वो फोन कॉल-मानवीय संबंधों के ताने-बाने बुनती कहानियाँ

वो फोन कॉल

अटूट बंधन की संपादक ,बेहद सक्रिय, संवेदनशील साहित्यकार वंदना बाजपेयी जी का दूसरा कहानी संग्रह “ वो फोन कॉल” भावना प्रकाशन से आया है।इस संग्रह में कुल 12 कहानियाँ हैं। आपकी तीन कहानियाँ “वो फोन कॉल, दस हजार का मोबाईल और “जिंदगी की ई. एम. आई” पढ़ते हुये “मार्टिन कूपर” याद आये। तीनों कहानियाँ में मोबाइल ही प्रमुख पात्र है या परिवेश में मौजूद है। “वो फोन कॉल” में मोबाइल जिंदगी बचाने का माध्यम बना है तो “जिंदगी की ई.एम.आई” में किसी को मौत के मुहाने तक ले जाने का बायस भी वही है। वहीं “दस हजार का मोबाइल” कहानी में मद्धयमवर्गीय जीवन के कई सपनों की तरह ही महंगा मोबाइल भी किस तरह एक सपना बन कर ही रह जाने की कथा है।“दस हजार का मोबाइल” लाखों मद्धयमवर्गीय परिवारों की एक सच्ची और यथार्थवादी कथा है। मानवीय संबंधों के ताने-बाने बुनती- “वो फोन कॉल” मोबाइल के जनक “मार्टिन कूपर” ने जब मोबाइल का अविष्कार किया होगा तो कल्पना भी नहीं की होगी की इक्सवीं सदी में आम से लेकर खास और भारत के गांव से लेकर विदेशों तक फोन कॉल लोगों के मानसिक, अद्ध्यात्मिक , वैवसायिक और राजनैतिक जीवन में इंटरनेट से जुडते ही संचार क्रांति की अविस्मरणीय आमूल-चूल परिवर्तन का वाहक साबित होगा। मोबाइल इंटरनेट के साथ संचार माध्यम का सबसे सस्ता और अतिआवश्यक जरुरत साबित होगा।वैसे देखा जाये तो मोबाइल से लाभ ज्यादा और नुकसान कम ही हुये हैं। बहुत पीछे नहीं अभी का ही लेखा-जोखा लेकर बैठे तो वैश्विक महामारी “कोरोना “और उसके पश्चात लॉकडाउन में लोगों के बीच मोबाइल इंटनेट किसी वरदान की तरह ही काम आया। कोरोना के अप्रत्याशित हमले से घबड़ायी- पगलाई और भयभीत दुनिया ने फोन कॉल्स और सोशल मीडिया के द्वारा एक-दूसरे की खूब मदद की और एक-दूसरे के हृदय में समयाये मृत्यु के भय और अकेलापन को दूर किया। कनाडाई विचारक मार्क्स मैकलुहान ने जब अपनी पुस्तक “अंडरस्टैंडिंग मीडिया” (1960) में” ग्लोबल विलेज” शब्द को गढ़ा था उस वक्त किसी ने कल्पना भी नहीं कि होगी इस दार्शनिक की ग्लोबल विलेज की अवधारणा इतनी दूरदर्शी साबित होगी।और वाकई में 21वीं सदी में दुनिया मोबाइल-इंटरनेट के तीव्र संचार माध्यम के कारण ग्लोबल विलेज में बदल जायेगी। एक क्लिक पर दुनिया के किसी कोने में बैठे व्यक्ति से मानसिक तौर पर जुड़ जायेंगे। मैकलुहान की ग्लोबल विलेज की अवधारणा दुनिया भर में व्यक्तिगत बातचीत और परिणामों को शामिल करने के साथ लोगों की समझ पर आधारित था।इंटरनेट के आने के बाद (1960 के दशक इंटरनेट आ चुका था ।) शीत युद्ध के दौरान गुप्त रूप से बहुत तेज गति से सूचनाओं के आदान प्रदान करने की आवश्यकता हुई । अमेरिका के रक्षा विभाग ने अपने सैनिकों के लिए इसका आविष्कार कर किया था) साइबर क्राइम और ट्रोलिंग की नई संस्कृति ने मानसिक तनाव भी खूब दिये।बरहाल मोबाइल और इंटरनेट की अच्छाइयाँ और बुराइयाँ गिनने लगे तो कई पन्ने भर जायेंगे। और मोबाइल और मास मीडिया पर निबंध लिखने की कोई मंशा नहीं है मेरी। लेखिका की पहली कहानी “वो फोन कॉल” जो संग्रह का शीर्षक भी बना है ।