प्रियंका ओम की कहानी बाज मर्तबा जिंदगी

बाज मर्तबा जिंदगी

सोशल मीडिया एक खिड़की खोलता है अपने विचारों की अभिव्यक्ति की l ये स्वतंत्रता अपने साथ कुछ जिम्मेदारियाँ भी ले कर आती है l ये जिम्मेदारी केवल हम क्या लिख रहे हैं कि नहीं होती, ये जिम्मेदारी होती है है असहमति से सम्मान पूर्वक सहमत होने की l ये भी जिम्मेदारी होती है कि किसी की भावनाएँ आहत ना हों l असभ्य भाषा और कुतर्कों के अतिरिक्त ट्रोलिंग सोशल मीडिया में एक खतरनाक प्रवृत्ति के रूप में उभरी है l जिसमें पीड़ित व्यक्ति को मानसिक आघात भी लग सकता है l आइए पढ़ें निराशा और मानसिक कुंठा को जन्म देती सोशल मीडिया की इस ट्रोलिंग प्रवृत्ति पर प्रहार करती वागार्थ में प्रकाशित साहित्य जगत में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराती युवा कथाकार प्रियंका ओम की कहानी …. बाज मर्तबा जिंदगी    सुबह की मीटिंग में व्यस्त महेश के साइलेंट फ़ोन स्क्रीन पर उमा की तस्वीर कौंध-कौंध आ रही थी | वह फ़ोन तभी करती है जब महेश कुछ भूल जाता है | घड़ी उसकी कलाई में बंधी है, लैपटॉप सामने खुला है और मोबाइल पर उमा की कॉल आ रही है | उसे ठीक याद है, टिफिन लेकर आया है और बटुआ जेब में हैं | वैसे इन चीज़ों के वास्ते उमा का फ़ोन पहले मोड़ तक पहुँचने से पहले ही आ जाता है। अब काफी देर हो चुकी है | जरूर कोई गंभीर मसला है वरना इस वक़्त वह कभी फ़ोन नहीं करती | “मैडम चक्कर खाकर गिर पड़ी है “ महेश ने फ़ोन उठाया तो उधर से सहायिका की घबराई आवाज़ आई ! कहीं चोट तो नहीं आई? नहीं, कारपेट पर गिरी हैं | शुक्र है, मन ही मन बुदबुदाया फिर मुखर हो “मुझसे बात कर सकेगी ?” पूछा| मना कर रही है | महेश ने तुरन्त-फुरंत में घर की राह ली | इस वक़्त शहर की सड़कें सूनी मिलती हैं, बच्चे स्कूल में पहली कक्षा के बाद छोटी ब्रेक में स्नैक्स का आनंद लेते हुए जाने किस बात पर खिलखिला रहे हैं और श्रीमान दफ्तर की फाइलों में सिर दे चुके हैं | दरअसल पति और बच्चों से फारिग हुई घरेलू स्त्रियों का यह नितान्त निजी वक़्त है | यह वक़्त उमा के योगाभ्यास का है, कहती है “ योग से उसका चित्त शांत रहता है” किन्तु कई दिनों से वह बेतरह व्याकुल रहा कर रही है ! बीते सप्ताहांत की बात है! शनिवार की दोपहर महेश तैराकी से वापस लौटा तो सोफे पर लेटी उमा बेहद उदास मिली, कारण पूछने पर रुआंसी हो आई “ कुछ लोग फेसबुक पर मुझे लोग ट्रोल कर रहे हैं” ! ट्रोलर्स की समस्या क्या है ? थकन और भूख से परेशांहाल महेश ने दोनों अंगूठे से अपनी कनपट्टी दबाते हुए पूछा, उसका सिर दर्द से फटा जा रहा था लेकिन वह जानता था अभी इस वक़्त उमा को उसकी जरुरत थी और वह उसके साथ था ! वैचारिक मतभेद! उमा ने संत्रस्त कहा | वैचारिक मतभेद तो बेहद मामूली बात है,बाज मर्तबा बाबजूद एक ही तरबियत के दो लोग अलग होते हैं | मुझे और भैया को देख लो, हम दोनों एक दूसरे