पुस्तक समीक्षा -शंख पर असंख्य क्रंदन

संख पर असंख्य क्रंदन

    जो देश और काल को परिभाषित कर दे, उसकी समस्याओं, तकलीफों, बेचैनियों को शब्द दे दे, दुःख सुख, युद्ध शांति, संयोग वियोग, मानवता नृशंसता को व्याख्यायित कर दे, जीवन को आधार प्रदान करे, श्वास लेने के लिए मुफीद जगह उपलब्ध करवा दे, वही कविता है. कविता का संसार अत्यंत व्यापक है जिसका कोई ओर छोर नहीं है. हरी अनंत हरी कथा अनंता की भांति कविता भी अनंत है. कविता को किसी देश काल में विभक्त नहीं किया जा सकता. ये जानते हुए जब कवि की कलम चलती है तब उसकी कविताओं में न केवल हमारा परिवेश, प्रकृति उसकी चिंताएं समाहित होती हैं बल्कि उसमें हमारा समाज, राजनीति, धर्म, स्त्री, मानव जाति, मनुष्य का व्यवहार और स्वभाव सभी का समावेश होता है. कविता किसी एक देश की बात नहीं करती हैं, ये सम्पूर्ण विश्व, सम्पूर्ण मानवता की बात करती हैं. इनकी कविताओं का भी फलक उसी तरह व्यापक है जिस तरह कहानियों का था. कविताओं में पूरे विश्व की चिंताएं समाहित हैं चाहे इतिहास हो या भूगोल. एक ऐसी ही कवयित्री हैं डॉ सुनीता जिनका पहला कविता संग्रह ‘शंख पर असंख्य क्रंदन’ अपने व्यापक फलक का दर्शन कराता है. कविता क्या होती है और क्या कर सकती है, दोनों का दर्शन संग्रह में होता है. इनकी कविताओं में केवल देश या अपना समाज ही नहीं है बल्कि एक कविता सम्पूर्ण विश्व की पीड़ा का दर्शन करा देती है इस प्रकार इन्होंने इतिहास भूगोल और संवेदनाओं को कविताओं में पिरोया है.  शंख पर असंख्य क्रंदन- गाँव की पगडंडी से लेकर वैश्विक चिंताओं को समेटे कविताएँ    पहली ही कविता ‘दोपहर का कोरस’ अपनी संवेदना से ह्रदय विगलित कर देती है जहाँ संवेदनहीनता किस प्रकार मनुष्य के अस्तित्व का हिस्सा बन गयी है उसका दर्शन होता है.  अनगिनत लाशें सूख चुकी थीं जिनको किसी ने दफन नहीं किया आज तक/ क्योंकि वहां मानवीयता के लिए मानव थे ही नहीं/ कुछ परिंदे चोंच मार रहे थे उसकी देह पर  रेगिस्तान की त्रासदी और मानवता के ह्रास का दर्शन है ये कविता जहाँ ऐसे भयावह मंज़र नज़रों के सामने होते हैं और आप उन्हें देख कर सिहर उठते हैं और आगे बढ़ जाते हैं. आप के अन्दर की करुणा आपसे संवाद नहीं करती. एक ऐसे दौर में जी रहा है आज का मानव. संवेदनशील ह्रदय जब भी मानवीय त्रासदी देखता है आहत हो जाता है. आंतरिक घुटन बेचैनी को शब्दबद्ध करने को बेचैन हो जाता है. ऐसे में पहले ही सफ़र में जब ऐसा मंज़र रेगिस्तान में देखता है द्रवीभूत हो जाता है, सोचने को विवश हो जाता है, आखिर किस दौर के साक्षी बन रहे हैं हम? हम सरकारों को कोसते हैं लेकिन क्या हमने कुछ किया? हम भी मुंह फेर आगे बढ़ जाते हैं, त्रासदियाँ घटित होती रहती हैं. कवि ह्रदय मानवता की त्रासदी पर दुखी हो सकता है और अपनी पीड़ा को शब्दबद्ध कर स्वयं को हल्का करने का प्रयास करता है तो साथ ही समाज के सम्मुख एक कटु यथार्थ सामने लाता है.  ‘प्रेम की बारिश को पत्तियों ने जज़्ब किया’ एक ऐसी कविता जहाँ प्रेम का वास्तविक स्वरूप क्या है उसका दर्शन होता है. मानवीय प्रेम नहीं, आत्मिक प्रेम नहीं अपितु प्रकृति का दुलार, प्रकृति का उपहार, बिना किसी भेदभाव के सब पर समान रूप से बरसता प्रकृति का प्रेम ही इस धरा की अमूल्य निधि है. प्रकृति अपना निस्वार्थ प्रेम इसीलिए बांटती है कि धरती पर जीवन पनपता रहे. प्यार बाँटते चलो का सन्देश देती नदियाँ, पहाड़, बादल, धरती, वृक्ष सभी प्रेमगीत गुनगुनाते हैं. जब भी सभ्यता का क्षरण होता है अर्थात प्रलय आती है, यही रखते हैं मानवता की, प्रेम की नींव ताकि जीवन कायम रहे, उम्मीद कायम रहे. यूं ही नहीं कहा – दरार से प्रेम मिटाता नहीं/ सूरज से तेज चमकने लगता है/ जिस दिन धरती डोलना बंद करेगी उस दिन/ बादल पहाड़ों का चुम्बन अन्तरिक्ष में बाँट देंगे/आकाशगंगा पर लिख देंगे स्थायी इश्तहार/ जब धरती प्रलय की योजना बनाएगी तब हम नए सृजन के नाम/ प्रेम में डूबे देश की नींव रखेंगे  ये है प्रकृति का सन्देश, उसका निस्वार्थ प्रेम जिसे मानव समझ नहीं पा रहा, अपने हाथ अपना दोहन कर रहा है.      ‘सदियों से खड़ी मैं दिल्ली’ इस कविता में कवयित्री दिल्ली के माध्यम से केवल दिल्ली की बात नहीं कर रहीं हैं. दिल्ली क्या है – क्या केवल उतनी जितनी हम देखते हैं? आज की दिल्ली या कुछ वर्षों पहले की दिल्ली की हम बात करते हैं जबकि दिल्ली के सीने में सम्पूर्ण सभ्यता का इतिहास समाया है बस उसे देखने वाली नज़र चाहिए. यहाँ एक देश की राजधानी की बात नहीं है. दिल्ली एक प्रवृत्ति का आख्यान है. एक इतिहास विश्व का जिसे दिल्ली न केवल देख रही है बल्कि अपने सीने में जज़्ब कर रही है. डॉ सुनीता दिल्ली के माध्यम से वैश्विक फलक तक की बात करती हैं. वर्तमान समाज और समय की चिंताओं का समावेश इस कविता में हो रहा है. मनुष्यता  की चिंता है इन्हें. जहाँ १९१० का काल भी समाहित हो रहा है तो मदर टेरेसा की करुणा भी इसमें समाहित हो रही है, कैसे युगोस्लाविया से कोलकता तक का सफ़र तय करती है. युद्ध की विभीषिका, मालवीय के प्रयास से पहले अखिल भारतीय हिंदी सम्मलेन कैसे संपन्न हुआ, सभी का आख्यान प्रस्तुत कर रही है. दिल्ली के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व की चिंताएं समाहित हो रही हैं. युद्ध हों या सम्मलेन, किसने क्या किया, कैसे सफलता प्राप्त की या असफलता सबकी मूक भाव से साक्षी बनती है.  