ठकुराइन का बेटा

ठकुराइन का बेटा

क्या प्रेम व्यक्ति को बदल देता है ? व्यक्ति के संस्कार में उसके आस -पास के लोगों का व्यवहार भी शामिल होता है | ठकुराइन का बेटा एक ऐसे ही व्यक्ति की कहानी है जो अपने कर्म के संस्कारों से को छोड़कर एक सच्चा इंसान बनता है | आइए पढ़ें वरिष्ठ लेखिका “आशा सिंह” जी की कहानी …. ठकुराइन का बेटा   पुलिस के डर के मारे वह भागा जा रहा था ।सड़क पर सन्नाटा छाया था।एकबड़ी कोठी की चारदीवारी फाँद कर अंदर कूद गया ।कोठी के पीछे सहायकों केलिए कमरे बने हुए थे,सबसे किनारे वाले कमरे का दरवाज़ा उढ़का था।अंदरपहुँचते ही आवाज़ आई -“ आ गया बेटा।” पता नहीं कैसे मुँह से निकल गया-“हाँ,अम्मा ।” महिला ने संभवत नींद में ही कहा -‘ चुपचाप सो जा ।’ वह नंगे फ़र्श पर लेट गया,पहली बार इतनी मीठी नींद आई । सुबह की रोशनी चेहरे पर पड़ी,देखा चालीस साल की ममतामयी प्रौढ़ा उसे देखरही है।’उठ गया बिरजू। उधर नल है,संडास है।फ़ारिग हो कर रोटी खा लेना।मैं कोठी पर जा रही हूँ ।’   जीवन के ऐसा बदलाव आयेगा,सोचा न था,छोटू से बिरजू बन गया ।सोचते हुएनल पर चला गया,कुछ महिलायें कपड़े धो रही थी । ‘आ गया ठकुराइन अम्मा का बेटा ।अब माँ को छोड़कर मत जाना ।बेचारी नेबड़े कष्ट भोगे है ।’उसने चुपचाप सिर हिला दिया ।   कोठरी में आकर देखा,दो रोटियाँ ढंकी रखी थी ।कितने दिनों बाद चैन की रोटी नसीब हुई ।पड़ोसी की बिटिया गिलास में चाय लेकर आई,बताया कि अम्माअब दोपहर में आयेगी।कोठी पर खाना बनाती है ।   चाय पीकर वह सफ़ाई में जुट गया ।सारे कपड़े तह किये,झाड़ पोंछ की।किनारेएक टीन का बक्सा था,पर उसे खोला नहीं ।अम्मा की साड़ी धोकर अलगनी परफैला दी ।पड़ोसिनो को प्रसन्नता हुई कि अम्मा का बेटा सुधर गया ।   उन्नाव के किसी गाँव में अम्मा का घर था।पति के गुजर जाने के बाद किसीप्रकार अपने एकमात्र पुत्र के संग जी रही थी।देवर ने बेटे को न तो पढ़ने लिखनेदिया,और बिगाड़ दिया ।इससे भी संतोष न हुआ,तो जायदाद के लिए हत्या काविचार किया ।अम्मा को ख़बर मिल गयी,और वह बेटे को लेकर भाग निकली। रास्ते में बेटा जाने कहाँ उतर गया ।वह व्याकुल भटकने लगी,उसे  कनोडिया परिवार की बड़ी सेठानी मिल गई ।समझा बुझाकर अपने साथ ले आई ।अस्सीवर्षीय माता का पूरे घर पर हुकुम चलता था। पुत्र गिरधारीलाल,पौत्र राधे लाल,उनकी बहुयें के लिए माता की आज्ञा सर्वोपरि थी।अब तो नये युग के राघव भी बड़े हो गए थे,दादा के आदेश से आफिस जानेलगे।ये माता की चौथी पीढ़ी के हैं ।   ठकुराइन को रहने के लिए कोठरी मिल गई ।खाना बनाने का कौशल था,सो रसोई संभाल ली।माता को हाथ की चक्की का पिसा आटा चाहिए था,सो माताके लिए गेहूं पीस कर रोटी बनातीं।बहुओं को ठकुराइन के कारण बहुत आराम हो गया ।ठकुराइन अम्मा कही जाने लगी ।सेठानी ज़बरदस्ती पगार देतीं,जिसेवह टीन के बक्से में रख देती,पर अपना खाना स्वंय बनाती। गिरधारीलाल को पता चला कि ठकुराइन का बेटा आ गया है ।उन्होंने विरोध किया,पता नहीं कौन है,चोर चकार न हो।