इस शीर्षक से मैंने अनुमान किया था, कोई संस्पेंस से भरी थ्रीलर कहानी होगी। संस्पेंस तो है पर यह कोई जासूसी कहानी नहीं है। यह समाजिक अवधारणायों पर विचार- विमर्श तैयार करती, जीवन संघर्ष के लिए मजबूत करती मानवीय संबंधों की भावनात्मक सच्ची सरोकारों की कहानी है। एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है। जो हमारे आस-पास है। उसे हमारी जरुरत है पर हम उसे नहीं जानते। या हमें समय ही नहीं है उसे जानने की। या जान भी गये तो उसकी सच्चाई को स्वीकार करने का मनोबल नहीं है। अपनी रुढीगत अवधारणाओं को तोड़ कर ही उसकी पीड़ा को समझ सकते हैं। “वो फोन कॉल” पाठक को जीवन संघर्ष को स्वीकार करने की प्रेरणा देती है। प्रकृति सबको समान रुप से देखती है। वह विभिन्नता के कारण किसी को कम या ज्यादा नहीं देती है। अपने ऊपर सबको समान अधिकार देती है। मनुष्य ही है जो विभिन्नता को अवगुण समझ भेद-भाव करता है।“ वो फोन कॉल” इस विमर्श को सधे शब्दों में पूरजोर तरीके से उठाती है। “वो फोन कॉल” में जहाँ मोबाइल एक अनजान व्यक्ति की जिंदगी बचाने के काम आता है। मानवीय संवेदनाओं और संबंधों की नई खिड़की भी खोलता है। “ जिंदगी की ई. एम.आई”में उसी मोबाइल इंटनेट के विकृत चेहरे और संबंधों में आई तकनीकी कठोरता के कारण सहज संबंधों से दूर जटिल उलझन भरे रास्तों पर जाते हुये देखा जा सकता है। किंतु कहानी के पात्र भाग्यशाली हैं।समय रहते भटके हुये रास्तों से अपने मूल जड़ों की ओर उनकी वापसी हो जाती है। किंतु आम जीवन में सबका भाग्य साथ दे। जरुरी नहीं है। शहरी दंपत्ति अपने महंगे फ्लैट की ई एम आई भरने के लिए 24 घन्टे तनाव भरी जिंदगी जीते हैं और अपने बच्चे को अकेला छोड़ देते हैं जिसकी वजह से वह हत्यारिन ब्लू व्हेल गेम के चक्रव्यूह में फंस जाता है। बड़े- बुजुर्ग हमेशा कहते हैं-“ जैसा अन्न वैसा मन”।खान-पान की शुचिता कोई रुढीगत अवधारणा नहीं बल्कि वैज्ञानिक सोच इसके पीछे रही है। समय के साथ इस परंपरागत अवधारणा में छूत-छात जैसी मैल पड़ गई थी। किंतु मूल भाव यही था कि ईमानदारी से मेहनत करें, किसी प्रकार की चलाकियाँ न करें,किसी कमजोर को सताये नहीं। और ईमानदारीपूर्वक कमाये धन से जीवन चलाये ।तभी तन और मन दोनों स्वस्थ रहेंगे।“ प्रेम की नयी वैराइटी” कहानी इस कथन की सार्थकता को बहुत ही सुंदर और वैज्ञानिक तरीके से कहती है। आज प्रेम संबंध मोबाइल की तरह हर एक-दो साल में बदल जाते हैं। आधुनिक प्रेमी किसी एक से संतुष्ट नहीं है। वह नये एडवेंचर के लिए नये रिश्ते बनाता है। कुछ नया , कुछ और बेहतर की तलाश में भटकता रहता है। संबंधों की शुचिता उसके लिए पुरातन अवधारणा है। वह आज अपना औचित्य खोता जा रहा है। इसतरह की बेचैनी- भटकाव कहीं न कहीं अत्यधिक लाभ के लिए अप्राकृतिक तरीके से फलों- सब्जियों और अन्न का उत्पादन और आमजन द्वारा उसका सेवन करने का परिणाम है। मन की चंचलता। अस्थिरता। असंतुष्टी की भावना। संवेदनहीनता।अत्यधिक की चाहना।महत्वकांक्षाओं की अंधी दौड़ में शामिल होकर दौड़े जा रहे हैं।सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, एक परिवार नहीं आस-पास का … Read more

