खुल के जिए जीवन की तीसरी पारी
आमतौर पर परिवार की धुरी बच्चे होते हैं | माता -पिता की दुनिया उनके जन्म लेने से उनका कैरियर /विवाह हो जाने तक उनके चारों ओर घूमती है | कहीं ना कहीं आम माओ की तो बच्चे पूरी दुनिया होती है, इससे इतर वो कुछ सोच ही नहीं पाती | पर एक ना एक दिन बच्चे माँ का दामन छोड़ कर अपना एक नया घोंसला बनाते हैं .. और माँ खुद को ठगा हुआ महसूस करती है | मनोविज्ञान ने इसे एम्टी नेस्ट सिंड्रोम की संज्ञा दी है | पर क्या नए आकाश की ओर उड़ान भरते, अपने जीवन की खुशियाँ तलाशते और अपनी संतान को तराशने में लगे बच्चों को दोष देना उचित है ? या स्वयं ही इस उम्र की तैयारी की जाए | आइए इस विषय पर पढ़ें सुपरिचित साहित्यकार शिवानी जयपुर का लेख खुल के जिए जीवन की तीसरी पारी यू ट्यूब पर देखें .. तीसरी पारी यही तो वो समय है… एक ही जीवन हम कई किश्तों में, कई पारियों में जीते हैं। आमतौर पर एक बचपन की पारी होती है जो शादी तक चलती है। उसके बाद शादी की पारी होती है जो घर गृहस्थी और बच्चों की ज़िम्मेदारी तक चलती रहती है। और उसके बाद एक तीसरी पारी होती है जब बच्चे बड़े हो जाते हैं और अपने काम-धंधे में लग जाते हैं या पढ़ाई और नौकरी के सिलसिले में कहीं बाहर चले जाते हैं। या फिर शादी के बाद अपनी ज़िंदगी में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि माता-पिता के लिए समय बचता ही नहीं या बहुत कम बचता है। ऐसे में पति पत्नी अकेले रह जाते हैं। मुझे लगता है कि ये जो तीसरी पारी है, पति-पत्नी के संबंधों में बहुत ही महत्वपूर्ण है। बहुत सारे ऐसे सपने होते हैं, बहुत सारी इच्छाएँ होती है जिन्हें चाह कर भी गृहस्थी के तमाम उत्तरदायित्वों को निभाते हुए पूरा नहीं कर पाते हैं। इस समय जब बच्चे बाहर हैं और अपने आप में व्यस्त हैं, मस्त हैं… तब रात-दिन बच्चों को याद करके और उनकी चिंता करके अपने आप को गलाते रहने से कहीं बेहतर है कि पति-पत्नी एक-दूसरे को फिर से नये सिरे से समझें और समय दें। न जाने कितने किए हुए लड़ाई-झगड़े हैं, कितनी अधूरी छूटी हुई लड़ाइयाँ हैं, गिले-शिकवे भी हैं, उनकी स्मृतियों से बाहर आएँ और इस समय का सदुपयोग करें। “चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों” इस तर्ज़ पर फिर से आपस में प्रेम किया जा सकता है! इस बार आप निश्चित रूप से बेहतर कर पाएँगे क्योंकि एक दूसरे को पहले से अधिक जानते हैं। बच्चे जो एक बार बाहर चले जाते हैं, बहुत ही मुश्किल होता है उनका लौट कर आना। आप अगर बड़े शहरों में हैं तो फिर भी कुछ संभावना बनती है। लेकिन अगर छोटे शहरों में है और बच्चे बड़ी पढ़ाई कर लेते हैं तो फिर छोटे शहरों में उनका भविष्य नहीं रह जाता है। तो मान के चलिए कि ये बची हुई उम्र आप पति-पत्नी को एक-दूसरे के सहारे ही काटनी है। इस उम्र का एक-दूसरे का सबसे बड़ा सहारा आप दोनों ही हैं। तो अब तक की कड़वाहट को भूलकर नयी शुरुआत करने की कोशिश करिए। अपनी और साथी की पसंद का खाना मिल-जुलकर बनाइए। पसंद का टीवी शो या फिल्म देखिए। सैर-सपाटा कीजिए।