निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे का सारांश व समीक्षा

निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे का सारांश व समीक्षा

–‘मुझे लगा, पियानो का हर नोट चिरंतन खामोशी की अँधेरी खोह से निकलकर बाहर फैली नीली धुंध को काटता, तराशता हुआ एक भूला-सा अर्थ खींच लाता है। गिरता हुआ हर ‘पोज’ एक छोटी-सी मौत है, मानो घने छायादार वॄक्षों की काँपती छायाओं में कोई पगडंडी गुम हो गई हो…’   निर्मल वर्मा जैसे कथाकार दुर्लभ होते हैं l जिनके पास शब्द सौन्दर्य और अर्थ सौन्दर्य दोनों होते है l सीधी-सादी मोहक भाषा में अद्भुत लालित्य और अर्थ गंभीरता इतनी की कहानी पढ़कर आप उससे अलग नहीं हो सकते… जैसे आप किसी नदी की गहराई में उतरे हो और किसी ने असंख्य सीपियाँ आपके सामने फैला दी हों l खोलो और मोती चुनो l यानि कहानी एक चिंतन की प्रक्रिया को जन्म देती है… ऐसी ही एक कहानी है परिंदे l जिसे बहुत पहले तब पढ़ा था जब एक जिम्मेदार पाठक होना नहीं आता था l अभी कल फिर से पढ़ी और जुबान पर नरोत्तम दास के शब्द ठहर गए, “‘तुम आए इतै न कितै दिन खोए।“ ये भूमिका इसलिए क्योंकि एक पाठक के तौर पर आप सोच नहीं सकते कि एक सीधी सादी दिखने वाली प्रेम कहानी आपको जीवन की इतनी गहराइयों तक ले जाएगी l कहानी के मुख्य पात्र हैं लतिका, डॉ.मुखर्जी और ह्यूबर्ट l अन्य सह पात्रों में प्रिन्सपल मिस वुड,कैप्टन गिरीश नेगी और छात्रा जूली l   निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे का सारांश   कहानी कुछ इस तरह से है कि नायिका कॉनवेन्ट के स्कूल के होस्टल के रंगीन वातावरण में अकेलेपन के दर्द के साथ जी रही है। इसका कारण उसका अतीत है l वो अतीत जो उसने गिरीश नेगी के साथ गुजारा है l  जिसे वह चाहकर भी विस्मृति नहीं कर पा रही है। कुमाऊँ रेजिमेंट सेंसर के कैप्टन गिरीश नेगी से लतिका ने प्रेम किया था और युद्ध के कारण उन्हें कश्मीर जाना पड़ा। उसके बाद गिरीश नेगी लौट नहीं सके। प्लेन-दुर्घटना में गिरीश की मृत्यु हो चुकी है। पर अब भी लतिका उसे भूल नहीं पाती। वह मेजर गिरीश के साथ गुज़ारे दिनों की स्मृतियों को अपना साथी बना, कॉनवेन्ट स्कूल में नौकरी करते हुए दिन व्यतीत करती है। उसके द्वारा कहा गया एक वाक्य देखें… “वह क्या किसी को भी चाह सकेगी, उस अनुभूति के संग, जो अब नहीं रही, जो छाया-सी उस पर मंडराती रहती है, न स्वयं मिटती है, न उसे मुक्ति दे पाती है।”   वहीं के संगीत शिक्षक मिस्टर ह्यूबर्ट लतिका को पसंद करते हैं l उन्होंने एक बार लतिका को प्रेम पत्र लिखा था। हालांकि वो नेगी वाला प्रकरण नहीं जानते हैं और पूरी बात पता चलने पर क्षमा भी मांगते हुए पत्र वापस ले लेते हैं l लतिका को उसके इस बचकाना हरकत पर हँसी आयी थी, किन्तु भीतर-ही-भीतर प्रसन्नता भी हुई थी। ह्यूबर्ट का पत्र पढ़कर उसे क्रोध नहीं आया, आयी थी केवल ममता। लतिका को लगा था कि वह अभी इतनी उम्रवाली नहीं हो गई कि उसके लिए किसी को कुछ हो ही न सके। लेकिन फिर भी उसे नहीं लगता कि उसे वैसी ही अनुभूति अब किसी के लिए हो पाएगी।   