भ्रम 

कहानी -भ्रम

भ्रम में जीना कभी अच्छा नहीं होता, लेकिन हम खुद कई बार भ्रम पालते हैं .. बहुत लोग हैं हमारे अपने, बस जरा सा  कह  देंगे तो सबका साथ मिल जाएगा | कई बार हम अपने इस भ्रम को जिंदा रखने के लिए कहते भी नहीं हैं | पर एक दिन ऐसा आता है की भ्रम के इस चढ़ते हुए बोझ से हमारा अपना अस्तित्व तार -तार होने लगता है | उस समय ये भ्रम की गठरी उतार कर फेंक देते हैं |असली सशक्तता वहीं से होती हैं | आइए पढ़ते हैं सुपरिचित कथाकार कविता  वर्मा की बरसों -बरस ऐसे ही भ्रम में जीती लड़की की कहानी .. भ्रम    गर्मियों के दिन में सूरज उगते ही सिर पर चढ़ जाता है उसके तेवर से सुबह का सुहानापन यूँ झुलस जाता है जैसे गिरे हुए पानी पर गर्म तवा रख दिया गया हो। कहीं से ठंडक चुरा कर लाई हवाएँ भी सूरज की तपिश के आगे दम तोड़ देती हैं। उनका हश्र देख दिल दिमाग मुस्तैदी से काम निपटाने की ताकीद करता है। वैसे भी इतने सालों की अनुशासित जीवन शैली ने मेघना को सुबह टाइमपास करना या अलसाना कभी सीखने ही कहाँ दिया? आँख खुलते ही घर के कामों की फेहरिस्त दिमाग में दौड़ने लगती है और उन्हें पूरा करने की बैचेनी भी। बरसों की आदत और कहीं कोई कोताही होने पर मिलने वाले कड़वे बोल आलस को आसपास भी न फटकने देते। मेघना अभी घर के काम निपटा कर फुर्सत ही हुई थी कि उसका मोबाइल बज उठा। एक झुंझलाहट सी हुई जब यह विचार आया कि किसका फोन होगा लेकिन फोन बज रहा है तो उठाना तो होगा ही। नए नंबर को देख उसने असमंजस में फोन उठाया दूसरी तरफ एक चहकती हुई आवाज थी “हेलो मेघना कैसी है तू? क्या यार कितने साल हो गए न मिले हुए, बात किए हुए, हमेशा तेरी याद आती है लेकिन तेरा नंबर ही नहीं था मेरे पास।” दूसरी ओर की चुप्पी से बेखबर वह आवाज अपनी खुशी बिखेरती जा रही थी, जबकि मेघना ने उसी आवाज के सहारे पहचान के सभी सूत्रों को तलाशना शुरू कर दिया था। इतना तो तय था कि फोन उसकी किसी पुरानी सखी का है लेकिन कौन नाम याद ही नहीं आ रहा था। उस तरफ से जितनी खुशी और उत्साह छलक रहा था मेघना उतने ही संकोच से भरती जा रही थी। खुशी की खनक में संकोच की चुप्पी सुनाई ही नहीं दे रही थी और इस खनक पर अपरिचय का छींटा मारने का साहस मेघना नहीं जुटा पा रही थी। तभी शायद चुप्पी ने चीख कर अपने होने का एहसास करवाया और वहाँ से आवाज आई, “अरे पहचाना नहीं क्या मैं सुमन बोल रही हूँ जबलपुर से”  नाम सुनते ही दिमाग में पड़े पहचान सूत्र एक बार फिर उथल-पुथल हुए और कहीं दबा पड़ा नाम सुमन कश्यप सतह पर आ गया। “अरे सुमन तू कैसी है कहाँ है आजकल और तुझे नंबर कैसे मिला” मेघना के स्वर में भी थोड़ा उत्साह थोड़ी खुशी छलकी जो सायास ही लाई गई थी। जबलपुर से जुड़े सूत्र के साथ बहुत आत्मीयता अब उसमें शेष न बची थी लेकिन उसे प्रकट करना इतना सहज भी न था। कम से कम प्रचलित मान्यताओं के अनुसार तो पुरानी