बहुत बुरी हो माँ

बहुत बुरी हो मां

“बहुत बुरी हो मां” कौन सी माँ होगी जो अपने बच्चे के मुँह से ये शब्द सुनना चाहेगी | हर माँ अपने बच्चे की नजर में दुनिया कि सबसे बेहतर माँ बनना चाहती है | पर अच्छी माँ के दवाब में उससे भी कहीं ना  कहीं कुछ कमी रह जाती है या रह सकती है, तो क्या उसे बुरा कह दिया जाए ? या बुरी माँ की कोई अलग परिभाषा है ? क्या नरम दिल माँ ही अच्छी है ? क्या बच्चों के हित के लिए थोड़ा कठोर हो जाना, बुरा होने का पर्याय है | क्या माँ भी एक इंसान नहीं है, जिसके अपने आग्रह और पूर्वाग्रह हो सकते ? अपने देखे सुने इतिहास का भय हो सकता है ? ये कहानी ऐसे तमाम प्रश्नों से जूझती है | और इन प्रश्नों का उत्तर भी देती है | कहीं नया कहीं ये कहानी  कहती है कि  माँ बनना केवल नौ महीने का उतरदायित्व नहीं है ये पूरे 21 साल का प्रोजेक्ट है .. और कभी कभी उससे भी ज्यादा | वो अच्छी है या बुरी, ये बच्चों का भविष्य तय करता है | आइए पढ़ें एक माँ को अपने बच्चों के  प्रश्नों  के कटघरे में खड़ा करती डॉ . पूनम गुज़रानी की कहानी बहुत बुरी हो माँ  कितनी अजीब है दुनिया…. निरन्तर चलती रहती है…. अपने-अपने क्रम से…. दिन आता है, ढल जाता है, रात आती है, चली जाती है…. पूरी प्रकृति चलती रहती है बिना विश्राम के….कोई नहीं रुकता किसी के लिए….पर मानव हरदम रुक-रुक कर चलता है… अतीत कभी उसका पीछा नहीं छोङ़ता और भविष्य के खुशहाल, मघुर सपने देखने से वो बाज नहीं आता। जानता है सपने पूरे नहीं होते फिर भी देखता है दिवास्वप्न….ये भ्रम कि आने वाला कल अच्छा होगा उसकी आज की कङ़वाहट कम नहीं कर पाते पर च्यूंगम पर लगी मिठास के तरह दो पल ही सही मुँह  के कसैलेपन को चांद को रोटी बताकर बहलाने वाली मां की तरह बहला फुसलाकर आगे की जिंदगी जीने के लिए तैयार तो कर ही देती हैं। हर सुख के साथ दुख बिना बुलाए चला आता है  और दुख के बाद सुख की प्रतिक्षा जीने की जिजीविषा जागाए रखती है। वक्त आगे बढ़ता रहता है, घङ़ी की सूई घूमती रहती है…. पर कभी-कभी गाज गिराने के लिए वक्त की सुई  पीछे भी घूम जाती है। रत्ना ‌के वक्त की  सूई आज पीछे की ओर घूम गई…जब बरसों बाद फिर से उसे सुनने को मिला वही डायलाग…. “तुम बहुत बुरी हो मां….”। कितना कुछ उधङ गया इस एक वाक्य की कैंची से…. उसकी तमाम मजबूत सिलाई धङ़धङ़ाकर निकल गई और रंगीन कवर के नीचे से झांकने लगी पेबंद लगी जिंदगी….। अतीत के झरोखे से जब  झांकने लगी रत्ना… तो लगा कि उसका पूरा बचपन बहुत शानदार था। खुशकिस्मत थी रत्ना….