पर माता के सामने कुछ कह नहीं सके।संशय का कीड़ा कुलबुलाता रहा। रात को अम्मा ने रोटी बनाई,खाकर अम्मा लेट गई।वह अम्मा के मना करने परभी पैर दबाने लगा।-‘ अम्मा मैं बिरजू नहीं हूँ ‘ ‘मुझे पता है,तुझे घर चाहिए था,मुझे बेटा ।अब तू बिरजू है,ब्रजेन्द्र सिंह ।   अम्मा मैं पासी हूँ ।छोटे नाम है ।छोट जात का हूँ । ‘तू चाहे कुछ भी रहा,अब मेरा बिरजू है ।   बिरजू चुपचाप पैर दबाता रहा-‘अम्मा अगर बिरजू आ गया तो।’   ‘तो क्या,मैं कह दूँगी कि तू उसका कुंभ मेले का बिछड़ा भाई है।’ हर सवाल का जवाब अम्मा के पास था।   ‘ एक सवाल और पूछ ।दरवाज़ा क्यों खुला था। ‘एक उम्मीद थी कि खुले दरवाज़े से किसी दिन बिरजू आयेगा,और आ गया।’अम्मा गहरी नींद में सो गई।   छोटू उर्फ़ बिरजू ने यहीं रहने का निश्चय कर लिया,ममता की छाँह छोड़ कर कहाँ जाता ।   कोठरी के पीछे काफ़ी जमीन खाली पड़ी थी।अम्मा ने बड़ी सेठानी से आज्ञा लेली ।बिरजू ज़मीन को समतल करने में जुट गया ।क्यारियाँ बना कर सब्ज़ियाँ बो दी।किनारे पर कुछ गेंदा के पौधे लगाए ।बगिया लहक उठी।अब सारे पड़ोसी वहीं से सब्ज़ी लेते ।   कोठी पर फूल देने वाली नहीं आई ।हंगामा मच गया कि माता पूजा कैसे करेंगी।बाहर इतना बड़ा लान था,पर फूल नहीं थे। उर्मिला जो पड़ोसी थी,बोली’चलिये मालकिन अम्मा की बगिया से फूल ले आयें। बड़ी मालकिन कोठी के पीछे आई ।इधर कोई आता नहीं था।बगीचा देख ख़ुशहो गयीं।बिरजू ने फूलों से डलिया भर दी।बेल से एक लौकी तोड़ पेश की । अब मालकिन अपने पति गिरधारीलाल जी से बिरजू को आफिस में लगवाने को कहने लगी।   गिरधारीलाल बिरजू से चिढ़ते थे-पता नहीं कहाँ से चोट्टा पकड़ लाई है ।बेटा बना लिया ।   मालकिन-जब से अम्मा ने रसोई संभाली है,एक चम्मच भी ग़ायब नहीं हुई ।मसालदान में इलायची भरी रहती है । अपनी माता और पत्नी के सामने गिरधारीलाल ने हथियार डाल दिए ।पोते राघवके कक्ष का चपरासी नियुक्त किया । ड्राइवर राम सिंह ने वर्दी दिलवा दी,समझाया कि बड़े सेठ समय के पाबंद हैं ।छोटे सेठ थोड़ा लेटलतीफ़ है ।सबसे जूनियर राघव सेठ बड़ी मुश्किल से आते हैं।तुम्हें उनके कमरे की देखभाल करनी है,बाक़ी समय बाहर स्टूल पर बैठ करघंटी बजते अंदर जाना ।   बिरजू दस बजे से पहले आफिस पहुँच जाता,कमरा झाडपोछ कर चमका देता ।राघव मस्त मौला युवक थे।एकदम लापरवाह,अभी तो पिता और दादा व्यापार संभाल रहे हैं,सो बेफ़िक्री से सीटी बजाते दो ढाई बजे आते ,जल्द ही निकल जाते ।जब से सगाई हुई है,शाम को अक्सर होने वाली संगिनी के साथ घूमनेनिकल जाते।   जब भी आते,बिरजू को मुस्तैद पाते ।हंस कर -तू पूरे समय डटा रहता है ।वेलापरवाह हो सकते थे,पर बिरजू को अपनी अम्मा का ख़्याल था।   सुबह जब वह झाड़ू लगा रहा था,कोई चीज़ कूड़े में चमकती नज़र आई ।उठाकर देखा,हीरे की अंगूठी थीं।बड़ा हीरा जगमगा रहा था ।लाख दो लाख की तो होगी।अंदर बैठा चोर ललकारने लगा,निकल ले,बहुत दिनों की ऐश है।किसी कोक्या पता लगेगा कि अंगूठी मुझे मिली।वह अंगूठी कपड़े से पोंछता जा रहा था ।   बड़े सेठ के कमरे … Read more

