निगोड़ी

स्मृतियाँ हमें तोडती भी हैं हमें जोडती भी हैं | ये हमारी जीवन यात्रा की एक धरोहर है | हम इन्हें कभी यादों के गुद्स्तों की तरह सहेज कर रख लेना चाहते हैं तो कभी सीखे गए पाठ की तरह |स्मृति का जाना एक दुखद घटना है | पर क्या कभी कोई व्यक्ति स्वयं ही स्मृति लोप चुन लेता है | ऐसा क्यों होता है अत्यधिक तनाव के कारण उपजी एक मानसिक अस्वस्थता या फिर जीवन के किसी से भागने का एक मनोवैज्ञानिक उपक्रम | आखिर क्या था रूपक्रांति  की जिंदगी में जो वो इसका शिकार हुई |जानते हैं दीपक शर्मा जी की एक सशक्त कहानी से … निगोड़ी  रूपकान्ति से मेरी भेंट सन् १९७० में हुई थी| उसके पचासवें साल में| उन दिनों मैं मानवीय मनोविकृतियों परअपनेशोध-ग्रन्थ की सामग्री तैयार कर रही थी और रूपकान्ति का मुझसे परिचय ‘एक्यूट स्ट्रेस डिसऑर्डर’, अतिपाती तनाव से जन्मे स्मृति-लोप कीरोगिणी के रूप में कराया गया था| मेरे ही कस्बापुर के एक निजी अस्पताल के मनोरोग चिकित्सा विभाग में| अस्पताल उसे उसके पिता, सेठ सुमेरनाथ, लाए थे| उसकी स्मृति लौटा लाने के वास्ते| स्मृति केबाहर वह स्वेच्छा सेनिकलीथी| शीतलताईकी खोज में| यह मैंने उसके संग हुई अपनी मैत्री के अन्तर्गत बाद में जाना था| क्योंकि याद उसे सब था| स्मृति के भीतर निरन्तर चिनग रही थी उस भट्टी की एक-एक चिनगारी, एक-एक अगिन गोला, जिसमें वह पिछले पाँच वर्षों से सुलगती रही थी, सुलग रही थी और जिस पर साझा लगाने में मैं सफल रही थी| (१) “किरणमयी को गर्भ ठहर गया है,” भट्टी को आग दिखायी थी उसके पति कुन्दनलाल ने| “कैसे? किससे?” वहहक-बकायी थी| किरणमयीरूपकान्तिकी बुआ की आठवीं बेटी थी जिसे दो माह की उसकी अवस्था में सेठ सुमेरनाथबेटी की गोद में धर गए थे, ‘अब तुम निस्संतान नहीं| इस कन्या की माँ हो| वैध उत्तराधिकारिणी|’ अपने दाम्पत्य के बारहवें वर्ष तक निस्संतान रही रूपकान्ति अपने विधुर पिता की इकलौती सन्तान थी और वह नहीं चाहते थे कुन्दनलाल अपने भांजों अथवा भतीजों में से किसी एक को गोद ले ले| “मुझी से| मुझे अपनी सन्तान चाहिए थी| अपने शुक्राणु की| अपने बीज-खाद की| जैविकी,” कुन्दनलालतनिक न झेंपा था| शुरू ही से निस्तेज रहा उनका वैवाहिक जीवन उस वर्ष तक आते-आते पूर्ण रूप से निष्क्रियता ग्रहण कर चुका था| “मगर किरणमयी से? जिसके बाप का दरजा पाए हो? जोअभी बच्ची है?” भट्टी में चूना भभका था| पति की मटरगश्ती व फरेब दिली से रूपकान्ति अनभिज्ञ तो नहीं ही रही थी किन्तु वह उसे किरणमयी की ओर ले जाएँगी, यह उसके सिर पर पत्थर रखने से भी भयंकर उत्क्रमण था| “वह न तो मेरी बेटी है और न ही बच्ची है| उसे पन्द्रहवां साल लग चुका है,” कुन्दनलाल हँसा था| “बाबूजी को यह समझाना,” पति की लबड़-घौं-घौं जब भी बढ़ने लगती रूपकान्ति उसका निपटान पिता ही के हाथ सौंप दिया करती थी| जोखिम उठाना उसकी प्रकृति में न था| “उन्हें बताना ज़रूरी है क्या?” कुन्दनलाल ससुर से भय खाता था| कारण, दामाद बनने से पहले वह इधर बस्तीपुर के उस सिनेमा घर का मात्र मैनेजर रहा था जिसके मालिक सेठ सुमेरनाथ थे| औरदामाद बनने