अपने शहर को नये सिरे से जानने की कोशिश करिए। मंदिर और पुरातत्व की ऐसी जगहें जहाँ आमतौर पर बच्चे जाना पसंद नहीं करते तो आप भी नहीं जाते थे, वहाँ जाइए। किसी पुस्तकालय की सदस्यता ग्रहण कर लीजिए और छूट गई आदत को पुनः पकड़ लीजिए। पुराने एल्बम निकालकर उस समय की मधुर स्मृतियों को ताज़ा किया जा सकता है। जिन दोस्तों और रिश्तेदारों से मिले अर्सा हो गया है, उनसे मिलना-जुलना करें या फिर फोन पर ही पुनः सम्पर्क बनाएँ। मान कर चलिए कि सब अपने-अपने एकाकीपन से दुखी हैं। सबको उस दुख से बाहर लाकर गैट टुगेदर करिए। छोटी-छोटी पार्टी रखिए। छुट्टी के दिन पूल लंच या डिनर करिए। एक दूसरे के घर या किसी पब्लिक प्लेस पर चाय-शाय पीने का कार्यक्रम करिए। और हाँ, अपने शौक जो पहले पूरे नहीं कर पाए थे, उन्हें अब पूरा कर सकते हैं। सिलाई-कढ़ाई, बुनाई, पेंटिंग, बागवानी, टैरेस गार्डन आदि विकल्प मौजूद हैं,उन पर विचार किया जा सकता है। अगर लिख सकते हैं तो अपने उद्गार लिखना शुरू किया जा सकता है। डायरी लेखन या सोशल मीडिया लेखन भी अच्छा विकल्प है। सामाजिक सरोकारों से जुड़ी संस्थाओं से जुड़कर खाली समय का सदुपयोग किया जा सकता है। इसके अलावा अब तक अगर अपनी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं को नज़रंदाज़ करते रहे हैं, तो उन पर ध्यान दीजिए। उचित चिकित्सकीय परामर्श लेकर खान-पान और जीवनशैली को बेहतर बनाने की कोशिश शुरू की जा सकती है।योग और प्राकृतिक चिकित्सा शुरू कर सकते हैं। स्वास्थ्य का ध्यान रखना सबसे पहली आवश्यकता है ही ना! तो खुद को व्यस्त और मस्त रखना अच्छे स्वास्थ्य के लिए बहुत आवश्यक है। कभी-कभी बच्चों से भी मिलना-जुलना करिए। उन्हें बुलाइए या आप उनके पास जा सकते हैं। आजकल तो दूर रहकर भी वीडियो कॉल जैसी सुविधाएँ हमें परस्पर जोड़े रखती हैं। ज़माने के बदलाव को समझते हुए, आत्मसात करते हुए बच्चों को दोस्त मानकर चलना ही बेहतर है। इससे भी बहुत सी घरेलू समस्याएँ सुलझ सकती हैं। उनके सलाहकार की बजाए सहयोगी बनेंगे तो आपको भी बदले में सहयोग ही मिलेगा। हो सके तो बचपन से ही उनकी आँखों में विदेश जाने का सपना न बोएँ। हम में से बहुत से माता-पिता ये भूल कर चुके हैं। उन्हें लगता है कि बच्चों की तरक्की में हम क्यों बाधा बनें? पर मुझे लगता है कि ऐसा सोचना ठीक नहीं है। जब हम बच्चों को ज़िम्मेदार बनाने की बात सोचते हैं तो याद रखें उनकी एक ज़िम्मेदारी हम भी होते हैं। इसमें कोई शर्म या झिझक की बात नहीं है। देश में ही बच्चे दूर कहीं रहें तो मौके बेमौके आ-जा सकते हैं! पर विदेश से आने-जाने का हाल हम सब जानते-समझते हैं। और फिर कोविड महामारी ने भी यही समझाया है जो हम बचपन से सुनते आए हैं- “देख लिया हमने जग सारा, अपना घर है सबसे प्यारा।” किसी भी परिस्थितिवश … Read more