बल गिर गईं थी और गर्भस्थ शिशु आठ जगह से मुड़ गया | जो भी हो इस घटना के बाद कहोड़ ऋषि को बहुत पश्चाताप हुआ और वो घर छोड़ कर चले गए | जगह -जगह जा  कर वो शास्त्रार्थ में भाग लेते और आगे बढ़ जाते | अष्टावक्र और शास्त्रार्थ  सुजाता अष्टावक्र के साथ अपने पिता उद्दालक ऋषि के आश्रम में चलीं आईं | अष्टावक्र अपने मामा श्वेतकेतु के साथ बड़े होने लगे | वहीं उन्होंने शिक्षा पाई | उनकी उम्र में दो -तीन वर्ष का ही अंतर था |अतः वे उद्दालक  को ही अपना पिता समझते थे | करीब 12 वर्ष की उम्र में खबर आई की राजा  जनक आत्म ज्ञान के लिए शास्त्रार्थ अपने दरबार में करवा रहें हैं |वहाँ उनके कहोड़ ऋषि भी गए हैं | जो सब पर विजय प्राप्त करने के बाद बंदी नामक ज्ञानी से हार रहे हैं |जब अष्टावक्र को इस बात का पता चला तो वह अपने पिता से मिलने राजमहल चले गए | वहाँ उनके आठ जगह से मुड़े शरीर को देखकर सब हंसने लगे | सबको हँसता देखकर अष्टावक्र भी हँसने  लगे | उनको हँसता हुआ देखकर राजा जनक को आश्चर्य हुआ |उन्होंने पूछा,”सब तो तुझे देखकर हँस रहे हैं पर हे  बालक तुम क्यों हँस रहे हो ?” अष्टावक्र बोले ,”हे  राजन ! मैं इस बात पर हँस रहा हूँ कि यहाँ चमड़े के व्यापारियों के मध्य आत्मबोध पर चर्चा हो रही है |तो फिर कैसी जीत और कैसी हार |’ उनका उत्तर सुन कर राजा  जनक ने फिर कहा,”बालक ! इतने बड़े विद्वानों को चमड़े का व्यापारी कहने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई ?” अष्टावक्र बोले,”हे  राजन ! जिस तरह से घड़ा टेढ़ा होने पर आकाश टेढ़ा नहीं होता उसी तरह से मेरा शरीर टेढ़ा होने से मैं यानि आत्मस्वरूप ईश्वर कैसे टेढ़ा हो गया | इन्हें मेरा टेढ़ा शरीर दिखता है पर उसके भीतर मैं नहीं दिखता तो फिर हो गए ना ये चमड़े के व्यापारी |” राजा जनक निरुत्तर हो गए | उन्हे स्वयं भी उस बच्चे हंसने के लिए अपराध बोध हुआ | तभी अष्टावक्र ने बंदी से शास्त्रार्थ करने की इच्छा व्यक्त की | ये शास्त्रार्थ पढ़ी हुई विधा पर था पर एक श्लोक पर आकर बंदी अटक गए | अष्टावक्र ने वो श्लोक पूरा किया और विजयी घोषित हुए | उन्होंने बंदी द्वारा हराए गए सभी विद्वानों  को राजा  जनक के कारागार से मुक्त कराया | अपने पिता कहोड़ को पा कर अष्टावक्र बहुत प्रसन्न हुए | उस रात  राजा जनक सो ना सके | उन्हें समझ आ गया कि ये बालक कोई साधान बालक नहीं है और इसके पास अवश्य ही मेरे सारे प्रश्नों का हल होगा | राजा जनक को आत्मबोध  अगले दिन राजा जनक उन्हें ढूंढते हुए एक आश्रम के पास पहुंचे वहाँ वो खेल रहे थे | राज्य जनक ने उनसे आत्मबोध करने की इच्छा की |   कहा जाता है कि राजा जनक जब घोड़े से उतर रहे थे |उनका एक पैर रकाब पर था और एक हवा में तभी अष्टावक्र ने उन्हें शिक्षा देनी शुरू की |इस असुविधा जनक स्थिति में वो घंटों आत्ममुग्ध से बने रहे | जब उन्होंने पैर जमीन पर रखा तब तक उन्हें आत्मबोध हो चुका था | जनक विदेहराज बन चुके थे |ऐसे में उनका राज्य  पर शासन करने का मन भी नहीं रह गया था |तब अष्टावक्र ने ही उन्हें समझाया था की अब वो ज्यादा अच्छा शासन कर पाएंगे |जनता का अधिकार है कि कोई विदेह राजा उनके राज्य को संभाले | ये सारा ज्ञान 20 अध्यायों  में निहित है जो आध्यात्मिक पथ के सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न “मैं कौन हूँ ” का उत्तर देता है | इसके बाद सारा अंधियारा नष्ट हो जाता है | सरल से बीस अध्याय  का अर्थ सहज है पर उन्हें आत्मसात  करने के लिए व्याख्या आवश्यक है … Read more