प्रतापगढ़ राजधराने में जन्मी थी। रियासत अब नहीं थी पर रहन-सहन में ताम-झाम,शाही शानौ-शोकत आज भी कायम थी, महल नहीं था पर उसकी हवेली भी महल से कम नहीं थी,अदब वाले नौकर-चाकर भी हर समय अपनी हाजरी देने के लिए तत्पर रहते थे, उसकी कोई भी फरमाइश और ख्वाहिश हर हाल में पूरी की जाती थी। भाई वीरसेन और रत्ना हमेशा फूलों की बिस्तर पर सोये, सोने-चांदी की थाली में भोजन किया, बिन मांगे इतना कुछ मिला था कि मांगने की जरूरत ही नहीं पङ़ी। स्कूल-कॉलेज की गलियों में उछलते-कूदते, किताबों और नोट्स का आदान-प्रदान करते, एनवल फंक्शन के नाटकों में अपना किरदार निभाते, कॉफी हाउस में कॉफी की चुस्कियों के बीच सोमेश के साथ कब इश्क परवान चढ़ा पता ही नहीं चला। कितना विरोध सहन किया….. कितनी बंदिशों का सामना किया….. लगभग चार साल मनाती रही बापूसा को….. बहुत उकसाया सहेलियों ने भागकर शादी करने के लिए पर न वो राजी थी न सोमेश….. शादी जब भी होगी बङ़ो के आशीर्वाद के साथ होगी, यही ख्वाहिश थी दोनों की….. । जब बापूसा राजी हुए तभी हुई उन दोनों की शादी। बस खालिस एक साङ़ी में लिवा लाए थे स्वाभिमानी सामेश उसे। बापूसा बहुत कुछ देना चाहते थे पर सोमेश ने इंकार कर‌ दिया। रत्ना राजमहल से निकलकर साधारण से परिवार की बहू बन गई। वो खुश थी। सुदर्शन कद काठी, ऊंचे सपने, सादा जीवन-उच्च विचार का आदर्श सहेजे, शांति प्रिय युवक था उसका जीवनसाथी सोमेश। उसे गर्व था अपने निर्णय पर।सोमेश पढ़ने में बहुत अच्छा था और दूसरों को पढ़ाने में भी,  उसने टीचर की जॉब कर ली। शुरुआत में जीवनयापन की भी बहुत समस्याएं आई।पाई- पाई को दांत से पकड़ कर रखना रत्ना के वश की बात नहीं थी। कभी-कभी उसे थोङ़े से खर्च के लिए कई महीनों का इंतजार करना पङ़ता … महंगी साङ़ियां और ज्वेलरी सपना बनकर रह गई थी….  छोटी-छोटी बातों पर रत्ना के यहां आये दिन पार्टी का आयोजन होता था पर अब रत्ना को जन्मदिन और शादी की सालगिरह पर भी सिर्फ मंदिर जाकर संतोष करना पङ़ता….. । कभी-कभी झुंझला जाती वो….अपनी झुंझलाहट में सोमेश की साधारण नौकरी पर तीखे व्यंग्य करने से भी बाज नहीं आती…. उसे गुस्सा आता सोमेश पर…. क्यों दहेज नहीं लिया…. अगर लिया होता तो  सुख- सुविधाओं से युक्त शानदार घर से लेकर महंगी ज्वैलरी तक सब कुछ होता उसके पास…. पर सोमेश का शांत-संतुलित  व्यवहार उसकी हर नादानी को मुस्कराहट की हवा में उड़ा देने  की कला जानता था। वक्त के साथ धीरे-धीरे सोमेश के प्रेम ने हर रिक्तता को भर दिया। वो खुद भी सोमेश के रंग में रंगती चली गई। जब प्रेम सर चढ़कर बोलता है तो कमियां ही खूबियां बन जाती है।अब जरुरतें इतनी ही थी जितनी पूरी हो जाती। आगे चलकर सोमेश कॉलेज के प्रोफेसर हो गया। बहुत शानौ-शौकत न  सही पर  बंधी हुई आमदनी जीवन की जरुरतें पूरी करने के लिए प्रर्याप्त थी।अब दो बच्चों की मां रत्ना का पूरा ध्यान बच्चों की परवरिश पर था। रत्ना ने बचपन से लेकर जवानी तक जाने कितने बच्चों को ग़लत संगत में पङ़ते देखा था, कितने बच्चों को आवारा होकर उजङ़ते देखा था, जाने कितनी बार पढ़ा, कितनी बार सुना की बच्चे सही परवरिश के अभाव में शराब-सिगरेट पीने लगते हैं और अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं। उसके भाई वीरसेन को भी तो नशे की ऐसी लत लगी कि … Read more