सुपारी

सुपारी

एक खूबसूरत कहावत है “नेकी कर दरिया में डाल ” क्योंकि हमारी नेकियों का हिसाब रखने वाला कोई है जो समय आने पर हमें हर मुश्किल सही से बचाता है | सुपारी कहानी सुपरिचित लेखिका हुस्न  तबस्सुम ‘‘निंहाँ‘‘जी की एक अनोखी कहानी है | एक तरफ तो ये एक ऐसे व्यक्ति की पीड़ा को दर्शाती है जो जीवन की तमाम विद्रूपताओं से परेशान हो स्वयं ही जीवन के उस पार की यात्रा करता है | उसकी छटपटाहट और बेचैनी में उसके अपने पराए हैं और पराए हितैषी  बन कर सामने आते है | बार-बार  क्यों होता है  ऐसा कि कोई एक तिनका उसे मृत्यु सागर में डूबने से बचा लेता है | आइए जानते हैं हुस्न  तबस्सुम‘‘निंहाँ‘‘ जी की  रहस्य और संवेदनाओं  से भारी कहानी सुपारी से .. सुपारी  ठीक रात के दो बजे सेठ नरोत्तम दास काली मण्डी पहुंचे। काली मण्डी, यानी कालू दादा का ठिया। खपरैल डाल कर बनाए गए तमाम छोटे-छोटे मिट्टी पुते घर। सभी आपस में मिले हुए और सारे मकानों को दोनों तरफ से घेरे हुए एक चैहद्दी। जैसे पूरी जगह को दोनों बाँहों में भरे हुए हो। अंत में बांस के बने हुए बड़े-बड़े गेट। गेट पर खड़े दो-चार प्रहरी। कह लो सुरक्षा गार्ड। जब सेठ नरोत्तम दास उधर बढ़े तो उन लोगों ने थाम लिया- ‘‘कहाँ घुसे जा रहे हो़…….पहले संदेसा भेजो अंदर, कहाँ से आए हो, क्या काम है?’’ ‘‘ मैं सेठ नरोत्तमदास हूँ, मुझे कालू दादा को सुपारी देनी है’’ ‘‘ठीक  है’’-कहते हुए उसने भीतर पुकारा- ‘‘अबे मन्नू उस्ताद से कहो सुपारी आई है’’ -कुछ देर बाद एक लड़का बाहर आया- ‘‘लड्डन भाई, सुपारी को भीतर उस्ताद ने बुलाया है।’’ ‘‘……….जाओ सेठ’’ -सेठ जी भीतर चले गए लड़के के साथ। कई दालान व बरामदे पार करने के बाद कालू दादा का कमरा दिखाई पड़ा। एक बड़ा सा हॉल जिस पर नीचे ही दीवान बिछा था और उस पर कालू दादा गाव तकिए के सहारे बैठा हुआ था। हुक्के की नाल उसके मुँह में थी और वह हुक्का गुड़गुड़ाए जा रहा था। लड़का उन्हें वहीं छोड़ कर बाहर से ही चला गया। कालू दादा ने उनका बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया- ‘‘आओ सेठ जी इतनी रात गए कैसे आना हुआ। कुछ चाय पानी़………….’’ ‘‘ नहीं, कुछ नहीं’’-कहते हुए सेठ जी वहीं दीवान पर ही बैठ गए। ‘‘अच्छा बताओ, किस के दिन पूरे कर रहे हो? किस हरामी ने आपका जीना दुश्वार कर रखा है…….कल ही काम लगवाता हूँ ’’ ‘‘ठीक है  ये लो’’-कहते हुए सेठ ने उसकी ओर एक बैग बढ़ा दिया- ‘‘पूरे दस लाख हैं।’’ ‘‘दस लाख, किसकी जान इतनी मंहगी है सेठ, तुम्हारा काम तो पाँच लाख में ही हो जाएगा।‘‘ ‘‘……..नहीं रख लो’’ -सेठ के चेहरे पे अजब शून्यता और नारंगीपन था। चेहरे से नितांत हताशा टपक रही थी। जुबान बोलती कम थी लड़खड़ाती ज्यादह थी। अंतस बेजान हुआ जाता था। उनकी कैफियत समझ कर कालू दादा ने सांत्वना दी- ‘‘तुम नर्वस न हो सेठ। कोई नहीं जानेगा कि आप यहाँ आए हो। आप उस आदमी का नाम व पता बता दीजिए और निश्चिन्त हो जाईए। ‘‘ ‘‘…….उसका नाम’’ सेठ जी की जुबान फिर लड़खड़ाई। ‘‘हाँ….