अष्टावक्र गीता -1

अष्टावक्र गीता

अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्त का महत्वपूर्ण ग्रंथ है | इसके रचियता महान ऋषि अष्टावक्र थे | कहा जाता है की उन्हें गर्भ में ही आत्मज्ञान प्राप्त हो गया था | उनका नाम अष्टावक्र उनके शरीर के आठ स्थान से टेढ़े -मेढ़े होने के कारण पड़ा | यह गीता दरअसल मिथिला के राज्य जनक को को उनके द्वारा दिए गए उपदेश के रूप में है जो प्रश्न उत्तर शैली में है | इस ज्ञान को प्राप्त करके ही राज्य जन्म विदेह राज कहलाये | आइए जानते हैं अष्टावक्र गीता के बारे में | अष्टावक्र गीता -1 आखिर क्या कष्ट रहा होगा बुद्ध को कि नवजात शिशु और अप्रतिम सुंदरी पत्नी यशोधरा को छोड़कर  इस संसार को दुख से मुक्त करने के लिए निकल गए | क्या दुख रहा होगा महावीर को कि राज महल के वैभव उन्हें बांध नहीं सके | दुख का कारण था एक ही प्रश्न ..संसार में इतने दुख क्यों हैं ?क्या कोई तरीका है कि संसार को इन दुखों से मुक्ति मिल जाए | क्या हम और आप दुखों के जंजाल में घिर कर ये नहीं सोचते हैं कि आखिर क्या कारण है कि ईश्वर ने ये ये दुनिया बनाई और उसमें रोग, कष्ट , विछोह, मृत्यु जैसे दुख उत्पन्न कर दिए | आखिर क्या मजा आता होगा उस ईश्वर को ये खेल खेलने में ? इस पर हसरत जयपुरी जी का लिखा हुआ एक बहुत ही प्रसिद्ध गीत भी  है .. दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई .. काहे को दुनिया बनाई ..   ऐसे में कोई आप से आकर कह दे कि ये आप ने ही बनाई है आप ही इसके कर्ता -धर्ता और नियंता हो .. तो ? अहं ब्रह्मास्मि .. शिवोहम  तो फिर स्वाभाविक सा प्रश्न होगा ,”फिर हमें क्यों नहीं पता ?” उत्तर है :मन और बुद्धि ने हमें भरमाया हुआ है | ठीक वैसे ही जैसे आइस -पाइस के खेल में बच्चे अपनी आँख पर खुद ही पट्टी बांधते हैं और सामने दिखाई देने वाली चीजों को पट्टी के कारण नहीं देख पाते और यहाँ-वहाँ टकराते जाते हैं | ये खेल हमीं ने चुना है | विभिन्न प्रकार के सुख -दुख हमारे बनने के काल समय और परिस्थिति पर निर्भर करते हैं | ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या  हम अपने ही बनाए इस जगत को इंद्रियों  द्वारा देखने -सुनने समझने के लिए विभिन्न जड़ -चेतन , जीव -जन्तु वनस्पति के रूप में आकार लेते हैं | ये बनना हमारा वैसे ही स्वभाव है जैसे लहर उठना समुद्र का स्वभाव है | जैसे समुद्र में उठने वाली लहर पानी से अलग नहीं है |वैसे ही समग्र चेतना  हमारे अंदर समाई है |अज्ञान वश  हम अपने को अलग समझते हैं और यही दुख का कारण है | फिर इससे मुक्ति कैसे हो ? (इस आत्म स्वरूप को समझने के लिए द्वैत और अद्वैत दो सिद्धांत है ) अष्टावक्र कहते हैं ,“अभी और इसी वक्त “ जैसे सूर्य के उदय होते ही अंधकार मिट  जाता है |वैसे ही अज्ञानता की पट्टी उतारते ही एक पल में बोध हो जाता है | और ये सबके लिए एक ही सच है | इसका किसी धर्म  से जाति संप्रदाय से कोई लेना देना नहीं है | इसके लिए कोई विशेष विधि, अनुष्ठान , प्राणायाम करने की आवश्यकता नहीं है | अब सवाल ये है कि इतना सहज ज्ञान होने के बाद भी अष्टावक्र गीता इतनी प्रसिद्ध क्यों नहीं है ? इसका एक मात्र कारण है कि मनुष्य का स्वभाव