यहाँ दिल्ली होना सहज नहीं, इतिहास ही नहीं, भूगोल का दर्शन भी होता है. कविता के माध्यम से  सोलहवीं शताब्दी का दर्शन कराती दिल्ली, एक नोस्टाल्जिया में ले जाती हैं और समय की करवट का दर्शन करवा देती हैं. प्राचीनतावाद में डूबे विश्व के बदलते भूगोल को लोमहर्षक नज़रों से देखती/उन सभी पलों में कई सदियों को देख रही होती हूँ   खेती एक सार्वजनिक सेवा है – इनकी कविताओं में प्रतीक और बिम्ब और शैली को समझने के लिए गहराई में उतरना पड़ेगा, विश्लेषण करना पड़ेगा. खेती एक सार्वजनिक सेवा है, इस भाव को वही ग्राह्य कर सकता है जो खेती के महत्त्व को समझता हो, जो अन्न के महत्त्व को जानता हो. जो … Read more

स्त्रीनामा -भगवती प्रसाद द्विवेदी की स्त्री विषयक कविताएँ

भगवती प्रसाद द्विवेदी

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, “कविता से मनुष्य के भावों की रक्षा होती है | यह हमारे मनोभावों को उच्छ्वसित करके हमारे अंदर एक नया जीव डाल देती है |सृष्टि के पदार्थ या व्यापार विशेष को कविता इस तरह से व्यक्त करती है कि वो नेत्रों के सामने मूर्तिमान दिखाई देने लगते हैं |वस्तुतः कविता मनोवेगों को उत्तेजित करने कए एक उत्तम साधन है |” बेटियाँ कविता का वीडियो लिंक …….. स्त्रियों को लेकर भी कवियों द्वारा समय -समय पर कविताएँ लिखी गई | जब राष्ट्र कवि मैथली शरण गुप्त जी कहते हैं कि अबला,जीवन,हाय, तुम्हारी,यही,कहानी, आंचल, में है,दूध,और, आंखों,में,पानी तो उनका उद्देश्य स्त्री की करूण  दशा को दिखाना रहा होगा | संवेदना भी अपने उच्च स्तर पर पहुँच कर परिवर्तन की वाहक बनती  है |कुछ परिवर्तन समाज में दृष्टिगोचर भी हुए हैं |  पर स्त्री उसी स्थान पर बैठी तो नहीं रह सकती उसे  आँसू पोछ कर खड़ा होना होगा, समय और परिस्थिति से लड़ना होगा और समाज में अपनी जगह बनानी होगी | आज स्त्रीनामा में आदरणीय भगवती प्रसाद द्विवेदी जी की जो रचनाएँ हम लाए हैं वो स्त्रियों को उसी स्थान पर बैठ कर सिसकने की हिमायती नहीं हैं |ये कविताएँ उन्हें उनके गौरव का स्मरण करा कर ना केवल उनका आत्मसम्मान  जगाने की चेष्टा करती हैं अपितु अपने अधिकारों के लिए सचेतकर उनके संघर्ष में उनके साथ खड़ी  होती हैं | आईये पढ़ते हैं आदरणीय भगवती प्रसाद द्विवेदी जी का … स्त्रीनामा  स्त्रीनामा के अंतर्गत तीन कविताओं को पढ़ेंगे ……… अस्मिता, अस्तित्वबोध और बेटियाँ .. बेटियाँ इतिहास रचती रहें, कुछ ऐसा करें । खुलेपन की हिमायत भी जकड़बंदी भी वही, बने हाथी-दाँत कब तक रहेंगे, शिकवा यही, खलबली चहुँओर मचती रहे,कुछ ऐसा करें । तीनों ही कविताओं का मुख्य स्वर एक है जो समाज के स्त्री के प्रति दोमुँहे  चेहरे को समझने और प्रकृति द्वारा प्रदत्त अपनी सशक्तता को पहचान पर संघर्ष करने का आवाहन कर रही हैं | ** अस्मिता आखिर क्या हो तुम? आँगन की तुलसी फुदकती-चहकती गौरैया पिंजरे में फड़फड़ाती परकटी मैना अथवा किसी बहेलिए के जाल में फँसी बेबस कबूतरी? तुम्हारे माथे पर दहकता हुआ सिन्दूर है भट्ठे