कानपुर के अमर शहीद -शालिग्राम शुक्ल

शालिग्राम शुक्ल

“ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आँख में भर पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी” जब-जब भारत रत्न लता मंगेशकर जी का यह गीत हमारे कानों में पड़ता है, हम में से कौन होगा, जिसकी आँखों से भावों का दरिया ना बरस पड़ा हो | ये आजादी जिसका जश्न हम हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को मना कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं | वो आजादी ऐसे ही तो नहीं मिल गई होगी ? कितनी कुर्बानियाँ दी होंगी हमारे देश के युवाओं ने, अपने जीवन की, अपने सपनों की, अपने परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों की |  कितनी माताओं की कोख उजड़ी होगी, कितनी नव ब्याहताओं की चूड़ियाँ टूटी होंगी | ज्ञात नामों के बीच ऐसे असंख्य नाम हैं जिनके हम ऋणी हैं | क्या हमारा कर्तव्य नहीं है कि हम अपने शहर के ऐसे गुमनाम क्रांतिकारियों, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों  के जीवन के बारे में बात करें जिन्होंने अपना जीवन तो कुर्बान कर दिया पर गुजरते वक्त के साथ हम किसी अहसान फ़रामोश बेटे की तरह उनकी त्याग तपस्या और बलिदान को भूल गए | ऐसे में मैं आपको सुनाने जा रही हूँ समय के साथ बिसराये गए  कानपुर के  शहीद शालिग्राम शुक्ल  के बलिदान की अमर कहानी l कानपुर के अमर शहीद -शालिग्राम शुक्ल वो 1918  की गर्मी की दोपहर थी | इटावा जनपद के सीढ़ी ग्राम में जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल अपने खेत में काम कर रहे थे | सूरज सर पर चढ़ आया था | दोपहर के भोजन का समय हो गया है, ये सोच कर काम रोक दिया | पसीने से लथपथ बदन को अंगोछे से पोछ  बरगद के पेड़ के नीचे छाया में जरा विश्राम कर रहे थे कि उनकी पत्नी रूपा देवी अपने 6 वर्ष के पुत्र शालिग्राम के साथ दोपहर का खाना ले कर आई | पिता खाना खाते हुए माँ को अंग्रेजों की गुलामी के बारे में बता रहे थे और नन्हा बालक उनकी बाते सुन रहा था |उसे स्वतंत्रता भले ही ना समझ आ रही हो पर गुलामी जरूर समझ आ रही थी|  माँ ने घी बुकनू लगा  रोटी का एक चुँगा बना कर कर पुत्र को पकड़ाना चाहा पर पुत्र भाग कर खेत के खर-पतवार उखाड़ने लगा | माँ ने आवाज दी, “अरे लला खेलन में लाग गए? चुँगा रोटी तो  खाए लियो|” “नहीं अम्मा, अबै नाहीं, पहले अंग्रेजन को अपनी माटी से उखाड़ कर फेंक दें|” उसकी बात पर माता -पिता हँस दिए पर वो क्या जानते थे की उनका प्यारा लाल एक दिन अंग्रेजों को उखाड़ने में अमर हो जाएगा | इटावा के शालिग्राम शुक्ल की बचपन से ही देश को स्वतंत्र कराने की इच्छा बलवती होने लगी | नन्हा बच्चा गाँव में निकलने वाली प्रभात फ़ेरियों में शामिल हो जाता, कभी जय हिंद कहता तो कभी वंदे मातरम | जिस उम्र में बच्चे खेल-खिलौनों के लिए आकर्षित