व्यष्टि से समष्टि की ओर

mahima shree

    ये दौर भी बीत जाएगा। परिवर्तन प्रकृति का मूल स्वभाव है। यहाँ कुछ भी स्थाई नहीं है । मनुष्य अपने आविष्कारों के दंभ में सोचता है कि उसने प्रकृति पर विजय पा ली है। जो वह चाहेगा सब एक दिन पा सकता है।किंतु प्रकृति ने कोरोना महामारी के बहाने से एक बार फिर मनुष्य को सकल ब्रहमांड में उसकी कमजोर स्तिथि से पुन: परिचय करवा दिया। झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद। खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद। कबीर कहते हैं कि अरे जीव ! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है। कोरोना ने एक इंसान को नहीं पूरी दुनिया को अपने सामने घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। तेज रफ्तार से दौड़ती दुनिया थम गई है। कोरोना ने जैसे आ के कह दिया… स्टैचू । जहाँ हो वही बने रहो। बहुत भाग लिए। ठहरो जरा! मौका मिला है तो सोचो। क्या खोया क्या पाया अब तक! अपनों के बीच रहो। जानो उन्हें। कितना जानते हो उन्हें जिनके लिए इतनी मेहनत-मशक्कत कर रहे थे। अपने आपको जानो। जो कर रहे थे अब तक। क्या वह तरीका सही था। क्या वाकई वही करना था। कब अपने बुर्जुगों के बीच बैठे थे। कितने वर्ष पहले उनके र्थर्थराते हाथों को अपने हाथ में लेकर कहा था आप कैसे हैं? हम सब आपके पास हैं। कबीर दास कहते हैं- दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय । जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय। जब जीवन में दुख आता है, कठिनाईयां आती हैं। ।तभी अपनों की याद आती हैँ।तभी उस परम सत्ता की याद आती है।जिसने इस अखिल विश्व को रचा है। व्यष्टि से समष्टि की ओर कोरोना काल ने बहुत बुरे दिन दिखाये हैं।अभी तक वैक्सीन नहीं बन पाया। अमेरीका जैसा  शक्ति-संपन्न देश भी अपने नागरिकों के लिए कुछ नहीं कर पाया।लाखों लोग मारे जा चुके हैं। आंकड़े दहला देने वाले हैं।हमारे देश में भी यह तेजी से फैल रहा है।जो डॉक्टर्स कोरोना मरीजों के ईलाज में लगे हुए हैं उनकी जान पर खतरा लगातार बना हुआ है।शुरुआत में कईयों की जान गई।   कल तक “बी पॉजिटिव “जब डॉक्टर किसी मरीज को हौसला देने के लिए कहते तो एक शुभकामना मंत्र की तरह वह उच्चारित होता था। आज वही शब्द किसी व्यक्ति को जब डॉक्टर कहते हैं तो उसे अपनी मौत सामने दिखने लगती होगी। वहीं जांच की रिपोर्ट आने के बाद “आपकी रिपोर्ट निगेटिव है” कहे जाने पर “जान बची लाखों पाए “की अनुभूति से भर जाता होगा। समय ने शब्दों के मायने बदल दिए।जीने के तरीके में न चाहते हुए कई बदलाव लाने पड़े।रहन-सहन, खान-पान के तरीकों में विशेष सावधानी रखने के प्रयास में कई  अच्छी आदतों का समावेश हो गया।कई बुरी आदतों ने धीरे से खुद ही किनारा कर लिया। रिश्तों में नई गर्माहट , नई ऊर्जा भर दी है। दुख ने सबको करीब कर दिया। आइसोलेशन के इस फेज ने सबको सबके करीब कर दिया।