डॉ. मुखर्जी  कहानी के एक अन्य महत्वपूर्ण पात्र हैं l मूल रूप से वो बर्मा के निवासी हैं l बर्मा पर जापानियों का आक्रमण होने के बाद वह इस छोटे से पहाड़ी शहर में आ बसे थे । कुछ लोगों का कहना है कि बर्मा से आते हुए रास्ते में उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई। उनके मन‌ में भी अतीत है । लेकिन वे अपना अतीत कभी प्रकट नहीं करते है।बातों से पता चलता है कि उनके दिल में भी अतीत के प्रति मोह है ,प्रेम है तभी तो एक जगह वो कहते है-   “कोई पीछे नहीं है, यह बात मुझमें एक अजीब किस्म की बेफिक्री पैदा कर देती है। लेकिन कुछ लोगों की मौत अन्त तक पहेली बनी रहती है, शायद वे ज़िन्दगी से बहुत उम्मीद लगाते थे। उसे ट्रैजिक भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आखिरी दम तक उन्हें मरने का एहसास नहीं होता।”   लेकिन डॉक्टर मुखर्जी को लतिका का ये एकांत नहीं भाता एक जगह वो कहते हैं … “लतिका… वह तो बच्ची है, पागल! मरनेवाले के संग खुद थोड़े ही मरा जाता है।”   निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे की समीक्षा   अगर कहानी के पात्रो पर गौर करें तो लतिका, डॉ मुखर्जी सभी अपना दर्द लिए जीते है। ऊपर से हंसने की असफल कोशिश करने वाले और अन्दर ही अन्दर रोते हुए इन पात्रों की बात व्यवहार में आने वाले बारीक से बारीक परिवर्तन को लेखक द्वारा प्रस्तुत किया गया है l   प्रेम कहानी सी लगने वाली कहानी एक विषाद राग के साथ आगे बढ़ती है l काहनी अपने नाम को सार्थक करती है या यूँ कहें कि अपने गंभीर अर्थ के साथ खुलती है कुछ पंक्तियों से …   पक्षियों का एक बेड़ा धूमिल आकाश में त्रिकोण बनाता हुआ पहाड़ों के पीछे से उनकी ओर आ रहा था। लतिका और डॉक्टर सिर उठाकर इन पक्षियों को देखते रहे। लतिका को याद आया, हर साल सर्दी की छुट्टियों से पहले ये परिंदे मैदानों की ओर उड़ते हैं, कुछ दिनों के लिए बीच के इस पहाड़ी स्टेशन पर बसेरा करते हैं, प्रतीक्षा करते है बर्फ़ के दिनों की, जब वे नीचे अजनबी, अनजाने देशों में उड़ जाएँगे… क्या वे सब भी प्रतीक्षा कर रहे हैं? वह, डॉक्टर मुकर्जी, मिस्टर हयूबर्ट—लेकिन कहाँ के लिए, हम कहाँ जाएँगे’—   यहाँ निर्मल वर्मा परिंदे की तुलना मानव से करते हैं l जो किसी सर्द जगह … दुख, निराश से निकल तो आते हैं पर आगे बढ़ने से पहले कुछ देर किसी छोटी पहाड़ी पर ठहरते हैं पर वाहन भी जब बर्फ पड़ने लगती है तो उस जगह को छोड़ देते हैं l यही स्वाभाविक वृत्ति है जीवन की l पर यहाँ सब अतीत में अटके हैं आगे बढ़ना ही नहीं चाहते l लतिका का मनोविज्ञान समझने के लिए कुछ पंक्तियाँ  देखिए…   लतिका को लगा कि जो वह याद करती है, वही भूलना भी चाहती है, लेकिन जब सचमुच भूलने लगती है, तब उसे भय लगता है कि जैसे कोई उसकी किसी चीज़ को उसके हाथों से छीने लिए जा रहा है, ऐसा कुछ … Read more

