ऐ, सुनो ! मैं तुम्हारी तरह

ऐ सुनो

पितृसत्ता की लड़ाई स्त्री और पुरुष की लड़ाई नहीं है ,ये उस सोच की लड़ाई है जो स्त्री को पुरुष से कमतर मान कर स्वामी और दासी भाव पैदा करती है |कई बार आज का शिक्षित पुरुष भी  इस दवंद में खुद को असहाय महसूस करता है | वो समझाना चाहता है कि भले ही तुमने सुहाग के चिन्हों को धारण  किया हो पर मेरा अनुराग तुम्हारे प्रति उतना ही है |सौरभ दीक्षित ‘मानस’की ये कविता प्रेम और समर्पण के कुछ ऐसे ही भाव तिरोहित हुए हैं……. ऐ, सुनो ! मैं तुम्हारी तरह ऐ, सुनो ! मैं तुम्हारी तरह माँग में सिन्दूर भरकर नहीं घूमता। लेकिन मेरी प्रत्येक प्रार्थना में सम्मिलित पहला ओमकार तुम ही हो। ऐ, सुनो! मैं तुम्हारी तरह आँखों में काजल नहीं लगाता। लेकिन मेरी आँखों को सुकून देने वाली प्रत्येक छवि में तुम्हारा ही अंश दिखता है। ऐ, सुनो! मैं तुम्हारी तरह कानो में कंुडल नहीं डालता । लेकिन मेरे कानों तक पहुँचने वाली प्रत्येक ध्वनि में तुम्हारा ही स्वर होता है। ऐ, सुनो! मैं तुम्हारी तरह गले में मंगलसूत्र बाँधकर नहीं रखता। लेकिन मेरे कंठ से निकले प्रत्येक शब्द का उच्चारण तुम से ही प्रारम्भ होता है। ऐ, सुनो! मैं तुम्हारी तरह पैरों में महावर लगाकर नहीं चलता। लेकिन मेरे जीवन लक्ष्य की ओर जाने वाला प्रत्येक मार्ग, तुमसे ही प्रारम्भ होता है। ऐ, सुनो! मैं तुम्हारी तरह पैर की अंगुलियों में बिछिया नहीं बाँधता। लेकिन मेरी जीवन की प्रत्येक खुशी की डोर तुमसे ही बँधी हुयी है………मानस आपको सौरभ दीक्षित  जी की कविता कैसी लगीं हमें अवश्य बताएं | अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो वेबसाईट सबस्क्राइब करें व् हमारा फेसबुक पेज लाइक करें |

पौ फटी पगरा भया

शिवानी शर्मा

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है | समाज में कई रिश्तों के बीच उनका जन्म होता है और जीवन पर्यन्त इस रिश्तों को निभाता चला जाता है | कुछ रिश्ते उसके वजूद का इस कदर हिस्सा बन जाते हैं कि उनसे अलग वो अपने अस्तित्व को समझ ही नहीं पाता | कभी कभी कोई एक घटना आँखों पर बंधी ये  पट्टी खोल देती और अहसास कराती है कि दो लोगों के बीच परस्पर विश्वास की तथाकथित धुरी पर टिका ये रिश्ता कितना एक तरफ़ा था | ऐसे समय में क्या निर्णय सही होता है ? ये द्वन्द उसे कैसे तोड़ता है ? और वो किसके पक्ष में खड़ा होता है एक टूटे जर्जर रिश्ते के नीचे कुचले अपने वजूद के साथ या अपने आत्मसम्मान के साथ | पौ फटी पगरा भया , 30 साल के अँधेरे के छटने के बाद ऐसे ही निर्णय की कहानी है |ये कहानी है सुमन और अनूप के रिश्तों की , ये कहानी है , ये कहानी है परस्पर विश्वास की , ये कहानी है स्त्री चरित्र की …आइये पढ़ें स्त्री विमर्श को रेखांकित करती शिवानी शर्मा जी की सशक्त कहानी। .. “पौ फटी पगरा भया” सुमन हफ्ते भर से परेशान थी। रसोई में सब्जियों को गर्म पानी में धोते हुए मन ही मन भुनभुना रही थी! भतीजे की शादी अगले हफ्ते है और ये पीरियड्स समय से क्यों नहीं आए? एन शादी के वक्त आए तो दर्द लेकर बैठी रहूंगी, नाचने गाने की तो सोच भी नहीं सकती! डॉ को भी दिखा आई। उन्होंने कहा कि मेनोपॉज़ का समय है कुछ दिन आगे पीछे हो सकता है!क्या मुसीबत है! और एक ये अनूप हैं! हर बात हंसी-मजाक में उड़ाते हैं! कहते हैं कोई खुशखबरी तो नहीं सुना रही? हद्द है सच्ची! पंद्रह साल पहले ही खुद ने अपना ऑपरेशन करवाया था फिर बच्चे की बात कहां से आ गई? कुछ भी मज़ाक करना बस! और ये इतनी सारी पत्ते वाली सब्जियां एक साथ क्यों ले आते हैं जाने!सारा शनिवार इनमें ही निकल जाता है। साफ-सूफ करने में कितना समय और मेहनत लगती है!पालक,मेथी, बथुआ, सरसों,मटर सब एक साथ थोड़े ही बनेगी? ज्यादा दिन रख भी नहीं सकते! उफ़!ये अनूप भी ना अपनी तरह के बस एक ही अनोखे इंसान हैं शायद! बरसों से समझा रही हूं कि ये सब एकसाथ मत लाया करो पर मंडी में घुसते ही मुझे भूलकर सब्जियों के प्रेम में पड़ जाते हैं! पालक,मेथी, बथुआ, सरसों और धनिया साफ करके और धो कर अलग-अलग टोकरियों में पानी निथरने के लिए रख दिए गए हैं और गाजर, पत्तागोभी, फूलगोभी एक टोकरी में रखी है।अब मटर छीले जाएंगे। आज सरसों का साग और बथुए का रायता बनेगा। कल सुबह मेथी के परांठे और शाम को मटर पनीर! हरी सब्जियों को ठिकाने लगाने की पूरी योजना बन चुकी थी। अपने लिए चाय बनाकर सुमन मटर छीलने बैठी।मटर छीलते हुए मां बहुत याद आती हैं! भैया और मैं आधी मटर तो खा ही जाते थे। फिर मम्मी खाने के लिए अलग से मटर लाने लगी और कहतीं कि पहले खालो फिर छीलना और तब बिल्कुल मत खाना। मम्मी ने सब्जी-सुब्जी साफ करने के काम शायद ही कभी किए होंगे। संयुक्त परिवार में पहले देवर-ननदें फिर बच्चे और सास-ससुर ही बैठे बैठे ऐसे काम कर देते थे। एक हम हैं कि कोई सहारा नहीं! एकल परिवार अनूप की नौकरी के कारण मजबूरी रही! बार-बार स्थानांतरण के चलते कोई स्थाई साथ भी नहीं बन पाया। बच्चों को पढ़ाई-लिखाई और हॉबी क्लासेज से फुर्सत नहीं मिली फिर बाहर पढ़ने चले गए और अब दोनों की शादी हो गई, नौकरी में बाहर रह रहे हैं। हम फिर दोनों अकेले रह गये घर में! सुमन के विचारों की चक्की अनवरत चलती रहती है! उसने तय कर लिया है कि जो दुख उसने उठाया वो बहूओं को नहीं उठाने देगी! अनूप की सेवानिवृत्ति के बाद उनके साथ रहेगी, बच्चे पालेगी और काम में मदद करेगी। अभी भी कभी कभी सुमन उनके साथ रहने चली जाती है। बहुएं भी उसका इंतज़ार ही करती रहती हैं। अभी तक तो बहुत अच्छी पट रही है और वो प्रार्थना करती है कि आगे भी भगवान ऐसे ही बनाए रखे। मटर भी छिल गये हैं। भैया का फोन आ गया। “हां सुमी!