सखी और मायके के नाम का जिक्र प्रसन्न होने की अनिवार्यता थी। पति बच्चे ससुराल की बातों के बाद आखिर वह प्रश्न आ ही गया जिसकी आशंका मेघना को प्रसन्न नहीं होने दे रही थी। सुमन ने बताया था कि बाजार में बड़ी भाभी मिली थीं और नंबर उन्हीं से मिला है। नंबर के साथ ही उन्होंने कुछ उलाहने भी अवश्य दिए होंगे जानती थी मेघना। वही उलाहने प्रश्न बनकर आने से आशंकित थी वह। अचानक उसे तेज गर्मी लगने लगी जैसे सुमन के प्रश्न सूरज की तपिश लपेट कर उसके ठीक सामने आ खड़े हुए हैं। अच्छा कहकर बात खत्म करने की कोशिश की उसने लेकिन उस तरफ से बात तो अब शुरू होना थी। “भाभी कह रही थी कि तू मायके नहीं आती दो-तीन साल हो गए ऐसा क्यों, कोई बात हो गई क्या?” सुमन ने कुरेदते हुए पूछा तो थोड़ी अनमनी सी हो गई वह। यह भाभी भी न, हर किसी के सामने पुराण बाँचने बैठ जाती हैं। सुमन ने नंबर माँगा था दे देतीं, मैं मायके आती हूँ नहीं आती बताने की क्या जरूरत थी? मन में उठते इन असंतोषी भावों को दबाकर वह हँसी की आवाज निकालते हुए बोली “अरे ऐसा कुछ नहीं है पहले संयुक्त परिवार था तो पीछे से सुकेश के खाने-पीने की चिंता नहीं रहती थी, बच्चे भी छोटे थे तो लंबी छुट्टी मिल जाती थी। अब गर्मी की छुट्टियाँ उनकी हॉबी क्लास स्किल क्लास में निकल जाती हैं अब बच्चों को छोड़कर जाना नहीं हो सकता न अभी इतने समझदार भी नहीं हुए हैं। वैसे कभी-कभार किसी शादी में हमें निकलना होता है तो जबलपुर रुक जाती हूँ। और तू सुना कब आई जबलपुर, कब तक रुकेगी? ” मेघना ने बिना रुके प्रश्नों की झड़ी लगाकर बातचीत की दिशा मोड़ दी। लगभग बीस मिनट की इस बातचीत ने मेघना को थका दिया फोन रख कर उसने पूरा गिलास भर पानी पिया और बेडरूम में आकर लेट गई।   यादों की गठरी के साथ दिक्कत ही यही है कि अगर उसे जरा सा छेड़ा तो यादें रुई के फाहे सी हवा में तैरने लगती हैं, फिर उन्हें समेट कर वापस बाँधना मुश्किल होता है जब तक उन्हें सहला कर समेटा न जाए। मेघना ने बिस्तर पर लेट कर आँखें बंद की तो अतीत के फाहे उसकी आँखों के आगे नाचने लगे।n बाईस की हुई थी वह जब उसकी सगाई सुकेश के साथ हुई थी। उसके पहले का जीवन आम भारतीय लड़की की तरह था, होश संभालते ही खाना बनाना, घर के काम करना सिखा दिया गया था। तीन भाइयों की इकलौती बहन थी। यूँ खाने कपड़े की कोई कमी न थी सरकारी कॉलेज में पढ़ाई का विशेष खर्च भी न था लेकिन फिर भी कभी-कभी बहुत छोटी-छोटी बातों में भी लड़के लड़की के बीच का भेद उसे चुभता था। अम्मा खूब पढ़ी लिखी तो न थीं, लेकिन सामाजिकता व्यवहारिकता निभाना खूब … Read more

हारने से पहले

हारने से पहले

