सही तरीका

सही तरीका

रहींम  दास जी का एक दोहे की एक पंक्ति है “जहां काम आवे सुई, कहा करे तलवारि।।  इसका भावार्थ तो ये है की हर वस्तु के अपने -अपने गुण होते है | तलवार सुई से बड़ी है परजहाँ सिलने की जरूरत हो वहाँ तलवार कपड़े को और अधिक फाड़ देती है | क्या यही बातें स्त्री विमर्श पर लागू नहीं होतीं .. कुछ बातें जो संभाल सकती थीं वो गलत तरीका अपनाने से बिगड़ भी जाती  है | कविता सिंह की लघुकथा “सही तरीका” बहुत सावधानी से ऐसे ही बिन्दु की ओर ध्यान आकृष्ट कर रही है | आइए पढ़ें ..  सही तरीका  लघु कथा का वीडियो रूपांतरण देखें –सही तरीका   “हमारी संस्था महिला अधिकारों के प्रति महिलाओं को जागरूक करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। हम जगह-जगह कैम्पेन चलाते हैं।” उन्होंने कुछ पल बोलना बंद करके चारों तरफ नजर दौड़ाया। जब उन्हें तसल्ली हो गयी कि सभी लोग उनकी बात ध्यान से सुन रहे हैं तो उन्होंने दुबारा बोलना शुरू किया। “हाँ तो हम सभी जानते हैं कि पिता की सम्पत्ति में बेटियों को बराबर का हिस्सेदार होने का कानून बन चुका है….” “पर इससे क्या होता है सिर्फ कानून बन जाने से ही उन्हें उनका हक कहाँ मिल पाता है?” एक महिला ने उन्हें बीच में रोकते हुए कहा। “जी! इसीलिए तो हम यहाँ इकट्ठे हुए हैं। हमें अपना हक लेना सीखना होगा।” वो मुस्कुराईं और कुछ पल चुप रहकर फिर बोलीं– “बहनों! हम मायके से रिश्ते खराब होने के डर से अपना हक छोड़ देती हैं पर ऐसा नहीं होना चाहिए, हमें अपने हक़ के लिए आवाज उठाना ही होगा, चाहे रिश्ते बने या बिगड़े। मुझे ही देखिए, मैंने अपने मायके वालों पर केस कर रखा है……” “मैं कुछ कहना चाहती हूँ मैम!” तभी रिया ने उन्हें रोकते हुए कहा और माइक के पास आ गयी। “आप सही कह रही हैं, मैं मानती हूँ। किसी भी समाज की चली आ रही परिपाटी में बदलाव होने में वक़्त लगता है ये सभी जानते हैं। जिन्हें बेटियों को हक़ देना होता है वे बिना कानून के भी देते रहे हैं। हमें उन्हें जागरूक करना है जो इस कानून के बनने के बाद भी आँखे बंद किये हुए हैं पर मेरी समझ से जागरूक करने का ये तरीका सही नहीं  है। हमें अपनी पीढ़ी से शुरुआत करनी है बल्कि अपने घर से करनी है। हमें सबसे पहले अपने सास ससुर और पति को जागरूक करना है कि वो घर की बेटियों को उनका हक बिना मांगें ही उन्हें दें। सच मानिए जिस दिन हम महिलाओं को उकसाने के बजाय उन्हें ये बताएं कि अपनों बच्चों को वो बराबरी का हक देना शुरू कर दें। बचपन से ही उनके मन में ये बीज बोएं कि भाई-बहन दोनों का ही माता-पिता और उनकी संपत्ति पर बराबर का अधिकार है और साथ ही माता-पिता की देखभाल का बराबर का कर्त्तव्य भी । फिर देखिए इसके बाद ना किसी कानून की जरूरत होगी ना रिश्ते खराब होने का डर।” इतना कहकर रिया वापस अपनी जगह पर बैठ गयी साथ ही चारों तरफ तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी और संस्था की स्पीकर अवाक सी सबका चेहरा देखने लगीं। —–कविता सिंह—- यह भी पढ़ें … पद्मश्री उषा किरण खान की कहानी – वो एक नदी इत्ती-सी खुशी  अर्नेस्ट हेमिंग्वे की कहानी- दिन भर का इंतजार दूसरी पारी – समीक्षा आपको लघुकथा “सही तरीका” कैसी लगी ? हमें अपने विचारों से अवश्य अवगत कराए | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती है तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