की ईंट है टोकरियों का बोझ है या काला-कलूटा पहाड़? पहाड़ जिसे तुम ढोती हो अपने माथे पर अनवरत जीवन पर्यन्त ! पहाड़ सरीखी तुम्हारी ज़िन्दगी में उग आये हैं अनगिनत फौलादी हाथ झाड़ू-बुहारू करते हाथ चाय-बागान से पत्तियाँ चुनते हाथ स्वेटर बुनते हाथ किचन में जूझते हाथ कंप्यूटर पर मशीनी अक्षर उगलते हाथ कलम की जादूगरी दिखाते हाथ हाथ,जो होम करते जल उठते हैं । सिरजती हो तुम्हीं छातियों से अमृतस्रोत मगर भरता है तुम्हारा पेट बची-खुची जूठन से उस खाद्य से जिसकी निर्मात्री खुद तुम्हीं हो ढोता है तुम्हारा पेट बीज को वृक्ष में तब्दील होने तक मनुजता का भार उस कुटिल मनुजता का भार जिसे बखूबी आता है लात मारना तुम्हारे ही पेट पर । तुम्हारे केले के थंब सरीखे पाँव खड़े हैं तुम्हारी सगी पृथ्वी के वक्षस्थल पर, पर कराया जाता है तुम्हें अहसास कि तुम्हारे पाँव अड़े हैं किसी की बैसाखी पर दादी!नानी!माँ!दीदी! पत्नी!बेटी!पोती! जरा झटककर तो देखो अपने -अपने पाँवों को , कहीं ये सचमुच किसी की बैसाखी पर तो नहीं खड़े? क्या तुम हो सिर्फ सिर, हाथ,पेट व पाँव वाली मशीनी रोबोट? नहीं, नहीं! किसी के इशारे पर कदमताल करती कतई नहीं हो तुम आदेशपाल रोबोट लहराता है तुममें भावनाओं का समुंदर उठते हैं इंद्रधनुषी सपनों के ज्वार जिन्हें कर दिया जाता है तब्दील आँसुओं के भाटे में सिकुड़ जाता है तुम्हारा अस्तित्व मुनाफे और घाटे में । तुम्हें पहचानना होगा पंक में धँसे रक्तकमल-से अपने आप को अपनी अस्मिता को उबारना होगा स्वयं को कीचड़ की सड़ाँध से कराना होगा तुम्हें अपने होने का अहसास ताकि महमहा उठे तुम्हारे पहाड़-से जीवन में भावना, फूल और खुशबुओं का सपनीला उजास । ** अस्तित्वबोध तुम्हारा आना आते ही खूब हुलसना-अगराना मगर तुम्हारे आने की ख़बर सुन सबका मुँह झवाँ जाना, हुलास-उछाह का जहाँ का तहाँ तवाँ जाना, नौ माह से अनवरत जलते-बलते आस के अनगिन दीपकों का भभककर एकाएक बुझ जाना और तुम्हारा अचरज में डूबकर रट लगाना– केआँ-केआँ! यह क्या हुआ?कैसे हुआ? तुम उठकर लगीं बढ़ने अमरबेल-सी ऊपर चढ़ने न जाने कहाँ से लेकर रस होनहार बिरवा के हरे पत्ते-सा किन्तु बूँट-मटर के साग की नाईं टूसा लगा बार-बार खोंटाने भला कैसे दिया जाता तुम्हें गोटाने! अँखिगर बनने की तुम्हारी कामना थी जरूर, मगर तभी तुम्हें सिखाया जाने लगा शऊर क्या तुम्हें नहीं है पता?यहाँ तो है सुकुमार सपनों को धुआँने का दस्तूर! लगा दी गयीं पगों में आबरू की बेडियाँ कतर दिये गये उड़ने वाले रेशमी पंख और दिखाई जाने लगी बात-बेबात तुम्हें लाल-पीली आँख । तुम्हारे सुबकने-सिसकने पर दादी माँ पुचकारने-पोल्हाने लगीं राजकुमारी फुलवा की कथा सुनाने लगीं उस फुलवा की कथा दर्द और व्यथा जिसका कर लिया था एक दरिंदे ने चहेटकर अपहरण मगर आख़िर में एक