हाँ…बोलिए…..’’ कालू ने जेब से कलम निकाला और बाजू में पड़ी हुई एक पुरानी सी नोटबुक उठा ली। ‘‘दरअसल… दर…..असल….मुझे ही मारना है।‘‘ ‘‘हैं….ह…’’ कालू दादा के हाथ से पेन छूट गई और वह उछल पड़ा।- ‘‘सेठ जी आज कुछ ज्यादह चढ़ा ली है क्या….कमाल करते हो…’’ ‘‘ नहीं ……मैं पीता नहीं’’ ‘‘ तो?’’ ‘‘…..मैं सही कहता हूं। बिल्कुल होश में हूँ।’’  ‘‘ पर तुम्हें ऐसी कौन सी आफत आन पड़ी कि तुम अपनी ही जान के दुश्मन बन बैठे हो। तुम उसका नाम बता दो जिसने तुम्हें इस हाल तक पहुँचाया है। मैं उसी को न खत्म कर डालूँ ‘‘ ‘‘नहीं….नहीं…ऐसा कभी मत करना कभी…’’ कालू दादा उसको देखता रह गया।  ‘‘असल में कालू दादा, मैं बहुत कायर  व्यक्ति हूँ। कई बार आत्महत्या की कोशिश की पर नाकाम रहा। अंत में ये सोंचा कि ये काम तुम्हें दे दूँ।’’ ‘‘मगर क्यूं सेठ ….क्यूँ……? वह लगभग तड़प कर बोला। ‘‘…ये मत पूछो, अपने काम से मतलब रखो। बस मुझे इस हाड़-मांस से मुक्ति दिला दो’’ ‘‘…ठीक है सेठ जी हो जाएगा काम। अब आप जाएं’’ -सेठ नरोत्तम दास उठे, कालू दादा भी उनके साथ खड़ा हो गया। बड़ी विनम्रता के साथ उनको नमन किया और एक लड़के को पुकार कर उन्हे गेट तक छोड़ने को कहा। =============================================== रात के बारह साढ़े बारह बजे होंगे। कुत्तों ने सुरताल मिलानी शुरु कर दी थी। यहाँ-वहाँ झींगुर भी बोल पड़ते थे। काली रात। भयावह सन्नाटा। कि तभी सेठ नरोत्तम दास की कोठी के पीछे हंगामा बरपा हो गया। सेठ नरोत्तम दास के चैकीदार एक काले भुजंग बदमाश तुल्य व्यक्ति को बुरी तरह पीट रहे थे। सेठ तक खबर लगने से पहले ही वह व्यक्ति तुड़ा-फुड़ा कर भाग खड़ा हुआ। =============================================== तीसरे दिन देर रात सेठ जी फिर काली मण्डी पहुंचे। कालू दादा वैसे ही दीवान पर पड़ा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था। सेठ को देख कर उठ बैठा। सेठ जी ने आते ही रद्दा रखा- ‘‘यार किस बात के दादा हो, मेरा काम नहीं हुआ। आज तीसरा दिन है।’’ ‘‘…अरे सेठ जी क्या बात करते हो। काम तो हो ही जाता, पर आपने इतने गुर्गे पाल रखे हैं कि कोई मारना तो दूर आपका बाल भी बांका नहीं कर सकता। उल्टे हमारे ही आदमी की अच्छी ठुंकाई कर दी सालों ने। उसकी मरहम-पट्टी करवानी पड़ी सो अलग।’’ -कालू दादा ने एक ही सांस में सफाई दे डाली। सेठ जी बगैर किसी औपचारिकता के उसके सामने उसी दीवान पर बैठ गए और शून्य निहारने लगे। दादा ने उन्हें कुरेदा- ‘‘सेठ जी , मगर ये बात हजम नहीं हो रही कि ऐसा भी क्या आन पड़ा….’’ कि सेठ जी ने दायां हाथ ऊपर उठा दिया- ‘‘नहीं कुछ भी नहीं….‘‘ कालू दादा चुप मार गए। कुछ देर इधर उधर खामोशी लहराती रही फिर कालू दादा ने ही खामोशी तोड़ी- ‘‘सेठ जी आप निश्चिंत हो कर जाएं। भगवान चाहेगा तो एक दो रोज में आपका काम जरुर हो जाएगा।‘‘  ‘‘देखो दादा, कोई जरुरी नहीं कि ये काम तुम्हारे कारिंदे सन्नाटेदार रातों में ही करें। बाहर चलते फिरते दिन दहाड़े कहीं भी … Read more