की एवज़ में उस सिनेमाघर की जो सर्वसत्ता उसके पास पहुँच चुकी थी, उसे अब वह कतई, गंवाना नहीं चाहताथा| “उन्हें बताना ज़रूरी ही है,” रूपकान्ति ने दृढ़ता दिखायी थी, “किरणमयी उनकी भांजी है और उसकी ज़िम्मेदारी बुआ ने उन्हीं के कंधों पर लाद रखी है…..” “मगर एक विनती है तुमसे,” कुन्दनलाल एकाएक नरम पड़ गया था, “वह सन्तान तुम किरणमयी को जन लेने दोगी…..” “देखती हूँ बाबूजी क्या कहते हैं,” रूपकान्तिने जवाब में अपने कंधे उचका दिए थे| (२) “जीजी?” किरणमयी को रूपकान्ति ने अपने कमरे में बुलवाया था और उसने वहाँ पहुँचने में तनिक समय न गंवाया था| रूपकान्ति ने उस पर निगाह दौड़ायी थी| शायद पहली ही बार| गौर से| और बुरी तरह चौंक गयी थी| कुन्दनलाल ने सच ही कहा था, किरणमयी बच्ची नहीं रही थी| ऊँची कददार थी| साढ़े-पांच फुटिया| कुन्दनलाल से भी शायद दो-तीन इंच ज्यादा लम्बी| चेहरा भी उसका नया स्वरुप लिए था| उसकी आँखेंविशालतथा और चमकीली हो आयी थीं| नाकऔर नुकीली| गाल और भारी| होंठ और सुडौल तथा जबड़े अधिक सुगठित| सपाट रहे उसके धड़ में नयी गोलाइयां आन जुड़ी थीं जिनमें से एक उसकी गर्भावस्था को प्रत्यक्ष कर रही थी| “मेरे पास इधर आओ,” रूपकान्ति अपनी आरामकुर्सी पर बैठी रही थी| जानती थी पौने पांच फुट के ठिगने अपने कद तथा स्थूल अपने कूबड़ के साथ खड़ी हुई तो किरणमयी पर हावी होना आसान नहीं रहेगा| रूपकान्तिअभी किशोरी ही थी जब उसकी रीढ़ के कशेरूका विन्यास ने असामान्य वक्रता धारण कर ली थी| बेटी के उस घुमाव को खत्म करने के लिए सेठ सुमेरनाथ उसे कितने ही डॉक्टरों के पास ले जाते भी रहे थे| सभी ने उस उभार के एक्स-रे करवाए थे, उसका कौब एन्गल, उसका सैजिटल बैलेन्स मापाजोखा था| पीठ पर बन्धनी बंधवायी थी| व्यायाम सिखाए थे| दर्द कम करने की दवाएँ दिलवायी थींऔर सिर हिला दिए थे, ‘यह कष्ट और यह कूबड़ इनके साथ जीवन भर रहने वाला है…..’ “यह क्या है?” रूपकान्ति ने अपने निकटतम रहे किरणमयी के पेट के उभार पर अपना हाथ जा टिकाया था| “नहीं मालूम,” किरणमयी कांपने लगी थी| “काठ की भम्बो है तू?” रूपकान्ति भड़क ली थी, “तेरी आबरू बिगाड़ी गयी| तुझेइस जंजाल में फँसाया गया आयर तुझे कुछ मालूम नहीं?” “जीजा ने कहा आपको सब मालूम है| आप यही चाहती हैं,” किरणमयी कुन्दनलाल को ‘जीजा’ ही के नाम से पहचानती-पुकारती थी और रूपकान्ति को ‘जीजी’ के नाम से| रूपकान्ति ही के आग्रह पर| परायी बेटी से ‘माँ’ कहलाना रूपकान्ति को स्वीकार नहीं रहा था| “मुझसे आकर पूछी क्यों नहीं? मुझसे कुछ बतलायी क्यों नहीं?” रूपकान्ति गरजी थी| “बिन बुलाए आती तो आप हड़का नहीं देतीं?” किरणमयीडहकी थी| रूपकान्ति का ही आदेश था, उसके बुलाने पर ही किरणमयी उसके पास आएगी| वास्तव में वह शुरू ही से किरणमयी के प्रति उदासीन रही थी| पिता उसे जब रूपकान्ति के पास लाए भी थे तोउसने आपत्ति जतलायी थी, मुझेइस झमेले में मत फंसाइए| मगर पिता ने उसे समझाया था, घरमें एक सन्तान रखनी बहुत ज़रूरी है| तुम्हें इसके लिए कुछ भी करने की कोई ज़रुरत नहीं| मानकर चलना यह तुम्हारी गोशाला की … Read more