तपते जेठ में गुलमोहर जैसा -प्रेम का एक अलग रूप

आज आपसे ” तपते  जेठ में गुलमोहर सा  उपन्यास के बारे में  बात करने जा रही हूँ |यह  यूँ तो एक प्रेम कहानी है पर थोड़ा  अलग हट के | कहते हैं प्रेम ईश्वर की बनायीं सबसे खूबसूरत शय है पर कौन इसे पूरा पा पाया है या समझ ही पाया है | कबीर दास जी तो इन ढाई आखर को समझ पाने को पंडित की उपाधि दे देते हैं | प्रेम अबूझ है इसीलिए उसे समझने की जानने की ज्यादा से ज्यादा इच्छा होती है | प्रेम में जरूरी नहीं है कि विवाह हो | फिर भी अधिकतर प्रेमी चाहते हैं कि उनके प्रेम की परणीती विवाह मे हो |  विवाह प्रेम की सामजिक रूसे से मान्य एक व्यवस्था है | जहाँ प्रेम कर्तव्य के साथ आता है | मोटे तौर पर देखा जाए तो  किसी भी विवाह के लिए कर्तव्य प्रेम की रीढ़ है | अगर कर्तव्य नहीं होगा तो प्रेम की रूमानियत चार दिन में हवा हो जाती है  | हाथ पकड़ कर ताज को निहारने में रूमानियत तभी घुलेगी जब बच्चो की फीस भर दी हो | अम्मा की दवाई आ गयी हो | कल के खाने का इंतजाम हो | प्रेम के तिलिस्म कई बार कर्तव्य के कठोर धरातल पर टूट जाते हैं | पर ये बात प्रेमियों को उस समय कहाँ समझ आती है जब किसी का व्यक्तित्व अपने अस्तित्व पर छाने लगता है | “कितनी अजीब सी बात है ना …आपके पास तो कई सारे घर हैं …बंगला है , गाँव की हवेली है …पर ऐसी कोई जगह कोई कोना आपके पास नहीं …जहाँ आप इन पत्रों को सहेज सकें | चलो, इस मामले में तो हम दोनों की किस्मत एक जैसी ठहरी, घर होते हुए बेघर |” वैसे भी प्रेम और प्रेमियों में इतनी विविधता है कि उसे घर-गृहस्थी में पंसारी के यहाँ से लाये जाने वाले सामान  की लिस्ट या खर्चे की डायरी में दर्ज नहीं किया जा सकता | फिर तो उसकी विविधता ही खत्म हो जायेगी | ये तो किसी के लिए खर्चे की डायरी  से छुपा कर रखी गयी चवन्नी -अठन्नी भी हो सकता है तो किसी के लिए  पूरी डायरी ….एक खुली किताब | जैसे “तपते जेठ में गुलमोहर जैसा”में डॉ. सुविज्ञ का प्रेम एक ऐसा इकरार है जिसे सात तहों में छिपा कर रखा जाए तो अप्पी के लिए एक खुली किताब | और यही अंतर उनके जीवन के तमाम उतार  चढ़ाव का कारण | तपते  जेठ में गुलमोहर जैसा -प्रेम का एक अलग रूप    अगर विवाहेतर प्रेम की बात की  जाए तो ये हमेशा एक उलझन क्रीएट करता है | जिसमें फंसे दोनों जोड़े बड़ी बेचारगी से गुज़रते हैं | प्रेम की तमाम पवित्रता और प्रतिबद्धता  के बावजूद | दो जो प्रेम कर रहे हैं और दो जो अपने साथी के प्रेम को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं | सब कहीं ना कहीं अधूरे हैं | अभी कुछ समय पहले एक वरिष्ठ लेखिका की वाल पर पढ़ा था कि एक स्त्री को अपने प्रेम और अपने विवाह दोनों को सँभालने का हुनर