कब पहुंच रही है?” “आती हूं भैया एक-दो दिन पहले पहुंच जाऊंगी।” “अरे पागल है क्या? तुझे तो हफ्ते दस दिन पहले आना चाहिए। कल ही चल दे। अनूप को छुट्टी मिले तो दोनों ही आ जाओ वरना तू तो कल ही आ जा। तीन घंटे का तो रास्ता है। सुबह ही चल दे।”( अनूप भैया के बचपन के दोस्त हैं इसलिए भैया उनको नाम से ही बुलाते हैं) “देखती हूं भैया! अनूप तो बाद में ही आएंगे। मैं पहले आ जाऊंगी। यहां से कुछ लाना हो तो बताओ।” “रावत की मावे की कचौड़ी ले आना सबके लिए!” “ठीक है भैया। मैं रात को सब पक्का करके बताती हूं।” सुमन का मन सब्जियों में अटका हुआ था। इतनी सब्जियां आई पड़ी हैं। छोड़ जाऊंगी तो खराब हो जाएंगी और फिकेंगी! वहां ले जाऊं, इतनी भी नहीं हैं! परसों जाऊं तो केवल गाजर और गोभियाँ बचेंगी। काट-पीट कर रख जाऊंगी। अनूप बना लेंगे। मन ही मन सब तय करके सुमन रसोई में खाना बनाने में लग गयी।दो दिन अनूप की छुट्टी होती थी। शनिवार को सुबह सब्जी मंडी जाते हैं। फिर बैंक और बाज़ार के काम निपटाते हैं और खूब सोते हैं। रविवार का दिन सुमन के साथ बिताते हैं। सुमन इसलिए रविवार को कहीं और का कोई काम नहीं रखती। ज़िन्दगी अच्छी भली चल रही है बस ये सर्दियों में सब्जियां ही सौतन सी लगती हैं सुमन को! खैर… शादी से निपटकर सुमन और अनूप वापस आ गये दोनों बेटे-बहू भी आए थे। सीधे वहीं आए और वहीं से चले गए। खूब मौज-मस्ती के बीच भी सुमन के पीरियड्स आने की धुकधुकी लगी रही जिसके चलते वो थोड़ी असहज रही। भाभी ने टोका भी तो भाभी को बताया। भाभी भी खुशखबरी के लड्डू मांगकर छेड़छाड़ करती रही। आज सुबह अनूप के ऑफिस जाने के बाद सुमन फिर डॉ के गयी। जाते ही डॉ ने भी बच्चे की संभावना के बारे में पूछा। सुमन ने … Read more

दोस्ती

  कोई भी रिश्ता हो अगर वहां दोस्ती का भाव हो तो वो रिश्ता अच्छा होता है | पति -पत्नी के रिश्तों में अक्सर अपेक्षाओं का बोझ होता है | क्या ही अच्छा हो कि दोनों एक दूसरे के सबसे अच्छे दोस्त हों | ऐसी ही प्यारी सी कहानी ले कर आयीं हैं रश्मि वर्मा जी जहाँ  रिश्ता शादी की पहली रात ही अटक गया …लेकिन  फिर ऐसा क्या हुआ कि कहानी -दोस्ती  आकांक्षा अपने आप में सिमटी हुई सजी हुई दुल्हन बनी सेज पर पिया के इंतज़ार में घड़ियां गिन रही थी। अचानक दरवाज़ा खुला, आकांक्षा की धड़कनें और बढ़ गईं। पर यह क्या? अनिकेत अंदर आए। दूल्हे के भारी-भरकम कपड़े बदले और