कविता सिंह की कहानी अंतरद्वन्द

अंतरद्वन्द

जीवन में हम जो चाहते हैं वो हमेशा हमें नहीं मिलता | फिर भी हम अपेक्षाओं का लबादा ओढ़े आगे बढ़ते जाते हैं .. खोखले होते रिश्तों को ढोते रहते हैं |इस परिधि को तोड़ कर एक नए आकाश की ओर बढ़ते कदम अतीत के अनुभव की कारा में बार -बार बंदी होते रहते हैं | आखिर कोई तो हल होगा .. अतीत और वर्तमान के इस अंतरद्वन्द का | आइए पढ़ें अतीत और वर्तमान के  उलझे धागों को सुलझाती, युवा कथाकार कविता सिंह की कहानी.. अंतरद्वन्द  कहानी से – देखें यू ट्यूब पर   “तुम भूलती जा रही हो कि तुम एक डॉक्टर हो, जिन्हें अपनी फीलिंग्स और इमोशन्स अपने घर रखकर क्लीनिक जाना चाहिए।” आज फिर मुझे गुमसुम बैठा देखकर दक्ष ने कहा। “तुम भी भूल रहे हो, मैं सिर्फ डॉक्टर नहीं बल्कि साइकोलॉजिस्ट हूँ, इन फीलिंग्स और इमोशन्स से ही अपने मरीजों के मन की तह तक पहुँच पाती हूँ।” “पागलों का इलाज करते-करते जो तुम अपने खोल में सिमटती जा रही हो ना, मुझे डर है किसी दिन तुम्हें ही किसी डॉक्टर की जरूरत ना पड़ जाए।” मेरा जवाब सुनकर उसने बहुत धीरे से कहा। “दक्ष! वो पागल नहीं हैं….” मैं भड़क गई। “लीव दिस… मैं तो मजाक कर रहा था। मैं मानता हूँ तुम इस शहर की जानी-मानी साइकोलोजिस्ट हो पर मेरी दोस्त भी तो हो.. भई! खाना ऑर्डर करो।” वेटर को हमारी तरफ आता देखकर वो मुस्कुराते हुए बोला। वो सच कह रहा था, मैं बाहर की दुनिया से कटने लगी थी। डिप्रेशन के बढ़ते मरीजों और उनके साथ लंबे-लंबे काउंसलिंग सैशन, उनके आँसू, उनकी हिचकियाँ अक्सर मेरे गले में मछली के कांटें जैसी फँस जाया करतीं। बाहरी दुनिया में कदम रखते ही अजीब-अजीब से ख्याल आने लगते हैं। चलते-फिरते लोगों में न जाने कितने ऐसे मुर्दे लोग हैं जो सम्बन्धों का शव कांधे पर लिए घूम रहे हैं। मुर्दे? हाँ मुर्दे ही होते हैं वो..चलते-फिरते और सांस लेते हुए। साँसों का बन्द होना ही मौत नहीं होती। बहुत करीब से देखा है ऐसों को इन दस सालों में..जो सम्बन्धों और उम्मीदों का गला तो नहीं घोंट पाते पर अपनी साँसों को खत्म करने की कोशिशें जरूर कर चुके होते हैं। “उफ्फ यार! फिर से शुरू हो गईं…ऑर्डर करो भई! वेटर वेट कर रहा..अच्छा छोड़ो मैं ही कर देता हूँ।” उसने मेनू लेते हुए कहा। कितने वक़्त के बाद मैं आज दक्ष के साथ डिनर पर बाहर निकली थी वो भी उसकी जबरदस्ती के कारण। “सॉरी स्वाति, मुझे तुमसे इस तरह बात नहीं करनी चाहिए थी पर कुछ समय से मैं तुममें जरूरत से ज्यादा बदलाव देख रहा हूँ।” वो बहुत गम्भीरता से बोला। मैंने मुस्कुराने की भरसक कोशिश की- “ऐसी कोई बात नहीं दक्ष, थोड़ी थकान हो जाती है। अब खाना खाओ!”   आजकल बिस्तर पर लेटते ही मकड़ियां दिमाग में जाले बुनना शुरू कर देती हैं, और मैं उस जाले में फँसी मक्खी की तरह छटपटाती रह जाती हूँ। क्या सच में मैं अपने मरीजों के हालातों से खुद भी जूझने लगी हूँ? नहीं.. नहीं, शायद मैं अपने अतीत से पीछा नहीं छुड़ा पा रही, केवल भागने की कोशिश कर रही। अनगिनत मरीज मेरे पास आने के बाद ठीक हुए हैं, फिर मैं क्यों नहीं मुक्त हो पाती? उफ्फ! मैं हर बार सर झटककर सोने की कोशिश करती हूँ पर कामयाब नहीं हो पाती। आज भी तो यही हुआ, कोई सामने बैठा जैसे मेरा ही अतीत मुझे सुना रहा था। मुझे चुपचाप एक कोने में बैठी दस साल की लड़की याद आने लगी। उसे पता था, तीन सालों में बहुत कुछ बदल गया है उसकी जिंदगी में। उसकी जिंदगी बदल गयी, उसके प्रति फैसले बदल गए, उसके पापा बदल गए…। जन्मदिन पर चुपचाप उदास बैठने की कोई खास वजह नहीं थी। मम्मी तैयारियाँ कर रही थीं जैसा कि उनके हिसाब से होना चाहिए। तीन साल पहले तक जैसा वो चाहती थी तैयारियां वैसी होती थीं। पापा दस दिन पहले से ही गिफ्ट के लिए पूछना शुरू कर देते। उस दिन सुबह ही उसे बाजार लेकर जाते, पूरे दिन मस्ती और शाम को बर्थडे पार्टी। मां अक्सर कहती थी- “बेटी है अधिक सर पे मत चढ़ाइए, अभी की बिगड़ी आदतें जीवन भर पीछा नहीं छोड़ती हैं। कोई सर पर बैठाने वाला नहीं मिला तो जीवन दूभर हो जाएगा इसका।” हाँ, बेटियों के ‘रहनुमा’ बदलते जो रहते हैं उम्र के साथ-साथ। “चिंता क्यों करती हो! मेरी बिटिया मेरे पलकों पर रहेगी।” पापा की बात सुनकर मां अपना सर पीट लेती। मां एक बीमारी में चली गयी दुनिया छोड़कर। वो बहुत रोई थी, बच्ची ही तो थी.. धीरे-धीरे संतोष कर लिया उसने, उसके पापा तो साथ थे। फिर आईं मम्मी, मां जैसी तो नहीं पर बुरी भी नहीं। उसका और पापा का खूब ख्याल रखती। समझदार इतनी थीं कि उसे बिगाड़ने वाली मां की बात जो पापा कभी नहीं समझे मम्मी की यही बात वो कुछ महीनों में ही समझ गए। जिस घर में बिना उससे पूछे शाम का खाना नहीं बनता था अब मम्मी के हिसाब से हेल्थी खाना बनने लगा। पलकों पर बैठने वाले भूल जाते हैं कि पलक झपकते देर नहीं लगती। वो उम्र से पहले ही समझदार होने लगी थी। जल्द ही समझ गयी, अब फैसले पापा के नहीं मम्मी के हाथ में हैं। उसे किस चीज की जरूरत है ये अब वो नहीं मम्मी सोचती थीं। किस स्कूल में पढ़ना है, ट्यूशन की जरूरत है या नहीं। अब पढ़ाई पर ध्यान देना है उछल-कूद की उम्र खत्म हो रही है, आदि, आदि…। एक शाम मम्मी को तैयार होता देख वो भी अपनी सबसे पसंदीदा ड्रेस ढूँढने लगी थी। “वक़्त से खाना खा लेना गुड़िया! हम जल्दी आ जाएँगे।” मम्मी अपने बाल सँवारती बोलीं। उनकी बात सुनकर वो मन ही मन मुस्कुरायी थी। वो जानती थी पापा उसे छोड़कर कहीं जा ही नहीं सकते। उसे हर जगह साथ लेकर जाने वाली आदत पर मां के साथ पापा की कितनी बार बहस हो जाती थी, फिर भी पापा मानते कहाँ थे। पर, मम्मी मां की तरह झगड़ती नहीं थीं, वो तो बहुत धीरे से समझाती थीं। पापा समझ गए कि बड़ी होती बेटी को हर जगह ले जाना उचित नहीं और … Read more

