प्रज्ञा की कहानी जड़खोद- स्त्री को करना होगा अपने हिस्से का संघर्ष
संवेद में प्रकाशित प्रज्ञा जी की एक और शानदार कहानी है “जड़ खोद”l इस कहानी को प्रज्ञा जी की कथा यात्रा में एक महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में देखा जा सकता है | जैसा कि राकेश बिहारी जी ने भी अपनी टिप्पणी में कहा है कि ये उनकी कथा यात्रा के नए पड़ाव या प्रस्थान बिन्दु की तरह देखा जाना चाहिए l एक स्त्री के संघर्ष की कहानी कहते हुए ये कहानी समाज में होने वाले राजनैतिक और सामाजिक बदलाव को एक सूत्र में इस तरह से गूथती हुई आगे बढ़ती है कि पाठक जिज्ञासा के साथ आगे बढ़ता जाता है | राजनैतिक घटनाओं के बावजूद कथारस कहीं बाधित नहीं होता | कहानी की नायिका गंगा, भागीरथी गंगा की ही तरह प्रवाहमान है, जिसे बहना है और बहने के लिए उसे अपने रास्ते में आने वाले पर्वतों को काटना भी आता है और ना काट सकने की स्थिति में किनारे से रास्ता बनाना भी | भागीरथी प्रेत योनि में भटकते राजा सगर के पुत्रों को तारने देवलोक से आई तो ये गंगा अपने पिता का कर्ज उतारने दुनिया में आई है l गंगा जो पहाड़ों से संघर्ष के साथ आगे बढ़ती है पर जमीन को समतल और हरा भरा करना ही उसके जीवन का उद्देश्य है | कहानी की नायिका गंगा भी बचपन से संघर्षों के साथ पलती बढ़ती पितृसत्ता और धर्मसत्ता से टकराती है l और अपनी तरफ से जीवन को समरस बनाने का प्रयास करती है | कहानी चंद्रनगर कि गलियों से निकलकर, देहरादून, भोपाल और ऑस्ट्रेलिया की यात्रा करती है, तो तकरीबन 1980-85 से लेकर 6 दिसम्बर 1992 की घटनाओं का जिक्र करते हुए शहरों और गलियों के नाम बदलने वाले आज के युग का भी | प्रज्ञा जी कहानी में समय काल नहीं बताती पर घटनाओं के मध्यम से पाठक समय को पहचान जाता है | कहानी में पाठक गंगा की उंगली पकड़कर चलता है और उसके सुख दुख में डूबता उतराता हैl उसके गुम हो जाने कि दिशा में पाठक कि बेचैनी भी गंगा कि सहेली सोनू की ही तरह बढ़ती जाती है | बच्चों को स्कूल ले जाने वाले रिक्शे पर पीछे लगे पटरे, रिक्शे बच्चों का शोर और, सोनू का दौड़ कर सीढ़ियाँ चढ़ कर इत्मीनान से बिना नहाई -धोई गंगा को जल्दी करने के लिए कहना, जहाँ बाल सुलभ हरकतों के साथ पाठक को बचपन में ले जाता है l वहीं अन्यायी अत्याचारी पिता का विदोह करती बच्ची का बाल मनोविज्ञान प्रज्ञा जी ने बखूबी पकड़ा है | फिर चाहे वो पुजारी की बेटी होते हुए भी बिना नहाए नाश्ता करना हो या सहर्बी पिता के विरोध में कि गई चोरी या रिक्शे के आगे लेट जाने की धमकी, या जमा हथियारों को नदी में बहा आना | माली के लड़के से प्रेम | धर्म, जाति समाज इतने सूत्रों को एक साथ एक कहानी में पिरोने के बावजूद ना कथारस कहीं भंग होता है और नया ही प्रवाह, ये लेखिका की कलम की विशेषता है | अगर राजनैतिक सूत्र पकड़े तो गंगा में कहीं इंदिरा गांधी नजर आती हैं तो कहीं गांधी जी | इंदिरा शब्द का प्रयोग तो लेखिका ने स्वयं ही किया है | द्रण निश्चयी, अटल, गंगा अपनी उम्र से पहले ही बड़ी हो गई है वो एक अन्य बच्ची टिन्नी के खिलाफ अपने पिता के कुत्सित इरादों को भांप पर उसे बचाती भी है और माँ को बचाने के लिए पिता पर वार करती है | मंदिर और मंदिर के आस -पास का वातवरण का जिक्र करते हुए प्रज्ञा जी कि गंगा धर्म की सही व्याख्या करती है जो अन्याय के खिलाफ अपनों से भी भिड़ जाने में है l गंगा के उत्तरोत्तर बढ़ते चरित्र को देख कर मुझे बरबस राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त की पंक्तियाँ याद आती हैं .. अधिकार खो कर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है; न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है। कहानी की कुछ पंक्तियाँ देर तक सोचने पर विवश करती हैं … ‘जब मानुस धर्म देखने वाली आँखें फूट जाएं तो रिश्ते की सीखचों में कैद होना ही अंतिम उपाय रहता है।’’ ‘‘ राम के नाम में इस त्रिशूल का क्या काम? ये तो बिल्कुल हथियार जैसा लगता है।’’ ‘‘ तो इस पाप की भागी अकेली मैं नहीं हूं। देख रही है न सामने उस आदमी को, मंगल के पैसे बटोरकर मंहगी शराब पिएगा और रात को माई को मारेगा। इस पापी के सामने मैं क्या हूं? भगवान सब जानते हैं।’’ कहानी में सकारात्मकता बनाए रखना प्रज्ञा जी कि विशेषता है | ऐसा नहीं है कि कहानी में सारे खल चरित्र और उनसे जूझती गंगा ही हो, सार्थक पुरुष पात्रों के साथ कहानी को एकतरफा हो जाने से रोकती हैं | जहाँ प्रभात है, जिसके प्रेम में धैर्य है, संरकांत जी हैं, जो किसी अबला को सहारा देने के लिए समाज यहाँ तक की अपने बेटों से भी भिड़ जाते हैं …. पर नैतिकता का दामन नहीं छोड़ते | सोनू और उसके जीवन में आने वाले सभी लोग सभ्य -सुसंस्कृत हैं l ये वो लोग हैं जिनकी वजह से हमारे घर, समाज, धर्म और राजनीति में बुराइयाँ थोड़ा थमती हैं | कहानी का अंत एक नई सुबह की आशा है …जो रात के संघर्ष के बाद आती है l अपने हिस्से की सुबह के लिए अपने हिस्से का यह संघर्ष हर स्त्री को करना होगा l चाहें इसके लिए जड़खोद ही क्यों ना बनना पड़े | फिर से एक बेहतरीन कहानी के लिए प्रज्ञा जी को बधाई वंदना बाजपेयी आपको “प्रज्ञा की कहानी जड़खोद- स्त्री को करना होगा अपने हिस्से का संघर्ष” कहानी कैसी लगी ? अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराए l अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती है तो कृपया साइट सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें l