काव्य कथा – वो लड़की थी कुछ किताबी सी

काव्य कथा -वो लड़की थी कुछ किताबी सी

काव्य कथा, कविता की एक विधा है, जिसमें किसी कहानी को कविता में कहा जाता हैं l काव्य कथा – वो लड़की थी कुछ किताबी सी में गुड्डो एक किताबी सी लड़की है , जिसे दुनिया की अच्छाई पर विश्वास है l उसकी दुनिया सतरंगी पर उसके प्रेमी को उसके सपने टूट जाने का डर है l सपने और हकीकत की इस लड़ाई में टूटी है लड़की या उसका प्रेमी या कि पूरा माजरा ही अलग है l आइए जाने इस काव्य कथा में …   काव्य कथा – वो लड़की थी कुछ किताबी सी   दिन रात किताबों में घिरी रहने वाली वो लड़की थी कुछ किताबी सी ऐसा तो नहीं था कि उसके रोने पर गिरते थे मोती और हंसने पर खिलते थे फूल पर उसकी दुनिया थी सतरंगी किसी खूबसूरत किताब के कवर जितनी हसीन उसे भरोसा था परी कथाओं पर भरोसा था दुनिया कि अच्छाई और सच्चाई पर उसे लगता था एक दिन दुनिया सारे अच्छे लोग सारे बुरे लोगों को हरा देंगे शायद वो देखती थी यही सपने में और सोते समय एक मुस्कुराहट तैरती थी उसके ज़रा से खुले गुलाबी होंठों पर उसके चेहरे पर आने-जाने वाला हर रंग पढ़ा जा सकता था किसी सूफियाना कलाम सा किसी मस्त मौला फ़कीर की रुबाइयों सा रामायण की चौपाइयों सा और दिन में, उसकी कभी ना खत्म होने वाली बातों में होती थी जादू की छड़ी होती थी सिंडरेला टेम्पेस्ट की मिरिंडा फूल, धूप, तितलियाँ और बच्चे गुड्डो, गुड़िया, स्वीटी, पिंकी यही नाम उसे लगते थे अच्छे और हाँ! कुछ बेतकल्लुफ़ी के इज़हार से गुड्डो,  नाम दिया था मैंने उसे प्यार से झूठ नहीं कहूँगा मुझे उसकी बातें सुनना अच्छा लगता था घंटों सुनना भी अच्छा लगता था पर… मुझे कभी-कभी डर लगता था उससे उसके सपनों से उसके सपनों के टूट जाने से इसलिए मैं जी भर करता था कोशिश उसे बताने की दुनिया की कुटिलताओं, जटिलताओं की और हमेशा अनसुलझी रह जाने वाली गुत्थियों की ये दुनिया है, धोखे की, फरेब की, युद्ध की मार-पीट, लूट-पाट, नोच-खसोट की कि धोखा मत खाना चेहरों से वो नहीं होते हैं कच्ची स्लेट से कि हर किसी ने पोत रखा है अलग-अलग रंगों से खुद को छिपाने को भीतर का स्याह रंग और हर बार वो मुझे आश्चर्य से देखती अजी, आँखें फाड़-फाड़ कर देखती और फिर मेरी ठुड्डी को हिलाते हुए कहती धत्त ! ऐसा भी कहीं होता है फिर जोर से खिलखिलाती और भाग जाती भागते हुए उसका लहराता आँचल धरती से आसमान तक को कर देता सतरंगी फिर भी हमारी कोशिशे जारी थीं एक दूसरे से अलग पर एक दूसरे के साथ वाली दुनिया की तैयारी थी जहाँ जरूरी था एक की दुनिया का ध्वस्त होना सपनों का लील जाना हकीकत को या हकीकत के आगे सपनों का पस्त होना जानते हैं… पिछले कई महीनों से सोते समय उसके होंठों पर मुस्कुराहट नहीं थिरकी है और एक रात … एक रात तो सोते समय दो बूंद आँसू उसके गालों पर लुढ़क गए थे होंठों को छूकर घुसे थे मुँह में और उसने जाना था आँसुओं का खारा स्वाद शायद तभी… तभी उसने तय कर लिया था सपनों से हकीकत का सफ़र उसकी सतरंगी दुनिया डूब गई थी और उसके साथ डूबकर मेरी गुड्डो भी नहीं रही थी जो थी साथ… मेरे आस-पास वो थी उसकी हमशक्ल सी पुते चेहरे वाली, भीतर से बेहद उदास जी हाँ ! कद-काठी रूप रंग तो था सब उसके जैसा पर ओढ़े अज़नबीयत की चद्दरें बदल गई थी जैसे सर से पाँव तक वो दिन है… और आज का दिन है गुड्डो की वीरान आँखों में नहीं हैं इंद्रधनुष के रंग उसकी बातों से उड़ गए हैं खुशबुएँ और तितलियाँ खेत और खलिहान भी उसकी जगह आ बैठी हैं गगनचुंबी ईमारतें, बड़े-बड़े मॉल और मंगल यान अब हमारी दुनिया एक थी और हम एक-दूसरे से अलग एक अजीब सी बेचैनी मेरे मन पर तारी थी मैंने जीत कर भी बाजी हारी थी और पहली बार… शायद पहली बार ही महसूस किया मैंने कि उस रात मुझसे अपरिचित मेरी भी एक दुनिया डूब गई थी मेरे साथ मैं नहीं किया तैरने का प्रयास जैसे मैंने नहीं किया था उसके विश्वास पर विश्वास आह!! क्यों लगा रहा उसे दिखाने में स्याह पक्ष क्यों नहीं की कोशिश उसके साथ दुनिया को सतरंगी बनाने की क्यों पीड़ा के झंझावातों में नीरीह प्रलापों में अब भी डराते हैं मुझे गुड्डो के नए सपने किसी खूबसूरत ग्रह-उपग्रह के वहाँ बस जाने के अबकी बार… इस ग्रह को उजाड़ देने के बाद आज़ जब गुड्डो में नहीं बची है गुड्डो मेरे भीतर दहाड़े मार कर रोती है गुड्डो अजीब बेचैनी में खुला है ये भेद कि दुनिया का हर व्यावहारिक से व्ययहारिक कहे जाने वाले इंसान के भीतर उससे भी अपरिचित कहीं गहरे धँसी होती है गुड्डो एक अच्छी दुनिया का सपना पाले हुए जो टिकी होती है दो बूंद आँसू पर … बस जीतने ही तो देना होता है भीतर अपनी गुड्डो को और पूरी दुनिया हारती है बाहर से मैंने उठा ली हैं उसकी बेतरतीब फैली किताबें मेरे अंदर फिर से हिलोर मार रही है गुड्डो वो किताबी सी लड़की दुनिया की सच्चाई पर विश्वास करती सतरंगी सपनों वाली… पगली और मैं चल पड़ा हूँ दुनिया को बदलने की कोशिश में और हाँ ! आपको कहीं मिले गुड्डो वो सपनों में पगी लड़की तो बताइएगा जरूर जरूर बताइएगा अबकि मैं उसे जाने नहीं दूँगा वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें काव्य कथा -गहरे काले रंग के परदे वंदना बाजपेयी की कविता -हमारे प्रेम का अबोला दौर अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा   आपको ‘काव्य कथा – वो लड़की थी कुछ किताबी सी’कैसी लगी ? हमें अपने विचारों से अवश्य अवगत कराए l अगर आपको हमारा काम अच्छा लगता है तो कृपया साइट को सबस्कराइब  करें व अटूट बंधन फेसबूक पेज लाइक करें l