नाइटसूट पहन कर बोले, “आप भी थक गई होंगी। प्लीज़, कपड़े बदलकर सो जाएं. मुझे भी सुबह ऑफ़िस जाना है।” आकांक्षा का सिर फूलों और जूड़े से पहले ही भारी हो रहा था, आंखें बंद-बंद हो रही थीं। सुनकर झटका लगा, पर कहीं राहत की सांस भी ली। अपने सूटकेस से ख़ूबसूरत नाइटी निकालकर पहनी और वो भी बिस्तर पर एक तरफ़ लुढ़क गई। अजीब थी सुहागसेज। दो अनजान जिस्म जिन्हें एक करने में दोनों के परिवारवालों ने इतनी ज़हमत उठाई थी, बिना एक हुए ही रात गुज़ार रहे थे। फूलों को भी अपमान महसूस हुआ, वरना उनकी ख़ुशबू अच्छे-अच्छों को मदहोश कर दे। अगले दिन नींद खुली तो देखा कि अनिकेतऑफ़िस के लिए जा चुके थे। आकांक्षा ने एक भरपूर अंगड़ाई लेकर घर का जायज़ा लिया। दो कमरों का फ़्लैट, बालकनी समेत, अनिकेत को ऑफ़िस से मिला था। अनिकेत एयरलाइन में काम करता है। कमर्शियल विभाग में। आकांक्षा भी एक छोटी सी एयरलाइन में परिचालन विभाग में काम करती थी। दोनों के पिता आपस में दोस्त थे और उनका यह फ़ैसला था कि अनिकेत और आकांक्षा एक दूसरे के लिए परफ़ेक्ट मैच रहेंगे। आकांक्षा को पिता के फ़ैसले से कोई आपत्ति नहीं थी। पर अनिकेत ने पिता के दबाव में आकर विवाह का बंधन स्वीकार किया था। आकांक्षा ने ऑफ़िस से एक हफ़्ते की छुट्टी ली थी। सबसे पहले किचन में जाकर एक कड़क चाय बनाई, फिर चाय की चुस्कियों के साथ घर को संवारने का प्लान बनाया। शाम को अनिकेत के लौटने पर घर का कोना-कोना दमक रहा था। जैसे अनिकेत ने घर में क़दम रखा, एक सुरुचि से सजे घर को देखकर लगा क्या यह वही घर है जो रोज़ अस्तव्यस्त होता था। खाने की ख़ुशबू भी उसकी भूख को बढ़ा रही थी। आकांक्षा चहकते हुए बोली, “आपका दिन कैसा रहा?”“ठीक।” एक संक्षिप्त सा उत्तर देकर अनिकेत डाइनिंग टेबल पर पहुंचे। जल्दी से खाना खाया और सीधे बिस्तर पर। औरत ज़्यादा नहीं पर दो बोल दो तारीफ़ के चाहती ही है, पर आकांक्षा को वे भी नहीं मिले। पांच दिन तक यही दिनचर्या चलती रही। छठे दिन आकांक्षा ने सोने से पहले अनिकेत का रास्ता रोक लिया। “आप प्लीज़ पांच मिनट बात करेंगे?” “मुझे सोना है,”अनिकेत ने चिर-परिचित अंदाज़ में बोला। “प्लीज़, कल से मुझे भी ऑफ़िस जाना है। आज तो पांच मिनट निकाल लीजिए।” “बोलो, क्या कहना चाहती हो,”अनिकेत अनमने भाव से बोले। “आप मुझसे नाराज़ हैं या शादी से?” “क्या मतलब?” “आप जानते हैं मैं क्या जानना चाहती हूं।” “प्लीज़ डैडी से बात करो, जिनका फ़ैसला था।” “पर शादी तो आपने की है?” आकांक्षा को भी ग़ुस्सा आ गया। “जानता हूं। और कुछ?”अनिकेत चिढ़कर बोला। आकांक्षा समझ गई कि अब बात सुलझने की जगह बिगड़ने वाली है। “क्या यह शादी आपकी मर्ज़ी से नहीं हुई है?” “नहीं। और कुछ?” “अच्छा, ठीक है। पर एक विनती है आपसे।