डेढ़ सेर चाँदी

डेढ़ सेर चाँदी

  अंत हीन दुख, निराशा, पीड़ा अवसाद की ओर धकेलते हैं और अगर घनघोर निराशा की बीच आस की अंतिम किरण भी डूब जाए तो व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन कैसे संभाले l नईका के साथ भी यही हुआ l मैं बात कर रही हूँ अभी हाल में घोषित हुए रमाकांत स्मृति पुरुस्कार से सम्मानित आशा पांडे जी की कहानी ‘ढ़ेर सेर चाँदी’ की l कहानी में नईका के जीवन में जब दुख एक बार दस्तक देता है, तो उजास के लिए कोई छेद नहीं छोड़ता l क्योंकि उसका दुख ईश्वर प्रदत्त नहीं है, उसका दुख अपनों द्वारा दिए जाने वाले धोखे का दुख है, तो सरकार द्वारा दिए जाने वाले धोखे का भी l मनुष्यता के पतन का दुख है l जिसकी पृष्ठभूमि में दुख और अवसाद में बौराए इंसान को पागल करार देने वाला समाज है l आशा जी ग्रामीण जीवन और आम मानवीय  मनोभावों की बारीकियों को, सच्चाईयों को इस तरह से सहजता के साथ उकेरती हैं उनकी  कहानी अपने व्यापक संदर्भ में याद रह जाती है l एक अच्छी कहानी और पुरस्कार के लिए आशा जी को बधाई डेढ़ सेर चाँदी किवाड़ उढगा था। नइका कोहनी से किवाड़ ठेल कर अँगनाई में पहुँची। अँगनाई के कोने में बंधी दोनों बकरियां उसे देख कर मिमियाने लगीं। दिन भर से अकेला पड़ा भग्गू भी उठकर खटिया पर बैठ गया। नइका का हाथ घास और बबूल की टहनियों से भरा था। मिसिर के यहाँ से आते-आते उसने रास्ते से बकरियों के लिए टहनियाँ तोड़ी थीं। बकरियाँ पिछले दो-चार दिन से खूँटे पर ही बंधी हैं बेचारी। संझा-सबेरे बाहर ले जाकर चराने का मौका नहीं मिल रहा है नइका को। अभी दो दिन और ऐसे ही चलेगा। घास और टहनियों को बकरियों के आगे डाल कर नइका ने पंजीरी-बताशे की गठरी को पीढ़े पर रखा और बाल्टी रस्सी लेकर कुँए पर हाथ-मुँह धोने चली गई। ठंडे पानी से छीटे मार-मार कर मुँह धोया, हाथ-पैर धोए,भरी बाल्टी आँगन में लाकर रखी और आँचल से मुँह पोछते हुए ओसारे में आकर बैठ गई। अँगनाई में ही छान उठाकर दो ओसारे निकाल लिए हैं नइका ने। दो कच्ची कोठरी और दो छनिहर ओसारे का उसका ये घर भीतर घुसते ही उसे सुकून से भर देता है। कितना भी थककर चूर हो गई हो पर अपनी  अँगनाई में आते ही उसकी आधी थकान खुद-ब-खुद चली जाती है। सुबह जब से गई थी, तब से एक मिनट की भी फुर्सत नहीं मिली थी उसे। इतना बड़ा कार्यक्रम आने-जाने वालों की इतनी भीड़! बैठती भी तो कैसे ? मिसिर काका बहुत भरोसा कर उसे बुलाते हैं,अगर वह भी बैठ जायेगी तो काम कैसे चलेगा? खड़े-खड़े दोना भर पंजीरी-बताशा फाँक कर पानी पी लिया था उसने और लगी रही बासन माँजने में, झाड़ू लगाने में। वहीं पुरबहिन और चमेला जांगर चुरा-चुराकर इधर से उधर भाग रहीं थीं। पाँच-छह दोना पंजीरी फाँक गईं। जो भी उधर से प्रसाद बाँटते हुए  निकलता, उसी के सामने हाथ पसार