राजकुमार ने मुक्ति दिलवाई थी, जीवन में फिर सुख की सुधामयी नदी लहराई थी । कल तुम्हें भी एक दरिंदे के हाथ में सौंप दिया जाएगा डगमगाएगी धरती भूकंप आएगा वह बूढ़े बाघ-सा ठठाकर हँसेगा करैत साँप बनकर डँसेगा और जब सदा-सदा के लिए बाएगा मुँह तो ननद-श्वसुर-सास सभी तुम्हें कोंच-कोंचकर बनाएँगे रूपकुँवर जलाएँगे जिन्दा अथवा मौत के घाट उतारेंगे रोज-रोज मगर कथा का मुक्ति दिलवाने वाला राजकुमार कभी नहीं आएगा तुम्हारी ज़िन्दगी में । आख़िर कब चेतोगी तुम? चेतो,आज ही चेतो जिससे वह भयावह कल कभी न आने पाए और वह दरिंदा तुम्हें बेजान वस्तु बनाकर मत भरमाने-फुसलाने पाए नहीं है तुम्हें सिर्फ रेंड़ी-सा चनकना तुम्हें तो है लुत्ती बनकर धनकना धनको, जिससे फटे पौ सोझिया का मुँह चाटने के लिए फिर कोई कुत्ता पास न फटके धनको, ताकि छिटके दिनकर की रश्मियों-सी तुम्हारे अस्तित्व की लौ और यह हो जाए साबित कि आगर है यह धरती जौ-जौ ।   बेटियाँ बेटियाँ इतिहास रचती रहें, कुछ ऐसा करें । खुलेपन की हिमायत भी जकड़बंदी भी वही, बने हाथी-दाँत कब तक रहेंगे, शिकवा यही, खलबली चहुँओर मचती रहे,कुछ ऐसा करें । फूल-कलियों, तितलियों की खुशबुओं की चाह हो, पर चमन की हिफाज़त की ही नहीं परवाह हो! पुतलियों-सी मगन नचती रहें कुछ ऐसा करें । पढ़ें बेटी, बढ़ें बेटी तुंग शिखरों पर चढ़ें , हम सभी … Read more

रिश्तों पर अर्चना त्रिपाठी जी की कविताएँ

अर्चना त्रिपाठी की कविताएँ

अगर कहानी ठहरी हुई झील है तो कविता निर्झर | कौन सा भाव मानस की प्रस्तर भूमि पर किसी झरने के मानिंद कब  प्रवाहित हो चलेगा ये कवि भी नहीं जानता और एक कविता गढ़ लेती है आकार |अर्चना त्रिपाठी जी की कविताओं में यही खास बात है कि  वो बहुत ही सरल सहज भाषा में अपने मनोभावों को व्यक्त करती हैं |आज पढिए विभिन्न रिश्तों को समेटे अर्चना त्रिपाठी जी की कविताएँ | ये कहीं टूटते हुए रिश्तों की खनक है तो कहीं अजन्मी बेटी की पुकार , कहीं प्रेम रस की फुहार तो कहीं तनहाई का आर्तनाद और तकनीकी से भी तो एक रिश्ता है है तभी तो वह कह उठती हैं “दिनों दिन तकनीकी के विकास का गुल खिल रहा…. रिश्तों पर अर्चना त्रिपाठी जी की कविताएँ टीस रिश्तों पर पड़ी कड़वाहट की धूल को वक्त की हवा भले ही उड़ा दे पर वह , उस दरार को भरने में कभी सक्षम नहीं होगी, जो कड़वाहटों ने बना दी । उस दर्द की टीस कम नहीं होती बरसों-बरस । वह टीस कराह उठती है , जब कभी किसी आयोजन में आपको अपने रिश्ते दिखते हैं । अपने मुल्कों के लोग दिखते लोगों के जरिए,रिश्तों की याद दिलाई जाती है। वे रिश्ते तब कहां होते जब वही सुईयाँ चुभोते हैं वक़्त का लंबा सफर गुजर जाता है,वक्त नहीं लौटता कहते हैं,वक्त हर घावों को भर देता है मेरा कहना है,वक्त कुछ घावों को, नासूर बना देता है अतः उस घाव के अंग का, कट जाना ही बेहतर है रिश्तों का दिया दर्द, वक्त नहीं कर पाता कमतर अतः रिश्तों का टूट जाना ही है बेहतर,बेहतर,बेहतर   भ्रूण अति अति सुंदर, अति सुंदर कृति हो तुम, इस सृष्टि की क्योंकि………..