थ्री बी एच के
स्त्री का कोई घर नहीं होता | यहाँ तक की किसी कमरे में उसका एक कोन भी सुरक्षित नहीं होता | ऐसी ही है कहानी की नायिका अंकिता की जिंदगी जो अपने थ्री बी एच के फ्लैट में अपने लिए एक कोना तलाश रही है | उसकी परेशानी हल होती है .. पर कैसे ? आइए जानते हैं रश्मि तारिका जी की कहानी से….. थ्री बी ऐच के मन के अंधेरे को चारदीवारी की रौशनी कभी खत्म नहीं कर सकती या शायद आँखों में वो रोशनी चुभती सी लगती है तो पलकें मूँद लेने से खुद को एक दिलासा दिया जा सकता है कि हाँ , अब ठीक है।पर वास्तव में क्या सही हो जाता है ? नहीं न…! “मॉम ,आप यहाँ सोफे पर सो रहीं हो ?” बोर्ड की परीक्षा की एक्स्ट्रा क्लासेस से आकर बड़े बेटे अंशुल ने पूछा और बैग वहीं अंकिता के पास ही रख दिया। “अंशुल , अपना बैग अंदर रखो।ये कौन सी जगह है ?कितनी बार समझाया है तुम लोगों को लेकिन ..!”कहकर अंकिता उठने लगी कि अंशुल ने चिढ़कर कहा “खुद कमरा होते हुए भी सोफे पर पड़ी रहती हो ,और हमें डांटती हो”कहते हुए बैग उठा कर अपने कमरे में जाकर बैठ कर टीवी देखने लगा। अंकिता उठी और बेटे को खाना देने की तैयारी करने लगी। आजकल उसके हाथ पाँव और दिमाग बस परिवार की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ही चल रहे थे। तीन कमरों के इस फ्लैट में एक कमरा पति शैलेश का बन चुका था जिसमें वो अपने बिज़नेस की फाइलों से घिरे रहते थे और बचा हुआ वक़्त भी “बिज़नेस टाइम” चैनल पर व्यतीत होता था मानो सारे जहाँ के कारोबार की चिंता इस इंसान पर ही आ चुकी है और उस में किसी प्रकार का कोई व्यवधान नहीं पड़ना चाहिए। दूसरा कमरा बड़े बेटे अंशुल का था जो अपने कमरे को अपनी मिल्कियत समझता था।उसके कमरे में किसी के भी आने जाने की अनुमति नहीं थी जब तक कोई ठोस कारण न हो।कमरे का दरवाज़ा उतना ही खुला रहता जितना कि अंकिता उसे हल्का सा उढेल कर बच्चे को केवल खाने पीने के लिए पूछ सके। यहाँ भी बोर्ड की परीक्षा महत्वपूर्ण कारण था इसलिए घर के इस दूसरे कमरे के बाहर एक बेटे के नाम की एक अदृश्य नेम प्लेट लगी थी। अब रहा तीसरा कमरा जो साइज में छोटा था और था भी छोटे बेटे मेहुल का जिसे बहुत बड़ी शिकायत थी कि उसे छोटे होने की वजह से न तो मनपसंद जगह मिली है और न ही बड़े भाई की तरह पूरी छूट कि वो अपने इस कमरे में किसी के आने जाने की मनाही कर सके क्यूँकि मेहुल की अलमारी के साथ वाली अलमारी में पूरा सामान अंकिता ने अपना रखा हुआ था और उसे ज़रूरत पड़ने पर बार बार उस कमरे में आना पड़ता था।कमरा छोटा था तो वहाँ बनाया गया पलँग का साइज भी छोटा था कि मेहुल को लगता कि वो केवल उसी का है। यानी “थ्री बी एच के ” के इस फ्लैट में अंकिता अपने नाम से किसी कमरे को अपना नहीं कह सकती थी।