देतीं। अखंडरामायण पाठ के बैठक से पहले सत्यनारायण की कथा हुई थी। उसी का प्रसाद बंट रहा था। दिन भर लोग आते रहे। प्रसाद कम पड़ जाता तो! किसी की इज्जत की जरा-सी परवाह नहीं है इन लोगन को, अगला भरोसा किये बैठा है और ये लोग उसकी इज्जत लेने पर उतारू हुई हैं। भगवान से भी नहीं डरतीं ये लोग– नइका का मन वितृष्णा से भर गया। साँझ धुंधलाने लगी। संझबाती की बेला में बैठकर सुस्ताने से काम नहीं चलेगा- नइका ने मन ही मन सोचा और घुटने पर हाथ रखकर उठी, चूल्हे के पास काँच की एक ढिबरी पड़ी थी। उसमें तेल आधी शीशी से भी कम था। नइका ने शीशी को उठाकर देखा- आज का काम किसी तरह से चल जायेगा। कल के लिए व्यवस्था करनी पड़ेगी। रामअजोरवा को कितनी बार कहा था कि बचवा, खम्भे से तार खींच कर एक लट्टू मेरे आँगन में भी लटका दो। मिट्टी के तेल का खर्चा तो कुछ बचता पर मुए ने नहीं सुना। नइका मन ही मन बड़बड़ाते हुए ढिबरी जलाकर अँगनाई के गौखे पर रख आई। वहाँ से दोनों ओर ओसारे में उजियारा फ़ैल गया। भग्गू फिर ‘गों-गों’ करने लगा। नइका ‘गों-गों’ के अलग-अलग सुरों को पहचानती है। समझ गई कि उसका पति भूखा है। वह पंजीरी-बताशा,हलुवा-पूड़ी की गठरी उठा लाई। भग्गू की खटिया पर बैठकर  खोलने लगी। उस धुंधलके में भी नइका ने भग्गू की आँखों की चमक को देख लिया, मन-ही मन मुस्कराई- इसी चमक को देखने के लिए ही तो उसने वहाँ कौर-भर भी कुछ नहीं खाया था। सब उठा लाई थी। मिसिर काका ने हलुवा ज्यादा दिलवा दिया था। काकी तो देने में कुछ आना-कानी कर रहीं थीं पर काका ने डपट दिया। ‘दे दो उसे भरपूर,गुंगवा (भग्गू) के लिए ले जाएगी’। नइका धन्य हो गई थी। इसीलिए तो मिसिर काका की एक आवाज पर दौड़ी चली जाती है। गुंगवा को पूड़ी के साथ अचार अच्छा लगता है। नइका ने हिम्मत की– ‘काकी फाँक दो फाँक अचार भी दे देतीं।’ काकी ने मुस्कुराते हुए बिना उसे झिड़के तीन-चार फांक अचार लाकर पूड़ी के ऊपर रख दिया। नइका खाने की गठरी खोल रही थी। भग्गू ने सिरहाने से आधा प्याज और नमक निकाल लिया। नइका सबेरे उसे प्याज रोटी देकर गई थी। उसी में से कुछ बचा लिया था भग्गू ने। नइका मुस्कराई—‘रक्खो उसे,अचार लाई हूँ पूड़ी के साथ।’ भग्गू गों-गों करके हंसने लगा। भग्गू की हंसी नइका के कलेजे में धंस गई। इकलौता भग्गू माँ-बाप का बहुत दुलारा था। दोनों जून उसे थाली में दाल-भात, रोटी- तरकारी, सब चाहिए थी। जब नइका इस घर में ब्याह कर आई थी तब इस घर में खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी। डेढ़ बीघा खेत का मालिक था उसका ससुर। माँ,बाप,बेटा तीनों जुट कर खेती करते। बाहर भी मजूरी करते। घर में अनाज भरा रहता। भाजी-तरकारी तो भग्गू घर के अगवारे-पिछवारे की जमीन में ही बो देता। लौकी, तरोई , करेला आँगन की छान पर खूब लदे रहते। सास खुश होकर कहतीं, “मेरे बेटे के हाथ में बहुत बरक्कत है, ऊसर-पापड़ में भी बीज छीट देता है तो धरती सोना उगलने लगती है।” अब यही भग्गू …! नइका ने थाली में पूड़ी,अचार और हलुवा रख कर भग्गू के आगे … Read more