क्योंकि रचा है मैंने तुम्हें, भूत हो तुम मेरा……….. वर्तमान, वर्तमान भी तुम ही हो मेरा अति सुंदर………. कृति हो तुम इस सृष्टि की क्योंकि, क्योंकि पुनः जी रही हूँ मैं तुममें तुममें पूरी हो रही है मेरी अधुरी तमन्नाएँ भविष्य……………. मेरा भविष्य तुम ही तो हो, वह भी मेरा करूँगी, साकार अपने सपनों को तुममें। न रहकर भी रहेगी सदा मैं, तुम्में किंतु मेरे अपने ही नहीं चाहते तुम्हें आने देना इस धरती पर नहीं चाहते, साकार होने देना मेरे सपनों को क्योंकि, क्योंकि तुम भ्रूण हो, मादा भ्रूण मेरी हसरत तुम मेरी बेटी हो, भावी बेटी बावजूद तमाम विरोधों के लाउँगी मैं तुम्हें इस पृथ्वी पर भगीरथ के गंगा की तरह जनूँगी, बनूँगी मैं तुम्हें कुंती के कर्ण की तरह जननी मैं तुम्हें, मैं तुम्हें मैं तुम्हें अवश्य, अवश्य, अवश्य ।   आहें तुम मेरी तकलीफों से बेखबर अपने में मशगूल, मैं, अपने और अपनी तन्हाई से गमगीन ख़दश हैं रफ्ता – रफ्ता… तुम्हारी ये बेरूखी, हमारे रिश्ते का इनसेदाद न कर दे… जिंदगी सहरा न बन जाए, जिसमें खुशियों के दरख्त हों न अरमानों के गुल उड़ेंगी सिर्फ दो रूहों की जर्रा-ए-आहें सहरा-ए-जिंदगी में हौसला उम्मीदों के आकाश से कटी हुई पतंग की तरह वास्तविकता के धरातल पर ऐसी गिरी…….! कि कहीं कोई ठहराव नहीं दिखता नहीं दिखता कोई आशियां जहां मेरा ठिकाना हो हौसले का तिनका का बटोर मुझे स्वयं ही अपने उम्मीदों का घरौंदा तैयार करना होगा अकेले, तन्हा………! जहां मैं अपने उद्देश्यों को साकार कर, सजा कर अपने उस झोपड़े में रह सकूं पुनः तन्हा, तन्हा और तन्हा……… ही और जीने को प्रेरित करेगी हौसले की किरण। तकनीक तरक्की या त्रास्दी दिनों दिन तकनीकी के विकास का गुल खिल रहा, प्रेम पतझड़ के, पल्लव बन गिर रहा! नाम, पद, पहचान नहीं नम्बरों में बंट गए। तकनीक ने दी त्रासदी, ऐसी की अखियाँ तरस गई बातें तो होती रहीं, मिलने को अखियाँ बरस गई दूर थे पर पास दिलों के अब पास होकर दूर दिल की दूरी बढ़ती गई थे स्नेह प्रेम मानव के मीत दिन वो आज हैं बने अतीत गांधी ने देखा स्वप्न था सब स्वरोजगार हों और आत्मनिर्भर भी भौतिक सुख भोग रहे नैतिकता नष्ट हुई सत्य और सत्य व अहिंसा की रट लगाते हिंसा व असत्य की पगडंडियाँ बनती गईं इतनी बनी, इतनी बढ़ी दर, दर दरारें, दिल की दिवार तक दड़क गई मिसाइलें बना बना, मिसाल कायम कर रहे मानव तो बने नहीं, मानव-बम बन गए प्रवंचना विजय की, पर विजय हुए नहीं यंत्रो का दुरुपयोग कर घट घट घटती गई, मन की देख मानवता आँखों को दिखती हैं कम, आपस की एकता तकनीक की ये त्रासदी, ऐसी