परछाइयों के उजाले 

प्रेम को देह से जोड़ कर देखना उचित नहीं पर समाज इसी नियम पर चलता है | स्त्री पुरुष मैत्री संबंधों को शक की निगाह से देखना समाज की फितरत है फिर अगर बात प्रेम की हो …शुद्ध खालिस प्रेम की , तब ? आज हम भले ही प्लैटोनिक लव की बात करते हैं पर क्या एक पीढ़ी पीछे ये संभव था | क्या ये अपराध बोध स्वयं प्रेमियों के मन में नहीं था | बेनाम रिश्तों की इन पर्चियों के उजाले कहाँ दफ़न रह गए | आइये जानते हैं कविता वर्मा जी की कहानी से … परछाइयों के उजाले    सुमित्रा जी है? दरवाजे पर खड़े उन सज्जन ने जब पूछा तो में बुरी तरह चौंक पड़ी। करीब साठ बासठ की उम्र ऊँचा पूरा कद सलीके से पहने कपडे,चमचमाते जूते, हाथ में सोने की चेन वाली महँगी घडी, चेहरे पर अभिजात्य का रुआब, उससे कहीं अधिक उनका बड़ी माँ के बारे में यूं नाम लेकर पूछना. यूं तो पिछले एक महिने से घर में आना जाना लगा है, लेकिन बड़ी माँ, जीजी, भाभी, बुआ, मामी, दादी जैसे संबोधनों से ही पुकारी जाती रहीं हैं, ये पहली बार है की किसी ने उन्हें उनके नाम से पुकारा है और वो भी नितांत अजनबी ने। मैं  अचकचा गयी.हाँ जी हैं आप कौन? उनका परिचय जाने बिना मैं बड़ी माँ से कहती भी क्या? उनसे कहिये मुरादाबाद से सक्सेना जी आये हैं. उन्हें ड्राइंग रूम में बैठा कर मैंने पंखा चलाया और पानी लाकर दिया. क्वांर की धूप में आये आगंतुक को पानी के लिए इंतज़ार करवाना भी तो ठीक नहीं था. आप बैठें मैं बड़ी माँ को बुलाती हूँ. लगभग एक महिने की गहमा गहमी के बाद बस कुछ दो-चार दिनों से ही सब कुछ पुराने ढर्रे पर आया है.पापा भैया काम पर गए हैं घर में कोई भी पुरुष सदस्य नहीं है.मम्मी भाभी सुबह की भागदौड के बाद दोपहर में कुछ देर आराम करने अपने अपने कमरों में बंद हैं.बड़ी माँ तो वैसे भी अब ज्यादातर अपने कमरे में ही रहती हैं.मैं भी खाली दुपहरी काटने के लिए यूं ही बैठे कोई पत्रिका उलट-पलट रही थी,तभी गेट खोल कर इन सज्जन को अन्दर आते देखा.घंटी बजने से सबकी नींद में खलल पड़ता इसलिए पहले ही दौड़ कर दरवाजा खोल दिया. बड़ी माँ के कमरे का दरवाज़ा धीरे से खटखटाया वह जाग ही रहीं थीं। कौन है?अन्दर आ जाओ। कुर्सी पर बैठी वह दीवार पर लगी बाबूजी और उनकी बड़ी सी तस्वीर को देख रहीं थीं.मुझे देखते ही उन्होंने अपनी आँखों की कोरें पोंछी।  मैंने पीछे से जाकर उनके दोनों कन्धों पर अपने हाथ रख दिए. बड़ी माँ को ऐसे देख कर मन भीग जाता है। एक ऐसी बेबसी का एहसास होता है जिसमे चाह कर भी कुछ नहीं किया जा सकता। कुछ नहीं रे बस ऐसे ही बैठी थी. उन्होंने मुस्कुराने की कोशिश की.तू क्या कर रही है सोयी नहीं? बड़ी माँ आपसे मिलने कोई आये हैं। कौन हैं?उन्होंने आश्चर्य से पूछा माथे पर सलवटें उभर आयीं शायद वह याद करने की कोशिश कर रहीं थी की अब कौन रह गया आने से? कोई सक्सेना जी हैं मुरादाबाद से आये हैं.