मासूम

मासूम

किसी की मुस्कुराहटों पर हो निसार /किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार .. जीना इसी का नाम है |मासूम कहानी पढ़ते हुए सबसे पहले ये गीत ही जेहन में आया | कितने गरीब मासूम बच्चे सड़क पर रेस्तरा में ,आइसक्रीम , चाट के ठेलों के आस -पास खड़े मिल जाते हैं |क्या हम उनके लिए कुछ करते हैं ? अगर हम सब जरा सा सहयोग कर दें तो ना जाने कितने मासूमों की जिंदगी बदल जाए | आइए पढ़ें एक प्रेरणा दायक कहानी मासूम   स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो सामान उठाने के लिए कोई भी कुली नहीं दिखा। जब कि डिब्बे के साथ – साथ कुली दौड़ते रहते हैं, जब तक गाड़ी रुक नहीं जाती। पता चला कि कुलियों की हड़ताल है।किसी तरह सामान डिब्बे से खींचकर बाहर निकाला। इस शहर में करीब बारह वर्षों पश्चात् पति का प्रमोशन पर पुनः तबादला हुआ था। वह पहले ही यहाँ आ चुके थे।   मैं उनके लेने आने का इन्तज़ार करने लगी । तभी सामने से एक लड़का आता दिखा। उसने कहा, ‘शायद आप किसी का इन्तजार कर रही हैं? चलिए,मैं सामने वाले स्टाॅल तक आपका सामान ले चलता हूँ , तब तक आप वहीं पर बैठिए।मैं आपका सामान बाहर तक पहुँचा दूँगा।’ मैने उसे संशय की दृष्टि से देखा। दूर – दूर तक कोई कुली दिखाई नहीं पड़ रहा था। मरता क्या न करता? ‘ठीक है’,मैंने कहा। उसने  सामान उठा लिया और पास ही सामने वाले चाय के स्टाॅल के पास जाकर रख दिया। वहाँ पर रक्खी कुर्सी बैठने के लिए खींच दी। मै बैठ गई। उसने स्टाॅल पर खड़े लड़के से चाय लेकर मेरी ओर बढ़ा दी। मैंने चाय उसके हाथ से ले ली। सच कहूँ तो सफर से थक गई थी।चाय पीने की इच्छा भी हो रही थी। मैं  उसे चाय के पैसे देने लगी किन्तु उसने लेने से इन्कार कर दिया। ‘आपने मुझे पहचाना नहीं पर मैंने आपको पहचान लिया है। ‘बारह साल पहले …. आइसक्रीम काॅर्नर पर ‘….. उसकी आँखें छलछला आईं थीं ।    मुझे करेन्ट सा लगा था। ‘ क्या यह वही बच्चा है? ” जिन स्मृतियों को यत्नपूर्वक धक्के मारकर मैने अवचेतन मन की गहराइयों में दफन कर दिया था, वह इस रूप में सामने आएगीं, सोचा न था।    पति कब आकर खड़े हो गए थे, पता नहीं चला। वह कह रहा था  ‘आपके द्वारा दिए गए पैसों से मैंने कई काम किए, उनसे जो फायदा हुआ, यह स्टाॅल उसी का नतीजा है। ‘ उसने झुक कर मेरे पाँव छू लिए थे। पति हतप्रभ थे किन्तु मेरी हालत देखकर वह मौन रहे। लड़का कुछ कह रहा था पर मेरा मन बारह साल पीछे, इसी शहर के सबसे पाॅश इलाके के चौराहे पर जा पहुँचा था।        काॅलोनी से थोड़ा बाहर चलकर ,शहर का पाॅश कहलाने वाला मोहल्ला शुरू हो जाता था ।वहाँ बाजार में खूब रौनक रहती , खासकर सायंकाल से देर रात्रि तक। करीब-करीब सभी जरूरत का सामान वहाँ मिल जाता था। सब्जी से लेकर स्टेशनरी तक। वहाँ शहर की प्रसिद्धमिठाई और चाट की दूकाने थीं। सच कहें तो वह सम्भ्रन्त लोगों का बाजार था।     हम अक्सर शाम को इधर घूमने निकल आते और जरूरत का सामान भी लेते आते। वहाँ चौराहे पर एक ओर ‘ आइसक्रीम काॅर्नर ‘ था। हम सब , मैं , पति और दोनो बच्चे वहाँ आइसक्रीम खाते । किन्तु यहाँ जब-जब आती, एक अजीब सी बेचैनी होती।उस काँर्नर पर तथाकथित सम्भ्रान्त लोगों के बीच ऐसा नज़ारा देखने को मिलता कि अन्दर तक दिल दहल जाता। जैसे ही लोग खाकर आइसक्रीम के कप फेंकते, एक खूबसूरत दस-बारह साल का लड़का नज़र गड़ाए रहता। वह लपक कर दौड़ता हुआ आता और जूठे फेंके हुए कप में लगी आइसक्रीम को जीभ से चाट कर खा जाता ।जब भी यहाँ आती, यह नज़ारा देखने को मिलता। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि इस बात से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था। ऐसा देखने को लोग अभ्यस्त हो चुके थे। मन विचित्र अपराध – बोध से भर जाता।क्या करें ? कुछ समझ न आता। उस ‘ आइसक्रीम कार्नर ‘ के ऊपर स्टेशनरी की दूकान धी।एक दिन जब लोग आइसक्रीम खा रहे थे और वह लड़का दौड़-दौड़ कर कप चाट रहा था, बच्चों की पढ़ाई से सम्बन्थित कुछ सामान लेने के लिए मेरे पति ने मुझसे ऊपर चलने को कहा।मैं नहीं जाना चाहती थी। यह जानकर कि मैं सीढ़ियाँ नहीं चढ़ना चाहती, वह बच्चों को लेकर ऊपर चले गए। मैं कुछ देर तक उस बच्चे को देखती रही।  फिर किसी अनजान अन्तःप्रेरणावश मैंने उसे इशारे से पास आने के लिए कहा । वह आ गया। मैं पर्स खोल कर उसमे से उतने रुपये ढूँढने की कोशिश कर रही थी जिससे वह आइसक्रीम खरीद कर भरपेट खा सके। तभी मेरी निगाह ऊपर पड़ी। पति और बच्चे सामान लेकर दूकान से बाहर निकल रहे थे । पता नहीं क्यों , मै नहीं चाहती थी कि यह मुझे इस बच्चे को कुछ देते हुए देखें। खुले रूपये ढूँढ नहीं पा रही थी। मैंने घबराहट में सौ-सौ के नोट , जो आपस में लिपटे हुए थे , उसे दे दिए। मुझे नहीं पता कि उसमे सौ के कितने नोट थे। मैं मुँह फेर कर खड़ी हो गई और बच्चों को सीढ़ी से उतर कर आते हुए देखने लगी।          वही बच्चा जवान होकर मुझे इस तरह सामने खड़ा मिलेगा , कभी स्वप्न में भी न सोचा था। उसने सामान उठा लिया था और मैं यन्त्रवत उसके पीछे चल पड़ी थी।प्लेटफार्म से बाहर आकर उसने सामान कार में रख दिया फिर हाथ जोड़कर भरे गले से बोला , ‘ यदि मेरे लायक कोई भी कार्य हो तो जरूर बताएँ , मैं दौड़ा चला आऊँगा। ‘ तब तक ड्राइवर कार स्टार्ट कर चुका था । कार चल पड़ी थी । वह बाहर खड़ा हाथ हिला रहा धा । मैं तो उसका नाम भी नहीं पूछ पाई थी ।                                   अभी भी जो मासूम , न चाहने पर भी , यदा- कदा मेरे अवचेतन मन की भीतरी पर्तों को चीर कर , चेतना के स्तर … Read more