है कि उसे कठिन पर विजय प्राप्त करने में आनंद आता है | कोई चीज सहज और सरल है तो उसको करने का उतसह ही जाता रहता है | कभी बच्चों को खाना बनाना सिखाना शुरू करिए तो देखेंगे उन्हें दाल -चावल सीखने में आनंद नहीं आता | ये तो रोज का खाना है |इसमें क्या मजा |मटर -पनीर से शुरू करें तो कोई बात है और आजकल तो यू ट्यूब से देखकर कोई अनोखी चीज से ही शुरू करने का मन करता है | अडवेंचर पार्क में सबसे कठिन झूले पर बैठना है | गणित का सबसे कठिन सवाल हल करना है | आत्म बोध इतना ही आसान है तो उसका आनंद ही खत्म हो जाता है | अष्टावक्र जिस बात को इतनी सीधी और सरल भाषा में कहते हैं |द्वैत सिद्धांत में इसके लिए तमाम अनुष्ठान जप तप भी हैं |वहीं हठ योग ये मानता ही नहीं नहीं कि जिस शरीर ने ये सारा भेद उत्पन्न किया है उसे दंड दिए बिना बोध हो भी सकता है | इसलिए कोई खड़ा राहकरकर शरीर को कष्ट देता है तो कोई एक हाथ का इस्तेमाल न करके | हाथ सूख कर लकड़ी हो जाता है | बहुत कष्ट सहने के बाद कष्ट रहित अवस्था आती है | पर एक हाथ सदा के लिए बेकार हो जाता है | पर उसे उसी में आनंद आता है | ओशो अपने प्रवचन में एक कहानी सुनाया करते हैं |  एक बार मुल्ला नसीरुद्दीन अपने दोस्तों के साथ मछली पकड़ने गए | दो बगल बगल तलब बने हुए थे |जो तालाब मछलियों से लबालब भरा हुआ था ,सारे दोस्त वहीं मछलियाँ पकड़ने लगे | झाटझट मछलियाँ पकड़ में आने लगीं  |वो खुशी से चिल्ला रहे थे |मुल्ला बगल के तालाब में चले गए |उसमें मछलियाँ नहीं थीं | सारा दिन कांटा डाले बैठे रहे | मछली एक भी नहीं फंसी |एक व्यक्ति उन्हें लगातार देख रहा था |उनके पास जाकर बोला ,”आप उस तालाब में मछली पकड़ें यहाँ पर नहीं हैं | मुल्ला बोले,”वहाँ सब पकड़ रहें हैं |तालाब मछलियों से भर हुआ है वहाँ मछली पकड़ी तो क्या पकड़ी |यहाँ पकडू तो कोई बात है |” दरसल आसान काम से हमारा अहंकार तुष्ट नहीं होता | इसलिए उसको करने में रुचि नहीं रहती |  महात्मा  बुद्ध के बारे में कहा जाता था कि जब उन्होंने घर छोड़ कर भोग का त्याग किया और साधु  सन्यासियों की शरण ली तो भी उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ |उन्होंने वो सब किया जो करना को कहा गया पर ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ | आत्म बोध नहीं हुआ | मन बहुत निराश हुआ | भोग को भी त्याग और योग को भी त्यागा तब … Read more

व्यष्टि से समष्टि की ओर

mahima shree

    ये दौर भी बीत जाएगा। परिवर्तन प्रकृति का मूल स्वभाव है। यहाँ कुछ भी स्थाई नहीं है । मनुष्य अपने आविष्कारों के दंभ में सोचता है कि उसने प्रकृति पर विजय पा ली है। जो वह चाहेगा सब एक दिन पा सकता है।किंतु प्रकृति ने कोरोना महामारी के बहाने से एक बार फिर मनुष्य को सकल ब्रहमांड में उसकी कमजोर स्तिथि से पुन: परिचय करवा दिया। झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद। खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद। कबीर कहते हैं कि अरे जीव ! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है। कोरोना ने एक इंसान को नहीं पूरी दुनिया को अपने सामने घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। तेज रफ्तार से दौड़ती दुनिया थम गई है। कोरोना ने जैसे आ के कह दिया… स्टैचू । जहाँ हो वही बने रहो। बहुत भाग लिए। ठहरो जरा! मौका मिला है तो सोचो। क्या खोया क्या पाया अब तक! अपनों के बीच रहो। जानो उन्हें। कितना जानते हो उन्हें जिनके लिए इतनी मेहनत-मशक्कत कर रहे थे। अपने आपको जानो। जो कर रहे थे अब तक। क्या वह तरीका सही था। क्या वाकई वही करना था। कब अपने बुर्जुगों के बीच बैठे थे। कितने वर्ष पहले उनके र्थर्थराते हाथों को अपने हाथ में लेकर कहा था आप कैसे हैं? हम सब आपके पास हैं। कबीर दास कहते हैं- दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय । जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय। जब जीवन में दुख आता है, कठिनाईयां आती हैं। ।तभी अपनों की याद आती हैँ।तभी उस परम सत्ता की याद आती है।जिसने इस अखिल विश्व को रचा है। व्यष्टि से समष्टि की ओर कोरोना काल ने बहुत बुरे दिन दिखाये हैं।अभी तक वैक्सीन नहीं बन पाया। अमेरीका जैसा  शक्ति-संपन्न देश भी अपने नागरिकों के लिए कुछ नहीं कर पाया।लाखों लोग मारे जा चुके हैं। आंकड़े दहला देने वाले हैं।हमारे देश में भी यह तेजी से फैल रहा है।जो डॉक्टर्स कोरोना मरीजों के ईलाज में लगे हुए हैं उनकी जान पर खतरा लगातार बना हुआ है।शुरुआत में कईयों की जान गई।   कल तक “बी पॉजिटिव “जब डॉक्टर किसी मरीज को हौसला देने के लिए कहते तो एक शुभकामना मंत्र की तरह वह उच्चारित होता था। आज वही शब्द किसी व्यक्ति को जब डॉक्टर कहते हैं तो उसे अपनी मौत सामने दिखने लगती होगी। वहीं जांच की रिपोर्ट आने के बाद “आपकी रिपोर्ट निगेटिव है” कहे जाने पर “जान बची लाखों पाए “की अनुभूति से भर जाता होगा। समय ने शब्दों के मायने बदल दिए।जीने के तरीके में न चाहते हुए कई बदलाव लाने पड़े।रहन-सहन, खान-पान के तरीकों में विशेष सावधानी रखने के प्रयास में कई  अच्छी आदतों का समावेश हो गया।कई बुरी आदतों ने धीरे से खुद ही किनारा कर लिया। रिश्तों में नई गर्माहट , नई ऊर्जा भर दी है। दुख ने सबको करीब कर दिया। आइसोलेशन के इस फेज ने सबको सबके करीब कर दिया।अलग होते हुए भी सुख भी साझा। दुख भी साझा।हमारी सांझी संस्कृति रही हैं विविधताओं में भी हमने सांझापन खोज लिया था। आधुनिक जीवन शैली ने हमें व्यक्तिनिष्ठ बना दिया था। हम आपसी संबंधों में ऑफिस में, समाज में हर वक्त एक अजीब तरह की मानसिक असुरक्षा , भविष्य की चिंता में घिरे रहते थे। संबंधों में एक अदृश्य खिंचाव रहता था। ऑफिस हो या घर संशकित दृष्टि से तौलने , खुद को ज्यादा काबिल की समझने की ग्रंथि से लैस , संबंधों की गरिमा खो बैठे थे। अपना सुख प्यारा, अपना दुख सबसे बड़ा दुख की सोच हमें कितना छोटा कर देता है। ये समझ आ रहा है। हर इंसान किसी न किसी रोग या समस्या से दुखी है परेशान है। पर जीवन तो है उसके पास। अचानक सामने खड़ी मौत से तो उसका सामना नहीं हो रहा। जो अपनों के स्नेहिल छांव में समय बीता रहे हैं। वे भाग्यशाली हैं। भले ही किसी पीड़ा से गुजर रहे हों । पर वह अकेला तो नहीं है न। कितने लोग अकेले फंसे है। अवसाद , निराशा से जुझ रहे हैं। कामगार वर्ग भय से सड़को पर निकल आया है। घर से दूर और रोजगार नहीं मिलने की आशंका उन्हें मौत के मुंह मे ढकेल दिया है। उन्हें सही तरीके से समझाने और सुरक्षा देने की कोशिश में सरकार और समाजसेवी लगे हुए हैं। इस समय सबको सबका सानिध्य चाहिए। लोग इस तरह सोचने लगे हैं। सोच बदली है और ये सोच साकारात्मकता की ओर ले जा रही है। सहायिका/सहायक का जीवन भी जीवन हैं।