अलग होते हुए भी सुख भी साझा। दुख भी साझा।हमारी सांझी संस्कृति रही हैं विविधताओं में भी हमने सांझापन खोज लिया था। आधुनिक जीवन शैली ने हमें व्यक्तिनिष्ठ बना दिया था। हम आपसी संबंधों में ऑफिस में, समाज में हर वक्त एक अजीब तरह की मानसिक असुरक्षा , भविष्य की चिंता में घिरे रहते थे। संबंधों में एक अदृश्य खिंचाव रहता था। ऑफिस हो या घर संशकित दृष्टि से तौलने , खुद को ज्यादा काबिल की समझने की ग्रंथि से लैस , संबंधों की गरिमा खो बैठे थे। अपना सुख प्यारा, अपना दुख सबसे बड़ा दुख की सोच हमें कितना छोटा कर देता है। ये समझ आ रहा है। हर इंसान किसी न किसी रोग या समस्या से दुखी है परेशान है। पर जीवन तो है उसके पास। अचानक सामने खड़ी मौत से तो उसका सामना नहीं हो रहा। जो अपनों के स्नेहिल छांव में समय बीता रहे हैं। वे भाग्यशाली हैं। भले ही किसी पीड़ा से गुजर रहे हों । पर वह अकेला तो नहीं है न। कितने लोग अकेले फंसे है। अवसाद , निराशा से जुझ रहे हैं। कामगार वर्ग भय से सड़को पर निकल आया है। घर से दूर और रोजगार नहीं मिलने की आशंका उन्हें मौत के मुंह मे ढकेल दिया है। उन्हें सही तरीके से समझाने और सुरक्षा देने की कोशिश में सरकार और समाजसेवी लगे हुए हैं। इस समय सबको सबका सानिध्य चाहिए। लोग इस तरह सोचने लगे हैं। सोच बदली है और ये सोच साकारात्मकता की ओर ले जा रही है। सहायिका/सहायक का जीवन भी जीवन हैं।अपने साथ-साथ उनकी जिंदगियां भी कीमती हैं।हर घर में ये सोच आई है या लाई गई जैसे भी। समाज में समानता व मानवीय दृष्टिकोण में वृद्धि हुई है। मौत के भय ने सबको एक ही प्लेटफार्म पर ला दिया है। लेकिन यह भी सच है कि लगातार लोगों की नौकरियां जा रही हैं। रोज ही किसी न किसी फर्म में छंटनी हो रही है । या पूरा फर्म ही बंद किया जा रहा है।हजारों लोगों के जीवन में जीविका का आसन्न संकट आ खड़ा हुआ है। बिजनेस ठप्प पड़ा हुआ है। मॉल बंद होने के कगार पर हैं।ई-बिजनेस थोड़ा संभला है।भारत विश्व के साथ मिलकर अपनी जीजिविषा के सहारे इस संकटकाल को पार कर जाने का प्रयत्न कर रहा है। आज पूरी विश्व की सोच व्यष्टि से समष्टि की ओर उन्मुख हो रही है। उत्तरोत्तर ये सोच और बढ़े । यही मंगलकामना। महिमा श्री   परिचय:- शिक्षा:- स्नातकोत्तर- पत्रकारिता व जनसंचार (मा.च.रा.प.ज.वि.),  एम.सी.ए.(इग्नु) -सीनियर फेलोशिप(2019-2020)मिनिस्ट्ररी ऑफ कल्चर,नई दिल्ली -स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता -एकल काव्य संकलन “अकुलाहटें मेरे मन की”, अंजुमन प्रकाशन 2015, -कई साझा संकलनों में कविताएं व लघुकथा प्रकाशित -देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और ब्लाग्स में रचनाएं प्रकाशित मेल:- mahima.rani@gmail.com Blogs:www.mahimashree.blogspots.com      

जन्म-मरण की पीड़ा से मुक्त हो जाने का मार्ग है- विपश्यना