डरना मना है

डरना मना है

.‘डरना मना है’ कहानी  में बाल मनोविज्ञान और भूख का मनोविज्ञान दोनों का ही अंजू जी ने बहुत सहजता से वर्णन किया है |ये कहानी एक बच्चे पर आधारित है जो कूड़ा बीन कर अपना व् अपने परिवार का पेट पालता है | इन कूड़ा बीनने वाले बच्चों के इलाके भी बंधे हुए हैं | जहाँ दूसरे इलाके के बच्चे नहीं आ सकते और अगर आये उन्हें इस गलती के लिए पिटाई की सजा भुगतनी होती है | ऐसा ही एक बच्चा बसंत जो पिटाई के बाद दूसरे दिन काम पर नहीं आ पाया पर उसके अगले दिन उसे काम पर निकलना है उसकी आँखों के आगे अपनी और अपने परिवार की भूख का सवाल है | ऐसे में दूर से जब उसे बीच सड़क पर पड़ी कोई वस्तु दिखाई पड़ती है तो वो सहज ही उसकी ओर आकर्षित होते हुए बढ़ता चला जाता है | बच्चे हर बढ़ते कदम के आगे कहानी मार्मिक और गंभीर होती जाती है | हम सब के मन में बहुत सारे विश्वास –अन्धविश्वास रोप दिए जाते हैं | कहानी उस पर भी प्रहार करती है परन्तु कहानी का उद्देश्य पाठक के मन में उस मानवीय संवेदना को जगाना है जिस के तहत वो बच्चा आगे बढ़ते हुए उन सब आवाजों को दर-किनार करता चलता है जो आज तक उसे डराती आई हैं | वो है भूख का डर  जो हर डर पर हावी है | ये कहानी ऐसी है जो खत्म होने के बाद पाठक के मन में एक टीस उठा देती है | डरना मना है —————- पौ फटने के समय ही निकल जाता है बसंत घर से पर आज थोड़ा लेट हो गया!  सड़क पर थोड़ी बहुत आवाजाही शुरू हो चुकी थी!  शुक्र है कि झाड़ू लगना अभी शुरू नहीं हुई थी वरना उसकी किस्मत पर भी फिर जाती झाड़ू!  उसने सड़क पार की और मेनरोड से अंदर वाले छोटे रोड पर आ गया था।  किनारे पर पड़ी दो बोतलें इसका कारण थीं जिन्होंने दूर ही से उसका ध्यान खींच लिया था। उसने दौड़कर दोनों बोतलें और उससे आगे पड़ी पन्नी और कुछ कागज़ उठाकर कंधे पर लटके अपने कद से भी  बड़े से पोलीथिन के झोले के हवाले की और आगे बढ़ गया। उसके कोहनी और घुटने में अब भी दर्द है!  उसे याद आयी कल रात की वह घटना।  माँ की दवाई तीन दिन से खत्म थी!  पूरे दिन भटकने पर भी थोड़ी पन्नियों और कागज़ के अलावा कुछ खास हाथ नहीं लगा तो वह बाजार चला गया था। वहाँ लगनेवाला साप्ताहिक शुक्र बाजार उस जैसे लड़कों को मालामाल कर देता है, उसने सुना था हरीश से।  हरीश… उसके साथ कूड़ा बीननेवाला उसका हमउम्र हमपेशा लड़का, जो अपने अनुभव के चलते अब वरिष्ठ की श्रेणी में आ गया था।  हरीश उसकी तरह किसी परिवार से नहीं जुड़ा था।  उसके ही शब्दों में वह “सड़क पर पैदा होया मैं…बोले तो लावारिस जिसका कोई वाली-वारिस ई नई!” पर बसंत लावारिस नहीं था! उसके पीछे दो और पेट लगे थे! बाजार में पीछे बचे ‘माल’ का अंबार लगा होता है।  