जीवन में हम कितनी ही बार परेशान होकर कहते हैं, “ये जीना भी कोई जीना है”या “इससे तो मौत भली”  पर वास्तव में जब मौत सामने या कर खड़ी होती है तो पीछे छूटता जीवन दिखाई देता है | मृत्यु  और जीवन कि इस संधि पर पल -पल हारते हुए व्यक्ति को अपनी पूरी जिजीविषा के साथ वापस लौटने के लिए क्या जरूरी होता है ? आइए जाने डॉ. पूनम गुज़रानी जी की कहानी “हारने से पहले” से .. हारने से ठीक पहले  टिप….टिप…. टिप…..टपकती हुई गुल्कोज की बूंदें पिछले चार दिनों से लगातार मेरे शरीर में प्रवेश कर रही थी। इसके अलावा जाने कितनी दवाइयां, इंजेक्शन, विटामिन, प्रोटिन मेरे शरीर में जा रहे थे पर शरीर पर इनका कोई असर हो रहा ये महसूस नहीं हो रहा था। बैचैन मन , अशक्त शरीर, उबाऊ दिनचर्या, गमगीन माहौल जीवन को निरन्तर मौत की ओर धकेल रहे थे। पी पी कीट पहने डॉक्टर…. नर्स…. और वार्ड बॉय….इस तनाव , उदासी को कम  करने में असमर्थ लग रहे थे। चारों ओर शोक ही शोक पसरा था। जाने कितने चले गए और कितने ओर इस महामारी की भेंट चढ़ेगे… कोई नहीं जानता…..। सांत्वना के शब्द बिल्कुल खोखले और बेमानी लग रहे थे। जब से मैं इस कोविड अस्पताल में भर्ती हुआ  मन रह-रहकर मौत की कल्पना करते हुए अपने आप से डर रहा है। न प्रार्थना में जी लगता…. न कोइ सपना जी बहलाने में कामयाब हो पाता…. दूर-दूर तक सधन अंधेरा…..उम्मीद की कोई किरणें आस-पास दिखाई नहीं दे रही है…..है तो सिर्फ मरीजों की दर्द से कराहती चीखें….. इमरजेंसी में भागती हुई हताश, बेबस नर्सें…. आक्सीजन की सप्लाई को लेकर चिंतित डॉक्टर…. पिछले चार दिनों में मेरे आस-पास की चार जिंदगियां लाश में तब्दील है गई…. इस खौफनाक माहौल में जब अपनी ही सांस को बारी-बारी कभी ओक्सोमीटर से, कभी नाक के आगे उंगली रखकर चेक करना पङता है तो दूसरों पर भला क्या भरोसा हो….सांस चलती है तो दिल पर संदेह की सुई अटक जाती है….. और दिल धङकने की आवाज से भी तसल्ली नहीं होती तो दिन में कई-कई बार थर्मामीटर लगाने की अजीब सी बीमारी जहन में पलने लगती है….। लगता है यमदूत बस आने ही वाला है ….। सोचते हुए रूह कांप जाती है…. पिछले कई दिनों से यही सब तो भुगत रहा हूं मैं। जब भी समाचार सुनता हूं विषबैल के बढ़ते हुए आंकङे मेरे भीतर की जीवटता को तिल-तिल कर मारते हुए प्रतीत हो रहे हैं। कभी कभी मन में सवाल उठता है कि ये क्यों हो रहा है…. भगवान…. खुदा…., परमात्मा…. कहां, कौनसी गुफा में बैठ गया कि उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा…. कुछ दिखाई नहीं दे रहा…..। फिर अगले ही पल इसका प्रतिकार करते हुए अपना ही दिल, दिमाग कहता है- भगवान…. खुदा…. परमात्मा…. कोई भला क्यों करेगा तुम्हारी सहायता…. स्वर्ग सी धरती का तुम लोगों ने क्या हाल किया है। अंधाधुंध प्रदूषण, अशांति, तनाव, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष की आग में सुलगते हुए इस ब्रह्माण्ड का कितना शोषण किया है तुमने….। तुम मानव नहीं….दानव हो दानव…. फिर भी बात करते हो परमात्मा की…. धिक्कार….