मन बैरागी

मन बैरागी

प्रेम  की आधारशिला विश्वास है | विश्वासहींन  प्रेम भावनाओं को धीरे -धीरे वैसे ही खोखला करता जाता है जैसे दीमक घर की दीवारों को |कब मन से प्रेम का पक्षी उड़ जाता है और खाली पिजर वैरागी हो जाता है पता ही नहीं चलता | आइए पढ़ें कविता सिंह की लघुकथा .. मन बैरागी वही तो है, बिल्कुल वही। आज पाँच वर्षों के बाद उसे देखा मैंने हरिद्वार में पतितपावनी गंगा के किनारे। गेरुआ वस्त्र में लिपटी हुई, मुख पर असीम शांति लिए हुए चोटिल और बीमार पशुओं की सेवा करते करते हुए। एकबारगी मन हुआ दौड़ के उसके पास पहुँच जाऊँ और पूछूँ कि वो यहाँ इस रूप में क्या कर रही? पर अपने साथ के लोगों के सामने मैं ऐसा नहीं कर सकी। अगली सुबह मैं चुपके से अकेले उसी स्थान पर पहुँची जहाँ उसे कल देखा था। आज भी वो प्रातः ही अपने कल के कार्य में लीन दिखी। मैं धीरे से उसके सम्मुख जाकर खड़ी हो गई। उसने निगाहें उठाकर मेरी तरफ देखा उसकी आँखों में मुझे पहचानने की चमक साफ दिखाई दी। “सुधा! तुम सुधा ही हो ना?” मैंने पूछ ही लिया। वो कुछ देर चुपचाप अपने कार्य में लगी रही फिर वापस एक कुटिया की तरफ बढ़ गई। “बोलो सुधा! यहाँ इस रूप में क्यों और कैसे?” मैंने उसका पीछा नहीं छोड़ा। वो कुटिया के बाहर पेडों के झुरमुट बीच चैपाल पर मुझे बैठने का इशारा करते हुए बैठ गई। “इन चार वर्षों में आप पहली हो दी जो मुझे पहचानने वाली मिली हो। तुम्हें तो सब पता है, सुधा ना जाने किस भाव किस प्यास की तलाश में भटकती रही साल दर साल। ब्याह हुआ लगा तलाश पूरी हुई पर वहाँ तो वो बस देह थी, दासी थी। फिर मिला एक पुरुष प्रेम के सपने दिखाने वाला प्रेम रस में डूबी बातें करने वाला पर अपना बनाने के नाम पर बिदक गया। कुछ वर्ष ऐसे ही कट गए उसी वक्त तो आपसे मुलाकात हुई थी मेरी। मेरी जिंदगी में आई मेरी एकमात्र सखी, बहन जो भी कह लो।” कहते-कहते वो चुप हो गई। ये वही सुधा थी जिसकी आँखें बात बात पर भर जाया करती थी पर आज कितनी कठोरता पूर्वक वो अपने बारे में बता रही थी। “जिसके साथ सारा घर द्वार सारे रिश्ते नाते छोड़ कर निकली थी आपके बहुत समझाने के बाद भी, उसे पाकर लगा मेरी सारी तलाश मेरी इच्छाएं पूरी हो गईं। आरम्भ के छः महीने तो मेरे कदम जमीन पर थे ही नहीं। फिर वक्त ने ऐसी करवट ली कि मैं पत्थर की शिला बनती गयी। उसे मुझ पर सदा सन्देह रहा कहीं मैं पिछली जिंदगी तो याद नहीं करती उसकी अनुपस्थिति में उनसे बात तो नहीं करती। प्रेम अथाह था दी पर विश्वास चूक गया। किस घड़ी मन बैरागी हुआ और यहाँ आ पहुँची पता ही नहीं चला। यह असीम शांति है हृदय परिपूर्ण है इन अबोले जीवों के बीच।” कहते हुए वो उठी और फिर अपने कर्मपथ की ओर बढ़ गयी। कविता सिंह   यह भी पढ़ें ॥ जीवन-संध्या मन की गाँठ (कोरोना इफ़ेक्ट ) रिश्ते तो कपड़े हैं   आपको लघु कथा मन वैरागी कैसी लगी ? अपने प्रतिक्रिया से हमें अवश्य अवगत कराए |अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो अटूट बंधन साइट सबस्क्राइब करें व पेज लाइक करें |

जीवन-संध्या

जीवन संध्या

मासूम बच्चों के कंधों पर अपनी उम्मीदों का बस्ता लाड़ कर उन्हें रेस में खुद ही दौड़ाते हैं तो जीवन संध्या में पछताना कैसा ? पर अक्सर ऐसा होता है |इन सब के पीच में पिसती है एक स्त्री ..  जो बच्चों और पिता के बीच में जिंदगी भर एक पुल बनाने की असफल कोशिश में लगी रहती है | इन तमाम उम्मीदों से इतर भी क्या जीवन है | जीवन संध्या की इन तमाम उलझनों से जूझ कर एक सकारात्मक दिशा देती कविता सिंह की कहानी.. “जीवन-संध्या” बालकनी में बैठे प्रकाश जी बार-बार सड़क की ओर देखते  और फिर अपने गेट की ओर, जैसे उन्हें किसी का बेसब्री से इंतजार हो। जैसे-जैसे वक़्त गुजर रहा था वैसे-वैसे उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वो उठे और रेलिंग के पास जाकर खड़े हो गए। “अरे! अभी आपने चाय नहीं पी? ये तो ठंडी हो गई।” पत्नी सुमन ने चाय के कप को उठाते हुए कहा। कोई जवाब ना पाकर उन्होंने प्रकाश जी की ओर देखा, वो सड़क की ओर मुँह किये खड़े थे, शायद उनकी बात सुने ही नहीं। “मैं दूसरा चाय लेकर आती हूँ।” सुमन जी थोड़ी तेज़ आवाज में बोलीं। “ओह! ठंडी हो गई? रहने दो मन नहीं है।” कहकर वो फिर सड़क की ओर देखने लगे। “अच्छा सुनो! मेड को बता दिया ना खाने में क्या-क्या बनाना है?” प्रकाश जी ने बाहर की तरफ देखते हुए ही पूछा। “हाँ जी! कितनी बार पूछोगे, वही बन रहा है जो आपने कह रखा है। मैं वही तो देख रही थी। अब चलिए अंदर नहीं तो ठंड लग जाएगी।”      फरवरी का महीना वैसे भी समझ नहीं आता, ठंड है या गर्म। धूप में गर्मी लगती और घर के भीतर ठंडी। प्रकाश जी ने महसूस किया कि वाकई हवा में नमी बढ़ गयी है लेकिन वो अभी अंदर नहीं जाना चाह रहे थे। “मेरा शॉल दे दो, कुछ देर बाद भीतर आऊँगा, तबतक तुम तैयारी देख लो।” “आप भी कभी-कभी बच्चों जैसी हरकतें करते हैं, अब कौन सा छोटे बच्चा का जन्मदिन है जो सजावट और तैयारी करनी है।” सुमन मुस्कुराते हुए बोली। “ठीक है, मुझ बुढ़े का ही जन्मदिन है पर बच्चे तो आ रहे ना, वो खुश होंगे देखकर।” बोलते हुए प्रकाश जी कि आवाज धीमी हो गयी। उनकी बात सुनकर सुमन उदास होकर अंदर आ गई। वो सोच रही थीं समय के साथ इंसान कितना बदल जाता है। अचानक ही बच्चों का चेहरा याद आ गया जब बचपन में वो इसी तरह अपने पापा का इंतजार करते थे और इन्हें हमेंशा ही आने में देर हो जाता। और अब, इधर जब से बच्चे बाहर गए हैं, तब से ये हर त्यौहार, हर मौके पर बच्चो का बेसब्री से इंतजार करने लगे हैं। छोटा बेटा विदेश में सेटल हो गया। शुरुआत में वो फोन पर बधाईयां जरूर देता पर धीरे-धीरे वो व्यस्त होता चला गया। अब उसकी भी क्या गलती उधर यहाँ के तीज त्योहार का चलन ही नहीं तो वो भी कब तक याद रखेगा। बड़ा बेटा यहीं पास के शहर में इंजीनियर है जिसके दो प्यारे-प्यारे बच्चे हैं, जिन्हें वो खुद भी बहुत याद करती हैं। जब तक बच्चों का स्कूल जाना नहीं हुआ था वो अक्सर यहाँ आ जाया करते थे, आखिर तीन ही घण्टे का तो सफर था, पर अब तो उनके स्कूल की छुट्टियों का इंतजार करना पड़ता है।       पिछले साल भी प्रकाश जी ऐसे ही बेसब्री से बच्चों का इंतजार कर रहे थे और ताव ये कि उन्हें फोन करके बताना नहीं है। रात 9 बजे तक राह खोजते रहे पर बच्चे नहीं आये। हाँ अगली सुबह उनका फोन आया माफी के साथ कि व्यस्तता के कारण पापा का जन्मदिन भूल गए।  प्रकाश जी बहुत दुःखी थे, उन्हें बच्चों की ये उपेक्षा सहन नहीं हो रही थी। “जिन बच्चों के लिए अपना पूरा जीवन खपा दिए अब उनके पास हमारे लिए ही टाइम नहीं।” वो सुमन से गुस्से में बोले थे। और सुमन, जिसने जीवन भर स्त्री होने के समझौते किये थे, वक़्त के साथ अब वो समझौता करने में परिपक्व हो चुकी थीं। यही कारण था कि उन्होंने यहाँ भी समझौता कर लिया था। पर प्रकाश जी के लिए ये आसान नहीं था। पुरुषोचित अहम से वो बाहर नहीं निकल पा रहे थे, वो किसी से कुछ कह भी नहीं पाते बस भीतर ही भीतर कुढ़ते रहते। बहुत ज्यादा हुआ तो सुमन जी को उलाहने सुना देते। “देखिए! अब हमारे बच्चे, बच्चे नहीं रहे, उनका भी अपना परिवार है, काम के हजारों पचड़े हैं।” उस दिन सुमन जी ने धीरे से कह ही दिया। “तो क्या हम उनके परिवार में शामिल नहीं हैं?” वो तैश में आकर बोले। सुमन जी चुप हो गईं। क्या कहतीं, बेटे ने साथ रहने के लिए कई बार कहा पर पति नहीं माने। कितना बचत करने के बाद तो अपना घर बनाया था उसे छोड़कर जाना उन्हें गंवारा नहीं।    आज फिर प्रकाश जी बच्चों का इंतजार कर रहे हैं। मेड खाना बनाकर चली गयी। धीरे- धीरे शाम का धुंधलका छाने लगा। वो फिर बालकनी में पहुँची जहाँ प्रकाश जी आँखे बंद किये आराम कुर्सी पर बैठे थे। सुमन ने बालकनी की लाइट ऑन की और धीरे से उनके कँधे पर हाथ रखा। “बच्चे आ गए क्या? वो चौंककर उठे। सुमन जी ने न में सिर हिलाया। “भीतर चलिए ठंड बढ़ रही।” “हाँ, चलो।” जैसे-जैसे वक़्त बीत रहा था उनके चेहरे पर उदासी छाती जा रही थी। “देखा तुमने? इस बार भी उन्हें याद नहीं।” उन्होंने सोफे पर बैठते हुए धीरे से कहा। “मैं फोन करूँ उन्हें?” सुमन जी ने हिचकिचाते हुए पूछा। “कोई जरूरत नहीं, अब उन्हें फोन करके बताना होगा कि उनके मां-बाप भी हैं? बोलो!.. दिन रात एक करके इन्हें पढ़ाया-लिखाया, किसी चीज की कमी नहीं होने दी, आज उनके पास हमारे लिए ही समय नहीं।” प्रकाश जी के सब्र का बांध टूटने लगा था।  उनकी बात सुनकर सुमन जी भी तिलमिला गईं। हमेंशा के उलाहनों से तंग आ गईं थीं। उनका सब्र भी जवाब देने लगा था। ” हमेंशा यही बात, यही अपेक्षा, यही उलाहना… किसका दोष है इसमें? सिर्फ उनका ही या हमारा भी? परिवार की … Read more