जो लोगों के लिए कूड़ा-करकट, भंगार या कबाड़ है   उसके लिए वही माल है, रोजी रोटी है!  लालच ने घेर लिया था बसंत को, उससे भी अधिक रोजी की चिंता ने। “उधर जाने का नई रे बसंत।  अपना इलाका नई है।  हाथ लग गया तो साबुत नई बचेगा रे।”  हरीश बोलता था! लालच बड़ा था क्योंकि भूख बड़ी थी।  जरूरत उससे भी बड़ी।  पांच मिनट में आधा झोला भर गया था इतनी पन्नी, कागज़, बोतल, प्लास्टिक मिले थे बसंत को बाज़ार उठने के बाद। झूम गया था उसका मन पर वही हुआ जिसका डर था। लालच की सज़ा मिलनी थी, मिली भी।  आ गया था एक को नज़र!  उसकी एक हुंकार पर पूरा गैंग जमा हो गया!  खूब मार पड़ी।  वह बेतहाशा भाग निकला वहाँ से। झोला तो पहले ही छीन लिया गया। जब दूर आकर रुककर सांस ली तो अहसास हुआ, होंठ साइड से कटकर सूज गया था।  वहां छलछला आए खून को उसने बाजू से पोंछ लिया था। मुंह मे रक्त का नमकीन स्वाद घुला तो उसने जोर से थूक दिया। दाई कोहनी, बायां घुटना भी छिल गया था।  कंधे में भी तेज दर्द था।  रात भर कराहता रहा।  रंजू ने हल्दी की सिकाई की तो कुछ आराम मिला।  कब नींद आई कुछ पता नहीं।  रंजू उसकी बड़ी बहन है।  सड़क पर हुए एक हादसे में उसका एक पैर कट गया। हंसती खेलती रंजू के साथ अब सहेलियाँ नहीं बैसाखी थी!  जिन कोठियों में काम करती थी सब जाता रहा।  अपाहिज लड़की को कौन काम देगा।  माँ तो पहले ही फेंफड़े की बीमारी से लाचार हो चुकी है।  बाप कभी होगा पर बसंत ने उसका चेहरा तक नहीं देखा।  उसके जन्म से पहले ही लापता हो गया कहीं! ये भी नहीं मालूम कि है या नहीं! होता भी तो कुछ फर्क नहीं!  सड़क बनाने का काम में बेलदारी करता था पर नशेड़ी था एक नंबर का…माँ बताती है! एक बड़ा भाई भी है जो नशे की लत के कारण घर कम आता है। उसके साल के चार महीने चोरी चकारी या उठाईगिरी में बीतते हैं और बाकी आठ जेल में।  उससे छोटी एक बहन डेंगू का शिकार होकर ऊपर पहुँच गई, डायरेक्ट भगवान के पास।  सबसे छोटा वही! जब तक माँ बहन कोठी का काम करती रही हालात इतने खराब नहीं थे पर अभी तो सब भगवान नहीं बसंत भरोसे! आठ साल की उम्र में कौन काम देगा! एक बार लगा था एक होटल में!  मालिक दिन निकले से आधी रात तक जमकर काम कराता था और पगार में से आधा काट लेता था ये टूटा वो टूटा बोलकर! उसकी उम्र के चलते काम मिलना मुश्किल है!  कानून का डर है सबको!  उसको अब ये काम ही जमता है! ये माल बटोर कर इदरीस चचा को बेच देता है!  गुजारा चल रहा है पर एक-दो दिन माल न मिले तो फाके के नौबत आ जाती है! पन्नी, गत्ता, कागज़ खूब मिलता है उसे! कभी किस्मत साथ दे तो अच्छा कबाड़ भी हाथ लग जाता है! जैसे कोई ट्यूबलाइट की खराब पट्टी, कोई पुरानी मशीन, कोई ख़राब इलेक्ट्रॉनिक आइटम! और कोई … Read more