तुम्हें सौ सौ धिक्कार… विजय के हाथ अपने कानों पर चल गये। कङ़वी सच्चाई से रुबरु होना वश की बात नहीं थी….। जो आया है उसे एक दिन जाना पर कदम- कदम बढ़ते मौत के साए में जीना मरने से कई गुना डरावना होता है। इसे उन सबने महसूस किया जिन्होंने चौहदह दिन अकेले अस्पताल में बिताए…..न कोई सर पर हाथ रखकर सांत्वना देने वाला….न कोई चार बार मनुहार करके खाना खिलाने वाला….न कोई दवाई लेने के लिए आंख दिखाने वाला ….न कोई दूध न पीने पर अपनी कसम देने वाला….इतने पर भी तो बस नहीं…. कोई मर जाए तो चार कंधे भी नसीब नहीं होते ….बाप के मरने पर बेटा नहीं जा पाया और बेटे के मरने पर बाप…. उफ…..जिंदगी बस अजीब सी दास्तां बनकर रह गई है आजकल….। जिंदगी में बङी से बङ़ी मुसीबत से मैं कभी नहीं घबराया पर आजकल दिल दिमाग सब के सब जङ हो रहे हैं।इसे वहम कहें या डर या वातावरण का असर कि पिछले छह महीनों में बारह बार अपना कोविड टेस्ट करवाया होगा मैनें…. पर हर बार नेगेटिव….. लेकिन चूहे की मां भला अब तक खैर मनाती….इस बार रिपोर्ट पोजिटिव थी। एक दो दिन ओल्ड एज होम में आइसोलेशन में रहा पर लगातार बढ़ती हुई खांसी….उखङती हुई सी सांस….जीभ से नदारद होता स्वाद…. आवाज में भारीपन…. कोई रिश्क नहीं लेना चाहता था मैं….न अपने लिए…. न अपनों के लिए….,। वृद्धाश्रम छोङकर मैं दयाल जी हॉस्पिटल में आ गया पर यहां स्थिति सुधरने के बजाय बिगङती चली जा रही थी। दो दिन बाद ही मुझे आई सी ओ में शिफ्ट कर दिया गया। धीरे धीरे तन-मन ढीले होते जा रहे हैं। भगवान के घर का बुलावा मानो साफ – साफ सुनाई दे रहा है। कल ही तो मेरे पास के बेड पर लेटा चालीस साल का युवक आक्सीजन की कमी के कारण चला गया। सरकार….मीडिया…. डाक्टर….परिवार….सब लाचार होकर मौत का नग्न नृत्य देख रहे हैं। एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने के अलावा कोई कुछ नहीं कर पा रहा…..कैसा विचित्र समय है…. आदमी आदमी के छूने से बीमार हो रहा है…. बहुत पीछे छूट गया किसी से गले मिलना , गर्मजोशी से हाथ मिलाना, जादू की झप्पी,हर दर्द की दवा मीठी सी पप्पी….. सोचते हुए विजय के आंखों से आंसुओं की बरसात होने लगी। अचानक अपने सर पर किसी का स्पर्श महसूस किया तो धीरे से आंख खोली। सफेद कपड़ों में ये कौन है…. क्या कोई परी…. क्या कोई अप्सरा…… क्या मैं मरकर स्वर्ग में आ गया…. कहीं कोई भूतनी तो नहीं …..कहीं मैं नरक में….. नहीं…. नहीं…. कहते हुए हङबङाते हुए मैं उठ बैठा…. पूरा बदन पसीने से तर-बतर…..मेरे ज़हन में शायद मरने के ख्याल को छोड़कर कुछ भी शेष नहीं रहा। अंकल यूं अकेले – अकेले आंसू बहाना कोई अच्छी बात तो नहीं….. मुझे बताइए क्या प्रोब्लम है…. आपकी आज की तो सब रिपोर्ट भी अच्छी है। फिर इस तरह दिल छोटा करने का मतलब….थोङा सा बहादूर बनिए…. खुद को संभालिए…. हौसले के बलबूते हर जंग जीती जा सकती है….। मुझे देखिए पिछले पूरे साल से इस हॉस्पिटल में कोविड के … Read more