रोज़- अज्ञेय की कालजयी कहानी

रोज- अज्ञेय की कालजयी कहानी

रोज रोज वही काम l हर रोज सुबह से लेकर शाम तक एक आम गृहिणी की जिंदगी में वही काम और उससे उपजी एकरसता जनित निराश कुछ ऐसे हावी हो जाती है कि उसके जीवन के सारे रंग ही कुम्हला जाते हैंl स्त्री मन के गहन कदराओं में परेवेश करती है साहित्य में क्रान्तिकारी परिवर्तन के प्रणेता महान् कथाकार “अज्ञेय” की सर्वाधिक चर्चित कहानियों में से एक है l कहानी कुछ इस प्रकार है.. एक व्यक्ति अपने दूर के रिश्ते की बहन मालती से मिलने अठारह मील पैदल चलकर पहुँचता है। उन दोनों का जीवन इकट्ठे खेलने, पिटने और पढ़ने में बीता था। एक तरह से उनमें भाई-बहन के रिश्ते के अलावा मित्रता का भी रिश्ता है l उस व्यक्ति ने मालती को दो साल पहले देखा था पर आज मालती विवाहिता है। एक बच्चे की माँ भी है । उसका पति सरकारी डॉक्टर है और वो उन्हें मिले फ्लैट में ही रहती है l व्यक्ति उसमें दो साल पहले की मालती ढूँढ रहा है पर वो एकदम बदल गई है l जीवन से भरी  मालती जैसे एकदम मुरझा गई है l अब उसके पास एक दैनिक दिनचर्चा है l पूरे दिन काम करना, बच्चे की देखभाल करना और पति का इंतजार करना इतने में ही मानों उसका जीवन सिमट गया है।   उसको भाई के आने की भी खुशी नहीं है l हालंकी वो अतिथि के प्रति कर्तव्य में कोई कमी नहीं करती है l खाना तैयार करती है पंखा झलती है पर कुछ है जो कहीं खो गया है l बातचीत में आए उतार – चढ़ाव में वो व्यक्ति अनुभव करता है कि मालती की आँखों में विचित्र – सा भाव है। एकरसता जनित निराशा l जैसे उसने स्वीकार कर लिया है कि उसे बस घर और घर के कामों में जीवन को घोल देना है l जहाँ पानी भी समय बेसमय आता है…  उसे बर्तन धोने की चिंता है l सब्जियां भी रोज नहीं आती l डॉक्टर पति के काम पर चले जाने के बाद का सारा समय मालती को घर में अकेले काटना होता है। अपने दुबले- पतले चिड़चिड़े बच्चे की देखभाल करती हुई  मालती सुबह से रात ग्यारह बजे तक घर के कार्यों में अपने को व्यस्त रखती है। उसका जीवन ऊब और उदासी के बीच यंत्रवत चल रहा है। किसी तरह की खुशी, उल्लास उसके जीवन में नहीं रह गए हैं। जैसे वह अपने जीवन का भार ढोने में ही घुल रही हो।   ऊब का आलम ये है कि घंटाघर में हर एक घंटे के बाद बजते घंटे पर वो दोहराती है चार बज गए, 6 बज़ गए और फिर 11 बज़ गए l  उसके बाद वो सो पाती है l वर्णन इस मार्मिकता के साथ किया है कि ऐसा लगता है वो एक-एक घंटा जीवन काट रही है l गैंगरीन के बिम्ब का प्रयोग इस कहानी में एक रूपक की तरह है l मालती का पति सरकारी डॉक्टर है l जहाँ अक्सर लोग इलाज करवाने आते है तो जख्म इतना बढ़ चुका होता है कि हाथ या पैर काटना पड़ता है क्योंकि गैंगरीन का खतरा होता है l मालती इस बात