मालूशाही मेरा छलिया बुरांश -समकाल की नब्ज टटोलती सशक्त कहानियाँ

मालूशाही मेरा छलिया बुरांश -समकाल की नब्ज टटोलती सशक्त कहानियाँ

  समकालीन कथाकारों में प्रज्ञा जी ने अपनी सशक्त और अलहदा पहचान बनाई है | उनके कथापत्रों में जहाँ एक ओर कमजोर दबे कुचले, शोषित वर्ग से लेकर मध्यम वर्ग और आज के हालातों से जूझते किरदार होते हैं तो दूसरी ओर वह मानवीय संवेदनाओं को जागृत कर अच्छे लोगों और अच्छाई पर भी विश्वास बनाये  रखने की आशा रखती हैं | मानवीय संवेदनाओं के उठते गिरते ग्राफ में वो कुछ अच्छा, सुखद थाम लेती हैं |वास्तव में यही वो लम्हे  हैं जिन्होंने  तमाम विद्रूपताओं से भरे इस समय में आशा की डोर को थाम रखा है | प्रज्ञा जी की इन कहानियों की विशेषता है कि वो बिलकुल आम पात्रों को उठाती हैं और सहजता के साथ शिल्प के अलंकारिक आडंबरों  से मुक्त होकर संवेदनाओं  के स्तर पर उतर कर गहनता से कथा बुनती जाती हैं |  समकाल पर कलम चालते हुए वो कोरी भावुकता में  नहीं बहतीं बल्कि तटस्थ होकर आस-पास घटने वाली एक-एक घटना का सूक्ष्म अवलोकन करते हुए साक्षी भाव से कथारस के साथ उकेरती चलती हैं | पाठक पढ़ कर हतप्रभ होता चलता है, “हाँ ! ऐसा ही तो होता है | पर ऐसा ही होता है को लिखने के लिए जिस सूक्ष्म नजर से समाज की पड़ताल करनी पड़ती है | समाज के मनोभावों का ऐक्स रे करना होता है, वो अपने आप में एक पूरा शोध होता है | जिसे उकेरना इतना सहज नहीं  है पर प्रज्ञा  जी इसमें सिद्ध हस्त हैं |   स्त्री चरित्रों को उकेरते समय भी वो किसी विमर्श के दायरे में ना बांध कर समाज की कन्डीशनिंग की बात करती हैं | जिसके शिकार दोनों हैं | आपसी सहयोग और सम्मान ही सहअस्तित्व का आधार है, जिसकी उंगली पकड़ कर उनके पात्र एक सुंदर दुनिया की संभावना तलाशते हैं | मालूशाही मेरा छलिया बुरांश -समकाल की नब्ज टटोलती सशक्त कहानियाँ   अभी हाल ही में प्रज्ञा जी का नया कहानी संग्रह “मालूशाही मेरा छलिया बुरांश”  आया है | हर बार की तरह इस संग्रह की योजना भी उन्होंने बहुत सुचिन्तित तरीके से बनाई है | विषय में जहाँ समकाल की चिंताएँ हैं, तो प्रेम की फुहारें भी, एक अच्छे आदमी द्वारा अपने अंदर छिपे बुरे आदमी की शिनाख्त तो माटी से माटी होते हुए शरीर में नई आशा फूँक देने की कवायत भी | बहुत ही हौले से वो उस बाजार के दवाब और प्रलोभन की बात भी कह जाती हैं, जिसके पंजों की जकड़ में समझदार व्यक्ति भी फँस जाता है | आज जब हम उन्हीं विषयों को बार -बार अलग -अलग शिल्प में पढ़ते हैं, वहीं प्रज्ञा जी द्वारा लाए गए जीवन से जुड़े नए अनूठे विषय उन्हें कथाकारों की अलग पांत में खड़ा करते हैं | इस संग्रह में उन्होंने शिल्प के स्तर पर भी कुछ नए प्रयोग किये हैं जो आकर्षित करते हैं, पर उनसे कहानियों की भाषा की सरलता सहजता और प्रवाह की उनकी धारा अपने पूर्ववत वेग को नहीं बदलती |   पुस्तक की भूमिका “एक दुनिया जो हम चाहते हैं बने” में प्रज्ञा जी लिखती हैं, “मैंने इस संग्रह की कहानियों में अपने विवध वर्णी समय को अंकित करने का प्रयास किया है |समाज में जहाँ एक ओर मनुष्यता की विजय  की कहानियाँ सामने आई हैं, वहीं कहीं ना कहीं ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्यता  पूंजी और बाजार में कहीं सबसे सस्ती और अनुपयोगी हो गयी है | इसलिए मेरा प्रयास रहा है कि समय की कटुता के साथ मनुष्यता के भरोसे को जीवित रखने वाले कुछ किस्से आप के साथ साझा कर सकूँ |     प्रेम दुनिया की सबसे सुंदर शय है | दो लोग मन -प्राण से एकाकर हो जाएँ इस से सुंदर घटना कोई दूसरी नहीं हो सकती | पहाड़ों की सुरम्य वादियों में हवा की सुरीली घंटियों सी आज भी गूँजती है अब तक मालूशाही और राजुला की प्रेम कहानी, जिसने हर संघर्ष के बाद आखिरकार पा ही लिया उसे जिसे बार -बार छल से दूर किया जाता रहा |कहाँ राज परिवार का मालूशाही और कहाँ साधारण घरआने की राजुला | पर प्रेम ने कब मानी हैं दीवारें |  वही प्रेम कहानी फिर उतरी उसी  धरती पर अपनी पूरी सुगंध, पूरी तारतम्यता के साथ | सदाबहार बुरांश के फूलों के बीच फिर छल ने दस्तक दी पर मालूशाही फिर आया अपनी राजुला के पास | “जिन्हें एक सच्चे वचन ने बांध लिया | कयोकि  निभाने के लिए एक वचन ही काफी है और ना निभाने के लिए सात सौ भी कम |  छलिया फिर आया भेष बदल कर ..पर मन ने उसका छल माना कहाँ | लोककथा से आधुनिक प्रेम कथा को जोड़ती बुरांश के फूलों सी दहकती एक अलग तरह की प्रेम कहानी है वो  कहानी पर जिसके  ऊपर संग्रह का नाम रखा गया है यानि “मालूशाही मेरा छलिया बुरांश” |   “उसे तो पहाड़ की कहानियों को जिंदा रखना थ और कहानी के रास्ते हमारे प्यार को |”   कहानी “माटी का राग” एक ऐसी ही कहानी है जो जीवन को सकारात्मक नजरिये  से देखने पर जोर देती है | “चाक के पहिये पर दयाशंकर कुम्हार की मिट्टी में तर उँगलियाँ बड़ी कोमलता से नमूने गढ़ रही थीं।चाक की लय, उँगलियों की तान, मन के राग पर धीरे-धीरे आकार लेती कला ‘तुमसे हो न पाएगा ठाकुर जी महाराज… कहाँ धरती का सोना तैयार करने वाले तुम और कहाँ हम?’ दयाशंकर ने एक साँस में हुनर औरजात के समीकरण को खोलकर सामने रख दिया। ‘रिश्ता तो हम दोनों का ही माटी से ठहरा।’”   कहानी की ये पंक्तियाँ हैं  सीधे पाठक के मन में उतरती हैं| किसान हो, कुम्हार  हो या ये जीवन  सब माटी पर निर्भर  है| सारा जुगत है इस माटी को किसी सृजन में लगा देना | वो सृजन खेत खलिहानों में उगती फसल का हो सकता है, कला का हो सकता है या फिर स्वयं के जीवन को कोई सकारात्मक मोड़  देने का | राम अवतार की ये कहानी अनेक आयाम समेटे हुए है | चाहे वो धर्म के नाम पर जबरदस्ती वैमनस्यता हो, गाँवखेत छोड़कर कर शहरों की ओर भागते युवा हों |बुजुर्गों का अकेलापन हो|कहानी गाँव से शहर की ओर जाती है और फिर गाँव की ओर … Read more