“ “क्या?” “क्या हम कुछ दिन दोस्तों की तरह रह सकते हैं?” “मतलब?”अनिकेत को आश्चर्य हुआ। “यही कि एक महीने बाद मेरा इंटरव्यू है। मुझे मेरा लाइसेंस मिल जाएगा, और फिर मैं आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चली जाऊंगी। तीन साल के लिए। उस दौरान आपको जो उचित लगे, वो फ़ैसला ले लीजिएगा। यक़ीन मानिए आपको कोई परेशानी नहीं होगी।” अनिकेत तो इसमें कोई आपत्ति नहीं लगी। हां, अब दोनों साथ-साथ नाश्ता करने लगे। शाम को घूमने भी जाने लगे। होटल, रेस्तरां, यहां तक कि सिनेमा भी।  आकांक्षा कॉलेज गर्ल की तरह ही कपड़े पहनती थी, न कि नई-नवेली दुल्हन की तरह। उन्हें साथ देखकर कोई युगल प्रेमी समझ सकता था, पर पति-पत्नी तो बिल्कुल नहीं। कैफ़े कॉफ़ी डे हो या काके दा होटल, दोस्तों के लिए हर जगह बातों का अड्डा होती हैं। और आकांक्षा के पास तो बातों का ख़ज़ाना था। धीरे-धीरे अनिकेत को भी उसकी बातों में रस आने लगा। उसने भी अपने दिल की बातें खोलनी शुरू कर दीं। एक दिन रात को ऑफ़िस से अनिकेत लेट आया और उसे ज़ोरों से भूख लगी थी। घर में देखा तो आकांक्षा पढ़ाई कर रही थी। खाने का कोई अता-पता नहीं था। “आज खाने का क्या हुआ?” “सॉरी। आज पढ़ते-पढ़ते सब भूल गई।“ “वो तो ठीक है। पर अब क्या?” “एक काम कर सकते हैं।” आकांक्षा को आइडिया आया। “मैंने सुना है मूलचंद फ़्लाईओवर के नीचे आधी रात तक परांठे और चाय मिलती है। क्यों न आज हम वही ट्राई करें?” “क्या?”अनिकेत का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया। “हां, हां। मेरे ऑफ़िस के काफ़ी लोग जाते रहते हैं। आज हम भी चलते हैं।“ “ठीक है। कपड़े बदलो। चलते हैं।” “अरे, कपड़े क्या बदलने हैं? ट्रैक सूट में ही चलती हूं। बाइक पर बढ़िया रहेगा। हमें वहां कौन जानता है?” अनिकेत ने फ़टाफ़ट बाइक दौड़ाई। मूलचंद पर परांठे-चाय अनिकेत के लिए भी बिलकुल अलग अनुभव था। आख़िर वो दिन भी आ ही गया जब आकांक्षा का इंटरव्यू था। सुबह-सुबह घर का काम निबटाकर आकांक्षा फ़टाफ़ट डीजीसीए के लिए रवाना हो गई।वहां उसके और भी साथी पहले से ही मौजूद थे। नियत समय पर इंटरव्यू हुआ। आकांक्षा के जवाबों ने एफ़आईडी को भी ख़ुश कर दिया। उन्होंने कहा, “जाइए, अपने दोस्तों को भी बताइए कि आप सब पास हो गए हैं।” आकांक्षा दौड़ते हुए बाहर आई और फ़िल्मीअंदाज़ में टाई उतारकर बोली, “हे गाइज़! वी ऑलक्लियर्ड।” बस जश्न का माहौल बन गया। ख़ुशी-ख़ुशी सब बाहर आए। आकांक्षा सोच रही थी कि बस ले या ऑटो। तभी उसका ध्यान गया कि पेड़ के नीचे अनिकेत उसका इंतज़ार कर रहे हैं। आकांक्षा दौड़ती हुई … Read more