कहे भी कैसे ..भारतीय पत्नी का कमरा तो वही होगा न जो उसके पति का होगा ! बंगला हो या फ्लैट ,पत्नी का अपने कमरे का कोई वज़ूद नहीं क्योंकि पत्नी का वज़ूद होगा तो कमरा या घर होगा या फिर उसके नाम की नेम प्लेट ! “सुनो ,एक महीने के लिए बाबूजी अपने यहाँ रहने आ रहे हैं।”फेक्ट्री से आकर शैलेश ने बताया। “जी ..ठीक है।”अंकिता ने पानी का गिलास देते हुए कहा। “क्या ठीक है ..बाबू जी आ रहें हैं तो उनके लिए जगह का भी तो सोचना होगा न।” “मेहुल के कमरे में …!” अंकिता ने अभी वाक्य पूरा भी न किया था कि शैलेश ने इन तरह से नज़र उठा कर देखा मानो कुछ गलत कहने का अपराध कर दिया हो। “उस छोटे कमरे में उन्हें पिछली बार ठहराया था न।जानती हो न बाद में कितनी दिक्कत हुई थी उन्हें ? ” “देखिए , अंशुल की परीक्षा के दिन करीब आ रहे हैं।उसे परेशान नहीं करते।हम अपने कमरे में बाउजी के रहने का प्रबंध कर देते हैं।” “लेकिन हम दोनों कैसे मेहुल के कमरे में और उसे अंशुल के साथ भी नहीं एडजस्ट कर सकते क्यूँकि किसी भी बात पर झगड़ पड़ेंगे और अंशुल परेशान होगा।” “आप मेहुल के साथ आराम से सो सकते हैं।पलंग इतना भी छोटा नहीं। दो बड़े इंसानों का मुश्किल है उस पर पूरा आना ।मेहुल तो अभी छोटा बच्चा ही है न !”अंकिता ने जैसे समाधान खोज कर दे दिया हो। बस इंतज़ार तो उसे अगले उस पल का था जब शैलेश उसके लिए पूछते कि वो कहाँ सोएगी या रहेगी उस दौरान जब बाबूजी उनके यहाँ होंगे।कुछ पल की खामोशी को तोड़ते हुए शैलेश ने पूछा “तुम कहाँ सोओगी..?” “हॉल में सोफे पर सो जाऊँगी ।” “क्यों..अंशुल जब सो जाया करे तो तुम उसके पास सो सकती हो न ?” “नहीं..अंशुल कभी वो रात को पढ़ता है कभी सुबह उठकर तो मैं उसके पास कैसे सो सकती हूँ ?” “ठीक है जैसे तुम्हें सही लगे।” शैलेश ने चाय का कप रखा और जैसे ही जाने लगे अंकिता ने डरते डरते पूछ लिया। ” बाबूजी को हम अंशुल की परीक्षा के बाद न बुला ले ?” “क्यों ,तुम्हें अपना कमरा देने में परेशानी हो रही है क्या ?”बेरुखी से शैलेश ने पूछा और बिना जवाब का इंतज़ार किये अपने कमरे में जाकर कमरा बंद कर लिया। ऐसी बेरुखी और कमरा बंद कर देना आज कोई नई बात नहीं थी।जब भी शैलेश को कोई बात नागवार गुजरती वो ऐसा ही करते।एक दो बार अंकिता ने एतराज़ किया तो शैलेश ने ऐ सी चलने का बहाना बता दिया तो दूसरी तीसरी बार मच्छरों का।अंकिता ने एक बार दबी ज़ुबाँ में कह दिया कि ए सी गर्मियों में चलता है सर्दियों में तो नहीं ..!” जिस भाव से कहा शैलेश ने समझा लेकिन इस बात को लेकर उसने अगले पंद्रह दिन कमरे के दरवाजे को बन्द नहीं किया और गर्मी ,घबराहट ऐसी दिखाई कि ऐ सी चलने पर दरवाज़ा खुला रहने से … Read more