वंदना बाजपेयी की कविता -हमारे प्रेम का अबोला दौर

हमारे प्रेम का अबोला दौर

  आजकल हमारी बातचीत बंद है, यानि ये हमारे प्रेम का अबोला दौर है l  अब गृहस्थी के सौ झंझटों के बीच बात क्या थी, याद नहीं पर इतना जरूर है कि कोई बड़ी बात रही होगी जो उस बात के बाद नहीं मन हुआ बात करने का और हमारे मध्य शुरू हो गया “कन्डीशंड एप्लाइड वाली बातचीत बंद का एक नया अध्याय प्यार का एक रंग रूठना और मनाना भी है l प्यार की एव तक्ररार बहुत भारी पड़ती है l कई बार बातचीत बंद होती है , कारण छोटा ही क्यों ना हो पर अहंकार फूल कर कुप्पा हो जाता है जो बार बार कहता है कि मैं ही क्यों बोलूँ ? लेकिन दिल को तो एक एक पल सालों से लगते हैं l फिर देर कहाँ लगती है बातचीत शुरू होने में …. इन्हीं भावों को पिरोया है एक कविता के माध्यम से l सुनिए … वंदना बाजपेयी की यह कविता आप को अपनी सी लगेगी l हमारे प्रेम का अबोला दौर ——————————– आजकल हमारी बातचीत बंद है अब गृहस्थी के सौ झंझटों के बीच बात क्या थी, याद नहीं पर इतना जरूर है कि कोई बड़ी बात रही होगी जो उस बात के बाद नहीं मन हुआ बात करने का और हमारे मध्य शुरू हो गया “कन्डीशंड एप्लाइड वाली बातचीत बंद का एक नया अध्याय माने गृहस्थी की जरूरी बातें नहीं होती हैं इसमें शामिल ना ही साथ में निपटाए जाने वाले वाले काम-काज रिश्तेदारों के आने का समय नहीं जोड़ा जाता इसमें ना ही शामिल होता है डायरी से खंगाल कर बताना गुड्डू जिज़्जी की बिटिया की शादी में दिया था कितने रुपये का गिफ्ट या फिर अखबार वाले ने नहीं डाला है तीन दिन अखबार हाँ, कभी पड़ोसन के किस्से या ऑफिस की कहानी सबसे पहले बताने की तीव्र उत्कंठा पर भींच लिए जाते हैं होंठ पहले मैं क्यों ? अलबत्ता हमारे प्रेम के इस अबोले दौर में हम तलाशते हैं संवाद के दूसरे रास्ते लिहाजा बच्चों के बोलने कि लग जाती है डबल ड्यूटी ‘पापा’ को बता देना और ‘मम्मी’ से कह देना के नाम पर आधी बातें तो कह-समझ ली जाती हैं बर्तनों की खट- खट या फ़ाइलों कि फट- फट के माध्यम से ऐसे ही दौर में पता चलता है कौन कर रहा था बेसब्र इंतजार कि दरवाजे की घंटी बजने से पहले ही मात्र सीढ़ियाँ चढ़ते हुए पैरों की आहट से खुल जाता है मेन गेट और रसोई में मुँह से जरा सा आह-आउच निकलते ही पर कौन चला आया दौड़ता हुआ और पास में रख जाता है आयोडेक्स या मूव पढ़ते-पढ़ते सो जाने पर चश्मा उतार कर रख देने, लाइट बंद कर देने जैसी छोटी-छोटी बातों से भी हो सकता है संवाद बाकी आधी की गुंजाइश बनाने के लिए मैं बना देती हूँ तुम्हारा मनपसंद व्यंजन और तुम ले आते हो मेरी मन पसंद किताबें तुम्हारे घर पर होने पर बढ़ जाता है मेरा राजनीति पर बच्चों से डिस्कसन और तुम उन्हें सुनाने लगते हो कविताएँ रस ले-ले कर नाजो- अंदाज से गुनगुनाते हुए किसी सैड लव सॉन्ग का मुखड़ा ब्लड प्रेशर कि दवाई सीधा रखते हो मेरी हथेली पर और मैं अदरक और शहद वाला चम्मच तुम्हारे मुँह में ऐसे में कब कहाँ शुरू हो जाती है बातचीत याद नहीं रहता जैसे याद नहीं रहा था बातचीत बंद करने का कारण हाँ ये जरूर है कि हर बार इस अबोले दौर से गुजरने के बाद याद रह जाते हैं ये शब्द यार, कुछ भी कर लो पर बोलना बंद मत किया करो ऐसा लगता है जैसे संसार की सारी आवाजें रुक गई हों l वंदना बाजपेयी #lovesong #love #lovestory #poetry #hindisong #valentinesday #valentine यह भी पढ़ें – जरूरी है प्रेम करते रहना – सरल भाषा  में गहन बात कहती कविताएँ तपते जेठ में गुलमोहर जैसा -प्रेम का एक अलग रूप प्रेम कभी नहीं मरेगा आपको वंदना बाजपेयी की कविता -हमारे प्रेम का अबोला दौर कैसी लगी ? अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराए l अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ अच्छी लगती हैं तो कृपया अटूट बंधन की साइट को सबस्करीब करें व अटूट बंधन फ़ेसबुक पेज लाइक करें l  