माँ से झूठ

माँ से झूठ

  माँ ही केवल अपने दुखों के बारे में झूठ नहीं बोलती, एक उम्र बाद बच्चे भी बोलने लगते है | झुर्रीदार चेहरे और पोपले मुँह वाली माँ की चिंता कहीं उनकी चिंता करने में और ना बढ़ जाए |इसलिए अक्सर बेटियाँ ही नहीं बेटे भी माँ से झूठ बोलते हैँ | मदर्स डे के अवसर पर एक ऐसी ही लघुकथा .. माँ से  झूठ  ट्रेन ठसाठस भरी हुई जा रही थी | हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था | जनरल डिब्बे में बैठना तो क्या, खड़ा रहना भी मुश्किल था | ऑफिस से बुलावा ना आ गया होता तो वो भी तयौहार के मौसम में यूँ बिना रिजर्वेशन जाने के मूड में नहीं था | पर नौकरी जो ना करवाए सो कम | पसीने से लथपथ किसी तरह से जगह बना कर खड़ा हुआ तब तभी मोबाइल की घंटी बजी | अपनी ही जेब से मोबाइल निकालने की मशक्कत करने के बाद देखा माँ का फोन था | फोन उठाते ही माँ बोलीं, “बेटा गाड़ी में जगह मिल गई?” “हाँ! माँ, मिल गई, उसने आवाज में उत्साह लाते हुए कहा | “तू ठीक से तो बैठ गया ना?” माँ तसल्ली कर लेना चाहती थी | हाँ, बिल्कुल, काफी जगह है आराम से बैठा हूँ| “ तुम चिंता मत करो | उसने इस बार अपनी आवाज का उत्साह थोड़ा और बढ़ाया | “ठीक है बेटा, भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि तुम्हें जगह मिल गई, मैं तो डर रही थी |” माँ के स्वर में तसल्ली थी और उसके चेहरे पर इत्मीनान | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … लघुकथा -कलियुगी संतान झूठा –(लघुकथा ) तोहफा (लघुकथा) एक लघु कहानी —–सम्मान