हम सब अपनी पहचान  इस स्थूल शरीर से करते हैं | जब की इसके अन्दर अनित्य अविनाशी आत्मा का निवास होता है | इस आत्म स्वरुप को जानना ही आध्यात्म का मुख्य उद्देश्य है | जिसके बाद सारे बंधन ढीले पड़ जाते हैं | इसको जानने का एक तरीका ध्यान या meditation भी है | ये ध्यान कई तरीके से किया जा सकता है | विपश्यना भी उसी का एक तरीका है | जो केवल साक्षी भाव से देखना समझना है | यहीं सेखुलते हैं बंधन और होता है आत्मविस्तार | कैसे ?आइये जानते हैं… जन्म-मरण की पीड़ा से मुक्त हो जाने का मार्ग है- विपश्यना राजकुमार सिद्धार्थ गौतम का बुद्ध हो जाने की यात्रा बिहार आकर ही पूरी हुई। मात्र 35 वर्ष के ही वय में उन्हें सत्य का ज्ञान हो गया। जिसे उन्होंने धम्म कहा।धम्म यानि जिसे धारण करते हैं। धारयति- इति धर्म:!। अर्थात जो धारण करने योग्य है। वही धर्म है। धर्म (संस्कृत) और धम्म (पालि)।  गौतम बुद्ध ने इसके लिए आष्टांगिक मार्ग दिखाया- सम्यक दृष्टि : चार आर्य सत्यों को मानना, जीव हिंसा नहीं करना, चोरी नहीं करना, व्यभिचार नहीं करना( ये शारीरिक सदाचरण हैं। ) सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी , सम्यक कर्म, सम्यक आजीविका , सम्यक व्यायाम , सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि। सदाचरण को ही उन्होंने धम्म कहा। जो आज के धर्म से बिल्कुल भिन्न है।यहाँ आत्मा-परमात्मा, आस्तिक-नास्तिक, किसी प्रकार की आकृति, मंत्र, रंग किसी भी तरह की कल्पना का सहारा नहीं। किस भी प्रकार की बहस बाजी नहीं है। कोई बौद्दिक –विलास नहीं।किसी प्रकार की ईश्वरीय कल्पना नहीं, कोई कर्मकांड नहीं। सिर्फ अपनी सांसो और शरीर के प्रत्येक अंग में उठनेवाली संवेगों को देखना है।   धम्म हमें बर्हिमुखी से अंतर्मुखी होना सिखाता है। गौतम बुद्ध को बुद्दत्व या बोधि की प्राप्ति के पश्चात उन्हें संज्ञान हुआ कि सत्यमार्ग को विश्वजन तक ले जाना होगा। ताकि हर मनुष्य अपने दुख-संताप की सच्चाई से अवगत हो और इस जनम-मरण की पीड़ा से उठकर जीवन को भोगे नहीं स्वीकार कर इनसे तटस्थ रहने की कला को जाने। और उस विशेष प्रकार की दृष्टि को उन्होंने विपश्यना(संस्कृत), विपस्सना(पालि)  साधना कहा। क्या है विपश्यना विपश्यना का अर्थ है विशेष प्रकार से देखना। विपश्यना जीने का अभ्यास है इसके लिए जरुरी नहीं की कोई भिक्षु/ भिक्षुणी का जीवन चुने। गृहस्थ भी भली-भाती इसका पालन कर अपने सुख-दुख को सम्यक दृष्टि से देखने का अभ्यास करते रहें । और इसे किसी भी सम्प्रदाय, जाति व देश का व्यक्ति सीख सकता है। विपश्यना हमें सम्यक दृष्टि, सम्यक वाणी के साथ सत्याचारण के लिए प्रेरित करता है। विपश्यना में सिखाया जाता है – सब अनित्य है। जो भी अंदर घट रहा है- क्रोध, रोग, शोक, राग, द्वेष की अनुभूति उनमें बहने की बजाए उन्हें दृष्टा की तरह देखो। सुख की अनुभूति है –वह भी जाएगा। दुख है वह भी टिकेगा नहीं।सब अनित्य है। कुछ भी नित्य नहीं।  उन्हें बस अपने भीतर सांसो के आने-जाने की क्रिया के साथ घटते हुए देखते रहो।   