शिलाएं मुस्काती हैं-प्रेम के भोजपत्र पर लिखीं यामिनी नयन की कविताएँ
नारी की काया में प्रवेश कर कोई भी रचनाकार स्त्री की पीड़ा को उतनी साफगोई से व्यक्त नहीं कर सकता जितनी वाक् निपुणता से एक महिला सृजनधर्मी | फिर भी यह आवश्यक है कि यह पीड़ा उसकी झेली या भोगी हुई हो| आत्मसात की हो संत्रस्त महिला की त्रासदी | आजकल समय के शिलाखंड पर प्रेम की अभीप्सा से लेकर प्रेम में छली गई किशोरियों, परित्यक्ताओं, भुलाई हुई स्त्रियों या खुरदरे दाम्पत्य जीवन पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है |इस में भोगा और ओढ़ा हुआ दोनों हैं |विमर्शवादियों का हल्ला -गुल्ला भी | यामिनी नयन गुप्ता हिंदी कविता की ऐसी स्थापित साहित्यधर्मी है जो महिलाओं के मन की उथल -पुथल,बदलती सामाजिक जीवन शैली से पैदा हुई बेचैनी और नए समीकरणों को सशक्त स्वर दे रही हैं |उनके स्वर में छिछली भावुकता नहीं, महिलाओं के हर्ष –विषाद की गहरी अनुभूति है| साक्षी हैं ‘शिलाएँ मुस्काती हैं’ नामक संकलन की बासठ कविताएँ | शिलाएं मुस्काती हैं-प्रेम के भोजपत्र पर लिखीं यामिनी नयन की कविताएँ शिलाएं मुस्काती हैं की कविताओं में चाहे सामाजिक सरोकार हों या जीवन की निजता के प्रश्न ; इनमें जुड़ा है ”प्रेम ,नेह ,और देह का त्रिकोण”|”व्याकुल मन का संगीत” और प्रेम में पड़े होने का एहसास |”प्रेम ,नेह और देह” की इस यात्रा में कभी देह पिछड़ जाती है ‘अदेह’ को जगह देने हेतु, तो कहीं सशक्त साम्राज्ञी बन बैठती है (अब मैंने जाना -क्यों तुम्हारी हर आहट पर मन हो जाता है सप्तरंग\मैं लौट जाना चाहती हूँ अपनी पुरानी दुनिया में देह से परे —बार बार तुम्हारा आकर कह देना\यूँ ही -\मन की बात \बेकाबू जज्बात ,\मेरे शब्दोँ में जो खुशबू है \तुम्हारी अतृप्त बाँहोँ की गंध है)| कहाँ देह से परे की पुरानी दुनिया ,कहाँ ‘अतृप्त बाँहोँ की गंध’ | हर मंजर बदल गया| छा गई प्रेम की खुमारी — (तुम संग एक संवाद के बाद \पृष्ठों पर उभरने लगती हैं \सकारात्मक कविताएँ \निखरने लगते हैं उदासी के घने साये \छा जाता है स्याह जीवन में\इंद्रधनुषी फाग)| प्रेम में डूबी स्त्री को प्रेम के अतिरिक्त और कुछ दीखता ही नहीं | वह प्रेमास्पद से नहीं, उसके प्रेम से प्रेम करती है (मुझे तुम से नहीं \तुम्हारे प्रेम से प्रेम है \तुम खुद को -प्रेम से नहीं कर पाते हो अलग \और अर्जुन के लक्ष्य सदृश्य \मुझे दीखता है बस प्रेम )| स्त्री ”हर काल ,हर उमर में’ बनी रहना चाहती है प्रेयसी | वैवाहिक जीवन उसके लिए विडंबना है ,जिसमें हैं ”गृहस्थी की उलझने\पौरुष दम्भ से जूझती पति की लालसाएँ–जबकि ये चाहती हैं ”कि बची रहे जीने की ख्वाइशों की जगह \यांत्रिक जीवन से परे \बनी रहे नींदों में ख्वाबोँ की जगह ‘| नारी विमर्शवादी अनामिका कहती हैं —‘बच्चे उखाड़ते हैं/ डाक टिकट/ पुराने लिफाफों से जैसे-/ वैसे ही आहिस्ता-आहिस्ता/ कौशल से मैं खुद को/ हर बार करती हूँ तुमसे अलग”! अनामिका जी भूल गईं कि प्रेम संबंधों को जोड़ता है,उखड़ता नहीं | खटास से भरे होते हैं प्रेम विहीन सम्बन्ध | पर समय बदल रहा है|अलग कर लेना सरल हो चुका है | सुलभ हैं ‘‘मनचाहे साथी” जिनकी ” प्रेमिकाएँ \कभी बूढ़ी न हुईं \साल दर साल बीतते \वर्षों बाद भी रहीं प्रेमी के दिल में \स्मृति में कमसिन, कमनीय\उस उम्र की तस्वीर बन कर \महकती रहेंगी वो स्त्रियां \किताबों में रखे सुर्ख गुलाब की तरह ”| सीधी बात है विवहिता स्त्री की उलझनों से मुक्त, कमनीय जीवन बिताया जाय | फिर परिवार का क्या होगा?