को जिस तरह से कहती है उसमें उसकी खुद की पीड़ा उभर कर आती है l जख्म को पहले तो अनदेखा किया जाता है और जब हालात बेकाबू हो जाते हैं तो अंग  ही काट दिया जाता है l उसे तरह से इस निराशा को शुरू में तो अनदेखा किया जाता है फिर वो जीवन के तन्तु ही काट देता है l   घर के एकाकी वातावरण, और उसके प्रभाव में ढलते हुए एक गृहिणी के चरित्र का मनोवैज्ञानिक चित्रण अज्ञेय ने बहुत ही कलात्मक तरीके से किया है l ये कहानी पुरुषों से भी सावाल करती है कि स्त्री जीवन को घर की एकरसता में डाल देने वाले पुरुष क्यों अपनी पत्नी के एक एकाकीपन के प्रति क्यों लापरवाह रहते हैंl वो उसके व्यक्तित्व विकास के बारे में कोई प्रयास क्यों नहीं करते? वही  ये कहानी ये उम्मीद जगाती है कि शायद पुरुष ऐसी कहानियाँ पढ़कर अपनी पत्नी की बाहरी जिंदगी से जुडने की इच्छा समझ सकेंगे l आइए पढ़ें…   रोज़- अज्ञेय की कालजयी कहानी     दोपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते हुए मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही हो, उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, किन्तु फिर भी बोझल और प्रकम्पमय और घना-सा फैल रहा था…   मेरी आहट सुनते ही मालती बाहर निकली। मुझे देखकर, पहचानकर उसकी मुरझायी हुई मुख-मुद्रा तनिक से मीठे विस्मय से जागी-सी और फिर पूर्ववत् हो गयी। उसने कहा, ‘‘आ जाओ!’’ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये भीतर की ओर चली। मैं भी उसके पीछे हो लिया।   भीतर पहुँचकर मैंने पूछा, ‘वे यहाँ नहीं है?’’   ‘‘अभी आये नहीं, दफ़्तर में हैं। थोड़ी देर में आ जाएँगे। कोई डेढ़-दो बजे आया करते हैं।’’   ‘‘कब के गये हुए हैं?’’   ‘‘सवेरे उठते ही चले जाते हैं।’’   ‘‘मैं ‘हूँ’ कर पूछने को हुआ, ‘‘और तुम इतनी देर क्या करती हो?’’ पर फिर सोचा, ‘आते ही एकाएक प्रश्न ठीक नहीं हैं। मैं कमरे के चारों ओर देखने लगा।   मालती एक पंखा उठा लायी, और मुझे हवा करने लगी। मैंने आपत्ति करते हुए कहा, ‘‘नहीं, मुझे नहीं चाहिए।’’ पर वह नहीं मानी, बोली,‘‘वाह! चाहिए कैसे नहीं? इतनी धूप में तो आये हो। यहाँ तो…’’   मैंने कहा, ‘‘अच्छा, लाओ, मुझे दे दो।’’   वह शायद ‘ना’ करनेवाली थी, पर तभी दूसरे कमरे से शिशु के रोने की आवाज़ सुनकर उसने चुपचाप पंखा मुझे दे दिया और घुटनों पर हाथ टेककर एक थकी हुई ‘हुंह’ करके उठी और भीतर चली गयी।   मैं उसके जाते हुए, दुबले शरीर को देखकर सोचता रहा – यह क्या है… यह कैसी छाया-सी इस घर पर छायी हुई है…   मालती मेरी दूर के रिश्ते की बहन है, किन्तु उसे सखी कहना ही उचित है, क्योंकि हमारा परस्पर सम्बन्ध सख्य का ही रहा है। हम बचपन से इकट्ठे खेले हैं, इकट्ठे लड़े और पिटे हैं, और हमारी पढ़ाई भी बहुत-सी इकट्ठे ही हुई थी, और हमारे व्यवहार में सदा सख्य की स्वेच्छा और स्वच्छन्दता रही है, … Read more

लवर्स -निर्मल वर्मा की कालजयी कहानी