बचपन में थी बड़े होने की जल्दी

बचपन में होती है बड़े होने की जल्दी और बड़े होने पर बचपन ढूंढते हैं ...मानव मन ऐसा ही है, जो पास होता है वो खास नहीं लगता lइसी विषय पर एक कविता  .. बचपन में थी बड़े होने की जल्दी 

बचपन में होती है बड़े होने की जल्दी और बड़े होने पर बचपन ढूंढते हैं …मानव मन ऐसा ही है, जो पास होता है वो खास नहीं लगता lइसी विषय पर एक कविता  ..   बचपन में थी बड़े होने की जल्दी  कभी-कभी ढूंढती हूँ उस नन्हीं सी गुड़िया को जो माँ की उल्टी सीधी-साड़ी लपेट खड़ी हो आईने के सामने दोहराती थी बार-बार “लो हम टो मम्मी बन गए” या नाराज़ हो माँ की डाँट पर छुप कर चारपाई के नीचे लगाती थी गुहार “लो जा रहे हैं सुकराल” माँ के मना करने बावजूद अपनी नन्ही हथेलियों में जिद करके थामती थी बर्तन माँजने का जूना और ठठा कर हँसता था घर हाथों में संभल ना पाए गिरते बर्तनों की झंकार से और अपनी गुड़िया को भी तो पालती थी बिलकुल माँ की तरह करना था सब वैसे ही चम्मच से खिलाने से लेकर डॉक्टर को दिखाने तक दोनों हाथों से पकड़ कर बडी सी झाड़ू हाँफते-दाफ़ते जल्दी-जल्दी बुहार आती थीबचपन घर के आँगन से आज उम्र की किसी ऊंची पायदान पर खड़ी हो लौट जाना चाहती है उस बचपन में जब थी जल्दी बड़े होने की सदा से यही रहा है हम सब का इतिहास कुछ और पाने की आशा में जो है आज इस पल हमारे पास वो कभी नहीं लगता खास वंदना बाजपेयी   आपको कविता “बचपन में थी बड़े होने की जल्दी” कैसी लगी ? अपनी राय से हमें अवश्य अवगत कराए l अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती है तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व फेसबुक पेज लाइक करें l

फिर भी-केंट एम कीथ की दार्शनिक कविता ऐनीवे का हिंदी अनुवाद

कविता

सुप्रसिद्ध लेखक kent m keith की दार्शनिक कविता Anyway में जीवन दर्शन समाया है l समस्त मानवीय वृत्तियों जैसे ईर्ष्या, क्रोध, जलन , सफलता, खुशियाँ आदि में हम दूरों की राय से सहजता से प्रभावित हो जाते हैं l  अक्सर झगड़ों की वजह और खुल कर ना जी पाने की वजह भी यही होती हैं l  कई बार प्रेम भरे रिश्तों में भी शीत युद्ध की दीवार खींची रहती है l परनातू ये युद्ध हमारे  और उनके बीच होता ही नहीं, ये होता है … कविता का हिंदी अनुवाद किया है वंदना बाजपेयी ने l आइए पढ़ें कविता फिर भी…   फिर भी.. होते हैं लोग अक्सर समझ से परे चिड़चिड़े और आत्मकेंद्रित करना क्षमा उन्हें फिर भी… अगर बह रहा हो दया का सागर हृदय में तुम्हारे तब भी नवाजे जा सकते हो तुम स्वार्थी मतलबी के उपालंभों से करते रहना दया फिर भी… अगर कहूं रही है सफलता कदमों को तुम्हारे तो मिलेंगे राह में कुछ घटक शत्रु और कुछ विश्वास घाती मित्र भी होना सफल फिर भी… अगर हो तुम अटल और ईमानदार चले जाओगे कदम-कदम पर अपने और बेगानों के द्वारा रहना ईमानदार फिर भी… जीवन के बरसों-बरस लागाने के बाद हुआ होगा दृश्यमान तुम्हारी रचनात्मकता से जो कुछ सकते हैं गिर कुछ आओने और बेगाने लोग उसे बने रहना रचनात्मक फिर भी… अगर जीवन के अरण्य में खोजने पर मिल जाए तुम्हें शांति और  खुशियाँ तो ईर्ष्या की कनाते साज जाएगी कुछ मनों में रहना खुश फिर भी… जो किया है आज तुमने अच्छा वो भूल दिया जाएगा कल तलक करते रहना अच्छा फिर भी… बोते रहना अच्छाई के बीज मनों की धरती पर जानते हुए कि तृप्त नहीं होगी धरा मात्र कुछ छींटों से देते रहना फिर भी… देखना, अपने आखिरी भी खाते में थोड़ा झांक कर एक बार ये सारा खेल तो ठा बस तुम्हारे और ईश्वर के मध्य ये नहीं था तुम्हारे और उनके मध्य कभी भी… अनुवाद वंदना बाजपेयी   मूल कविता  पाठकों के लिए यहाँ पर प्रस्तुत है मूल कविता anyway Anyway  “People are often unreasonable, irrational, and self-centered. Forgive them anyway. If you are kind, people may accuse you of selfish, ulterior motives. Be kind anyway. If you are successful, you will win some unfaithful friends and some genuine enemies. Succeed anyway. If you are honest and sincere people may deceive you. Be honest and sincere anyway. What you spend years creating, others could destroy overnight. Create anyway. If you find serenity and happiness, some may be jealous. Be happy anyway. The good you do today, will often be forgotten. Do good anyway. Give the best you have, and it will never be enough. Give your best anyway.” You see, in the final analysis, it is between you and your God. It was never between you and them anyway. Anyway Poem was written by Kent M Keith यह भी पढ़ें … माँ से झूठ मंदिर-मस्जिद और चिड़िया जन्माष्टमी पर 7 काव्य पुष्प आपको “फिर भी-केंट एम कीथ की दार्शनिक कविता ऐनीवे का हिंदी अनुवाद” कैसा लगा ? अपनी राय से हमें अवश्य अवगत कराए l  अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबूक पेज को लाइक करें l