स्त्री पुरुष का मिलन नैसर्गिक है-कुछ नैसर्गिक आवश्यक्ताओं की पूर्ती के लिए | ‘अतृप्त बाँहोँ की गंध’ से कहीं अधिक गंधमयी सुगन्ध से प्लावित जीवन| डॉ. पद्मजा शर्मा को दिए एक साक्षात्कार में प्रसिद्ध कथाकार साहित्यभूषण सूर्यबाला ने कहा– ”देह पर आकर स्त्री मुक्ति का सपना टूट जाता है और एवज में बाजार की गुलामी मिलती है, स्त्री को | पुरुष से मुक्ति की कामना पुरुष वर्चस्वी बाजार की दासता से आ जुड़ती है|स्वयं को वस्तु (कमोडिटी )बनाने के विरोध को लेकर चलने वाली स्त्री आज स्वयं अपने शरीर की सबसे अनमोल पूँजी को वस्तु (कमोडिटी )बना कर बाजार के हवाले कर रही है”| यामिनी का कवि वस्तु या कमोडिटी के जंजाल से बचा कर प्रेम की शुचिता को बनाए रखना चाहता है|यद्यपि वह चूकता नहीं प्रश्न उठाने से — ‘‘मेरी छवि ,मेरे बिम्ब और संकेतों में \गर तुम बांच नहीं सकते प्रेम \तो कैसा है तुम्हारा प्रेम \और कैसा समर्पण \रास नहीं आ रहा है मुझे\तुम्हारा होकर भी ,न होने का भाव” | एक प्रश्न और –पत्नी बड़ी या प्रेमिका? |विमर्शवादी मंतव्य है कि पत्नियाँ कभी प्रेमिका नहीं बन पातीं| कंचन कुमारी कहती हैं ‘’तुम्हारी दुनियाँ में पत्नियाँ प्रेमिकाएँ नहीं होती।पत्नियाँ नहीं पहुँचती चरमसुख तक \यह हक है सिर्फ प्रेमिकाओं का\पत्नियाँ डरती है तुम्हारे ठुकराने से,\प्रेमिकाएँ नहीं डरा करती\, वहाँ होता है विकल्प \सदैव किसी और साथी का.. अर्थात सब कुछ अस्थायी है| एक देह का चरमसुख नहीं दे पाया, तो दूसरा सही ,दूसरा नहीं तो तीसरा| प्रेम न हुआ तीहर है,जब चाही बदल ली | फिर यह कहना व्यर्थ है कि प्रेम में पड़ी स्त्री के मन में, दिल की गहराई में,उनींदी आँखोँ में हर पल हर क्षण प्रेमी की सुखद छुअन के एहसास भरे होते हैं | क्या जरूरत थी कबीर को यह कहने की ”प्रेम न बाडी ऊपजे , प्रेम न हाट बिकाई ,राजा परजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाई” | शायद आयातित आधुनिकता और बाजारी संस्कृति में बुढ़िया गए हैं कबीर | कोरोना संक्रमण से हाल ही में दिवंगत हुए जाने-माने साहित्यकार प्रभु जोशी ने अपने अंतिम लेख में कहा कि ” मेरा शरीर मेरा’’ जैसा नारा” (स्लोगन) अश्लील साहित्य के व्यवसायियों की कानूनी लड़ाई लड़ने वाले वकीलों ने दिया था। उसे हमारे साहित्यिक बिरादरी में राजेन्द्र यादव ने उठा लिया और लेखिकाओं की एक बिरादरी ने अपना आप्त वाक्य बना लिया’’। विमर्शवादी मंतव्य को स्पष्ट करते हुए कवि की कहन हैं कि पत्नियाँ के लिए ”मन चाहे स्पर्श ,आलिंगन \चरम उत्कर्ष के वह पल \ सदा रहे कल्पना में ही\कभी उतर नहीं पाते वास्तविकता के धरातल पर”| देहातीत संबंधों की बात सिमट कर रह जाती है चरमसुख और प्रणयी की मुलायम छुअन में | विमर्शवादियों की ऐसी बातें कवि ने बहुत ही संयत और शालीनता के साथ स्पष्ट की … Read more