से कितने तो अलग है और तुम सब बहनें, देखने में तो एक-सी किंतु स्वभाव से सब एक दूसरे से कतई भिन्न ! लेकिन उसने स्क्रीन शॉट लगाकर मुझे पागल कहा! लोकतंत्र की गरिमा से बेपरवाह, कौन है वह मतान्ध ? मुझे दोस्त कहा करती थी, पिछले पुस्तक मेले में अपनी बिटिया को मुझसे मिलवाते कहा था “ मौसी को प्रणाम करो” | तुमने जवाब दिया ? नहीं उसने मुझे अमित्र कर मजमा लगाया है | उसकी पोस्ट तो पब्लिक होगी | हाँ, लेकिन पब्लिक कमेंट रिस्ट्रिक्टेड है | तो तुम अपने वाल पर जवाब लिखो, वहां तो कोई रोक नहीं न  ? तमाशे से डरती हूँ ! लेकिन इस तरह चुप बैठने से बदमाशों को शह मिलेगी,वे तुम्हें डरपोक समझेंगे और दूसरे कायर या फिर गलत ! जबकि बात गलत या सही की नहीं, सोच की है | लेकिन आम लोग इस मसले को मात्र गलत या सही के चश्मे से देखेंगे |सोशल मीडिया पर बेहिसाब समय बिताने से हमारी सोच औसत दर्जे की होती जा रही है | हम भीतर-ही-भीतर कुंद होते जा रहे हैं ! उनका समूह बड़ा है | तुम्हारी फैन फॉलोविंग भी छोटी नहीं | तो मुझे जवाब लिखना चाहिये? यकीनन लिखना चाहिये | अपने लिये न सही, अपने पाठकों के लिये तो जरूर लिखो, अन्यथा वे तुम्हारे बारे में क्या सोचेंगे ? ! बालपन की साथिन से जीवन संगिनी बनी उमा को महेश पोर-पोर जानता है, अगर वह जवाब नहीं देगी तो अन्दर ही अन्दर कुढ़ती रहेगी और सीधे सीधे जवाब देने की हिम्मत भी नहीं, उमा को हमेशा एक कुशन, एक सपोर्ट की जरुरत होती है, जो शुरू से महेश है | स्कूल के दिनों भी महेश के दम लड़ आती, फिर बिगड़ी बात वह संभालता | लेकिन इस मर्तबा बात इतनी बिगड़ जायेगी इसका उसे तनिक भी अंदेशा नहीं था,अगर कुछ ऐसा वैसा हो जाता तो… सोचकर महेश की रूह काँप गई; स्वयं को कभी माफ़ नहीं कर पाता ! उमा बिस्तर पर शिथिल पड़ी है |  निढाल , अशक्त | जैसे देह में कोई जान शेष न बची हो | निस्तेज चेहरा, बुझी हुई आँखें | मानो महीनों से बीमार, हाथ थामा तो आँखें बह चलीं ! डॉक्टर ने कहा “ वर्टिगो का अटैक है, किसी मानसिक द्वंद्व का विकार” फिलहाल नींद का इंजेक्शन देकर सुला दिया है। कम-अज-कम बीस घंटे सोती रहेगी ! आपके दफ्तर के लिए निकलने के बाद हम दोनों सब्जी लेने गये थे, उसके बाद मैडम नहाने चली गई | मैं सब्जी धो-पोछ रही थी, जब धम्म की आवाज़ आई। दौड़ आई तो देखा औंधे गिरी है, सहारा देकर बिस्तर पर सुलाया | सहायिका ने एक सांस में पूरा हाल कह सुनाया ! उसने आगे कहा,कुछ दिनों से ठीक नहीं चल रहा, मैडम बेहद तनाव में रहती है | खोई-खोई सी दीखती है | होकर भी नहीं होती। दिमाग कहीं और रहता है अभी परसों की ही बात है,दाल के लिए काट रखा टमाटर चाय के लिए उबलते दूध में डाल दिया और दाल में चाय पत्ती | आजकल बहुत झल्लाती है, बात-बेबात … Read more

डाटा फ्लो डायग्राम है जिंदगी

डाटा फ्लो डायग्राम