व्यस्त चौराहे

व्यस्त चौराहे

ये कहानी है एक व्यस्त चौराहे की, जो साक्षी बना  दुख -दर्द से जूझती महिला का, जो साक्षी बना अवसाद और मौन का ,जो साक्षी बना इंसानियत का | कितनी भी करुणा उपजे , कितना भी दर्द हो ,पर ये व्यस्त चौराहे कभी खाली नहीं होते .. लोगों की भीड़ से ,वाहनों के शोर से और साक्षी होने के ..  मौन अंतहीन दर्द की शृंखलाओं से | आइए पढ़ें मीन पाठक जी की एक ऐसी ही मार्मिक कहानी व्यस्त चौराहे  जब से आरोही ने ये नया ऑफिस ज्वाइन किया था, शहर के इस व्यस्त चौराहे से गुजरते हुए रोज ही उस अम्मा को देख रही थी। मझोला कद, गोरी-चिट्टी रंगत, गंदे-चिकट बाल, बदन पर मैले-कुचैले कपड़े, दुबली-पतली और चेहरे पर उम्र की अनगिनत लकीरें लिए अम्मा चुपचाप कुछ ना कुछ करती रहती। वह कभी अपना चबूतरा साफ़ करती, कभी चूल्हे में आग जलाती तो कभी अपने सेवार से उलझे बालों को सुलझाती हुई दिख जाती। आरोही जब भी उसे देखती उसके भीतर सैकड़ों सवालों के काँटे उग आते। कौन है ये? यूँ बीच चौराहे पर खुले में क्यूँ अपना डेरा जमाए बैठी है? छत्त के नाम पर ऊपर से गुजरता हाइवे और दीवारों के नाम पर वो चौंड़ा सा चौकोर पिलर; जो अपने सिर पर हाइवे को उठाये खड़ा था, वही उसका भी सहारा था। अम्मा ने कुछ बोरों में ना जाने क्या-क्या भर कर उसी से टिका रखा था। वहीं छः ईंट जोड़ कर चूल्हा बना था। कुछ एल्युमिनियम के पिचके टेढ़े-मेढ़े बर्तन, प्लास्टिक की पेण्ट वाली बाल्टी और चूल्हे के पास ही कुछ सूखी लकड़ियाँ रखी थीं। यही थी उसकी घर-गृहस्थी। उसे देख कर आरोही के मन में ना जाने कैसे-कैसे ख्याल आते। वह सोचती कि उम्र के जिस पड़ाव पर अम्मा है, उसके बेटे-बेटियों के बालों में भी सफेदी झाँक रही होगी। उनके बच्चे भी बड़े हो रहे होगें। इसका पति जीवित है भी या नहीं! क्या उसे अम्मा की याद नहीं आती या अम्मा ही सब भूल गयी है ? इतने शोर में यहाँ कैसे रहती है अम्मा ? इन्हीं सब प्रश्नों के साथ आरोही ऑफिस पहुँच कर अपने काम में जुट जाती। लौटते समय फिर से चौराहे पर उसकी आँखें अम्मा को ऐसे तलाशतीं जैसे मेले की भीड़ में कोई अपने को तलाशता है। उस दिन किसी कारणवश आरोही को ऑफिस से जल्दी लौटना पड़ा। ऑटो से उतर कर चौराहे पर पहुँची तो आदतन उसकी आँखें अम्मा के चबूतरे की ओर उठ गयीं। उसने देखा कि अम्मा कोई कपड़ा सिल रही थी। कुछ सोचते हुए पहली बार आरोही के कदम खुद-ब-खुद अम्मा की ओर बढ़ गए। पास आ कर उसने देखा, अम्मा के सामने ही एक प्लेट पर काली रील रखी हुयी थी और अम्मा बड़ी तल्लीनता से ब्लाउंज की फटी आस्तीन सिलने में जुटी थी। उसने बैग से अपना टिफिन बॉक्स निकाल लिया। “अम्मा..! प्लेट इधर करना ज़रा।” टिफिन खोलते हुए बोली वह। अम्मा अपने काम में लगी रही। जैसे उसने सुना ही ना हो। “प्लेट इधर कर दो अम्मा।” आरोही इस