मज़हब
प्रेम का कोई मजहब नहीं होता |प्रेम अपने आप में एक मजहब है | लेकिन क्या समज ऐसा होने देता है ? क्या धर्म की दीवारे दो प्रेमियों को एक होने से रोकती हैं | क्या धर्म परिवर्तन ही प्रेम को पा लेने का एक मात्र विकल्प है और अगर ये विकल्प है तो अक्सर यह कारगर साबित नहीं होता | आइये पढ़ें इसी विषय पर मृणाल आशुतोष जी की हृदयस्पर्शी कहानी …. मज़हब ” ख़ुदा के वास्ते फोन मत रखना!” आवाज़ सुनते ही मैं समझ गया कि रुखसाना का फोन है। फिर भी बिना जवाब दिए मैं फोन काटने ही वाला था कि ‘ तुझे महादेव की सौगन्ध’ कानों में गूँज उठा और मेरे सामने काशी विश्वनाथ मन्दिर प्रकट से गये। उसका तीर निशाने पर बैठा और मुझे जबाब देना ही पड़ा,”बोलो, क्या चाहती हो तुम?” “अभी कहाँ हो तुम?” आदत अभी भी बदली नहीं थी। सवाल के जबाब में सवाल। ” यही शहर से कोई तीस किलोमीटर दूर। मिश्रा केमिकल्स के कंस्ट्रक्शन का काम चल रहा है।” “आधे घण्टे रुको। मैं आ रही हूँ।” “क्यों आ रही हो?” “आखिरी बार तुमसे मिलने!” “मुझे लगता है कि हम दोनों आखिरी बार मिल चुके हैं। अब मिलने का कोई फायदा नहीं।” “यह आखिरी ही होगा अगर तुम मेरे न हो सके तो।” “अब यह मुमकिन नहीं।” पर उधर से फोन कट हो चुका था। मैं सोच में पड़ गया था कि रुखसाना को मेरा नम्बर आखिर मिला तो मिला कहाँ से? उसी से बचने के लिये तो मैने अपने दोनों नम्बर बन्द कराए। यहाँ तक कि घर भी बदल लिया। फिर उसे नम्बर मिला कहाँ से? यह उधेड़बुन चल ही रहा था कि पीठ पर धप्प से एक हाथ पड़ा। पता तो था ही कि यह हाथ उसके अलावा और किसी का नहीं हो सकता। “तुम यह सोच रहे होगे कि मैंने तुम्हारा नम्बर कैसे निकाला?” “हाँ। बिल्कुल, यही सोच रहा था।” “आखिरी बार मिलने के बाद तुम्हारा फोन लगातार बन्द आ रहा था। तुम्हारे घर पर भी गयी तो पता चला कि तुमने घर बदल लिया।” “हाँ, नई जिंदगी की शुरुआत करने के लिये यह बहुत जरूरी था।” “बहुत अच्छा किया तुमने।” उसके दर्द को मैं महसूस कर रहा था। “नम्बर कहाँ से मिला? यह बता दोगी तो मेहरबानी होगी।” “सावन का महीना आ गया था। मुझे पता था कि तुम्हारी माँ सोमवार को विश्वनाथ मन्दिर जरूर आयेंगी तो सवेरे से ही मंदिर के गेट पर इंतज़ार कर रही थी। उनके आते ही पैर पकड़ ली और उनको कसम भी दे दी कि तुमको यह वाकया बताये नहीं। पर तुम इतने खडूस हो कि अलग अलग नम्बर से फोन करने के बाद भी फोन नहीं उठा रहे थे।” “अब हम कुछ मतलब की भी बात कर लें ताकि मैं भी अपने ऑफिस का कुछ काम कर सकूँ।” “तुम मुझसे शादी करोगे या नहीं?” “इसका जबाब तुमको पहले ही दे चुका हूँ।” “जब तुम्हारी माँ को कोई दिक्कत नहीं है तो तुम क्यों बड़े पण्डित बन रहे हो!” “माँ को तुमने कैसे पटाया है, मुझसे बढिया से पता है। पर मैं अपना धर्म नहीं बदलूँगा तो किसी भी कीमत पर नहीं बदलूंगा।” “मैं ही तुमसे एकतरफा मोहब्बत करती रही। सच तो यह है कि तुमने कभी मुझसे इश्क किया ही नहीं।” “तुम्हारी बातों में कितनी सच्चाई है, तुम्हरा दिल जानता है।” “मेरी खाला की ननद ने भी किसी पण्डित से प्यार किया था। फिर उसने निकाह के लिये धर्म बदला कि नहीं बदला! और एक तुम हो!” “मेरे लिये धर्म बदलना, बाप बदलने के बराबर है।” “सच तो यह है कि दोस्तों की सोहबत में आकर तुम्हें मेरे धर्म से नफरत हो गयी है।” “नफरत! हम किसी से नफरत नहीं करते।” मैं बात जल्दी से जल्दी खत्म करना चाह रहा था पर वह अपने शर्तों पर जीत हासिल करने की हरसम्भव कोशिश कर रही थी। जबकि उसे भी यह पता था कि यह मुमकिन नहीं! “अब तुम्हें पंडित होने का कुछ ज्यादा ही घमण्ड हो गया है।” “घमंड तो बिल्कुल नहीं है पर हाँ, गर्व जरूर है।” “क्या तुम मेरी खातिर, अपनी मुहब्बत की खातिर इतना भी नहीं कर सकते!” “आज़मा कर देख लेना। जरूरत पड़ने पर जान भी दे सकता हूँ!” “जान दे सकते हैं पर शादी के लिये धर्म नहीं बदल सकते। हुँह!” अब रुखसाना की आँखें नम होने लगी थीं। “एक बात बताओ। मैंने कभी तुमको कहा कि अपना धर्म बदल लो।” “तुम्हारे धर्म में ऐसी कट्टरता नहीं है न! मेरे मज़हब को तो तुम समझते हो न!” “हाँ, समझता हूं। तभी तो कह रहा हूँ कि तुम अपने मज़हब का पालन करो और मुझे अपने धर्म का पालन करने दो।” “तो इसका मतलब यह हुआ कि आखिरकार तुम जीत ही गये “ “काश कि मैं जीत पाता! “…..” ” न मैं जीता और न ही तुम जीती! अलबत्ता मज़हब के जंग में मुहब्बत जरूर हार गई।” उसकी आँखें उसके अधरों को भिंगोने लगी थी। मेरे लिये यह देख पाना बहुत मुश्किल हो रहा था। बहुत हिम्मत जुटा कर उसके होंठ हिले,”आखिरी रुखसत से पहले गले नहीं मिलोगे!” मुझे लगा कि अब मैं भी फूट पडूँगा पर बड़ी मुश्किल से अपने ऊपर काबू रख पाया। उसने फिर दोहराया,”आखिरी रुखसत से पहले गले नहीं मिलोगे क्या!” “गैर मर्द से गले मिलते हैं क्या?” अब आँसू बेकाबू हो गये और बोझिल कदमों से मैं ऑफिस की ओर भागा। एक चीख की आवाज़ सी आयी पर अब मुड़कर देखने की हिम्मत मुझमें न थी। *** मृणाल आशुतोष जिला-समस्तीपुर (बिहार) पिन-848210 मोबाईल: 91-8010814932 ईमेल- mrinalashutosh9@gmail.com यह भी पढ़ें … नया ज़माना आएगा नीलकंठ आपको कहानी ‘मजहब’ कैसी लगी| अपने विचारों से हमें जरूर अवगत करायें | filed under-love story, religion, hindu-muslim