रोज़- अज्ञेय की कालजयी कहानी
रोज रोज वही काम l हर रोज सुबह से लेकर शाम तक एक आम गृहिणी की जिंदगी में वही काम और उससे उपजी एकरसता जनित निराश कुछ ऐसे हावी हो जाती है कि उसके जीवन के सारे रंग ही कुम्हला जाते हैंl स्त्री मन के गहन कदराओं में परेवेश करती है साहित्य में क्रान्तिकारी परिवर्तन के प्रणेता महान् कथाकार “अज्ञेय” की सर्वाधिक चर्चित कहानियों में से एक है l कहानी कुछ इस प्रकार है.. एक व्यक्ति अपने दूर के रिश्ते की बहन मालती से मिलने अठारह मील पैदल चलकर पहुँचता है। उन दोनों का जीवन इकट्ठे खेलने, पिटने और पढ़ने में बीता था। एक तरह से उनमें भाई-बहन के रिश्ते के अलावा मित्रता का भी रिश्ता है l उस व्यक्ति ने मालती को दो साल पहले देखा था पर आज मालती विवाहिता है। एक बच्चे की माँ भी है । उसका पति सरकारी डॉक्टर है और वो उन्हें मिले फ्लैट में ही रहती है l व्यक्ति उसमें दो साल पहले की मालती ढूँढ रहा है पर वो एकदम बदल गई है l जीवन से भरी मालती जैसे एकदम मुरझा गई है l अब उसके पास एक दैनिक दिनचर्चा है l पूरे दिन काम करना, बच्चे की देखभाल करना और पति का इंतजार करना इतने में ही मानों उसका जीवन सिमट गया है। उसको भाई के आने की भी खुशी नहीं है l हालंकी वो अतिथि के प्रति कर्तव्य में कोई कमी नहीं करती है l खाना तैयार करती है पंखा झलती है पर कुछ है जो कहीं खो गया है l बातचीत में आए उतार – चढ़ाव में वो व्यक्ति अनुभव करता है कि मालती की आँखों में विचित्र – सा भाव है। एकरसता जनित निराशा l जैसे उसने स्वीकार कर लिया है कि उसे बस घर और घर के कामों में जीवन को घोल देना है l जहाँ पानी भी समय बेसमय आता है… उसे बर्तन धोने की चिंता है l सब्जियां भी रोज नहीं आती l डॉक्टर पति के काम पर चले जाने के बाद का सारा समय मालती को घर में अकेले काटना होता है। अपने दुबले- पतले चिड़चिड़े बच्चे की देखभाल करती हुई मालती सुबह से रात ग्यारह बजे तक घर के कार्यों में अपने को व्यस्त रखती है। उसका जीवन ऊब और उदासी के बीच यंत्रवत चल रहा है। किसी तरह की खुशी, उल्लास उसके जीवन में नहीं रह गए हैं। जैसे वह अपने जीवन का भार ढोने में ही घुल रही हो। ऊब का आलम ये है कि घंटाघर में हर एक घंटे के बाद बजते घंटे पर वो दोहराती है चार बज गए, 6 बज़ गए और फिर 11 बज़ गए l उसके बाद वो सो पाती है l वर्णन इस मार्मिकता के साथ किया है कि ऐसा लगता है वो एक-एक घंटा जीवन काट रही है l गैंगरीन के बिम्ब का प्रयोग इस कहानी में एक रूपक की तरह है l मालती का पति सरकारी डॉक्टर है l जहाँ अक्सर लोग इलाज करवाने आते है तो जख्म इतना बढ़ चुका होता है कि हाथ या पैर काटना पड़ता है क्योंकि गैंगरीन का खतरा होता है l मालती इस बात को जिस तरह से कहती है उसमें उसकी खुद की पीड़ा उभर कर आती है l जख्म को पहले तो अनदेखा किया जाता है और जब हालात बेकाबू हो जाते हैं तो अंग ही काट दिया जाता है l उसे तरह से इस निराशा को शुरू में तो अनदेखा किया जाता है फिर वो जीवन के तन्तु ही काट देता है l घर के एकाकी वातावरण, और उसके प्रभाव में ढलते हुए एक गृहिणी के चरित्र का मनोवैज्ञानिक चित्रण अज्ञेय ने बहुत ही कलात्मक तरीके से किया है l ये कहानी पुरुषों से भी सावाल करती है कि स्त्री जीवन को घर की एकरसता में डाल देने वाले पुरुष क्यों अपनी पत्नी के एक एकाकीपन के प्रति क्यों लापरवाह रहते हैंl वो उसके व्यक्तित्व विकास के बारे में कोई प्रयास क्यों नहीं करते? वही ये कहानी ये उम्मीद जगाती है कि शायद पुरुष ऐसी कहानियाँ पढ़कर अपनी पत्नी की बाहरी जिंदगी से जुडने की इच्छा समझ सकेंगे l आइए पढ़ें… रोज़- अज्ञेय की कालजयी कहानी दोपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते हुए मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही हो, उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, किन्तु फिर भी बोझल और प्रकम्पमय और घना-सा फैल रहा था… मेरी आहट सुनते ही मालती बाहर निकली। मुझे देखकर, पहचानकर उसकी मुरझायी हुई मुख-मुद्रा तनिक से मीठे विस्मय से जागी-सी और फिर पूर्ववत् हो गयी। उसने कहा, ‘‘आ जाओ!’’ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये भीतर की ओर चली। मैं भी उसके पीछे हो लिया। भीतर पहुँचकर मैंने पूछा, ‘वे यहाँ नहीं है?’’ ‘‘अभी आये नहीं, दफ़्तर में हैं। थोड़ी देर में आ जाएँगे। कोई डेढ़-दो बजे आया करते हैं।’’ ‘‘कब के गये हुए हैं?’’ ‘‘सवेरे उठते ही चले जाते हैं।’’ ‘‘मैं ‘हूँ’ कर पूछने को हुआ, ‘‘और तुम इतनी देर क्या करती हो?’’ पर फिर सोचा, ‘आते ही एकाएक प्रश्न ठीक नहीं हैं। मैं कमरे के चारों ओर देखने लगा। मालती एक पंखा उठा लायी, और मुझे हवा करने लगी। मैंने आपत्ति करते हुए कहा, ‘‘नहीं, मुझे नहीं चाहिए।’’ पर वह नहीं मानी, बोली,‘‘वाह! चाहिए कैसे नहीं? इतनी धूप में तो आये हो। यहाँ तो…’’ मैंने कहा, ‘‘अच्छा, लाओ, मुझे दे दो।’’ वह शायद ‘ना’ करनेवाली थी, पर तभी दूसरे कमरे से शिशु के रोने की आवाज़ सुनकर उसने चुपचाप पंखा मुझे दे दिया और घुटनों पर हाथ टेककर एक थकी हुई ‘हुंह’ करके उठी और भीतर चली गयी। मैं उसके जाते हुए, दुबले शरीर को देखकर सोचता रहा – यह क्या है… यह कैसी छाया-सी इस घर पर छायी हुई है… मालती मेरी दूर के रिश्ते की बहन है, किन्तु उसे सखी कहना ही उचित है, क्योंकि हमारा परस्पर सम्बन्ध सख्य का ही रहा है। हम बचपन से इकट्ठे खेले हैं, इकट्ठे लड़े और पिटे हैं, और हमारी पढ़ाई भी बहुत-सी इकट्ठे ही हुई थी, और हमारे व्यवहार में सदा सख्य की स्वेच्छा और स्वच्छन्दता रही है, … Read more