सुमन केशरी की कविताएँ

सुमन केशरी की कविताएँ

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर अटूट बंधन पर प्रस्तुत हैं वरिष्ठ कवि-कथा नटी सुमन केशरी दी की कुछ स्त्री विषयक कविताएँ | इन कविताओं में स्त्री मन की पीड़ा, कन्डीशनिंग से बाहर आने की जद्दोजहद और अपनी बेटी के लिए खुले आकाश में उड़ान सुरक्षित कर देने की अदम्य इच्छा के  विभिन्न रूप चित्रित हैं | चाहे वो स्त्री आज की हो या पौराणिक काल की | एक दिन ऐसा आता है जब स्त्री उठ खड़ी होती है, उन सारी बातों के विरुद्ध जो उस पर आरोपित की गईं हैं | वो.. वो सब कुछ कर लेना चाहती है जो उससे कहा गया था  की तुम नहीं कर सकतीं |  शायद वही दिन होता है जब उसकी अपनी दृष्टि विकसित होती है | वो दुनिया को अपने नजरिए से देखना शुरू करती है, याज्ञवल्क्य से प्रश्न पूछती है, द्रौपदी के आक्रोश को सही ठहराती है .. और उसे दिन वो पुरुष में अपना मालिक नहीं साथी तलाशती है, उसे मोनालिसा की रहस्यमयी मुस्कान में उसका दर्द दिखाई देने लगता है, दिखने लगता है राम के यशोगान में सीता के समग्र अस्तित्व का विलय और वो सुरक्षित कर लेना चाहती है आकाश का एक कोना अपनी बेटी के लिए | सुमन केशरी की  कविताएँ (1) मैंने ठान लिया है   मैंने ठान लिया है कि मैं वह सब करूँगी जिसे मैंने मान लिया था कि मैं कर नहीं सकती मसलन कविता करना शब्दों के ताने बाने गूँथ कुछ ऐसा बुनना जिसे देखा नहीं सुना जा सके महसूसा जा सके   तुमने मुझे बंद कर दिया था रंग-बिरंगे कमरे में और मैं तुम्हारी उंगली थामे उसमें से बाहर निकल तुम्हारी आँखों से दुनिया देखती तुम्हारी भाषा में बतियाती चहकती गाती फिर उस कमरे में जा बैठती थी अपने पंख मैंने खुद ही काट दिए थे   मुझे  ताज्जुब होता था जाबाला का उत्तर सुनकर द्रौपदी का आक्रोश देखकर और याज्ञवल्क्य का व्यवहार सहज जान पड़ता था   कि एक दिन अचानक सपने में मुझे गार्गी का अट्टहास सुनाई पड़ा तड़प रही थी तब से अब तक मुक्ति की तलाश में मुझे देख विद्रूप से मुस्काई और आगे बढ़ गई उसकी हिकारत के कोड़े के घाव से अब भी रिस रहा है खून फट गया है माथा और अब तक की सारी आस्थाएँ विचार और सपने चूर चूर हो गए हैं एक हवा का झोंका दरारों के रास्ते रक्त की शिराओं में जा घुसा है और झिंझोड़ कर रख दिया है पूरे शरीर को मय चेतना के   इन दिनों मैंने घर के सारे खिड़की दरवाजे खोल दिए हैं   बड़ा मजा आता है बच्चों के संग कागजी जहाज उड़ाने और नाव चलाने में चट्टानों पर चढ़ कर कूदने में दूर तक दौड़ कर चंदा को साथ साथ चलाने छकने-छकाने में   प्रिय! अब मैं तुमसे दोस्ती करना चाहती हूँ चाहती हूँ कि तुम मेरे संग सूर्यदेश की यात्रा पर चलो   और हाँ पिछले दिनों याज्ञवल्क्य से चलते चलते हुई मुलाकात एक लंबी बहस में बदल गई है क्या तुम मेरे संग उलझोगे याज्ञवल्क्य से बहस में?     (2) मोनालिसा   क्या था उस दृष्टि में उस मुस्कान में कि मन बंध कर रह गया   वह जो बूंद छिपी थी आँख की कोर में उसी में तिर कर जा पहुँची थी मन की अतल गहराइयों में जहाँ एक आत्मा हतप्रभ थी प्रलोभन से पीड़ा से ईर्ष्या से द्वन्द्व से…   वह जो नामालूम सी जरा सी तिर्यक मुस्कान देखते हो न मोनालिसा के चेहरे पर वह एक कहानी है औरत को मिथक में बदले जाने की कहानी….   (3) सुनो बिटिया……..   सुनो बिटिया मैं उड़ती हूँ खिड़की के पार चिड़िया बन   तुम देखना खिलखिलाती ताली बजाती उस उजास को जिसमें चिड़िया के पर सतरंगी हो जायेंगे कहानियों की दुनिया की तरह   तुम सुनती रहना कहानी देखना चिड़िया का उड़ना आकाश में हाथों को हवा में फैलाना और पंजों को उचकाना इसी तरह तुम देखा करना इक चिड़िया का बनना   सुनो बिटिया मैं उड़ती हूँ खिड़की के पार चिड़िया बन तुम आना…..     (4) ऋतंभरा के लिए….   जब जब मैंने नदी का नाम लिया बेटी दौड़ी आई पूछा तुमने मुझे पुकारा माँ?     जब जब मैंने हवा का नाम लिया मेरी पीठ पर झूम-झूम कहा उसने तुमने मुझे पुकारा और लो मैं आ गई   जब जब मैंने सूरज को देखा किरणों की आभा लिए उतरी वह मेरे अंतस्तल का निविड़ अंधेरा मिटाने     जब जब मैंने मिट्टी को छुआ वह हँस दी मानो बीज बो रही हो खुशियों  के मेरे आंगन में   जब जब मैंने आकाश को निहारा वह तिरने लगी बदरी बन बरसी झमाझम सूखी धरा पर     जब जब मैंने क्षितिज की ओर ताका वह मेरा आंचल थाम खड़ी थी कहती मैं हूँ न तुम्हारे पास…     (5) औ..ऋत   डर एक ऐसा पर्दा है जिसके पीछे छिपना जितना आसान उतना ही मुश्किल   कहा था जोगी ने उस रात जिस रात मैंने उसे बादलों के बाहर देखा था निरभ्र आकाश में   डर हमारे बीच पर्दे-सा तना था सांस की आवाज़ तक उसे कंपा जाती थी इतना झीना इतना महीन   डर क्या है धरती-सी बैठी औरत ने पूछा   डर आँधी है उड़ा ले जाता है अपने संग सब-कुछ योगी बुदबुदाया   अच्छा!   डर बाढ़ है बहा ले जाता है सब कुछ…   अच्छा!!   डर तूफान है सब कुछ छिन्न-भिन्नकर देता है     अच्छा!!!   औरत ने कहा और लेट गई…   बिछ गई धरती पर वह हरियाली-सी.. बहने लगी जल की धार-सी स्वच्छ सुंदर.. हवा के झौंके-सी भर ली सुगंध उसने नासापुटों में… बादलों में बूंदों-सी समा तिरने लगी आकाश के सागर में निर्द्वंद…   जोगी ने देखा सब डर के पर्दे के पीछे छिपे छिपे… अब जोगी था और डर था   और था ऋत विस्तृत…     (6) सीता सीता रात के अंधेरे में द्वार के पार आंगन में आंगन पार पेड़ों के झुड़मुटों से घास के मैदान से और उसके भी पार बहती नदी के बूंद बूंद जल से किनारो पर इकठ्ठी रेत के कण कण से नदी पार फैले पहाड़ों की चट्टानों से जिस पर … Read more

दरवाजा खोलो बाबा – साहित्य में बदलते पुरुष की दस्तक

दरवाजा खोलो बाबा

  “पिता जब माँ बनते हैं, ममता की नई परिभाषा गढ़ते हैं” कविता क्या है? निबंध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं कि, “जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधाना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं।“ इस परिभाषा में हृदय की मुक्तवस्था सबसे जरूरी शब्द है | यूँ तो हमारे अवचेतन पर हमारे जीवन, देखे सुने कहे गए शब्द अंकित होते हैं इसलिए हर व्यक्ति एक खास कन्डीशनिंग से निर्मित होता है | परंतु साहित्य में हम अक्सर चीजों को एक दृष्टि से देखने के इतने आदि हो जाते हैं कि दूसरा पक्ष गौढ़ हो जाता है | इसका कारण तमाम तरह के वाद और विचार धाराएँ भी हैं और पत्र -पत्रिकारों में उससे  प्रभावित लेखन को मिलने वाली सहज स्वीकृति भी है | पर क्या इतना आसान है एक लकीर खींच देना जिसके एक तरफ अच्छे लोग हं और दूसरी तरफ बुरे  | एक तरफ शोषक हों और दूसरी तरफ शोषित | मुझे उपासना जी की कहानी सर्वाइवल याद आ रही है जहाँ शोषित कब शोषक बन जाता है पता ही नहीं चलता| हब सब कहीं ना कहीं शोषक हैँ और कहीं ना कहीं शोषित |   हम मान  के चलते हैं कि खास तरह की पढ़ाई के लिए माता -पिता बच्चों पर दवाब बनाते हैं और संपत्ति के लिए बच्चे वृद्ध माता पिता का शोषण करते हैं | जबकि इसके विपरीत भी उदाहरण है | शिक्षा के लिए माँ -पिता से जबरदस्ती लोन लिवा कर  बच्चे ऐश करने में बर्बाद कर देते है | वृद्ध माता पिता अपने बच्चों  का इमोशनल शोषण भी करते है | पुरुषों द्वारा अधिकतर सताई गई है स्त्री पर कई बार शोषक के रूप में भी सामने आती है | कई बार खेल महीन होता है| वहीं पुरुष कई बार पिता के रूप में, भाई के रूप में, पति के रूप में स्त्री का सहायक भी होता है|   साहित्य में हर किसी के लिए जगह होनी चाहिए हर बदलाव दर्ज होना चाहिए तभी वो आज के समकाल का सही सही खाका खींच पाएगा |   ये सब सोचने-कहने का कारण डॉ.मोनिका शर्मा का नया कविता संग्रह “दरवाजा खोलो बाबा” है | निरंतर विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में अपने विचारोत्तेजक  लेखों द्वारा समाज को सोचने को विवश करती मोनिका जी अपने इस संग्रह में बदले हुए पुरुष को ले कर आई है | पिता, पति, भाई, पुत्र के रूप में स्त्री के जीवन में खुशियों के रंग घोलने, उनको विकास की जमीन देने और हमसफ़र बन कर साथ सहयोग देने में पुरुष की भूमिका पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए | खासकर तब जब वो बदलने की कोशिश कर रहा है | दरवाजा खोलो बाबा – साहित्य में बदलते पुरुष की दस्तक “19 नवंबर” को मनाए जाने वाले “अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस” में घरेलू कामों में अपने द्वारा किये जाने वाले सहयोग का संज्ञान लेने  की माँग उठी है | ऐसे में साहित्य का इस दिशा में ध्यान ना जाना उचित नहीं | मोनिका जी पुस्तक “दरवाजा खोलो बाबा” की भूमिका में लिखती हैं कि, “भावी जीवन की हर परिस्थिति से जूझने का साहस, बेटियों को अपने बाबा के आँगन से मिली सबसे अनमोल थाती होती है | आज के दौर में संवेदनशील भावों को जीते भाई जीवनसाथी  और बेटों से मिल स्नेह सम्मान, भरोसे और भावनाओं की इस विरासत को सहेजते प्रतीत होते हैं | यह वक्त की दरकार है की साझी कोशिशों और स्त्री पुरुष के भेद से परे मानवीय सरोकारों की उजास को सामाजिक -पारिवारिक परिवेश में सहज स्वीकार्यता मिले | पूरे संग्रह चार खंडों में बँटा हुआ है जिसमें पिता, पिता -बेटी, पुरुष मन और प्रश्न हैं.. पिता खंड में उन त्यागों को रेखांकित किया है जो अपने बच्चों, घर -परिवार के लिए एक पुरुष करता है | मुझे प्रेमचंद् जी का एक वाक्य का भाव याद आ रहा  है, “पिता मटर -पनीर है और माँ दूध-रोटी” थोड़ी देर भी ना मिले तो बच्चे व्याकुल हो जाते हैं | बात गलत भी नहीं है .. दरअसल पिता का त्याग अदृश्य  रहता है | बच्चों की जरूरतें माँ से पूरी होती रहतीं हैं, घर के बाहर पिता भी उस नींव की ईंट है इसका ध्यान कम ही जाता है | इसी पर ध्यान दिलाते हुए  मोनिका जी लिखती हैं.. “कमाने, जुटाने के चिर  स्थायी फेर ने सारथी बन गृहस्थी का रथ खींचते एक पुरुष को गढ़ा सनातन यात्री के रूप में”   ———————————– घर स्त्री से होता है पर उस घर को बनाने में पुरुष भी बहुत कुछ खोता है … “किताबों के पल्ले  चढ़ते ही तालों में बंद हो गए समस्त रुचि रुझान चिकना-चौरस आँगन पक्का होते ही फिसल गए जीवन की मुट्ठी से मैत्री बंध, मेल जोल के पल चौखट -चौबारों की रंग रोगन की साज धज के निर्मल निखार से फीकी पड़ गईं मर्म की समस्त चाहनाएँ” ——————————– स्त्री के शोषक के रूप में दर्ज क्या पुरुष समाज की कन्डीशनिंग का शिकार नहीं है | क्या अपने को अच्छा पुत्र और अच्छा पिता साबित करने का भार उस पर नहीं है | संतुलन उसे भी बनाना है | महीन रस्सी उसके सामने भी है |   “बहुत सीमित -समवृत होता है आकाश पिता की इच्छाओं का माता -पिता का कर्तव्य पारायण बच्चा होने के दायित्व बोध की धूरी से अपने बच्चे के उत्तरदायित्वों के यक्ष तक सिमटा” ————————– “अपनी कविता “प्रवक्ता” में वो लिखती है.. आँगन के बीचों -बीच हर बहस, हर विमर्श में चुप रह जाने वाले पिता देहरी के उस पार बन जाते हैं  आवाज घर के हर सदस्य की” पिता -पुत्री खंड में पिता पुत्री के बदलते हुए रिश्तों की बात करती हैं | एक जमाना था जब पिता परिवार के सामने अपने बच्चों को प्यार नहीं करते थे, फिर एक उम्र के बड़ी  बेटियों से थोड़ी दूरी बनाते थे | विवाह के बाद अपनी मर्जी से मायके आने का हक बेटियों का नहीं रहता था | इस सब दिशाओं में आज बदले हुए पिता-पुत्री दिखते हैं | अब लड़कियाँ “बकी बरस भेज भैया को बाबुल सावन में लिजों बुलाए” नहीं … Read more