“माँ“ … कहीं बस संबोधन बन कर ही न रह जाए

माँ केवल एक भावनात्मक संबोधन ही नहीं है , ना सिर्फ बिना शर्त प्रेम करने की मशीन ….माँ के प्रति कुछ कर्तव्य भी है …. “माँ” … कहीं बस संबोधन बन कर ही न रह जाए डुग – डुग , डुग , डुग … मेहरबान कद्रदान, आइये ,आइयेमदारी का खेल शुरू होता है | तो बोल जमूरे … जी हजूर सच –सच बताएगा जी हजूर आइना दिखाएगा जी हजूर दूध का दूध और पानी का पानी करेगा जी हजूर तो दिखा …. क्या लाया है अपने झोले में हजूर, मैं अपने झोले में लाया हूँ मनुष्य को ईश्वर का दिया सबसे नायब तोहफा “सबसे नायब तोहफा … वो क्या है जमूरे, जल्दी बता?” “हुजूर, ये वो तोहफा है, जिसका इंसान अपने स्वार्थ के लिए दोहन कर के फिर बड़ी  बेकदरी करता है |” “ईश्वर के दिए नायब तोहफे की बेकद्री ,ऐसा क्या तोहफा है जमूरे ?” “हूजूर ..वो तोहफा है … माँ” “माँ ???” “जी हजूर , न सिर्फ जन्म देने वाली बल्कि पालने और सँभालने वाली भी” “वो कैसे जमूरे” “बताता हूँ हजूर , खेल दिखता हूँ हजूर …… हाँ ! तो मेहरबान  कद्रदान , जरा गौर से देखिये … ये हैं एक माँ,चारबच्चों की माँ , ९० साल की रामरती देवी |झुर्रियों से भरा चेहरा कंपकपाती आवाज़, अब चला भी नहीं जाता | रामरती देवी वृद्ध आश्रम के एक बिस्तर पर  पड़ी जब – तब कराह उठती हैं | पनीली आँखे फिर दरवाज़े की और टकटकी लगा कर देखती हैं | शायद प्रतीक्षारत हैं | मृत्यु का यथार्थ सामने है पर मानने को मन तैयार नहीं की उसके चार बेटे जिन्हें उसने गरीबी के बावजूद अपने दूध और रक्त से बड़ा किया | जो बचपन में उन्हेंचारों ओर घेरे हुए ,” अम्मा ये चाहिए , अम्मा वो चाहिए कहते रहते थे | जब तक वो देने योग्य थी , देती रही | पर अब जब वो अशक्त हुई तो उसको मिला आश्रम का अकेलापन | आज बड़े आदमी बनने के बाद उसके बच्चे यह भी भूल गए की कम से कम एक बार तो पू छना चाहिएथा , “अम्मा तुम्हें क्या चाहिये “?पूछना तो दूर उनका साथ रहना बेटों के लिए भारी हो गया | आश्रम में लायी गयी रामरती देवी बस “माँ ” ही हो सकती है | जो समझते हुए भी नहीं समझ पाती तभी तो प्रतीक्षारत है अपने बेटों की , की आश्रम द्वारा बार – बार नोटिस भेजे जाने पर, “तुम्हारी माँ का अंतिम समय है , आ कर देख जाओ” शायद आ जाये | शायद एक बार दुनिया से कूँच करने से पहले उन्हें सीने से लगा सके | बरसों से अकेले , उपेक्षित रहने का दर्द शायद …शायद कुछ कम हो सके | पर साहिबान रामरती देवी अकेली नहीं है आज न जाने कितनी माएं अपनी वृद्धावस्था में घर के अन्दर ही उपेक्षित , अवांछित सी पड़ी है | जिनका काम बस आशीर्वाद देना भर रह गया है | ये देखिये साहिबान वो भी माँ ही है …..जिसे हमारे पूर्वजों ने धरती मैया कहना सिखाया | सिखाया की सुबह सवेरे उठ कर सबसे पहले उसके पैर छुआ करो | माँ शब्द से अभिभूत धरती माता हँस हँस कर उठा लेती है अपनी संतानों के भार को | जब – जब रौंदी जाती है हल से उपजाती है तरह –तरह की वनस्पतियाँ … कहीं भूँखी न रह जाएँ उसकी संतानें | न जाने कितने अनमोल रत्न छिपाए रहती है अपने गर्भ में , अपनी संतति को सौपने के लिए | पर हमने धरती के साथ क्या किया | पहाड़ काटे , नदियों का रास्ता मोड़ा … यहाँ तक तो कुछ हद तक समझ में आता है | पर जंगल जलाना, ये क्रूरता ही हद है | जिस समय मैं ये कह रहा हूँ उत्तराखंड के जंगल धूँ, धूँ कर के जल रहे हैं | कितने पेड़, कितने जीव –जंतु रक्षा, दया के लिए याचना करते – करते काल के गाल में भस्म हो रहे होंगे | सुनते हैं भू माफिया का काम है | जगल साफ़ होंगे | शहर बसेंगे | बड़े –बड़े भवन खड़े होंगे | पैसे –पैसे और पैसे आयेंगे | माँ तड़प रही है | किसे परवाह है | और तो और जहाँ – जहाँ धरती मैया अपने अन्दर जल समेटे हैं | वहाँ उसका बुरी तरह दोहन हो रहा है |घर – घर बोरिंग हो रही है | ट्यूबवेल लग रहे हैं |धरती दे रही है तो चाहे जितना इस्तेमाल करो |बहाओ , बहाओ , खूब बहाओ | रोज कारे धुल रहीं हैं , नल खुले छूट रहे हैं , पानी की टंकी घंटो ओवर फ्लो कर रही है | किसे चिंता है लातूर औरबुंदेलखंडबूंद – बूँद पानी को तडपते लोगो की |किसे चिंता है धरती माता के अन्दर प्लेटों के रगड़ने की | कितना कष्ट होता होगा धरती माँ को | पर किसे परवाह है | ये देखिये साहिबान एक और माँ … अपनी गंगा मैया | अभिभूत संतति “ जय गंगा मैया “ का उद्घोष कर हर प्रकार का कूड़ा – करकट गन्दगी उसे समर्पित कर देती है | माँ है … सब सह लेंगी की तर्ज पर | और गंगा मैया, सिसकती होगीशायद | हर बार उसके आँसू मिल जाते होंगे उसी के जल में | कहाँ देख पाते हैं हम | वैसे भी आँसू देखने की नहीं महसूस करने की चीज है | तभी तो अब थक गयी रोते –रोते |सिकुड़ने लगी है | समेटने लगी है अपने अस्तित्व को |माँ का आदर प्राप्त “ गंगा मैया “ अक्सर याद करती होंगी अपने अतीत को | जब भागीरथ उसे स्वर्ग से उतार लाये थे | तब ममता पिघल – पिघल कर दौड़ पड़ी थी अपने शिशुओं की प्यास बुझाने को | संतानों ने भी माँ कह कर सम्मानित किया | उसके तटो पर बस गयी हमारे देश की संस्कृति | पर कहाँ गया वो सम्मान | आश्चर्य हर – हर गंगे कह कर गंगा से अपनी पीर हरवाने वाली संतति नाले में तब्दील होती जा रही गंगा की पीर से अनजान कैसे हैं? और देखिये साहिबान …ये हैं वो गौ माता … ३३ करोंण देवताओं का जिसमें वास है | जिसे दो रोटी की … Read more