होते हैं उसे गाँधी, नेहरू, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह  के किस्से  लुभाने लगे थे| गाँव में ही मन की माटी में देश को आजाद कराने का अंकुर फुट चुका था | परिस्थितियाँ इच्छाओं की गुलाम होती है| संयोग बनने लगे | किशोर शालिग्राम जब  पढ़ाई करने के लिए कानपुर के डी. ऐ. वी हाईस्कूल (वर्तमान समय में डी. ऐ. वी. कॉलेज )  में आए तो इच्छा को खाद-पानी मिलने लगा| ऐसे समय में चंद्रशेखर आजाद से मिलना हुआ | उम्र कम थीं पर देश भक्ति का जज्बा मन में हिलोरें मार रहा था | सहपाठी ही एक गुप्त सभा में मिलाने ले गया था | देखा तो देखते रह गए, सुना तो अपने मन का संकल्प निडर हो कर चंद्रशेखर आजाद को बता दिया |   चंद्रशेखर आजाद ने नजर भर देखा, “एक किशोर, देश पर अपने प्राण उत्सर्ग करने की अग्रिम पंक्ति में खड़ा होना चाहता है |” उसके उत्साह के आगे नत हुए चंद्रशेखर ने मन ही मन भारत माता को प्रणाम किया, “माँ तू ही ऐसे वीरों को जन सकती है” | कुछ ही मुलाकातों में वो शालिग्राम की वीरता और निडरता को समझ गए |शायद यही वजह थी की चंद्रशेखर आजाद जिन्होंने देश को आजादी दिलाने के लिए “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी” बनाई थी उसमें उन्हें भर्ती कर लिया |दरअसल उन्हें उस बालक का उत्साह भा गया, जिसके अभी मूँछों की रेख भी नहीं आई थी |   उन्हें बंदूक चलाने का प्रशिक्षण भी आजाद ने ही दिया | इसके लिए कभी बिठूर में सुनसान जगह चुनी जाती, कभी नवाब गंज का वो इलाका जहाँ अभी चिड़ियाघर है, तो कभी बिल्हौर का कोई कम आबादी वाला गाँव | धाँय -धाँय, केवल बंदूक की आवाज  ही नहीं थी वो निशाना  साधने, चकमा देने, ध्यान  बँटाने और कभी भाग कर सुरक्षित हो जाने का पर्याय भी थी | अंग्रेजों को मार गिराना ही नहीं, पकड़े जाने पर कुछ ना बताना और अगर संभव हो तो अपनी जान  देकर भी साथियों को बचाना जैसे हर सदस्य का धर्म था | उनकी योग्यताओं को देखते हुए  पार्टी का कानपुर  चीफ भी बना दिया गया | शुरू में उनका काम सूचनाओं को इधर -उधर पहुंचाना था | इस काम के लिए संदेशों में बातें करना और संदेशों को पहुंचना इसमें इन्होंने महारत हासिल कर ली |   देश के लिए कुछ भी कर गुजरने का जुनून जब सर चढ़ कर बोलता तो खाली समय में अपनी कॉपी से कागज फाड़कर वंदे मातरम लिखा करते | कई बार खून से भी लिख देते | अक्सर माता -पिता से मिलने गाँव आना -जाना लगा रहता | माँ सांकेतिक भाषा में पत्र लिखते बेटे को देख पत्र पढ़  तो ना पाती पर  निश्चिंत हो जातीं की बेटा पढ़ाई में लगा है |  कभी-कभी, ऐसे ही खूब मन लगा कर पढ़ने की हिदायत भी देतीं तो माँ से लाड़ में कहते, “माँ एक दिन तुम्हारे लिए वो तोहफा लाऊँगा, तब तुम बलैया लोगी अपने लाल की | बेटे का ऊँचा लंबा कद देखकर कर इतराती माँ एक संस्कारी बहु के सपने सँजोने लगती | तब उन्हें अहसास भी नहीं था कि उनका बेटा, बहु को नहीं देश की स्वतंत्रता को लाने की राह में प्राण उत्सर्ग करने वाला बाराती है | वापस लौटते समय पिता जीवन की ऊँच-नीच समझाते … Read more