मै भी गाऊँ सांग प्रभु

मै भी गाऊँ सांग प्रभु

वसंत यानि प्रेम की ऋतु और फाग यानि मस्ती .. प्रेम और मस्ती के इस कॉम्बो पैक का असर भूलोक में ही नहीं देवलोक में भी है |  ऐसे मौके को  हमारे बाल गणपति कैसे जाने देते | और अपने माता – पिता के पास जाकर करने लगे जिद एक अदद दुल्हनियाँ की, और कहने लगे “हरदम उसके साथ रहूँ और, मै भी गाऊँ सांग प्रभु”  तो आइए चलते हैं  साहित्य फलक पर तेजी    से अपनी ठोस पहचान बनाते  युवा  कवि  कथाकार,उपन्यासकार सौरभ दीक्षित मानस की कविता  “” के साथ देव लोक में और देखते हैं कि हमारे बाल गणपति को दुल्हनियाँ मिलती है या डाँट .. मै भी गाऊँ सांग प्रभु गणपति बोले शंकर जी से, सुन लो मेरी मांग प्रभु। इससे पहले लीन तपस्या, हो जाओ पीकर भांग प्रभु।। मेरे हाथों में भी कोई, सुन्दर सुन्दर हाथ रहे, हरदम उसके साथ रहूँ और, मै भी गाऊँ सांग प्रभु। गणपति बोले शंकर जी से……………………….. तुम तो रहते मइया के संग, विष्णु लक्ष्मी साथ लिए। ब्रम्हा जी ब्रम्हाणी से संग, कान्हा जी बारात लिए।। हम तो बैठे बिकट कुंवारे मेरा भी उद्धार करो, अब तो कोई तिथि निकालो, दिखवाओ पंचांग प्रभु। गणपति बोले शंकर जी से……………………….. आ जायेगी मेरी दुल्हनियां, तुमको भोग लगायेगी। मइया के संग काम करेगी, घर भी मेरा बसायेगी।। जीवन गाड़ी दो पहियों की, हरदम साथ जो चलते हैं, मेरी गाड़ी खड़ी हुयी है जैसे हो इक टांग प्रभु। गणपति बोले शंकर जी से……………………….. सुनकर बातें गणपति जी की शंकर को हंसी आयी थी। पास खड़ी थीं गौरा जी भी मन्द मन्द मुस्कायी थी। बोलीं मेरे प्यारे बेटे तेरा ब्याह कराऊँगी, सबकी होती एक दुल्हनियां दो दो तुम्हें दिलाऊँगी। झूम झूम फिर गणपति नांचें करते हैं डिंग डांग प्रभु। इससे पहले लीन तपस्या, हो जायें पीकर भांग प्रभु।। …………………मानस यह भी पढ़ें .. जया आनंद की कविताएँ कविता विकास जी की स्त्री विषयक कवितायें aआपको कविता “मै भी गाऊँ सांग प्रभु” कैसी लगी |अपनी राय से हमें अवश्य अवगत कराए | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