बार कुछ जोर से बोली। उसकी तरफ देखे बिना ही अम्मा ने सुई को कपड़े में फँसा कर रील गिराते हुए प्लेट उसकी ओर खिसका दिया और फिर से सिलाई में लग गई। “लो, अम्मा !” लंच प्लेट पर रख कर उसके आगे सरकाते हुए आरोही ने कहा; पर अम्मा अपने काम में मगन थी, कुछ न बोली। लंच यूँ ही अम्मा के सामने रखा रहा और अम्मा अपना काम करती रही। आरोही थोड़ी देर वहीं खड़ी रही; पर जब अम्मा की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुयी तब वह चुपचाप अपने रास्ते हो ली। मन ही मन सोच रही थी कि पता नहीं उसने जो किया वो उसे करना चाहिए था या नही; पर अम्मा के करीब जाने का उसे वही एक रास्ता सूझा था। अब तो रोज ही आते-जाते कुछ न कुछ उसके आगे रख देती आरोही लेकिन कभी भी ना तो अम्मा ने आरोही की ओर देखा, ना ही उसके कहने पर चीजें अपने हाथ में ली। कभी-कभी तो वह अम्मा के इस रवइए पर खिन्न हो जाती; पर अम्मा के नज़दीक जाने का और कोई ज़रिया उसे दिखाई नहीं दे रहा था। वह करे भी तो क्या ! जब भी वह उसके पास जा कर खड़ी होती तब ना जाने कितनी बार उसका जी चाहता कि वह बात करे अम्मा से। पूछे, कि वह कहाँ से आई है? यहाँ क्यों रह रही है? उसके घर में कौन-कौन हैं? परन्तु अम्मा के व्यवहार से आरोही की हिम्मत न होती और घर आ कर देर तक उसके बारे में ही सोचती रहती। उस दिन लौटते समय आरोही ने देखा कि अम्मा आने-जाने वालों को उंगली दिखा कर कुछ बोल रही थी। जैसे यातायात के नियमों को ताक पर रखने के लिए उन सबको डाँट रही हो, “सुधर जाओ तुम लोग नहीं तो भुगतोगे।“ जिज्ञासावश आरोही अम्मा की तरफ बढ़ गयी। कुछ और लोग भी उसी की तरह उत्सुकतावश रुक कर उसे देख रहे थे। अम्मा को देख कर आरोही ठिठक गयी। उसकी आँखों में अंगारे दहक रहे थे। भौंहें कमान-सी तनी थीं। गले की नसें खिंच कर उभर आई थीं। अम्मा ऊँची आवाज में बोले जा रही थी; पर उसे कुछ समझ नहीं आया। वह चुपचाप देखती रही फिर वहीं बैठे एक रिक्शेवाले से पूछ लिया उसने, “क्या हुआ अम्मा को ?” “कबहू-कबहू बुढ़िया पगलाय जात। थोड़ो दिमाग खिसको है जाको।” चुल्लू भर मसाला वहीं चप्प से थूक कर अंगोछे से दाढ़ी पर छलका थूक पोछते हुए बोला वह। सुन कर धक्क से रह गयी आरोही। वह उसे इस हाल में पहली बार देख रही थी। उसे हमेशा चुप-चाप अपना काम करते हुए ही देखा था उसने। वहाँ लोगों के खड़े होने से जाम लगने लगा था। आती-जाती गाड़ियों की रफ़्तार थमने से उनके हॉर्न तेज हो गए थे। तभी चौराहे पर खड़ा सिपाही सीटी बजाता हुए वहीं आ गया। उसे देखते ही वहाँ खड़े सभी लोग तितर-वितर हो गए। गाड़ियों की कतारें रेंगती हुयी निकलने लगीं और थोड़ी देर में ही यातायात पहले जैसा सामान्य हो गया। रिक्शेवाले की बात सुन कर आरोही के दिल में कुछ चुभ-सा गया था। वह सोचने लगी कि कहीं अम्मा के इस … Read more