पूर्वा- कहानी किरण सिंह

“जिस घर में भाई नहीं होते उस घर कि लड़कियाँ मनबढ़ होती हैंl” उपन्यासिक कलेवर समेटे चर्चित साहित्यकार किरण सिंह जी की  कहानी ‘पूर्वा’  आम जिंदगी के माध्यम से रूढ़ियों की टूटती बेड़ियों की बड़ी बात कह जाती है l वहीं  बिना माँ की बेटी अपूर्व सुंदरी पूर्वा का जीवन एक के बाद एक दर्द से भर जाता है, पर हर बार वो जिंदगी की ओर बढ़ती है l  जीवन सुख- दुख का संयोग है l दुख तोड़ देते हैं पर हर दुख के बाद जिंदगी को चुनना ही हमारा उद्देश्य हो का सार्थक सकारात्मक दृष्टिकोण देती है ये कहानी l वहीं  ये कहानी उन सैनिकों की पत्नियों के दर्द से भी रूबरू कराती है, जो सीमा पर हमारे लिये युद्ध कर रहे हैं l सरल – सहज भाषा में गाँव का जीवन शादी ब्याह के रोचक किस्से जहाँ पाठक को गुदगुदाते हैं, वहीं भोजपुरी भाषा का प्रयोग कहानी के आस्वाद को बढ़ा देता है l तो आइए मिलते हैं पूर्वा से – पूर्वा- कहानी किरण सिंह प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष भी गणतंत्र दिवस के पूर्व संध्या पर संदूक से तिरंगा को निकालते हुए पूर्वा के हृदय में पीड़ा का सैलाब उमड़ आया और उसकी आँखों की बारिश में तिरंगा नहाने लगा । पूर्वा तिरंगा को कभी माथे से लगा रही थी तो कभी सीने से और कभी एक पागल प्रेमिका की तरह चूम रही थी ।ऐसा करते हुए वह अपने पति के प्रेम को तो महसूस कर रही थी लेकिन लग रहा था कलेजा मुह को आ जायेगा। यह तिरंगा सिर्फ तिरंगा ही नहीं था। यह तो उसके सुहाग की अंतिम भेंट थी जिसमें  उसके पति  लेफ्टिनेंट कर्मवीर मिश्रा का पार्थिव शरीर  लिपटकर आया था। तिरंगा में वह अपने पति के देह की अन्तिम महक को महसूस कर रही थी जो उसे अपने साथ – साथ अतीत में ले गईं । पूर्वा और अन्तरा अपने पिता ( रामानन्द मिश्रा) की दो प्यारी संतानें थीं। बचपन में ही माँ के गुजर जाने के बाद उन दोनों का पालन-पोषण उनकी दादी आनन्दी जी ने किया था। बहु की मृत्यु से आहत आनन्दी जी ने अपने बेटे से कहा – “बबुआ दू – दू गो बिन महतारी के बेटी है आ तोहार ई दशा हमसे देखल न जात बा। ऊ तोहार बड़की माई के भतीजी बड़ी सुन्नर है। तोहरा से बियाह के बात करत रहीं। हम सोचली तोहरा से पूछ के हामी भर देईं।” रामानंद मिश्रा ने गुस्से से लाल होते हुए कहा – “का माई – तोहार दिमाग खराब हो गया है का? एक बात कान खोल कर सुन लो, हम पूर्वा के अम्मा का दर्जा कौनो दूसरी औरत को नहीं  दे सकते। पूर्वा आ अन्तरा त अपना अम्मा से ज्यादा तोहरे संगे रहती थीं। हम जीते जी सौतेली माँ के बुला के आपन दूनो बेटी के  अनाथ नहीं कर सकते ।” आनन्दी जी -” हम महतारी न हईं। तोहार चिंता हमरा न रही त का गाँव के लोग के रही। काल्ह के दिन तोहार दूनो बेटी ससुराल चल जइहें त तोहरा के कोई एक लोटा पानी देवे वाला ना रहिहें। हमार जिनगी केतना दिन के है। ” रामानंद मिश्रा – “माई तू हमार चिंता छोड़के पूर्वा आ अन्तरा के देख।” बेटे की जिद्द के आगे आनन्दी जी की एक न चली। अपनी दादी की परवरिश में पूर्वा और अन्तरा बड़ी हो गईं। अब आनन्दी को उनके विवाह की चिंता सताने लगी। यह बात उन्होंने अपने बेटे से कही तो उन्होंने कहा – “माई अभी उमर ही का हुआ है इनका? अभी पढ़ने-लिखने दो न।” आनन्दी – “बेटा अब हमार उमर बहुते हो गया। अउर देखो बुढ़ापा में ई कवन – कवन रोग धर लिया है। इनकी मैया होती त कौनो बात न रहत। अऊर बियाह बादो त बेटी पढ़ सकत है। का जानी कब भगवान के दुआरे से हमार बुलावा आ जाये। माँ की बात सुनकर पूर्वा के पिता भावनाओं में बह गये और उन्होंने अपनी माँ की बात मान ली। अब वह पूर्वा के लिए लड़का देखने लगे। तभी उनकी रजनी (पूर्वा की मौसी) का फोन आया – “पाहुन बेटी का बियाह तय हो गया है। आप दोनो बेटियों को लेकर जरूर आइयेगा। रामानन्द मिश्रा -” माई का तबियत ठीक नहीं रहता है इसलिए हम दूनो बेटी में  से एकही को ला सकते हैं। ” रजनी -” अच्छा पाहुन आप जइसन ठीक समझें। हम तो दूनो को बुलाना चाहते थे, बाकिर……… अच्छा पूर्वा को ही लेते आइयेगा, बड़ है न। रामानंद मिश्रा – हाँ ई बात ठीक है, हम आ जायेंगे, हमरे लायक कोई काम होखे त कहना। ” रजनी -” न पाहुन, बस आप लोग पहिलहिये आ जाइयेगा। हमार बेटी के बहिन में  अन्तरा अउर पूर्वे न है। रामानंद मिश्रा – ठीक है – प्रणाम। पूर्वा अपने पिता के संग बिहार के आरा जिला से सटे एक गाँव में अपनी मौसेरी बहन शिल्पी की शादी में पहुंच गई । सत्रह वर्ष की वह बाला गज्जब की सुन्दर व आकर्षक थी। तीखे – तीखे नैन नक्स, सुन्दर – सुडौल शरीर, लम्बे – लम्बे घुंघराले केश, ऊपर से गोरा रंग किसी भी कविमन को सृजन करने के लिए बाध्य कर दे। मानो  ब्रम्ह ने उसको गढ़ने में अपनी सारी शक्ति और हुनर का इस्तेमाल कर दिया हो। ऊपर से उसका सरल व विनम्र स्वभाव एक चुम्बकीय शक्ति से युवकों को तो अपनी ओर खींचता ही था साथ ही उनकी माताओं के भी मन में भी उसे बहु बनाने की ललक जगा देता था। लेकिन पूर्वा इस बात से अनभिज्ञ थी। अल्हड़ स्वभाव की पूर्वा चूंकि दुल्हन की बहन की भूमिका में थी इसलिए  विवाह में सरातियों के साथ – साथ बारातियों की भी केन्द्र बिन्दु थी। गुलाबी लहंगा-चोली पर सिल्वर कलर का दुपट्टा उसपर बहुत फब रहा था । उस पर भी सलीके से किया गया मेकप उसके रूप लावण्य को और भी निखार रहा था। ऐसे में किसी युवक का दिल उस पर आ जाना स्वाभाविक ही था। दुल्हन की सखियाँ राहों में फूल बिछा रही थीं और पूर्वा वरमाला के लिए दुल्हन को स्टेज पर लेकर जा रही थी। सभी की नज़रें दुल्हन को देख रही थी लेकिन एक नज़र पूर्वा पर टिकी हुई थी। … Read more