मैत्रेयी पुष्पा की कहानी “राय प्रवीण”
क्या इतिहास पलट कर आता है ? “हाँ” इतिहास आता है पलटकर एक अलग रूप में अलग तरीके से पर अक्सर हम उसको पहचान नहीं पाते | यहीं पर एक साहित्यकार की गहन दृष्टि जाती है | एक ही जमीन पर दो अलग-अलग काल-खंडों में चलती कथाएँ एकरूप हो जाती हैं | राय प्रवीण फिर आती है लौट कर, पर इस बार घुँघरुओं की तान और मृदंग की नाद की जगह होता है बाढ़ का हाहाकार | अकबर को अपने दोहे से परास्त कर देने वाली क्या परास्त कर पाई उस व्यवस्था को जो पीड़ितों को अनाज देने के बदले माँगती भी है बहुत कुछ | पाठकों की अतिप्रिय वरिष्ठ लेखिका आदरणीय मैत्रेयी पुष्पा जी की मार्मिक कहानी “राय प्रवीण” एक ऐसी ही कहानी है जो इतिहास और वर्तमान के बीच आवाजाही करती अंततः पाठक को झकझोर देती है | आइए पढ़ते हैं एक मार्मिक सशक्त कहानी .. राय प्रवीण गोविन्द गाइड को खोजना-ढूंढ़ना नहीं पड़ता। झांसी स्टेशन पर जब वातानुकूलित मेल-गाडि़यां रुकती हैं, या कि जब शताब्दी एक्सप्रेस आती है, वह गहरी पीली टी-शर्ट और सलेटी रंग की ढीली पैंट पहने, सिर के लंबे बालों को उंगलियों से कंघी-सी करता हुआ हाजिर मिलेगा। खास तौर पर शताब्दी आते ही उसकी देह में बिजली का-सा करंट दौड़ जाता है। बोगी नंबर 7 से एक्जीक्यूटिव क्लास तक आते-जाते भागमभाग मचाते हुए देख लो। कभी अंदर तो कभी बाहर, उतरा-चढ़ी में आतुरता से मुसाफिरों का जायजा लेता। सुनहरेे बालों वाले गोरे पर्यटकों को देखते ही उसके भीतर सुनहरा सूरज जगमगाने लगता है। अपनी बोली तुरंत बदल लेता है और जर्मन, फ्रेंच तथा इटैलियन भाषा में मुस्कराकर गर्मजोशी से अभिवादन करता है। छब्बीसवर्षीय गोविन्द की आंखों में अनोखी चमक रहती है। भले ही कद लंबा होने के कारण काठी दुबली सही। रंग तनिक सांवला, माथा ऊंचा और नाक छोटी। दांत सफेद, साफ। कुल मिलाकर पर्सनैलिटी निखारकर रहता है,धंधे की जरूरी शर्त। देशी पर्यटकों को वह तीर्थयात्री से ज्यादा कुछ नहीं मानता। वे ऐतिहासिक धरोहर को बेजायका चीज समझकर धार्मिक स्थानों की शरण में जाना पसंद करते हैं। उनके चलते गाइड को उसका मेहनताना देने की अपेक्षा महंत और पुजारियाें के चरणों में दक्षिणा चढ़ाना ज्यादा फायदे का सौदा है परलोक सुधारने का ठेका।—लेकिन गोविन्द ही कब परवाह करता है, विदेशियाें की जेब झाड़ना उसके लिए खासा आसान है। माईबाप, पालनहार, मेहनत और कला के कद्रदान विदेशी मेहमान! उसे ही क्या, सभी के प्यारे हैं विदेशी। तभी तो खजुराहो के ‘घुन गाइड’ उसका धंधा खोखला करने पर लगे रहते हैं। गोरे लोग देखे नहीं कि मक्खियों की तरह भिनभिनाने लगे। अंग्रेज बनकर ऐसे बोलेंगे ज्यों होंठों के बीच छिरिया की लेंड़ी दबी है। फ्ओरचा कुच नहीं सर! एकदम डर्टी, बोगस। जाड़ा में भी लू-लपट। गर्मी में फायर का गोला। रेनी सीजन में मड ही मड—टूरिस्ट लोग इल हो गया था डॉक्टर भी नहीं। नो मैडीसिन—। गोविन्द के कानों में गर्म सलाखें कोंचता रहता है कोई। —लेकिन उसे पछाड़ना आसान नहीं। साथ आए अनुवादक से आंख मारकर मिलीभगत कर लेता है (पैसा सबकी कमजोरी है)। पूरी बात मुसाफिरों तक नहीं जाने देता ट्रांसलेटर। गोविन्द होंठों तक आई मां-बहन की गालियों को जज्ब