जिंदगी क्या है ? पाप  और पुण्य का लेखा -जोखा, चित्रगुप्त की वो डायरी जिसके अनुसार हमें स्वर्ग -नर्क या अगला जन्म मिलता है | या डाटा फ्लो डायग्राम – जिसमें हम बार- बार ऐसे निर्णायक  मोड पर खड़े होते हैं | जहाँ हम एक फैसले से अपनी आगे की जिंदगी की दिशा तय करते हैं | स्टीव जॉब्स ने एक बार कहा था कि अगर आप अपनी जिंदगी के चित्र को पीछे की डॉटस मिलाते हुए बनाएंगे तो आप को पता चल जाएगा कि आज आप जहाँ हैं वो क्या -क्या करने या नहीं करने के कारण हैं | ये कहानी पाप -पुण्य की अवधारणा को इसी जन्म में किये गए कामों का फल बताती है | बिलकुल क्रिया की प्रतिक्रिया की तरह | जहाँ हम मुख्य घटनाओं को नहीं उनके परिणामों को बदल सकते हैं | आइए पढ़ें सशक्त रचनाकार  श्रद्धा थवाईत की  आध्यात्मिक  टच    लिए बेहतरीन कहानी ….   डाटा फ्लो डायग्राम है जिंदगी      कितनी सुन्दर है ये सड़क! सड़क के दोनों ओर गुलमोहर छाये हुए हैं। नीचे काली सड़क पर बिछी गुलमोहर की लाल पंखुडियां और ऊपर गुलमोहर का हरा-लाल शामियाना। मन को एक सुकून सा मिलता है, इस सड़क पर सैर से। दिन भर की दौड़-भाग भरी पुलिस की नौकरी में यह सुकून ही मेरी नियमित सैर का राज है। इस पर चलते हुए मैं अक्सर अपनी जिंदगी का सिंहावलोकन करने लगता हूँ।     कल ऑफिस में मुझसे मिलने निखिल आये थे। उनसे मिलने के बाद से मेरा मन कई प्रश्नों से मुठभेड़ में लगा हुआ है।     ‘हमारी जिंदगी कौन बनाता है?’     रगों में बहती बात तो यही है, ईश्वर सबकी जिंदगी की स्क्रिप्ट पहले से लिख कर रखते हैं। यदि हां तो फिर ये क्यों कहते हैं, कि मरने के बाद कोई चित्रगुप्त हैं, जो जिंदगी में किये कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं, और इन्हीं कर्मों के आधार पर लोगों को स्वर्ग या नरक में भेजते हैं। कुछ अजीब नहीं है यह? जिंदगी की कहानी लिखी भी ईश्वर ने, फिर अपने ही एजेंट से इसकी एकाउंटिंग भी करा दी, और फिर ऑडिट भी, जबकि सब कुछ पहले से तय है, तो क्या स्वर्ग और नर्क के लिए फिक्सिंग है नहीं है ये?      अच्छा तब क्या, जब कोई ना माने कि ईश्वर होता है तो? तो कौन कहता है यह कहानी? कौन लाता है निर्णय की परिस्थिति? रगों में बहती बात छोड़ दूँ तो मेरे तार्किक दिमाग के आधार पर हम जिंदगी मेहनत और कर्मों के तानों-बानों से खुद बुनते हैं। तो सच क्या है? पहले जिंदगी की कहानी लिखी गई, या पहले जिंदगी जी गई, कि किश्तों में लिखी जाती है जिंदगी की कहानी.     इस हरियाले शामियाने में मन के प्रश्नों के इस ऑक्सीजन सिलेंडर ने मुझे यादों के सागर में गहरे उतार दिया है। निखिल से जुडी यादें जेहन में कौंध रही हैं। जिनके साथ मैं अपने इन प्रश्नों के, किसी नायाब मोती से उत्तर की खोज में गोते लगाये जा रहा हूँ।      तब मैं बिलासपुर में पुलिस अधीक्षक था। नयी-नयी नौकरी थी। दुनिया बदल देने का, समाज के लिए कुछ कर गुजरने का जूनून था। मैं हर सप्ताह सोमवार को पुलिस ग्राउंड में, कभी शामियाना लगाकर, तो कभी नीम के पेड़ के नीचे, अपनी टेबल-कुर्सी लगवा कर बैठ जाता। ये मेरा जनता दरबार होता। जिसमें हर वो आम आदमी जो मुझसे मिलना चाहता हो, आकर मिल सकता था। कार्यालय के औपचारिक माहौल से दूर होने के कारण शायद बाकी दिनों की अपेक्षा सोमवार को मिलने वालों की भीड़ बहुत ज्यादा होती।       वे ठण्ड के दिन थे, जब नीम के नीचे मेरा जनता दरबार सजा हुआ था. उस सोमवार वह मेरे सामने आ खड़ा हुआ। उम्र ज्यादा नहीं थी, लेकिन वह सिर्फ हड्डियों का ढांचा भर था; जैसे किसी ने उसकी त्वचा के नीचे सक्शन पम्प लगा कर सारी चर्बी निकाल ली हो। सिर्फ हड्डियाँ और चमड़ी बची रह गई हो। मैंने एक नजर में उसे स्कैन कर लिया। स्कैनिंग जो हमारे प्रशिक्षण का हिस्सा होती है, जो हमारी रग-रग में बसी होती है। किसी आदमी को देख कर ही मैं बता सकता हूँ कि इस धरती पुत्र के पेट में बारूदी सुरंगें दबी हुई हैं या नहीं।    खैर उस दिन दिनेश कुछ तुड़ा-मुड़ा सा कागज पकड़े हुए था। उसने आकर हिचकते हुए दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया और कहा,     “साहेब एक अर्जी हे साहेब।”    “हां कहो।” मैंने मेरी आवाज का हिस्सा बन चुकी रौबीली संवेदनशीलता से कहा,    “साहेब! मोर संपत्ति कुरुक हो गिस हे। साहेब! आप ले बिनती हे, के आप ओला छुड़ा देवा, साहेब! हमर करा रहे बर भी जघा नई हे।” उसकी आवाज में कातरता थी.     “क्यों कुर्क हो गया ही तुम्हारा घर? कुछ कागज है तुम्हारे पास? दिखाओ।” मैंने पूरा मामला समझने के लिए अभिलेख देखने चाहे।     उस हड्डी के ढांचे में हरकत हुई। तुड़े-मुड़े दो पर्चे अब मेरे हाथ में थे। एक पर्चे पर दिनेश का कुर्की ख़त्म करने आवेदन था, तो एक में कोर्ट का कुर्की का आदेश।     आदेश को मैंने ध्यान से देखा। कोर्ट के आदेश पर ही कुर्की हुई थी।    “ये कुर्की क्यों हुई है?”     “साहेब में एक बरस तक घर के भाड़ा नई दे सकें, एकरे बर मकान मालिक ह मोर सम्पति कुरुक करा दिस।” उसकी आवाज में सच्चाई थी।     उसने किराया जमा नहीं किया था। कोर्ट के आदेश से कुर्की हुई थी। इसमें सब कुछ नियमानुसार ही था, इसलिए इसमें मेरे करने लायक कुछ नहीं था. मैंने यह बताते हुए उसे जाने का इशारा कर दिया, लेकिन वह जर्जर ढांचा कहता रहा,    “साहेब! बिनती हे साहब! मोर संपति ले कुरुकी के आदेश हटवा देवा साहेब। ईसवर आपके  भला करही साहेब। बिनती हे साहेब!”      मैंने एक सिपाही को उसे सारी बात समझा देने के लिए कहा। सिपाही उसे समझाने के लिये दूर ले जाने लगा, लेकिन वह मुड़ मुड़ कर मुझ से कहने लगा,     “साहेब! बिनती हे, आप बस पांच मिनिट मोर बात सुन लेवा.” उसकी आवाज में दीनता थी, जिससे मेरा मन कुछ पिघल सा गया. मैंने कहा,    “पांच मिनट क्या, तुम दस मिनट अपनी बात कहो; कहो क्या कहना है?”  उसने भीड़ की तरफ देख किसी को पास आने का इशारा किया। एक मुंह बाँधी हुई वृद्धा और एक … Read more