लैण्ड स्लाइड

लैंड स्लाइड

लैंड स्लाइड या भूस्खलन -ठोस चट्टान अथवा शैल यदि अचानक ढलान पर फिसल जायें तो उसको भू-स्खलन कहते हैं ।  भू-स्खलन चंद सेकंडों में हो सकता है तथा इसमें कुछ दिन और महीने भी लग सकते हैं । वरिष्ठ लेखिका कुसुम भट्ट जी की  कहानी “लैंड स्लाइड”  भी एक भूस्खलन की ओर इशारा करती है | सतरी की तुलना धरती से की गई है |ये धरती स्थिर रहती आई है हमेशा .. तो क्यों ना आम धारणा बन जाए कि क्या कर सकती है बेचारी औरत ? आइए जाने मन के इस लैंड स्लाइड के प्रभाव को ..   लैण्ड स्लाइड   गौरी का देहरी से बाहर निकलना हुआ ही था कि चट्टान की तरह बीच में आ गया अवरोध – पहचाना फूफू जी….?’’ जरा भी खिसकना उसने मुनासिब न समझा! अंगद पांव जमाये खड़ा रहा कम्बख्त – ऐसे क्या देख रही फूफू जी मैं कल्लूऽ…’’ गौरी ने कलाई घड़ी देखी सिर्फ तीस मिनट! साढ़े दस बजे नहीं पहुँची तो सबकी आँखों की किरकिरी हो जायेगी, कई मर्तबा उसे देर से आने के लिये माफी मांगनी पड़ी थी, पर हर बार उसे माफ कर ही दिया जायेगा, इसकी गारंटी थोड़े ही है। उसकी जिंदगी में ही इस कदर अवरोध क्यों, जब भी आगे बढ़ने को होती बीच सड़क में लैण्डस्लाइड! उसने आॅटो रिक्शा मंगवा लिया था। अगर वह दस मिनट में होटल हिम पैलेस के पास नहीं पहुँची तो…? वह एक टक गौरी की आँखों मे ंदेख रहा था – कलम सिंह हूँ, बचपन में आप मुझे कल्लू कल्वा कहती थी न?’’ उसे गौरी की पेशानी पर चिन्ता की सिल्बटें देख कर भी कोई फर्क नहीं पड़ा – बहुत तीसा (प्यासा) हूँफू फू जी.. देखो तो गर्मी से पसीना की छप-छप हो री है…’’ वो हंसा, उसके तवे से काले चेहरे पर उजली मुस्कान उभरी, सफेद दंत पंक्ति चमकी! एक पल को गौरी तनाव भूल गई और पीछे मुड़कर फ्रिज से पानी की बोतल लाकर उसे थमा दी बे आवाज। उसका ंप्यास से हल्कान गला पूरी बोतल एक सांस में गटक गया – चाचा घर में नहीं हैं?’’ मामुली सा फिजूल सवाल करके वह बरामदे में बिछी कुर्सी पर बैठ गया, जबकि उसे पता था कि पुरोहित जी इस समय आॅफिस में होंगे, फिर भी गौरी को उलझाने की उसकी मूर्खतापूर्ण चेष्टा! गौरी को किसी भी हालत में राजपुर रोड के होटल अजन्ता में जहाँ उसकी संस्था बुरांस और कुछ बाहर की संस्थाओं के पदाधिकारियों की मीटिंग में पहुँचना था। अब गौरी को बोलना पड़ा, फिर कलाई घड़ी पर नजर डालते हुए उसने शून्य में देखा – कल्लू अभी तू सुमन नगर चला जा….’’ वह चिहुँका – तो पहचान लिया अपने भतीजे को? कहीं दूर जा रही हैं..?’ गौरी ने उसकी तरफ देखे बिना गर्दन हिलाई, उसकी आँखों की याचना वह मन ही मन टालने का संकल्प करती रही। और भीतर का एक कोना पिघलते रहने के बावजूद फुर्ती से ताला लगाकर निकल पड़ी थी। अंधेरा घिर जाने पर वह थकी कलान्त घर पहुँची तो कल्लू पुरोहित जी के साथ चाय पीते हुए गपबाजी करते हुए हंस रहा था, दोनों किसी तीसरे की मनोस्ाििति की चीरफाड़ करते हुए शब्दों का उत्सव मना रहे थे, छोटी मेज पर नमकीन मठरियाँ सजी हुई थीं। गौरी को देखकर पुरोहित जी भीतर लपके और चिंहुक कर बोले – सुन गौरी तू जल्दी से भात चढ़़ा कर मसाला पीस कर आटा गूंथ ले, मैं मछली लेकर आता हूँ।’’ गौरी चुपचाप गुसलखाने में बन्द हो गई। उसने शावर खोला और देर तक नहाती रही। आज भी उसे सुनना पड़ा था, बमुश्किल बाहर की संस्थाओं को उसने अपने जंगल प्रोजैक्ट के साथ जोड़ा था, वरना पहाड़ में बरसात के दिनों लैण्डस्लाइड के चलते कोई काम करने को तैयार नहीं था – भई जंगल तो मैदानों में भी कट-कट कर खाली हो चुके हैं’’उनका तकिया कलाम होता-‘‘हाँ अपने तो बस का नहीं पहाड़ की चढ़ाई चढ़ना’’ नींव के अजय मिश्रा बोले थे, पर फिर गौरी के बुझते चेहरे को देख कर तैयार हो गये थे। जाड़ों के दिन थे, अभी-अभी उसने बुरांस की हरीतिमा की नींव में ईंटों की पहली खेप रखी थी कि शाम के धुंधलके में पुरोहित जी के साथ एक साये को टहलते पाया था! गौरी को देख कर पुरोहित जी आज की तरह लपके थे – इतनी देर कहाँ थी मैडम! कलम सिंह कब से राह देख रहा है… बहुत भूखा है बेचारा, जल्दी से नाश्ता बना दो।’’ इस आदेश को अनसुना कर उसने कपड़े बदल कर चाय चढ़ा दी थी, आँच कम करने वह रजिस्टर में हिसाब लिखने लगी थी, चाय पीने का उसका भी मन था। उसने रेडियो चला दिया था। तलत महमूद की दर्द भरी आवाज गूँजने लगी थी – ऐ! गमे दिल कहीं और चल… और चल.. और चल… इस दर्द भरे गीत में वह भूल गई थी चाय का पानी खौल कर जल चुका था, पुरोहित जी जले हुए की गंध संूंघकर भीतर आये, उन्होंनंे भगोने को जोर से बेसिन में पटका और दहाड़ मारी -फूअड़ औरत! देख अपनी करतूत! वे उसके कलम पकड़े हाथ को खींच कर रसोई में ले गये- देऽख….? उन्हांेने थप्पड़ मारने के लिये हाथ उठाया ही था कि कल्लू बीच में आ गया – मारो मत चाचा, फू फू फिर बना लेगी चा..’’. गौरी की आँखों में धुआँ भर गया था। कल्लू जो उसके घर में उसके भाईयों की उतरन पहन कर अपनी नंगई ढकता रहा था, जिसके परिवार के सब लोग उसके परिवार और गांव के टुक्ड़ों पर पले थे। उसके सामने जैसे उसके कपड़े उतार दिये थे पुरोहित जी ने!गौरी को आग और धुएं के बीच जलता छोड़ वे बाहर निकल गये थे! कल्लू गौरी को ताकता रहा था – कोई बात नी फू फू जी, आराम से बन जायेगा खाने का क्या है।’’ गौरी ने भर आई आँखों के पानी को बमुश्किल भीतर घूँटा और भीतर के खारे समुद्र में अपने वजूद को छपछपाते देख कर गुसलखाने में घुसी तो पानी की धार के साथ आँखों का सारा खारा पानी धरती को भेज दिया। माँ के शब्द कानों में शीशा घोलने को बढ़े – स्त्री की नियती पुरूष के हाथों पिटना और वाक बाणों से घायल होना ही लिखा है … Read more