कर जाता है। अनुवादक का क्या, गालियों का ही रूपांतरण कर डाले और बदले में अधिक रकम की फरमाइश धर दे। बेईमानी के अपने पैंतरे हैं, जो धंधे के हिसाब से शिकंजा कसते हैं। गोरे समूह के साथ हो लेता है गोविन्द सर, ओरछा! मैम यू हैव हर्ड अबाउट राय प्रवीण? नहीं? राजा इंद्रमणि सिंह की प्रेमिका। ए स्टोरी ऑफ ट्रू लव। खजुराहो से पहले ही—बेतवा नदी के किनारे किला और राय प्रवीण का महल। लहरों पर नाचती है आज भी वह नर्तकी। बिलीव मी। पीठ और कंधों पर भारी वजन लटकाए हुए चलते पर्यटक स्त्री-पुरुष उसकी बात पर अचानक तवज्जो देते हैं, और वह मगन मन बोलता ही चला जाता है, मुगल पीरियड में बादशाह अकबर का दिल ले उड़ने वाली राय प्रवीण। गोविन्द यह बात अच्छी तरह जानता है कि ओरछा के मुकाबले खजुराहो की शान धरती से आसमान तक फैली हुई है। संभोगरत युगल मूर्तियों की कल्पना में उड़ती आई पर्यटकों की टोली ओरछा में क्या पाएगी? ले-देकर एक टूटा-फूटा मामूली-सा किला, सादा रूप राम राजा का मंदिर और ऋतुओं के हिसाब से भरती-सूखती बेतवा। एकदम प्रकृति का अनुचारी कस्बा। रुकने-ठहरने के नाम पर सबसे बड़ा माना जाने वाला होटल शीशमहल नाम बड़े और दर्शन थोड़े। कई बार जब टूरिस्ट उसके हाथ से फिसल जाते हैं तो वह ऐसी ही बातें सोचकर दुखी होता है। सरकार को गरियाता है और पर्यटक के देखते ही फिर चालू किले में आज भी राय प्रवीण की बीना गूंजती है सर! जुबान की गति के हिसाब से हाथ नचाता, लोगों से कदमताल मिलाता हुआ अपने ग्राहकों पर बातों के लच्छे फेंकता चलता है, ज्यों हारना नहीं चाहता हो खजुराहो के आधुनिक वैभव से। अपने प्रेमी को पुकारने वाली बेचैन प्रेमिका, अप्सरा रम्भा! एकदम आपके माफिक मैम! उसने साफ झूठ बोल दिया। विदेशी लड़की गोरी तो थी मगर खासी बदशक्ल। उसने एक इटैलियन लड़की को इसी तरह बहकाया था। गोविन्द के सफेद झूठ को सच मानते हुए वह खुद को राय प्रवीण समझने लगी थी और पूरे-पूरे दिन राय प्रवीण के महल के एकांत में बैठी रहती थी। वह किले के नीचे बने ढाबों से तवे की रोटी और आलू की रसीली सब्जी लाया करता था। बोलता था राय प्रवीण यही भोजन किया करती थी। कैसे न बोलता? इस बस्ती में गोश्त-मछली कहां? अच्छा पैसा ऐंठा था उस विदेशिनी से क्योंकि वह पैसे वाली थी और गोविन्द की उन दिनों फाकामस्ती चलती थी। राय प्रवीण जवान, खूबसूरत और नाचने-गाने वाली वेश्या! विदेशी लोग भले ही खुले जीवन के आदी हों, भारतीय स्त्री की आजादी की यह शैली उनके लिए जादू की तरह दिलचस्प और अद्भुत थी। यदि ऐसा न होता तो गोविन्द के ओरछा को कौन देखता? गोविन्द बताता ये जीवित कथाएं हैं सर! किले में गूंजती हुई आवाजें आज भी सुनाई देती हैं। गोरे लोग भारी सीनों में सांस रोककर आंखें फैलाने लगते हैं, मैले दांतों से डरी हुई-सी मुस्कराहट झरती है, तब गोविन्द को लगता है कि उसने टूरिस्ट पर अपना जाल डाल दिया है। अब यह खजुराहो जाने की जल्दी में नहीं है। वह पर्यटकों के आगे-आगे चलता है छाती फुलाकर। किले को गर्व से देखता हुआ। जिस दिन वह ओरछा में पर्यटक बटोरकर खड़े कर देता है, खुद को राजा इंद्रमणि सिंह से कम नहीं समझता और यदि वह टूरिस्टों को नहीं ला पाता, राय प्रवीण … Read more