हम अपने बच्चों के दोषी हैं

बच्चे

  बच्चों को दुनिया में तभी लाएँ जब आप शारीरिक -मानसिक रूप से 21 साल का प्रोजेक्ट लेने के लिए तैयार हों — सद्गुरु बच्चे दुनिया की सबसे खूबसूरत सौगात हैं | एक माता -पिता के तौर पर हम बच्चों को दुनिया में लाते हैं तो एक वादा भी होता है उसे जीवन की सारी खुशियाँ देंगे | शायद अपने हिसाब से अपने बच्चों के लिए हम ये करते भी हैं पर कभी उँगलियाँ अपनी ओर भी उठ जातीं हैं |शायद कभी कभी ये जरूरी भी होता है |   हम अपने बच्चों के दोषी हैं हम अपने बच्चों के दोषी हैं, हम लाते हैं उन्हें दुनिया में , उनकी इच्छा के विरुद्ध क्योंकि  हमें चाहिए उत्तराधिकारी, अपने पैसों का, अपने नाम और उपनाम का भी, हम नहीं तो कम से कम सुरक्षित रह जाए हमारा जेनिटिक कॉन्फ़िगयुरेशन और शायद हम बचना चाहते हैं अपने ऊपर लगे बांझ या नामर्दी के तानों से, और उनके दुनिया में आते ही जताने लगते हैं उन पर अधिकार, गुड़िया रानी के झबले से, खाने में रोटी या डबलरोटी से, उनके गाल नोचे जाने और हवा में उलार देने तक उनकी मर्जी के बिना हम अपने पास रखते हैं दुलार का अधिकार , हम ही तो दौड़ाते हैं उन्हें जिंदगी की रैट रेस में, दौड़ों,भागों पा लो वो सब कुछ, कहीं हमारी नाक ना कट जाए पड़ोस की नीना , बिट्टू की मम्मी,ऑफिस के सहकर्मियों के आगे, उनकी मर्जी के बिना झटके से उठा देते हैं उन्हें तकिया खींचकर क्योंकि हम उनसे ज्यादा जानते हैं इसीलिए तो खुद ही चुनना चाहते हैं उनके सपने, उनका धर्म  और उनका जीवन साथी भी उनका विरोध संस्कारहीनता है क्योंकि जिस जीव को हम अपनी इच्छा से दुनिया में लाए थे उसे खिला-पिला कर अहसान किया है हमने उन्हें समझना ही होगा हमारे त्यागों के पर्वत को तभी तो जिस नौकरी के लिए दौड़ा दिया था हमने, किसी विशेषाधिकार के तहत जीवन की संध्या वेला में कोसते हैं उसे ही … अब क्यों सुनेंगे हमारी, उन्हें तो बस नौकरी प्यारी है .. अपना,नाम अपना पैसा क्योंकि अब हमारी जरूरतें बदल गईं है अब हमें पड़ोस की नीना और बिट्टू की मम्मी नहीं दिखतीं अब दिखती है शर्मा जी की बहु,चुपचाप दिन भर सबकी सेवा करती है राधेश्याम जी का लड़का,नकारा रहा पर अब देखो , कैसे अस्पताल लिए दौड़ता है.. और ये हमारे  बच्चे ,संस्कारहीन, कुलक्षण बैठे हैं देश -परदेश में हमारा बुढ़ापा खराब किया लगा देते हैं वही टैग जो कभी न कभी हमें लगाना ही है जीवन के उस पन में जब सब कुछ हमारे हिसाब से ना हो रहा हो सच, पीढ़ी दर पीढ़ी हम बच्चों को दुनिया में लाते हैं उनके लिए नहीं अपने लिए अपने क्रोमज़ोम के संरक्षण के लिए,अपने अधूरे रह गए सपनों के लिए , अपने बुढ़ापे के लिए कहीं न कहीं हम सब अपने बच्चों के दोषी हैं | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें .. प्रियंका–साँप पकड़ लेती है ऐ, सुनो ! मैं तुम्हारी तरह अजनबी मर्द के आँसू आपको कविता “हम अपने बच्चों के दोषी हैं “कैसी लगी |हमें अपने विचारों से जरूर अवगत कराए |अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो वेसआइट सबस्क्राइब करें | अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

ऐ, सुनो ! मैं तुम्हारी तरह

ऐ सुनो

पितृसत्ता की लड़ाई स्त्री और पुरुष की लड़ाई नहीं है ,ये उस सोच की लड़ाई है जो स्त्री को पुरुष से कमतर मान कर स्वामी और दासी भाव पैदा करती है |कई बार आज का शिक्षित पुरुष भी  इस दवंद में खुद को असहाय महसूस करता है | वो समझाना चाहता है कि भले ही तुमने सुहाग के चिन्हों को धारण  किया हो पर मेरा अनुराग तुम्हारे प्रति उतना ही है |सौरभ दीक्षित ‘मानस’की ये कविता प्रेम और समर्पण के कुछ ऐसे ही भाव तिरोहित हुए हैं……. ऐ, सुनो ! मैं तुम्हारी तरह ऐ, सुनो ! मैं तुम्हारी तरह माँग में सिन्दूर भरकर नहीं घूमता। लेकिन मेरी प्रत्येक प्रार्थना में सम्मिलित पहला ओमकार तुम ही हो। ऐ, सुनो! मैं तुम्हारी तरह आँखों में काजल नहीं लगाता। लेकिन मेरी आँखों को सुकून देने वाली प्रत्येक छवि में तुम्हारा ही अंश दिखता है। ऐ, सुनो! मैं तुम्हारी तरह कानो में कंुडल नहीं डालता । लेकिन मेरे कानों तक पहुँचने वाली प्रत्येक ध्वनि में तुम्हारा ही स्वर होता है। ऐ, सुनो! मैं तुम्हारी तरह गले में मंगलसूत्र बाँधकर नहीं रखता। लेकिन मेरे कंठ से निकले प्रत्येक शब्द का उच्चारण तुम से ही प्रारम्भ होता है। ऐ, सुनो! मैं तुम्हारी तरह पैरों में महावर लगाकर नहीं चलता। लेकिन मेरे जीवन लक्ष्य की ओर जाने वाला प्रत्येक मार्ग, तुमसे ही प्रारम्भ होता है। ऐ, सुनो! मैं तुम्हारी तरह पैर की अंगुलियों में बिछिया नहीं बाँधता। लेकिन मेरी जीवन की प्रत्येक खुशी की डोर तुमसे ही बँधी हुयी है………मानस आपको सौरभ दीक्षित  जी की कविता कैसी लगीं हमें अवश्य बताएं | अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो वेबसाईट सबस्क्राइब करें व् हमारा फेसबुक पेज लाइक करें |

यामिनी नयन गुप्ता की कवितायें

कविता मानस पर उगे भाव पुष्प है | मानव हृदय की भावनाएं अपने उच्चतम बिंदु पर जा कर कब कैसे कविता का रूप ले लेती हैं ये स्वयं कवि भी नहीं जानता|भाव जितने ही गहरे होंगे पुष्प उतना ही पल्लवित होगा | आज हम पाठकों के लिए यामिनी नयन गुप्ता की कुछ  ऐसी ही कुछ कवितायें लायें हैं जो भिन्न भिन्न भावों के पुष्पमाला की तरह है |आइये पढ़ते हैं … प्रणय के रक्तिम पलाश  फिर वही फुर्सत के पल फिर वही इंतजार , खिलना चाहते हैं हरसिंगार अब मैंने जाना ___क्यों तुम्हारी हर आहट पर मन हो जाता है सप्तरंग ; मैं लौट जाना चाहती हूं अपनी पुरानी दुनिया में देह से परे ___ प्रकृति की उस दुनिया में फूल हैं ,गंध है , फुहार है, रंग हैं , बार-बार तुम्हारा आकर कह देना यूं ही __ मन की बात बेकाबू जज़्बात , मेरे शब्दों में जो खुशबू है तुम्हारी अतृप्त बाहों की गंध है , इन चटकीले रंगों में नेह के बंध हैं इंद्रधनुषीय रंग में रंगे हुए मेरी तन्मयता के गहरे पल हैं , बदल सा गया हर मंजर यह भी रहा ना याद बह गया है वक्त ____ लेकर मेरे हिस्से के पलाश हां ____ मेरे रक्तिम पलाश ।          यामिनी नयन गुप्ता 2 .                   मां के आंगन का बसंत मां के आंगन का वृक्ष था वह हरा-भरा छितराया मन भर हरसिंगार इतना महका एक बार कि पीछे बाग को जाती पगडंडी  छुप गई थी मां बोली ” जा बिटिया ‼️ बीनकर ले आ कुछ हरसिंगार अपनी बिटिया और उसकी गुड़िया के लिए मैं बनाऊंगी छोटे-छोटे गजरे “ मैं जाकर झट से चुन लायी मन भर हरसिंगार अपनी  फ्रॉक  के सीमित वितान में। जिस सुबह एक बार जागकर पुनः चिर निद्रा में लीन हो गई थीं मां रोया नहीं था वो वृक्ष हरियाले तने हो गए थे काजल से स्याह खिलखिलाते पत्ते  हो गए धूल-धूसरित निर्जीव हो गयीं सफेद फूलों की नारंगी डंडियां , शायद अब कभी लौट कर नहीं आएगा इस आंगन में बसंत । मुक्ति द्वार में जाते समय भी मां को याद रहा होगा पिता का अकेलापन ; या कि मेरे बचपन की यादें या कि मां को भी याद आया होगा अपनी मां का चेहरा , मेरे शब्दों में रहती हैं वो कविता का नेपथ्य बनकर मां मैं  होना चाहती हूं तेरी रोशनाई । यामिनी नयन गुप्ता 3 .                  एक बसंत अपना भी ___                  जब एक पुरूष लगाता है स्त्री पर आक्षेप , अपनी श्रेष्ठता का सिद्ध करने के लिए करता है स्त्री अस्मिता का हनन , प्रथम दृष्ट्या प्रतिक्रिया स्वरुप काठ हो जाती है औरत नजर नीची किए साड़ी के पल्ले को घुमाती है उंगलियों की चारों तरफ और याद करती है सप्तपदी के वचन मन से भी तेज गति होती है अपमान की , वो हो जाती है अवाक् , निर्वाक् और तुम समझते हो __ विजयी हो गए ? जब तुम कहते हो , ” मूर्ख स्त्री !! तुम चुप नहीं रह सकतीं ?” यह महज़ एक तिरस्कार नहीं है उपेक्षा नहीं हैं यह है एक स्त्री को उसकी औकात बताने का उपक्रम स्त्री भला कब अपनी तरह से जीने को हुई स्वतंत्र एक स्वाभिमानी स्त्री को  नीचा दिखाने का है यह षड्यंत्र; जिस घर में होता है स्त्रियों का रुदन वह दहलीज हो जाती है बांझ श्मशान हो जाता है आंगन उस घर की बगिया से बारहोमास का हो जाता है पतझड़ का लगन  ; बुरे से बुरे अपशब्दों का समाज कर देता है सामान्यीकरण अरे !!  कुल्टा !! कुलक्ष्नी कह दिया तो क्या हुआ है तो भरतार ही , और एक दिन भर जाता है घडा़ अपमान का लबलबाकर उफन जाती है नदी वेदना की खंडित स्वाभिमान की चीखों से मौन हो जाता है भस्म , उधड़ चुकी मन की भीतरी सीवन से झर-झर जाती हैं निष्ठाएं , रेशे-रेशे जोडी़ महीन बुनावट  के ढीले पड़ जाते हैं बंधन पीले पड़ते पत्तों का कोरस ही नहीं हैं ये खांटी औरतें इनके जीवन में भी एक दिन आएगा अपना एक बसंत । यामिनी नयन गुप्ता नाम : यामिनी नयन गुप्ता जन्मतिथि : 28/04/1972 जन्मस्थान : कोलकाता शिक्षा : स्नातकोत्तर ( अर्थशास्त्र ) लेखन विधा : कविताएं , हास्य-व्यंग्य , लघुकथाएं काव्य संकलन : आज के हिंदी कवि (खण्ड१)                         दिल्ली पुस्तक सदन द्वारा                         तेरे मेरे शब्द ( साझा)                        शब्दों का कारवां ( साझा)                        मेरे हिस्से की धूप ( साझा )                        काव्य किरण  (साझा )                     चाटुकार कलवा 2020                       व्यंग्य संग्रह ( साझा )        एकल काव्य संग्रह ( अस्तित्व बोध) संप्रति : व्यवसायिक प्रतिष्ठान में कार्यरत सम्मान : काव्य संपर्क सम्मान              नवकिरण सृजन सम्मान  पाखी में प्रकाशित हुई हैं कविताएं एवं कथाक्रम में कहानी “कस्तूरी “      4th अगस्त समाचार पत्र जनसत्ता रविवारीय एवं जून की यथावत् में प्रकाशित हुई हैं कविताएं।        प्रतिष्ठित साहित्यिक समाचार पत्र जनसत्ता ,अमर उजाला एवं साहित्यिक पत्रिका आलोक पर्व , कथाक्रम सेतु ,मरू नवकिरण, अवधदूत ,  दैनिक युगपक्ष , ककसाड़ , सरिता , वनिता ,रूपायन व अन्य राष्ट्रीय स्तर के पत्र- पत्रिकाओं में कविताएं , लघुकथाएं , हास्य-व्यंग्य प्रकाशित । विषय  : नारी व्यथा ,विरह ,प्रेम..पर मैं लिखती हूं।साथ ही          वर्तमान परिपेक्ष्य में स्री् कशमकश ,जिजीविषा और          मनोभावों को कविता में उकेरने का प्रयास रहता है ।              yaminignaina@gmail.com मर्द के आँसू रिश्ते तो कपड़े हैं सखी देखो वसंत आया नींव आपको   “यामिनी नयन गुप्ता की कवितायेँ  “ कैसी   लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-poem, hindi poem, mother, palash, yamini