लवर्स - निर्मल वर्मा की कालजयी कहानी

  कुछ शब्द हैं, जो मैंने आज तक नहीं कहे. पुराने सिक्कों की तरह वे जेब में पड़े रहते हैं. न उन्हें फेंक सकता हूं, न भुला पाता हूं. नई कहानी के सर्वाधिक चर्चित कहानीकार निर्मल वर्मा की कहानी “लवर्स” एक ऐसी प्रेम कहानी है जो इस तथ्य को रखती है कि जहाँ प्रेम सफलता व्यक्ति पूर्णता प्रदान करती यही वहीं प्रेम में असफलता व्यक्ति में निराशा और कुंठा को जन्म देती है l लेखक ने एक छोटी घटना को बड़ी कहानी में बदल दिया है l कहानी की शुरुआत में एक लड़का जो कुछ देर पहले बुक स्टॉल पर अर्धनग्न स्त्री की तस्वीर वाली मैगजीन को देखना ही नहीं चाह रहा था क्योंकि उसका सारा ध्यान  अपनी गर्ल फ्रेंड के आने के रास्ते पर था बाद में वही लड़का उस लड़की के जाने के बाद उस मैगजीन को खरीद लेता है |जहाँ से शुरू कहानी वही  पर आ कर खत्म होती है l बीच में हैं स्मृतियों के कुछ चित्र और इंतजार की बेचैनी l यहाँ बेचैनी केवल प्रेम की नहीं है बल्कि उस जवाब की भी है जो नायिका देने आ रही है l यहाँ इंतजार भी रूहानी है l वो हमेशा समय से पहले आता है क्योंकि उसे प्रतीक्षा करना अच्छा लगता है l कहानी की कई पंक्तियाँ पाठक का ध्यान देर तक अपने में अटकाये रहती हैं l नीलकंठ के उड़ जाने और बर्फ के विषय में सोचने का बहुत सुंदर बिंबयात्मक प्रयोग है l प्रेम में असफलता किस तरह से व्यक्ति के हाव-भाव को बदलती है l  किस तरह से असफलता जनित उसकी निराशा कुंठा को जन्म देती है lआइए पढे अद्भुत प्रवाह वाली इस कालजयी कहानी को… लवर्स -निर्मल वर्मा की कालजयी कहानी ‘एल्प्स’ के सामने कॉरिडोर में अंग्रेज़ी-अमरीकी पत्रिकाओं की दुकान है. सीढ़ियों के नीचे जो बित्ते-भर की जगह ख़ाली रहती है, वहीं पर आमने-सामने दो बेंचें बिछी हैं. इन बेंचों पर सेकंड हैंड किताबें, पॉकेट-बुक, उपन्यास और क्रिसमस कार्ड पड़े हैं. दिसंबर… पुराने साल के चंद आख़िरी दिन.   नीला आकाश… कंपकंपाती, करारी हवा. कत्थई रंग का सूट पहने एक अधेड़ किंतु भारी डील-डौल के व्यक्ति आते हैं. दुकान के सामने खड़े होकर ऊबी निगाहों से इधर-उधर देखते हैं. उन्होंने पत्रिकाओं के ढेर के नीचे से एक जर्द, पुरानी-फटी मैगज़ीन उठाई है. मैगज़ीन के कवर पर लेटी एक अर्द्ध-नग्न गौर युवती का चित्र है. वह यह चित्र दुकान पर बैठे लड़के को दिखाते हैं और आंख मारकर हंसते हैं. लड़के को उस नंगी स्त्री में कोई दिलचस्पी नहीं है, किंतु ग्राहक ग्राहक है, और उसे ख़ुश करने के लिए वह भी मुस्कराता है.   कत्थई सूटवाले सज्जन मेरी ओर देखते हैं. सोचते हैं, शायद मैं भी हंसूंगा. किंतु इस दौरान में लड़का सीटी बजाने लगता है, धीरे-धीरे. लगता है, सीटी की आवाज़ उसके होंठों से नहीं, उसकी छाती के भीतर से आ रही है. मैं दूसरी ओर देखने लगता हूं.   