की अखियाँ तरस गईं बातें तो होती रहीं, मिलने को अखियाँ बरस गई सुख साधानों से मिली शान्ति, विश्व अशान्ति बढ़ती गई महलों और कारखानों से क्षणिक सुकुन भले मिले लघु व कुटीर उद्योग टूटते गए, दुश्मनी की देख बस्तियां बसती गई ऐसी नहीं थी सोच गांधी की, थी कभी नहीं पर कहते हैं जब तक है साँस लोगों रखो विश्व शान्ति की आश और सोचे सभी है ये क्या …… ? तकनीकी की तरक्की या त्रासदी? सुकून नित्य मिलना तुम्हारा कुछ इस कदर बदली से आतप का चमकना मेघों को मध्य चाँदनी का छिटकना छिटककर पुनः मेघों में सिमटना इस लघु क्षण में तुम्हे जी भर निहारने की चाहत पहचानना समझना तुम्हें अपनाने की चाहत देता है भरपूर सुकून खुद का खुद से सवाल तुम वही हो जिसकी तलाश थी इंतजार था मंद मुस्काता वह रूप तुम्हारा पूनः देता ऐसा सुकूँ मिट गई हो जैसे चिर तृष्णा किसी की सोचता हूँ-काश ! थम जाते वो क्षण तुम्हारा वह ह्रदयस्पर्शी चितवन मैं देखती, देखती बस देखती पाती शाश्वत सुकून अर्चना त्रिपाठी अमृता प्रीतम जी पर अर्चना त्रिपाठी जी का वक्तव्य यहाँ सुनें साहित्यांजलि अमृता प्रीतम यह भी पढ़ें … आलिंगन- कविता व विस्तृत समीक्षा जया आनंद की कविताएँ कैलाश सत्यार्थी जी की कविता -परिंदे और प्रवासी मजदूर आपको अर्चना त्रिपाठी जी की कविताएँ कैसी लगी ?हमें अपनी बहुमूल्य राय से अवश्य अवगत कराएँ | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो atootbandhann.com को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन का फेसबूक पेज लाइक करें |

कल्पना मनोरमा की कविताएँ

कल्पना मनोरमा

 कल्पना मनोरमा जी एक शिक्षिका हैं और उनकी कविताओं की खास बात यह है कि वो आम जीवन की बात करते हुए कोई न कोई गंभीर शिक्षा भी दे देती हैं | कभी आप उस शिक्षा पर इतराते हैं तो कभी आँसुन भर कर पछताते भी हैं कि पहले ये बात क्यों न समझ पाए | अम्मा पर कविता 90 पार स्त्री के जीवन की इच्छाओं को दर्शाती है तो देर हुई घिर आई साँझ उम्र की संध्या वेल में जड़ों  को तलाशते मन की वापसी है | तो आइए पढ़ें कल्पना मनोरमा  जी की कविताएँ …. कल्पना मनोरमा की कविताएँ नुस्खे उनके पास जरूरी तुनक मिज़ाजी की मत पूछो हँस देते, वे रोते-रोते। इसके-उसके सबके हैं वे बस सच कहने में डरते हैं सम्मुख रहते तने-तने से झुक, बाद चिरौरी करते हैं क्या बोलें क्या रखें छिपाकर रुक जाते वे कहते-कहते।। ठेल सकें तो ठेलें पर्वत वादों की क्या बात कहेंगे कूदो-फाँदो मर्जी हो जो वे तो अपनी गैल चलेंगे नुस्खे उनके पास जरूरी बाँधेंगे वे रुकते-रुकते ।। यारों के हैं यार बड़े वे काम पड़े तो छिप जाते हैं चैन प्राप्त कर लोगे जब तुम मिलने सजधज वे आते हैं नब्बे डिग्री पर सिर उनका मिल सकते हो बचते-बचते।। -कल्पना मनोरमा पुल माटी के टूट रहे पुल माटी के थे