बर्मा से हुई वापसी कहा जाता है कि कई वर्षो के कठिन तप के बाद भी सिद्धार्थ गौतम को सत्य की प्राप्ति नहीं हो रही थी। फिर उन्होंने विपश्यना के द्वारा सत्य के मार्ग को ढूंढ निकाला। ऐसा नहीं था कि विपश्यना की खोज सिद्धार्थ गौतम ने किया था। इस विशेष प्रकार की साधना या कहें दृष्टि के बारे में  गीता, वेदो और उपनिषदों में भी कहा गया है।पर इसे जन-जन तक गौतम बुद्ध ने ही पहुँचाया।और इसके लिए उन्होंने संस्कृत नहीं जन की भाषा मागधी जिसे अब हम पालि भाषा कहते हैं  में दिया। बर्मा ने संरक्षित किया मूल धम्म माना जाता है कि बुद्ध के परिनिर्वाण के 500 वर्षो के बाद ही भारतवासी अपने असली धम्म/  धर्म को भूल बैठे। और कई प्रकार के अंधविश्वासों और कर्मकांडों में लिप्त हो कर , सम्प्रदायों में बंटकर सही जीवन दृष्टि को खो बैठे। किंतु बौद्ध भिक्षुओं द्वारा बर्मा, थाईलैंड आदि देशों में विशुद्द धर्म/ धम्म के प्रति सर्मपित आचार्यों ने इसे शुद्द  रुप में संरक्षित रखा।और पीढ़ी दर पीढ़ी अपने शिष्यों को हस्तांरित करते गए। सयाजी उबा खिन बर्मा के अचार्य सयाजी उबा खिन  आजीवन लोगों को शुद्ध धम्म से परिचय कराते रहे। उन्हें इस बात की हमेशा चिंता रही कि जिस शुद्ध धम्म को हमें भारत ने दिया आज वही भूला बैठा है । कैसे पुन: भारत में इसे पहुँचाया जाए। जब बर्मा के ही प्रतिष्ठित हिंदू व्यवसायी श्री सत्यनारायण गोयनका अपने शारिरिक कष्ट को दूर करने उनके पास गये। और जब उन्हें विपश्यना से लाभ हुआ। तो उनके शिष्य बन गए। करीब पंद्रह वर्षों की साधना करते हुए, वे अपने गुरु की पीड़ा को आत्मसात किया। औऱ संकल्प लिया गुरु दक्षिणा मेरी यही होगी कि भारत  जा कर विपश्यना से सबको फिर से परिचय करवाउं। सत्यनारायण गोयनका ने नासिक के पास इगतपूरी(1976) में विपश्यना धाम की स्थापना की।उसके बाद देश-विदेश में इस तरह के कई विपश्यना केंद्र खोले। जहाँ निशुल्क 10 दिवसीय विपश्यना साधना का प्रशिक्षण दिया जाता है। इस दौरान सन 1983 किरण बेदी के कार्यकाल में तिहाड़ जेल में खुंखार कैदियों को 10 दिवसीय विपश्यना साधना सिखाई। उसके बाद लगातार कई शिविर लगाकर कैदियों की जीवन दृष्टि ही बदल दी।इस सफलता से प्रभावित होकर सरकार ने तिहाड़ जेल में स्थाई विपश्यना शिविर की स्थापना करने की इजाजत दे दी । 10 दिवसीय विपश्यना प्रशिक्षण शिविर हर महीने भारत और दुनिया भर के विपश्यना धाम केंद्रो में 10 दिन के दो निशुल्क शिविर लगते हैं। रहना-खाना सभी इसमें शामिल है। जिनमें करीब 70 के आस-पास प्रशिक्षु ऑनलाइन रेजिस्ट्रेशन द्वारा लिए जाते हैं। जिनमें हर आयु , वर्ग के स्त्री-पुरुष शामिल होते हैं। शुरुआत में यह शिविर सवा महिने का होता था। किंतु प्रशिक्षुओं को इतने दिन अपनी शिक्षा, व्यवसाय, गृहस्थी और नौकरी छोड़ कर शिविर में रहना मुश्किल होता था। आर्य मौन साधना आर्य मौन यानि शरीर, वाणी एवं मन का मौन।करीब दस दिनों तक 10 घंटे की मौन साधना चलती है। इस दौरान और उसके बाद भी प्रशिक्षुओं /साधकों आपस में आँखों से भी कुछ इशारा नहीं कर सकते। अगर कोई परेशानी हो रही है या कुछ जानना है तो सहायक अचार्य से इस बारें निर्धारित समय पर चर्चा कर सकते हैं। इन दस … Read more