आता है | उस समय भी मेरे अंतस में यह प्रश्न कौंधा था कि मन में प्रेम रख कर विवाह को संभालना क्या स्त्री को दो भागों में नहीं बाँटता | आज के आध्यत्मिक जगत में “Who am I ” का प्रश्न तभी आता है जब हम अपने अस्तित्व को तमाम आवरणों से ढँक लेते हैं | कुछ आवरण सामाज के कुछ अपनों के और कुछ स्वयं अपने बनाये हुए | उनके बीच में पलती हैं मनोग्रंथियाँ | प्रेम अपराध नहीं है पर भौतिक जगत के गणित में ये अपराधी सिद्ध कर दिया जाता है | इससे इतर अप्पी ने यही तो चाहा की उसका अस्तित्व दो भागों में ना बंटे | उसे समग्र रूप से वैसे ही स्वीकार किया जाए जैसी की वो है | पर ऐसा हो नहीं सका | उसका जीवन तपती जेठ सा हो गया | फिर भी उसका प्रेम गर्मी के मौसम में खिलने वाले गुलमोहर के फूलों की तरह उस बेनूर मौसम को रंगता रहा | अप्पी के इसी अनोखे प्रेम को विशाल कैनवास में उतारा है सपना सिंह जी ने  | ये कहानी शुरू होती है  पाओलो  कोएलो के प्रसिद्द  उपन्यास ‘अलेकेमिस्ट  के एक कोट से … “सूरज ने कहा, मैं जहाँ हूँ धरती से बहुत दूर, वहीँ से मैंने प्यार करना सीखा है | मुझे मालूम है मैं धरती के जरा और पास आ गया तो सब कुछ मर जाएगा …हम एक दूसरे के बारे में सोचते हैं, एक दूसरे को चाहते हैं, मैं धरती को जीवन और ऊष्मा देता हूँ , और वह मुझे अपने अस्तित्व को बनाए रखने का कारण |” मुझे लगता है कि प्रेम की एक बहुत ही खूबसूरत परिभाषा इस कोटेशन में कह दी गयी है | प्रेम में कभी कभी एक दूरी बना के रखना भी दोनों के अस्तित्व को बचाये  रखने के लिए जरूरी होता है | अभी तक तो आप जान ही गए होंगे कि ये कहानी है अप्पी यानि अपराजिता और डॉ. सुविज्ञ की | डॉ. सुविज्ञ …शहर के ख्याति प्राप्त सर्जन |मूलरूप से गोरखपुर के रहने वाले | खानदानी रईस | फिर भी उनकी पीढ़ी ने गाँव छोड़ कर डॉक्टर, इंजिनीयर बनने का फैसला किया | वो स्वयं सर्जन बने | हालांकि  पिछले दो साल से सर्जरी नहीं करते | पार्किन्संस डिसीज है | हाथ कांपता है | वैसे उनका  अपना नर्सिंग होम है | डायगोनेस्टिक सेंटर है, ट्रामा सेंटर है | कई बंगले हैं, गाडियाँ  है ….नहीं है तो अप्पी | पर नहीं हो कर भी सुबह की सैर में उनके पास रोज चली आती है भले ही ख्यालों में | “सुबह -सुबह हमें याद करना” अप्पी ने एक बार कहा था उनसे | “सुबह -सुबह ही क्यों ?”उसकी बातें उनके पल्ले नहीं पड़ती थीं | “आप इतने बीजी रहते हो …हमें काहे याद करते होगे …चलो सुबह का एपॉइंट मेंट मेरा !”  अप्पी ..पूर्वी उत्तर  प्रदेश के एक कस्बानुमा शहर में रहने वाली लड़की |साधारण परिवार की लड़की |  लम्बा कद, सलोना लम्बोतरा चेरा …बड़ी -बड़ी भौरेव जैसी आँखें व् ठुड्डी पर हल्का सा गड्ढा | शुरूआती पढाई वहीँ से … Read more