मैं पिछली रात नहीं सोया और सुबह भी, जब अक्सर मुझे नींद आ जाती है, मुझे नींद नहीं आई. मुझे यहां आना था और मैं रात-भर यही सोचता रहा कि मैं यहां आऊंगा, कॉरिडोर में खड़ा रहूंगा. मैं उस सड़क की ओर देख रहा हूं, जहां से उसे आना है, जहां से वह हमेशा आती है. उस सड़क के दोनों ओर लैंप-पोस्टों पर लाल फैस्टून लगे हैं… बांसों पर झंडे लगाए गए हैं. आए-दिन विदेशी नेता इस सड़क से गुज़रते हैं.   जब हवा चलती है, फैस्टून गुब्बारे की तरह फूल जाते हैं, आकाश झंडों के बीच सिमट आता है… नीले लिफाफे-सा. मुझे बहुत-सी चीज़ें अच्छी लगती हैं. जब रात को मुझे नींद नहीं आती, तो मैं अक्सर एक-एक करके इन चीज़ों को गिनता हूं, जो मुझे अच्छी लगती हैं, जैसे हवा में रंग-बिरंगे झंडों का फरफराना, जैसे चुपचाप प्रतीक्षा करना…   अब ये दोनों बातें हैं. मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं. उसे देर नहीं हुई है. मैं ख़ुद जानबूझकर समय से पहले आ गया हूं. उसे ठीक समय पर आना अच्छा लगता है, न कुछ पहले, न कुछ बाद में, इसीलिए मैं अक्सर ठीक समय से पहले आ जाता हूं. मुझे प्रतीक्षा करना, देर तक प्रतीक्षा करते रहना अच्छा लगता है.   धीरे-धीरे समय पास सरक रहा है. एक ही जगह पर खड़े रहना, एक ही दिशा में ताकते रहना, यह शायद ठीक नहीं है. लोगों का कौतूहल जाग उठता है. मैं कॉरिडोर में टहलता हुआ एक बार फिर किताबों की दुकान के सामने खड़ा हो जाता हूं. कत्थई रंग के सूटवाले सज्जन जा चुके हैं. इस बार दुकान पर कोई ग्राहक नहीं है. लड़का एक बार मेरी ओर ध्यान से देखता है और फिर मैली झाड़न से पत्रिकाओं पर जमी धूल पोंछने लगता है.   कवर पर धूल का एक टुकड़ा आ सिमटा है. बीच में लेटी युवती की नंगी जांघों पर धूल के कण उड़ते हैं. …लगता है, वह सो रही है.   फ़ुटपाथ पर पत्तों का शोर है. यह शोर मैंने पिछली रात को भी सुना था. पिछली रात हमारे शहर में तेज़ हवा चली थी. आज सुबह जब मैं घर की सीढ़ियों से नीचे उतरा था, तो मैंने इन पत्तों को देखा था. कल रात ये पत्ते फ़ुटपाथ से उड़कर सीढ़ियों पर आ ठहरे होंगे. मुझे यह सोचना अच्छा लगता है कि हम दोनों एक ही शहर में रहते हैं, एक ही शहर के पत्ते अलग-अलग घरों की सीढ़ियों पर बिखर जाते हैं और जब हवा चलती है, तो उनका शोर उसके और मेरे घर के दरवाज़ों को एक संग खटखटाता है.   यह दिल्ली है और दिसंबर के दिन हैं और साल के आख़िरी पत्ते कॉरिडोर में उड़ रहे हैं. मैं कनॉट प्लेस के एक कॉरिडोर में खड़ा हूं, खड़ा हूं और प्रतीक्षा कर रहा हूं. वह आती होगी.   मैं जानता था, वह दिन आएगा, जब मैं ‘एल्प्स’ के सामने खड़ा होकर प्रतीक्षा करूंगा. कल शाम उसका टेलीफ़ोन आया था. कहा था कि वह आज सुबह ‘एल्प्स’ के सामने मिलेगी. उसने कुछ और नहीं कहा था… उस पत्र का कोई ज़िक्र नहीं किया था, जिसके लिए वह आज यहां आ रही है. मैं जानता था कि मेरे पत्र का उत्तर वह नहीं भेजेगी, वह लिख नहीं सकती. मैं लिख नहीं सकती-एक दिन उसने … Read more