अपने साथ-साथ उनकी जिंदगियां भी कीमती हैं।हर घर में ये सोच आई है या लाई गई जैसे भी। समाज में समानता व मानवीय दृष्टिकोण में वृद्धि हुई है। मौत के भय ने सबको एक ही प्लेटफार्म पर ला दिया है। लेकिन यह भी सच है कि लगातार लोगों की नौकरियां जा रही हैं। रोज ही किसी न किसी फर्म में छंटनी हो रही है । या पूरा फर्म ही बंद किया जा रहा है।हजारों लोगों के जीवन में जीविका का आसन्न संकट आ खड़ा हुआ है। बिजनेस ठप्प पड़ा हुआ है। मॉल बंद होने के कगार पर हैं।ई-बिजनेस थोड़ा संभला है।भारत विश्व के साथ मिलकर अपनी जीजिविषा के सहारे इस संकटकाल को पार कर जाने का प्रयत्न कर रहा है। आज पूरी विश्व की सोच व्यष्टि से समष्टि की ओर उन्मुख हो रही है। उत्तरोत्तर ये सोच और बढ़े । यही मंगलकामना। महिमा श्री   परिचय:- शिक्षा:- स्नातकोत्तर- पत्रकारिता व जनसंचार (मा.च.रा.प.ज.वि.),  एम.सी.ए.(इग्नु) -सीनियर फेलोशिप(2019-2020)मिनिस्ट्ररी ऑफ कल्चर,नई दिल्ली -स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता -एकल काव्य संकलन “अकुलाहटें मेरे मन की”, अंजुमन प्रकाशन 2015, -कई साझा संकलनों में कविताएं व लघुकथा प्रकाशित -देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और ब्लाग्स में रचनाएं प्रकाशित मेल:- mahima.rani@gmail.com Blogs:www.mahimashree.blogspots.com      

सोहम या सोऽहं ध्यान साधना-विधि व् लाभ

आज के तनाव युक्त जीवन में हम बहुत कम आयु में ही तमाम मनोशारीरिक रोगों का शिकार हो रहे हैं | एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ तनाव , जीवनशैली में बदलाव आदि इसके कारण हैं |  ऐसे में जरूरी है कि शुरू से ही इस ओर ध्यान दिया जाए | ध्यान या मेडिटेशन के द्वारा हम अपने मनोभावों को नियंत्रित कर सकते हैं व् तनाव रहित बेहतर जिन्दगी जी सकते हैं | सोहम या सोsहं  साधना ध्यान की एक ऐसी ही विधि है | सोहम या सोऽहं ध्यान साधना  जब हम प्राण शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो हमारा सबसे पहले ध्यान साँसों पर जाता है | सांस अन्दर लेने और बाहर निकालने की प्रक्रिया ही जीवन है | सांस लेना छोड़ते ही व्यक्ति मृत हो जाता है | जीवन जीने के लिए साँसों का बहुत महत्व है और इन्हीं साँसों का इस्तेमाल हम सोहम या सोऽहं ध्यान साधना में करते हैं | सबसे पहले तो हमें ये समझना होगा कि ध्यान का अर्थ है अपने को या अपनी असीमित उर्जा को पहचानना | जिस तरह से मानुष का बच्चा मनुष्य , घोड़े का बच्चा घोडा , गाय का बच्चा गाय ही होता है उसी तरह से परमात्मा जिसे हम परमपिता भी कहते हैं की संतान हमारी आत्मा भी बिलकुल उन्हीं की तरह है यानि परमात्मा की तरह ही हमारी आत्मा भी सर्वशक्तिमान है पर हम उसे पहचान नहीं पाते हैं क्योंकि हम अपनी शारीरिक पहचान में खोये रहते हैं | ध्यान के द्वारा हम अपनी असली पहचान को जान पाते हैं | हम जान पाते हैं कि हम सब अमर  व् असीमित उर्जा स्वरुप  परमात्मा हैं …सोऽहं  जैसा वो वैसे ही हम |अगर विज्ञानं की भाषा में कहें तो ये कुछ breathing techniques हैं , जिसके द्वारा हम अपनी साँसों को नियंत्रित करते हैं | कैसे करते हैं सोहम या सोऽहं ध्यान साधना  सोहम या सोऽहं ध्यान साधना  में अपनी साँसों पर ध्यान देना है | प्रकृति में हर चीज में एक ध्वनि है चाहें वो हमें सुनाई दे या ना दे | एक छोटे से इलेक्ट्रान और भूकंप की ध्वनि को भले ही हम ना सुन पाए पर हम सब जानते हैं कि उसका अस्तित्व है | कहते हैं कि ॐ एक ऐसे ध्वनि है जिस पर पूरा ब्रह्माण्ड कम्पन कर रहा है , इसे अंतर्नाद भी कहते हैं | हमारी सासों में भी एक ध्वनि है जो उसी ब्रह्मांडीय ध्वनि का एक रूप है | जब हम अपनी साँसों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं तो हमें महसूस होता है कि हम सां लेते समय सो अ अ अ अ की धवनि होती है अ अ अ की ध्वनि जब वायु का आदान प्रदान हमारे फेफड़े के कोशों के बीच में हो रहा हो तब होता है | वायु के निकलते समय हं कि ध्वनि होती है | जैसे जैसे ध्यान गहरा होता जाता है ये साफ़ -साफ़ सुनाई देने लगती है | सोहम या सोऽहं  ध्यान साधना की विधि  वैसे तो आप इसे किसी भी समय कर सकते हैं पर सूर्योदय का समय सबसे अच्छा रहता है .. १ ) सूर्योदय के समय किसी खुले स्थान पर बैठ जाएँ |अगर पद्मासन में नहीं बैठ पा रहे हैं तो कुर्सी पर बैठ जाएँ और पैरों से क्रॉस बनाएं , हाथों की उँगलियों को आपस में फंसा कर रखें |  सुनिश्चित करें की आप एक आरामदायक अवस्था में बैठे हैं और आपका सारा शरीर मन , दिमाग सुकून में है , तभी आप् साँसों पर ध्यान केन्द्रित कर पाएंगे | २)  अपनी रीढ़ की हड्डी सीढ़ी रखें | इससे पेल्विस, फेफड़े और सर एक सीढ़ी रेखा में आ जाते हैं और साँस निर्विघ्न व् दिमाग ज्यादा चेतन और रिलैक्स अवस्था में रहता है | 3) सांस अंदर लें और सो s s की ध्वनि पर ध्यान केन्द्रित करें | 4) सांस  थोड़ी देर रोकें | 5) सांस बाहर करते हुए हं कि ध्वनि पर ध्यान केन्द्रित करें | 6) सोहम या सोsहं मतलब जो तुम हो वाही हम हैं … सांस लेते समय महसूस करें की सांस के साथ ईश्वर आपके अन्दर प्रवेश कर रहा है और जो निकल रहा है वो आप हैं … दोनों में अंतर नहीं है , आप ही ईश्वर का रूप हैं |   सोहम या सोSहं ध्यान साधना के लाभ                                        सोहम ध्यान साधना मन मष्तिष्क और शरीर तीनों के लिए लाभप्रद है | आइये जानते हैं इसके विभिन्न लाभों के बारे में … आध्यात्मिक लाभ                     आज का जीवन तनाव युक्त जीवन है | सोहम ध्यान साधना मन व् विचारों को थामती है जिससे तनाव कम हो जाता है , गुस्सा कम आने लगता है व् मन शांत रहने लगता है | एक बार ब्रह्मकुमारी शिवानी ने अपने प्रवचन में कहा था कि आश्रम में आपका मन क्यों शांत रहता है ? लोगों का उत्तर था क्योंकि यहाँ तनाव पैदा करने वाले कारक नहीं होते | शिवानी जी ने कहा , नहीं यहाँ हम ध्यान द्वारा मन को संयमित करना करते हैं , तो कारक हावी नहीं हो पाते , बाहर जा कर करक हावी हो जाते हैं | इस कारण ध्यान जरूरी है चाहें आश्रम  में रहे या बाहर | खून का सही प्रवाह                                   जिन लोगों को भी कमर या घुटने के दर्द की तकलीफ है उन्होंने महसूस किया होगा कि जब वो तनाव करते हैं तो दर्द बढ़ जाता है | दर्द बढ़ने का कारण मांस पेशियों में तनाव के कारण हुआ खिंचाव है | सोहम ध्यान विधि से  सांस पूरी और सही तरीके से जाती है , सुबह की खुली हवा में प्रयाप्त ओक्सिजन मिलती है , मन के रिलैक्स होते ही खून का प्रवाह सही होता है , मांस-पेशियों का तनाव भी कम होता है जिस कारण दर्द में आराम मिलता है | दिमाग व् शरीर के मध्य समन्वय                                      … Read more