बड़ी माँ के चेहरे पर अचानक ही कई रंग आये और गए। ऐसा लगा जैसे वह अचानक ही किसी सन्नाटे में डूब गयीं हों। वह कुछ देर बाबूजी की तस्वीर को देखती रहीं फिर उन्होंने पलकें झपकाई और गहरी सांस छोड़ी. उन्हें बिठाओ कुछ ठंडा शरबत वगैरह बना दो में आती हूँ. कुछ नाश्ता और शरबत लेकर जब मैं ड्राइंग रूम में पहुंची तो दरवाजे पर ही ठिठक गयी। वह अजनबी सज्जन बड़ी माँ के हाथों को अपने हाथों में थामे बैठे थे। मेरे लिए ये अजब ही नज़ारा था जिसने मेरे कौतुक को फिर जगा दिया, आखिर ये सज्जन हैं कौन? पहले उन्होंने बड़ी माँ को नाम से पुकारा फिर अब उनके हाथ थामे बैठे हैं. बाबूजी के जाने के बाद पिछले एक महिने में मातम पुरसी के लिए आने जाने वालों का तांता लगा था.दूर पास के रिश्तेदार जान पहचान वाले कई लोग आये।कुछ करीबी रिश्तेदारों को छोड़ दें जो बड़ी माँ के गले लगे बाकियों में मैंने किसी को उनके हाथ थामे नहीं देखा। तो आखिर ये हैं कौन? मैंने ट्रे टेबल पर रख दी। उन सज्जन ने धीरे से बड़ी माँ का हाथ छोड़ दिया। बड़ी माँ वैसे ही खामोश बैठी रहीं। जैसे कुछ हुआ ही न हो। कहीं कोई संकोच कोई हडबडाहट नहीं। जैसे उनका हाथ पकड़ना कोई नया या अटपटा काम नहीं है। बड़ी माँ को मैंने हमेशा एक अभिजात्य में देखा है. उन्हें कभी किसी से ऐसे वैसे हंसी मजाक करते नहीं देखा।छुट्टियों में जब बुआ, मामी, भाभी सब इकठ्ठी होती तब भी उनकी उपस्थिति में सबकी बातों में हंसी मजाक की एक मर्यादा होती थी।फिर उनकी अनुपस्थिति में सब चाहे जैसी चुहल करते रहें। बाबूजी के साथ भी वह ऐसे हाथ पकडे कभी ड्राइंग रूम में तो नहीं बैठी। एक बार छुटपन में छुपा छई खेलते मैं उनके कमरे का दरवाजा धडाक से खोल कर अन्दर चली गयी थी बाबूजी ने बड़ी माँ का हाथ पकड़ रखा था। लेकिन मुझे देखते ही उन्होंने तेज़ी से अपना हाथ छुड़ा लिया था जैसे उनकी कोई चोरी पकड़ा गयी हो।लेकिन आज वह बिना किसी प्रतिक्रिया के चुपचाप बैठी हैं,मानों उन सज्जन का उनका हाथ पकड़ना बहुत सामान्य सी बात है। लेकिन वे सज्जन आखिर हैं कौन? मैं इसी उहापोह में खड़ी रही तभी बड़ी माँ ने मेरी ओर देखा हालांकि उन्होंने कुछ कहा नहीं लेकिन उन नज़रों का आशय में समझ गयी। वे कह रहीं थीं मैं वहां क्यों खड़ी हूँ?   बड़ी माँ, मम्मी को बुला लाऊं? मैंने अपने वहां होने को मकसद दिया? नहीं रहने दो। संक्षिप्त सा उत्तर मिला जिसका आशय मेरे वहां होने की अर्थ हीनता से था।   मैं वहां से चुपचाप चल पड़ी लेकिन वह प्रश्न भी मेरे साथ ही चला आया था की आखिर वे सज्जन हैं कौन? एक बार नाश्ते की ट्रे उठाने मैं फिर वहां गयी। उनके बीच ख़ामोशी पसरी थी शायद उनका वहां होना ही बड़ी माँ के लिए बहुत बड़ी सान्तवना थी और उसके लिए शब्दों की जरूरत नहीं थी। बड़ी माँ कुछ और लाऊं? उन्होंने इनकार में सिर हिला दिया और मैं खाली ट्रे में अपने कौतुक के साथ वापस आ गयी।वे … Read more