कठिन वक्त (कारोना इफेक्ट -2)

कविता सिंह

जिस शहर को उन्होंने अपने हाथों से सींच कर सुंदर बनाया था वो एक झटके में पराए हो गए |कोरोना के साइड इफेक्ट के रूप में मजदूरों और छोटे स्तर के कामगारों का भारी संख्या में गाँव की तरफ पलायन हुआ | पर गांवों ने उन्हें बाहें पसार कर अपनाया नहीं | रिश्तों की कितनी परते खुलीं |कितने रिश्ते टूटे | पर क्या कोई बीच का रास्ता भी हो सकता है जहाँ हाथों को काम भी मिले और रिश्तों को मुस्कुराहट भी | आइए पढ़े कविता सिंह जी की कोरोनकाल के विस्थापित कामगारों के रिश्तों के ताने -बाने को सँजोती ऐसी ही खूबसूरत कहानी ..   कठिन वक्त (कारोना इफेक्ट -2) “सुना तुमने! प्रकाश क्या कहते चल रहा है?” मधु अपने पति चंद्रेश से बहुत धीरे से बोली, मानों दीवारें भी उसकी बात सुन लेंगी। “क्या हुआ? मुझसे तो कुछ नहीं कहा उसने।” चंद्रेश ने पत्नी की ओर देखते हुए पूछा। “सोनाली कह रहा थी कि दीदी, अब हम यहीं गाँव में रहेंगे, भले की कम कमाएं पर चैन से तो जिएंगे।” मधु ने इधर-उधर देखते हुए कहा। उसकी बात सुनकर चंद्रेश एक पल चौंका फिर मुस्कुराते हुए बोला—” तुम भी पागल हो बिल्कुल, अरे! अभी इस कोरोना से डरे हुए हैं वो….तुम नहीं जानती ये शहर की हवा बहुत बुरी होती है, इतना आसान नहीं गाँव में टिकना।” “अरे आप नहीं समझ रहे, अगर वो सच में यहाँ रहने लगा तो अपने हिस्से के जमीन पर खुद खेती करने लगेगा।” मधु ने जब से ये बात सुनी थी तभी से परेशान थी और ये परेशानी उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी। “चिंता मत करो, माहौल सही होते ही सब के सब फिर भागेंगे। अगर गाँव में ही रहना होता तो वहाँ शहर में कीड़े-मकोड़े की तरह झुग्गी झोपड़ियों में सड़ते नहीं। गया तो था पिछली बार प्रकाश के पास…एक हफ्ते का सोचकर गया था और चार ही दिन मेरा दम घुटने लगा वहाँ।” “फिर भी उसके मन की टोह ले लो, एक तो जमीन कम है, उसका हिस्सा जोतते थे तो अच्छी गुज़र रही अगर वो भी हाथ से निकल गयी तो बेटा की पढ़ाई और सुमन की शादी ….” “चुप करो तुम..कहाँ की बात कहाँ तक ले जाती हो। खाना दो, कब से माथा खा रही मेरा।” चंद्रेश तिलमिलाकर बोला क्योंकि वो समझ गया था मधु सही कह रही है।    अगले दिन मशीन पर प्रकाश बैठा हुआ कुछ सोच रहा था तभी चंद्रेश वहाँ पहुँचा। उसे मधु की बात याद आ गयी तो सोचने लगा क्यों ना प्रकाश के मन की थाह ली जाए। वो भी जाकर प्रकाश के बगल में बैठ गया। “क्या सोच रहे हो प्रकाश?” “अरे भैया! आप कब आये?” प्रकाश उसकी बात सुनकर चिहुँक गया। “सब्जियों में पानी देना था, पंपिंग सेट चलाने आया तो तुम्हें यहाँ देखकर बैठ गया।” चंद्रेश खेतों की ओर देखते हुए बोला। “मैं सोच रहा था कितने दिन ऐसे चलेगा, यहीं कुछ काम धंधा शुरू करूँ पर समझ नहीं आ रहा, क्या काम करूँ?” प्रकाश चिंतित स्वर में बोला। “हाँ, ये बात तो है पर सुनने में आ रहा कि जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा।” चंद्रेश ने प्रकाश के मन को टटोलना चाहा। “भैया! हम जो भुगतकर वापस आएं हैं वो तो हम और हमारे जैसे लोग ही समझ सकते हैं। अब हिम्मत नहीं वापस जाने की।” “ये क्या बोल रहे हो! वहाँ तुम्हारा जमाजमाया धंधा चल रहा था, ऐसे कैसे वापस नहीं जाने का सोच लिया तुमने?” चंद्रेश थोड़ा घबड़ा गया। “हमारे जैसे कितने लोगों का जो छोटा मोटा धंधा चल रहा था सब का सब चौपट हो गया। अब जब शुरुआत ही करनी है तो यहीं अपने गाँव जवार में ही करेंगे, फिर से अनाथों की तरह सबका मुँह तो नहीं देखना पड़ेगा, कम से कम यहाँ हमारे अपने, हमारे जानने वालों का साथ तो रहेगा।” प्रकाश बेचारगी भरी आवाज में बोला। “पर प्रकाश! इतनी सी जमीन से हम दोनों तो गुजारा नहीं चल पाएगा….” कहकर चंद्रेश चुप हो गया। “सोचते हैं भैया।” कहकर प्रकाश वहाँ से उठकर चला गया।   “दीदी! डिब्बे में घी तो है ही नहीं, राजू बिना उसके दाल भात खाता ही नहीं।” घर में घुसते हुए प्रकाश के कानों में सोनाली की आवाज सुनाई दी, वो कुछ पल को वहीं ठहर गया। “घी खत्म हो गया है, अब क्या-क्या खरीदें पैसे का कुछ पता ही नहीं और खर्चे बढ़ते ही जा रहे।” ये भाभी की आवाज थी। “पर कल तो उसमें आधे डब्बा घी था दीदी…” सोनाली बोल पड़ी। तभी प्रकाश आंगन में पहुँच गया। उसे देखते ही सोनाली चुप हो गयी। “कहाँ चले गए थे सवेरे-सवेरे, बिना कुछ खाये पिये?” सोनाली प्रकाश को देखते ही बोल पड़ी। “कहीं नहीं ऐसे ही खेतों की ओर निकल गया था। तुम खाना निकालो मैं हाथ मुँह धोकर आता हूँ।” कहकर वो चांपाकल पर हाथ मुँह धोने लगा।   सोनाली कोठरी में खाना लेकर आ गई। सात साल का राजू खाना खाने में आनाकानी कर रहा था, वो उसे फुसलाकर खिलाने की कोशिश करने लगी। “देखो सोनाली! जब तक कुछ कमाई- धमाई का जुगाड़ नहीं हो जाता तब तक किसी तरह कम ज्यादा में गुजारा करने की कोशिश करो।” प्रकाश ने कौर अपने मुँह में डालते हुए कहा। “आप समझ नहीं रहे हैं, दीदी का व्यवहार बहुत बदल गया है..पहले यही दीदी इतनी खातिरदारी करती थीं हमारी।” “पहले की बात और थी, साल, छः महीने में हमलोग हफ्ते-महीने के लिए आते थे, और कुछ ना कुछ लेकर आते थे साथ में पैसा भी, पर इस बार उजड़े हुए आये हैं और जाने का कोई ठिकाना भी नहीं।” प्रकाश ने सोनाली को समझाते हुए कहा। “आप भी ना, अरे तो कौन सा बेगार का खा रहे हम, इतने सालों से हमारे हिस्से का जमीन जोत रहे हैं हमने कभी कुछ नहीं कहा। साल में एक बार आये तो जो खिलाया-पिलाया वही ना।” सोनाली तमतमाकर बोली। “फालतू बात मत करो, आज ये लोग हैं तभी तीन महीने से जी खा रहे हैं हम।” प्रकाश ग़ुस्से में बोला। “हाँ, तभी तो अब चीजें छुपाई जाने लगी हैं, सही कह रही थीं रमा ताई…” “रमा ताई?? उससे बात हुई तुम्हारी? अरे उस कुटनी की बात … Read more

छोटी सी उलझन

छोटी सी उलझन

स्त्री विमर्श के इस दौर में एक मांग पुरुष विमर्श की भी उठने लगी है | ऐसा रातों -रात नहीं हुआ पर ये सच्चाई  है की  पुरुष भी शोषण का शिकार हो रहे हैं | कई  बार वो जान बूझ कर परिवार की शांति के लिए चुप रह जाते हैं वहीं से मानसिक शोषण शुरू होता है |भले ही आप और हम उसे विमर्श की श्रेणी में रखे या न रखे पर इस पर बात जरूर होनी चाहिए | “छोटी सी उलझन’ एक ऐसी ही कहानी है | छोटी सी उलझन कहाँ गलती हो गई मुझसे?” रेखा का ऐसा रूप देखकर विकास सकते में था। सात वर्षों के वैवाहिक जीवन में आज पहली बार उसे एहसास हुआ कि कहीं उससे गलती तो नहीं हो गयी। आज वो अपने कमरे में अकेला लेटा यही सोच रहा था। एक छोटी सी बात का बतंगड़ बन गया था, सुबह वो ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था तभी रेखा ने बात छेड़ दी। “कहा ना मैंने कि गाँव की जमीन बेचकर यहाँ शहर में जमीन ले लेते हैं पर तुम्हारे कान पर तो जूं ही रेंगती।” रेखा की हर बात मानने वाला विकास उसकी ये बात सुनकर भड़क उठा— “आजकल रोज यही बात लेकर क्यों झिक-झिक करती हो? कितनी बार कहा मैंने की वो जमीन ही है जो हमें हमारे गाँव से जोड़कर रखे हुए है, कान खोलकर सुन लो मैं अपनी जड़ों से कटकर नहीं रह सकता, समझी ना तुम?” विकास का लहजा सुनकर वो तिलमिला गयी, आखिर क्यों ना तिलमिलाए, विवाह के सात वर्षों में पहले कभी विकास ने उससे इस तरह से बात नहीं  की थी। अपनी बात की अवहेलना उससे सहन नहीं हो रही थी। वो उठी और चिल्लाते हुए बोली— “रहो तब अपनी जड़ों के साथ मैं कुहू को लेकर मम्मी के यहाँ जा रही।” कहने के साथ ही वो अपना और कुहू का सामान पैक करने लगी। विकास भी बिना कुछ बोले आफिस के लिए निकल गया।    शाम को जब विकास आफिस से वापस आया तो रेखा सच में बेटी को लेकर अपनी माँ के घर चली गयी थी। अकेला विस्तर पर लेटा विकास पंखे को एकटक देखे जा रहा था। नींद उसकी आँखो से कोसों दूर थी। बचपन से लेकर अबतक का अतीत उसकी आंखों के सामने से गुजर रहा था। पिताजी गाँव में स्कूल मास्टर थे और माँ एक गवईं गृहणी। मां का अनपढ़ होना पिताजी के लिए जीवन भर का कलंक हो गया था, जिसे मिटाने के प्रयत्न में वो हमेंशा मां का तिरस्कार करते रहे। पिताजी जी की दृष्टि में मां जीवन भर केवल एक नौकर ही रही। जब वो छोटी-मोटी भूलों पर भी मां को बुरी तरह लताड़ देते, तो फिर घर या बच्चे के विषयों में मां को कैसे शामिल करते। विकास ये सब देखते हुए बड़ा होता रहा और मां को कभी चुप रहते तो कभी पानी सर से ऊपर निकल जाने पर पिताजी से लड़ते हुए भी देखा। विकास के कोमल मन पर मां की स्थिति का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसने कभी भी किसी स्त्री को स्वयं से नीचा नहीं समझा। विवाह के बाद उसने अपनी पत्नी को वो सारे मान सम्मान देने की भरसक कोशिश की जो उसकी माँ को कभी नहीं मिले। इसके लिए मित्रों और स्वजनों से अक्सर उसे कटाक्ष भी सुनने पड़ते रहे थे, जैसे- “बीवी से तो इसकी फटती रहती है”,..”बिना बीवी की सहमति के एक कदम नहीं उठाता”… सबसे प्रसिद्ध वाक्य- “जोरू का गुलाम है” आदि। वो सबकी बात हँसी में उड़ा देता क्योंकि उनकी बातों से अधिक उसे अपनी गृहस्थी प्यारी थी। अच्छे शहर में अच्छी नौकरी, एक समझदार और सुघड़ जीवनसाथी…जिंदगी अच्छी चल रही थी। मां और पिताजी भी बहुत खुश थे। बस जब वो पत्नी के साथ गाँव जाता तो पिताजी उसे एक ही बात समझाते कि औरतों को ज्यादा सर नहीं चढ़ाना चाहिए। वो उनकी बात पर कुछ बोलता नहीं बस मुस्कुरा कर टाल जाता। उसे एक आत्मसंतुष्टि थी कि उससे जुड़े उसके सारे रिश्ते खुश हैं। रेखा भी एक सुलझी स्त्री थी। घर परिवार और रिश्तों में अच्छा संतुलन बनाकर रखती। पिता के सेवानिवृत्ति के बाद वो मां पिताजी को अपने साथ ही शहर ले आया, रेखा ने कोई आपत्ति नहीं की बल्कि उनकी देख-रेख बहुत अच्छे से कर रही थी। इसी बीच उसके गर्भवती होने पर घर में खुशी का माहौल रहने लगा। गर्भावस्था से लेकर कुहू के जन्म के बाद तक मां ने दोनों की देखरेख बहुत कुशलता से सम्भाल ली थीं जिससे वो भी बिल्कुल निश्चिंत हो गया था। बेटी के जन्म के बाद से स्थिति कुछ बदलने लगी, विकास को रेखा के व्यवहार में एक अलग तरह का आभास मिलने लगा। उसने उसकी धीरता को भीरुता समझना आरम्भ कर दिया। अब तो घर के सभी निर्णय रेखा द्वारा ही लिये जाने लगे, उसे केवल सहमति का मुहर लगाना होता। घर के निर्णय तक तो सही रहा पर अब तो वो बाहर के निर्णय भी स्वयं लेने लगी, विकास घर में शांति बनाए रखने के लिए थोड़ी फेरबदल के साथ उसके निर्णयों पर चलने भी लगा,  जबकि अभी तक कोई भी निर्णय, उनदोनों की सहमति से, आपस मेें बात करके लिया जाता रहा था। बेटी क्या खाएगी, क्या पहनेगी, उसे किस वस्तु की आवश्यकता है, मां को कितने की साड़ी आनी चाहिए पिताजी का इलाज किस डॉक्टर से करवाना है, उसे क्या पहनना है, किस रिश्ते पर अधिक ध्यान देना है किसपर नहीं देना है, ये सभी निर्णय रेखा द्वारा लिया जाने लगा था। यहाँ तक भी ठीक था पर उसे पहली बार बुरा तब लगा जब पिताजी के आकस्मिक निधन के बाद अंतिम संस्कार के लिए रेखा ने गाँव में मृत्युभोज करने के लिए मना किया। “क्या जरूरत है गाँव में जाकर इतनी तामझाम करने की?” रेखा ने विरोध किया। “कैसी बात करती हो वहीं पिताजी के सभी परिचित हैं, सारे नाते रिश्तेदार हैं, अगर वहाँ नहीं करेंगे तो दुनिया क्या कहेगी।” वो पहली बार रेखा से रूखे शब्दों में बात किया था। “देख लो, तुम्हारे भले के लिए ही कह रही थी। क्योंकि ये वक़्त और पैसे दोनों की बर्बादी है।” अनमने मन से रेखा ने कहा था। ऐसे ही … Read more

कविता सिंह जी की कवितायें

कविता सिंह

कविता लिखी नहीं जाती है …आ जाती है चुपचाप कभी नैनों के कोर से बरसने को, कभी स्मित मुस्कान के बीच सहजने को तो कभी मन की उथल पुथल को कोई व्यवस्थित आकार देने को | जहाँ कहानी में किस्सागोई का महत्व है वहीँ कविता में बस भाव में डूब जाना ही पर्याप्त है | कहानी हो या कविता शिल्पगत प्रयोग बहुत हो रहे हैं होते रहेंगे| कभी कच्ची पगडण्डी पर चलेंगे तो कभी सध कर राजपथ में भी बदलेंगे  पर भाव की स्थिरता ही कविता को जमीन देती है | आज कविता सिंह जी की कुछ ऐसी ही कवितायें लेकर आये हैं जहाँ कहीं मन की उलझन है तो कहीं प्रेम का अवलंबन तो कहीं स्त्री सुलभ कोमल भावनाएं … कविता सिंह जी की कवितायें छटपटाहट अक्सर ही आती है वो रात के सन्नाटे में, झकझोरती है मुझे, जब मैं होती हूँ मीठी सी नींद में, बुन रही होती हूँ कुछ मधुर सपने, तभी कानों में पड़ती है जानी पहचानी एक सिसकी, खोलती नहीं आँखें मैं कहीं चली ना जाए वो, बोलती नहीं वो, सिर्फ सिसकती है, पता है मुझे क्या चाहती है वो मुझसे!! मैं लिखना चाहती हूँ उसे उसकी पीड़ा को, अपनी कविता और कहानियों में, पर हर बार चूक जाती हूँ शब्दों में पिरोने से उसे, सोचती हूँ कुछ नये शब्द गढ़ लूँ जो व्यक्त कर सकें उसे, पर नहीं गढ़ पाती, और अक्सर ही लथपथ होकर उठ बैठती हूँ, आप पूछेंगे कौन है वो, नहीं बता सकती, बस इतना जानती हूँ, जब से खुद से परिचय हुआ तब से जानती हूँ उसे, जानती हूँ उसकी तलाश को, उसकी तकलीफ को भी, मुझसे अछूती नहीं इच्छाएं भी उसकी!! पर लिख पाऊंगी कभी मैं उसकी बेचैनी, उसकी तड़प? या फिर यूँ ही नींद में अचानक सुनकर उसे छटपटाती रहूँगी मैं?? कामवाली_बाई# वो घर-घर जाकर धुलती है जूठे बर्तन रगड़-रगड़कर, जैसे मांज रही हो लिखा भाग्य, या अपने बच्चों का आने वाला कल!! झाड़ती है जालें और बुहारती पोछती है फर्श हौले से, धीरे-धीरे जैसे, रह न जाये उसकी किस्मत के बिखरे टूटे कोई भी कण!! फिंचती है मैले कपड़े पटक-पटककर, धोती है दाग धब्बे, जैसे मिटा रही हो रात में पड़ी मार के निशान,और आत्मा पर पड़े गालियों के दाग!! जानती है वो, चलती रहेगी जिंदगी यूँ ही लगातार, ना मंजेगा भाग्य, ना ही फिकेंगे किस्मत के बिखरे कण और ना ही मिटेंगे तन मन पे पड़े घाव के निशान….. तो फिर झटकारती है कपड़ों के संग सपने भी और टांग देती अलगनी पर…..     ——–#कविता_सिंह#——— मन_गौरैया# तन की कोठरी में चहकती फुदकती मन गौरैया कभी पंख फड़फड़ाती कभी ची- ची करती भर जाती पुलक से नाचती देहरी के भीतर। उड़ना चाहती पंख पसार उन्मुक्त गगन में देखना चाहती ये खूबसूरत संसार…. नहीं पता उसे ये लुभावने संसार के पथरीले धरातल, और छद्म रूप धरे, मन गौरैया के पर कतरने ताक में बैठे शिकारी… हर बार कतरे जाते सुकोमल पंख कभी मर्यादा, कभी प्रेम, कभी संस्कार, कभी परम्परा की कैंची से!!! और फिर! अपने रक्तरंजित परों को फड़फड़ाना भूल वो नन्हीं गौरैया समेट कर अपना वजूद, दुबक जाती अपने भीत आँखो को बन्दकर अपनी अमावस सी अँधेरी कोठरी में। फिर एक किरण आशा की करती उजियारा धीरे -धीरे मन गौरैया खोलती हैं आँखें अपने उग आये नए परों को खोलती अपने दुबके वजूद को ढीला छोड़ दबे पांव शुरू करती फिर फुदकना। पर पंख कतरने का भय नहीं छोड़ता पीछा.. और उस भय से डरी-सहमी गौरया आहिस्ता-आहिस्ता हो जाती है विलुप्त!! अंततः रह जाता है सिर्फ अवशेष अंधेरी कोठरी का!! …………कविता सिंह………… जिन्दगी  जिंदगी तू इतनी उलझी – उलझी सी क्यों है?? कभी आशा कभी निराशा कभी हो निष्क्रिय विचरती सी क्यों है?? कभी खुशी कभी दुःख कभी भावों से विमुक्त रिक्ती सी क्यों है?? कभी शोर कभी सन्नाटा कभी वीरानों में भटकती आत्माओं सी क्यों है?? कभी अपना कभी पराया कभी साहिल की रेत सरीखी उड़ती सी क्यों है?? कभी अतीत कभी भविष्य कभी आज से भी पीछा छुड़ाती सी क्यों है?? कभी सपनों कभी ख्वाहिशों कभी अवसाद में डुबती – उतराती सी क्यों है?? कभी बंधती कभी बांधती कभी हो उन्मुक्त खुशबू बिखेरती सी क्यों है?? कभी ठहरती कभी भागती कभी हर  गति से परे तिरस्कृत सी क्यों है??? बता ना जिंदगी तू इतनी उलझी उलझी सी क्यों है???            ………………..कविता सिंह                “सर्मपण” आओ ना एक बार, भींच लो मुझे उठ रही एक कसक अबूझ – सी रोम – रोम प्रतीक्षारत आकर मुक्त करो ना अपनी नेह से। आओ ना एक बार, ढ़क लो मुझे, जैसे ढ़कता है आसमां अपनी ही धरा को बना दो ना एक नया क्षीतिज । आओ ना एक बार, सांसो की लय से मिला दो अपनी सांसों की लय को प्रीत हमारी नृत्य करे धड़कनों के अनुतान पर रोम  रोम में समा लो ना मुझे। आओ ना एक बार, सुनाई दे ध्वनि शिराओं में प्रवाहित रक्त की, स्वेद की बूंदें भी हो जाएं अमृत जकड़ो ना मेरी देह को। आओ ना एक बार, बन जाते हैं पथिक उस पथ का जिसकी यात्रा अनंत हो, कर दो ना निर्भय विभेदन के भय से। आओ ना एक बार, करो ऐसा यज्ञ जिसमें अनुष्ठान हो मिलन की आहुति हो प्रेम की करो ना हवन जिसमें मंत्र हों समर्पण, समर्पण और अंततः समर्पण।। हां आओ ना एक बार……. —–कविता सिंह हां!  हो तुम     हां!  हो तुम हृदय में , जैसे मृग के कुंडल में स्थित कस्तूरी, आभामंडल सा व्याप्त है तुम्हारे अस्तित्व का गंध, जो जगाए रखता है निरंतर एक प्यास मृगतृष्णा सी, हां मृगतृष्णा सी -…. एक अभिशप्त तृष्णा जो जागृत रखती है अपूर्णता के एहसास को मृत्युपर्यंत ….. हां ये अपूर्णता ही तो परिपूर्ण करती है जीवनचक्र, नहीं होना मुक्त इस एहसास से, बस यूं ही कस्तूरी सा बसे रहो हृदय तल में, जिसकी गंध से अभिभूत एक विचरण जो जीवित रख सके मृत्यु तक…. —-कविता सिंह——–      #अव्यक्त भाव की पीड़ा# ऐसा प्रायः क्यों होता है व्यतिथ हृदय दग्ध चित्त व्यग्र मन शब्दों का अवलम्ब ले उतर जाना चाहते हैं किसी पन्ने पर.. प्रायः ऐसा होता है कि शब्द गायब हो शुन्य में विलीन होते … Read more

मन की गाँठ (कोरोना इफ़ेक्ट )

ये समय जब इतिहास में लिखा जाएगा तो शायद कोरोना काल के रूप में जाना जाएगा | साहित्य पर समय और समाज का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है | आज कई कहानियाँ , कवितायें कोरोना को केंद्र में ले कर लिखी जा रही हैं | प्रस्तुत कहानी मे भी  कविता सिंह जी ने भी कोरोना को केंद्र में लिख कर एक बहुत मर्मस्पर्शी कहानी बुनी है | हालांकि ये कहानी स्त्री मन की कोमल भावनाओं को इंगित करती है ..उसके मन की परतों को खोलती है | स्त्री ममत्व का दरिया है जो चाहकर भी उन रिश्तों के प्रति कठोर नहीं हो पाती जिन्हें उसने जीवन भर संजोया -संवारा है | यहाँ कोरोना मन की गांठों को खलने का कारण  बनता है …. मन की गाँठ (कोरोना इफेक्ट) साठ साल की सोमवती जी बेचैनी से करवट बदल रही थीं, कभी उठती बाथरूम जातीं कभी ग्लास में पानी उड़ेलतीं। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि आज की खबर से वो इतनी बेचैन क्यों थीं। बार-बार खिड़की के पर्दे हटाकर देखतीं, सुबह हुई या नहीं। कोई तो दुःख था जो उन्हें मथ रहा था। कितनी रात गए उनकी आंख लगी उन्हें पता ही नहीं चला। “दादी..दादी उठो! आज कितनी देर कर दी तुमने, देखो तो दस बज गए।” दस साल के पोते वीर की आवाज सुनकर उनकी आंख खुल गयी। “अरे इतनी देर हो गयी आज!” वो बड़बड़ाते हुए उठी और वीर को प्यार करके बाथरूम में घुस गयीं। ” पापा! दादी अभी सो रही थीं, मैं अभी जगाकर आया उनको।” बेटे की बात सुनकर लक्ष्मण और सीमा एकदूसरे का मुँह देखने लगे। उनके लिए ये बेहद आश्चर्य की बात थी। मां को यहाँ आये दो साल हो गए थे पर कभी भी वो इतनी देर तक नहीं सोई। अबतक तो वो सोसाइटी के बाहर वाले मंदिर के भजन कीर्तन में शामिल होकर घर भी आ जाती थीं। लक्ष्मण को चिंता हुई वो मां के कमरे की ओर बढ़ गया। वहाँ जाकर देखा तो सोमवती जी चुपचाप कुर्सी पर बैठी खिड़की के बाहर देख रही थीं। ” क्या हुआ माई, तबियत ठीक नहीं क्या तुम्हारी? आज तुमने पूजा भी नही किया?” ‘नहीं लछमन ऐसी कोई बात नही, रात में देर से आँख लगी तो उठने में देर हो गई।” “तो क्या हुआ माई चलो बाहर वीरू बैठा नाश्ते के लिए इंतजार कर रहा।” लक्ष्मण ने मां को सहारा देने के लिए हाथ बढ़ाया। “तु चल हम आ रहे हैं, आज तो तुम्हारी ऑफिस भी नहीं होगी, कोई बीमारी फैली है ना!” “हाँ माई, बड़ी खराब बीमारी है, एक आदमी से दूसरे के हो जाती है। इसी कारण सरकार ने सबकुछ  बन्द कर दिया है।” “चल!” कहते हुए वो अपने चेहरे की मायूसी को ढकने की नाकाम कोशिश करते हुए लक्ष्मण के साथ बाहर हॉल में आ गईं जहाँ लक्ष्मण की पत्नी सीमा और वीर उनदोनों का इंतजार कर रहे थे। सीमा ने सबको नाश्ता परोसा और उनकी तरफ देखते हुए चिंतित स्वर में बोली– “क्या हुआ मां जी? आपकी तबियत तो ठीक है ना?” “हाँ! तबियत सही है हमारी। अच्छा ये बताओ कबतक बन्द रहेगा सबकुछ?” “बस कुछ दिन की बात है माई।” लक्ष्मण ने जवाब दिया। सबलोग नाश्ता करके उठने लगे, उन्होंने देखा सोमवती जी ने तो कुछ खाया ही नहीं। उन्हें लगा लोकडाउन के वजह से उनका मन उदास है।   सोमवती जी पिछले दो साल से अपने छोटे बेटे के साथ शहर में रह रहीं थी और उनके पति बड़े बेटे के साथ पास के गाँव में।    उन्होंने दो सालों से अपने पति का मुँह नहीं देखा था। पर आज जब टीवी में सुना कि ये बीमारी बच्चों और बूढ़ों के लिए ज्यादा खतरनाक है तब से उनका मन बेचैन था। दो वर्ष की नाराजगी आँखों के रास्ते पिघलने लगी थी। बार-बार सोचती बच्चों से एकबार गाँव की खबर लें पर चाह के भी वो ऐसा नहीं कर पातीं आखिर करें भी तो कैसे करें, खुद ही कसम दे रखीं थीं इस घर में उनके सामने गाँव की कोई बात नहीं होगी। हाँ कभी- कभी बड़े बेटे राम से बात जरूर कर लेतीं पर वहाँ भी पिता के बारे में बात करने की मनाही थी उनकी तरफ से। आखिर क्या किया था राम के बाबूजी ने, जिससे तिलमिलाकर उनकी जैसी धैर्यवान स्त्री ने इतना बड़ा फैसला ले लिया। आज सबकुछ फ़िल्म की तरह उनके आँखों के सामने घूमने लगा था।   पैंतालीस बरस पहले ब्याह के आईं थी उस घर में। जहाँ सास, विधवा चचिया सास और एक बड़ी ननद ने उनका स्वागत किया था। भरा पूरा घर था, अपनी उम्र से तीन साल छोटा एक देवर और उससे दो साल छोटी एक और ननद, जिनकी जिम्मेदारी सास ने उनको हांडी छुआते समय ही सौंप दिया। पंद्रह बरस की नादान उमर में ही पूरी गृहस्थी का बोझ ढ़ोते हुए वो कब परिपक्व हो गयीं उन्हें खबर ही नहीं लगी। बड़ी ननद ससुराल में झगड़ा करके नैहर में आके बैठ गयीं थीं जिनका हुक्म बजाते-बजाते रात हो जाती पर उनको सोमवती जी कभी सन्तुष्ट नहीं कर पायीं। ससुरजी दबंग इंसान थे उनके सामने किसी के मुँह से आवाज भी नहीं निकलती। सबकी दबी कुचली कुंठाएँ बिचारी सोमवती पर ही उतरने लगी थीं। ले देकर एक पति थे जो अपना सा लगते थे पर वो भी मां और बड़ी बहन के सामने केवल उन्हींलोगों का पक्ष लेते। सोमवती जी को संस्कार घुट्टी में पिलाकर पाला गया था, कुछ भी हो जाता मुँह नहीं खोलती बस चुपके से अँधेरी रातों में आँसू बहा लिया करतीं। दिनरात सबको खुश करने में अपना जी जान लगा देतीं पर पर वो कभी अपनी इस कोशिश में कामयाब नहीं हो पायीं। बस एक सहारा रहा जीवन का कि पति ने कभी उनमें मीनमेख नहीं निकाला ये अलग बात थी कि कभी परिवार के अन्याय के खिलाफ उनका पक्ष भी नहीं लिया। जीवन के इन कटु अनुभवों को अपनी नियति मानकर वो चुपचाप सब सहती रहीं पर कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की। प्यार के दो मीठे बोल को तरसती सोमवती को भगवान ने समय पर दो बेटे राम और लक्ष्मण के रूप में उनके जीने के लिए दो बड़े मकसद दे दिए, … Read more