उजड़ गये जो तगड़े थे | नई पतंगें लिए हाथ में घूम रहे थे कुछ बच्चे ज्यादा भीड़ उन्हीं की थी, थे जिन पर मांझे कच्चे दौड़ गये कुछ दौड़ें लम्बी छूट गये वे लँगड़े थे || महँगी गेंद नहीं होती है, होता खेल बड़ा मँहगा पाला-पोसा मगन रही माँ नहीं मँगा पायी लहँगा थे अक्षत,हल्दी,कुमकुम सब पैसे के बिन झगड़े थे || छाया-धूप दिखाई गिन-गिन लिए-लिए घूमे गमले आँगन से निकली पगडंडी कभी नहीं बैठे दम ले गैरज़रूरी बने काम सब चाहत वाले बिगड़े थे || -कल्पना मनोरमा  अम्मा नब्बे सीढ़ी उतरी अम्मा मचलन कैसे बची रह गई।। नींबू,आम ,अचार मुरब्बा लाकर रख देती हूँ सब कुछ लेकिन अम्मा कहतीं उनको रोटी का छिलका खाना था दौड़-भाग कर लाती छिलका लाकर जब उनको देती हूँ नमक चाट उठ जातीं,कहतीं हमको तो जामुन खाना था।। जर्जर महल झुकीं महराबें ठनगन कैसे बची रह गई।। गद्दा ,तकिया चादर लेकर बिस्तर कर देती हूँ झुक कर पीठ फेर कर कहतीं अम्मा हमको खटिया पर सोना था गाँव-शहर मझयाये चलकर खटिया डाली उनके आगे बेंत उठा पाटी पर पटका बोलीं तख़्ते पर सोना था बाली, बल की खोई कब से लटकन कैसे बची रह गई।। फगुनाई में गातीं कजरी हँसते हँसते रो पड़ती हैं पूछो यदि क्या बात हो गई अम्मा थोड़ा और बिखरती पाँव दबाती सिर खुजलाती शायद अम्मा कह दें मन की बूढ़ी सतजुल लेकिन बहकर धीरे-धीरे खूब बिसुरती जमी हुईं परतों के भीतर विचलन कैसे बची रह गई? -कल्पना मनोरमा देर हुई घिर आई सांझा उड़ने लगीं हवा में तितली याद हमें हो आई घर की ।। समझ-समझकर जिसकोअपना लीपा -पोता खूब सजाया अपना बनकर रहा न वो भी धक्का दे मन में मुस्काया देर हुई घिर आई साँझा याद हमें हो आई घर की।। चली पालकी छूटी देहरी बिना पता के जीवन रोया अक्षत देहरी बीच धराकर माँ ने अपना हाथ छुड़ाया चटकी डाल उड़ी जब चिड़या याद हमें हो आई घर की।। पता मिला था जिस आँगन का उसने भी ना अंग लगया राजा -राजकुमारों के घर जब सोई तब झटक जगाया तुलसी बौराई जब मन की याद हमें हो आई घर की।। -कल्पना मनोरमा लेकिन पंख बचाना चिड़िया रानी उड़कर जीभर, लाना मीठा दाना लेकिन पंख बचाना।। राजा की अंगनाई, मटका पुराना है प्यास-प्यास जीवन का, अंत हीन गाना है मेघों की छाती में सोता है पानी का लेकिन वह बंधक है फूलमती रानी का लेकर हिम्मत अपने मन में मेधी जल पी आना लेकिन पंख बचाना।। पिंजरे में बैठा जो सुगना सयाना है राम राम कह,खाता मक्की का दाना है जुण्डी की बाली में दुद्धी चबेना है उसपर भी लेकिन पड़े जान देना है आँखों के आगे से चुनकर लाना सच्चा दाना लेकिन पंख बचाना।। -कल्पना मनोरमा यह भी पढ़ें …. यामिनी नयन गुप्ता की कवितायें किरण सिंह की कवितायेँ आभा दुबे की कवितायेँ मनीषा जैन की कवितायें आपको  “कल्पना मनोरमा की कविताएँ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |