अपेक्षाओं के बियाबान-रिश्तों कि उलझने सुलझाती कहानियाँ

अपेक्षाओं के बियाबान

    डॉ. निधि अग्रवाल ने अपने अपने पहले कहानी संग्रह “अपेक्षाओं के बियाबान” से साहित्य  के क्षेत्र में एक जोरदार और महत्वपूर्ण दस्तक दी है | उनके कथानक नए हैं, प्रस्तुतीकरण और शिल्प प्रभावशाली है और सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि ये कहानियाँ हमारे मन के उस हिस्से पर सीधे दस्तक देती हैं जो हमारे रिश्तों से जुड़ा है | जिन्हें हम सहेजना चाहते हैं बनाए रखना चाहते हैं पर कई बार उन्हें छोड़ भी देना पड़ता है | और तो और कभी- कभी किसी अच्छे रिश्ते की कल्पना भी हमारे जीने कि वजह बन जाती है | महत्वपूर्ण बात ये है कि लेखिका रिश्तों  की गहन पड़ताल करती हैं और सूत्र निकाल लाती हैं| इस संग्रह कि कहानियाँ  ….हमारे आपके रिश्तों  की कहानियाँ है पर उनके नीचे गहरे.. बहुत गहरे  एक दर्शन चल रहा है | जैसे किसी गहरे समुद्र में किसी सीप के अंदर कोई मोती छिपा हुआ है .. गोता लगाने पर आनंद तो बढ़ जाएगा, रिश्तों के कई पहलू समझ में आएंगे |  अगर आप युवा है तो अपने कई उनसुलझे रिश्तों के उत्तर भी मिलेंगे |   कवर पर लिखे डॉ. निधि के शब्द उनकी संवेदनशीलता और  भावनाओं पर पकड़ को दर्शाते हैं..   “दुखों का वर्गीकरण नहीं किया जा सकता| किसान फसल लुटने पर रोता है |प्रेमी विश्वास खो देने पर |दुख की तीव्रता नापने का कोई यंत्र उपलबद्ध हो तो रीडिंग दोनों की एक दिखाएगा | किसान की आत्महत्या और और प्रेमी की आत्महत्या पर समाज कि प्रतिक्रियाएँ भले ही भिन्न हों, पर जीवन और मृत्यु के बीच किसी एक को चुनने कि छटपटाहट एक जैसी होती है| पीछे छोड़ दिए गए अपनों के आंसुओं का रंग भी एक समान होता है|” अपेक्षाओं के बियाबान-रिश्तों कि उलझने सुलझाती कहानियाँ संग्रह की पहली कहानी “अपेक्षाओं के बियाबान”जिसके नाम पर संग्रह है, पत्र द्वारा संवाद की शैली में लिखी गई है | यह संवाद पाखी और उसके पिता तुल्य  दादा के बीच है | संवाद के जरिए सुखी दाम्पत्य जीवन को समझने की कोशिश की गई है | एक तरफ दादा हैं जो अपनी कोमा मेंगई  पत्नी से भी प्रेम करते हैं, संवाद करते हैं | शब्दों की दरकार नहीं है उन्हें, क्योंकि  उन्होंने सदा एक दूसरे के मौन को सुना है | वहीं पाखी है जो अपने पति से संवाद के लिए तरसती है, उसका पति जिंदगी की दौड़ में आगे -आगे भाग रहा है और वो अपेक्षाओं के बियाबान में | अपेक्षाएँ जो  पूरी नहीं होती और उसे अवसाद में घेर कर अस्पताल  तक पहुंचा देती हैं | एक छटपटाहट है, बेचैनी है .. जैसे आगे भागते हुए साथी से पीछे और पीछे छूटती जा रही है .. कोई गलत नहीं है, दोनों की प्राथमिकताएँ, वो भी अपनी ही गृहस्थी  के लिए टकरा रही है |क्या है कोई इसका हल?   “दाम्पत्य जल में घुली शक्कर है .. पर मिठास विद्धमान होती है| पर बिना चखे अनुभूति कैसे हो?   चखना जरूरी है|इसके लिए एक दूसरे को दिया जाने वाला समय जरूरी है | भागने और रुकने का संतुलन ..   “यमुना बैक की मेट्रो”  एक अद्भुत कहानी है | हम भारतीयों पर आरोप रहता है कि हम घूरते बहुत हैं| कभी आपने खुद भी महसूस किया होगा कि कहीं पार्क में, पब्लिक प्लेस पर या फिर मेट्रो में ही हम लोगों को देखकर उनके बारे में, उनकी जिंदगी के बारे में यूं ही ख्याल लगाते हैं कि कैसे है वो ..इसे अमूमन हम लोग टाइम पास का नाम देते हैं | इसी टाइम पास की थीम पर निधि एक बेहतरीन कहानी रचती हैं | जहाँ  वो पात्रों के अंतर्मन में झाँकती हैं, किसी मनोवैज्ञानिक की तरह उनके मन की परते छीलती चलती है| महज आब्ज़र्वैशन के आधार पर लिखी गई ये कहानी पाठक को  संवेदना के उच्च स्तर तक ले जाती है | कहानी कहीं भी लाउड नहीं होती, कुछ भी कहती नहीं पर पाठक की आँखें भिगो देती है |   जैसे एक टीचर है जो कौशांबी से चढ़ती है| हमेशा मेट्रो में फल खाती है | शायद काम की जल्दी में घर में समय नहीं मिलता | फिर भी चेहरे पर स्थायी थकान है | एक साँवली सी लड़की जो कभी मुसकुराती नहीं | पिछले दो महीनों में बस एक बार उसे किसी मेसेज का रिप्लाय करते हुए मुसकुराते देखा है| तनिष्क में काम करने वाली लड़की जो कभी जेवर खरीद नहीं पाती ..अनेकों पात्र, चढ़ते उतरते .. अनजान अजनबी, जिनके दुख हमें छू जा हैं | यही संवेदनशीलता तो हमें मानव बनाती है|  तभी तो ऑबसर्वर सलाह (मन में) देता चलता है | एक एक सलाह जीवन का एक सूत्र है |जैसे ..   “उतना ही भागों कि उम्र बीतने पर अपने पैरों पर चलने कि शकी बनी रहे| उम्र बढ़ने के साथ चश्मा लगाने पर भी कोई कंधा समीप नजर नहीं आता”   “अभी पंखों को बाँधें रखने पर भी पंखों को समय के साथ बेदम हो ही जाना है | वो अनंत आकाश की उन्मुक्त उड़ान से विमुख क्यों रहे”   “फैटम लिम्ब”एक मेडिकल टर्म है, जिसमें पैर/हाथ या कोई हिस्सा  काट देने के बाद भी कई बार उस हिस्से में दर्द होता है जो अब नहीं है | ये एक मनोवैज्ञानिक समस्या है| कहानी उसके साथ रिश्तों में साम्य  बनाते हुए उन सभी रिश्तों को फैन्टम लिम्ब की संज्ञा देती है जो खत्म हो चुके हैं .. पर हम कहीं ना कहीं उससे लिंक बनाए हुए उस पीड़ा को ढो रहे हैं| जो कट चुका है पर जद्दोजहद इस बात की है कि हम उसे कटने को, अलग होने को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, इसलिए ढो रहे हैं | कहानी को सुखांत किया है | सुखांत ना होती तब भी अपने उद्देश्य में सफल है |   “परजीवी” स्त्रियों के मन की तहों को खोलती एक मीठी सी मार्मिक कहानी है | मीठी और मार्मिक ये दो विरोधाभासी शब्द जानबूझ कर चुने | कहानी की शुरुआत माँ कि मृत्यु पर भारत आती लड़की के माँ की स्मृतियों  में लौटने से शुरू होती है पर एक स्त्री के मन की गांठों को खोलती है .. उसके भाव जगत की पड़ताल करती है … Read more

रिश्तों पर अर्चना त्रिपाठी जी की कविताएँ

अर्चना त्रिपाठी की कविताएँ

अगर कहानी ठहरी हुई झील है तो कविता निर्झर | कौन सा भाव मानस की प्रस्तर भूमि पर किसी झरने के मानिंद कब  प्रवाहित हो चलेगा ये कवि भी नहीं जानता और एक कविता गढ़ लेती है आकार |अर्चना त्रिपाठी जी की कविताओं में यही खास बात है कि  वो बहुत ही सरल सहज भाषा में अपने मनोभावों को व्यक्त करती हैं |आज पढिए विभिन्न रिश्तों को समेटे अर्चना त्रिपाठी जी की कविताएँ | ये कहीं टूटते हुए रिश्तों की खनक है तो कहीं अजन्मी बेटी की पुकार , कहीं प्रेम रस की फुहार तो कहीं तनहाई का आर्तनाद और तकनीकी से भी तो एक रिश्ता है है तभी तो वह कह उठती हैं “दिनों दिन तकनीकी के विकास का गुल खिल रहा…. रिश्तों पर अर्चना त्रिपाठी जी की कविताएँ टीस रिश्तों पर पड़ी कड़वाहट की धूल को वक्त की हवा भले ही उड़ा दे पर वह , उस दरार को भरने में कभी सक्षम नहीं होगी, जो कड़वाहटों ने बना दी । उस दर्द की टीस कम नहीं होती बरसों-बरस । वह टीस कराह उठती है , जब कभी किसी आयोजन में आपको अपने रिश्ते दिखते हैं । अपने मुल्कों के लोग दिखते लोगों के जरिए,रिश्तों की याद दिलाई जाती है। वे रिश्ते तब कहां होते जब वही सुईयाँ चुभोते हैं वक़्त का लंबा सफर गुजर जाता है,वक्त नहीं लौटता कहते हैं,वक्त हर घावों को भर देता है मेरा कहना है,वक्त कुछ घावों को, नासूर बना देता है अतः उस घाव के अंग का, कट जाना ही बेहतर है रिश्तों का दिया दर्द, वक्त नहीं कर पाता कमतर अतः रिश्तों का टूट जाना ही है बेहतर,बेहतर,बेहतर   भ्रूण अति अति सुंदर, अति सुंदर कृति हो तुम, इस सृष्टि की क्योंकि………..क्योंकि रचा है मैंने तुम्हें, भूत हो तुम मेरा……….. वर्तमान, वर्तमान भी तुम ही हो मेरा अति सुंदर………. कृति हो तुम इस सृष्टि की क्योंकि, क्योंकि पुनः जी रही हूँ मैं तुममें तुममें पूरी हो रही है मेरी अधुरी तमन्नाएँ भविष्य……………. मेरा भविष्य तुम ही तो हो, वह भी मेरा करूँगी, साकार अपने सपनों को तुममें। न रहकर भी रहेगी सदा मैं, तुम्में किंतु मेरे अपने ही नहीं चाहते तुम्हें आने देना इस धरती पर नहीं चाहते, साकार होने देना मेरे सपनों को क्योंकि, क्योंकि तुम भ्रूण हो, मादा भ्रूण मेरी हसरत तुम मेरी बेटी हो, भावी बेटी बावजूद तमाम विरोधों के लाउँगी मैं तुम्हें इस पृथ्वी पर भगीरथ के गंगा की तरह जनूँगी, बनूँगी मैं तुम्हें कुंती के कर्ण की तरह जननी मैं तुम्हें, मैं तुम्हें मैं तुम्हें अवश्य, अवश्य, अवश्य ।   आहें तुम मेरी तकलीफों से बेखबर अपने में मशगूल, मैं, अपने और अपनी तन्हाई से गमगीन ख़दश हैं रफ्ता – रफ्ता… तुम्हारी ये बेरूखी, हमारे रिश्ते का इनसेदाद न कर दे… जिंदगी सहरा न बन जाए, जिसमें खुशियों के दरख्त हों न अरमानों के गुल उड़ेंगी सिर्फ दो रूहों की जर्रा-ए-आहें सहरा-ए-जिंदगी में हौसला उम्मीदों के आकाश से कटी हुई पतंग की तरह वास्तविकता के धरातल पर ऐसी गिरी…….! कि कहीं कोई ठहराव नहीं दिखता नहीं दिखता कोई आशियां जहां मेरा ठिकाना हो हौसले का तिनका का बटोर मुझे स्वयं ही अपने उम्मीदों का घरौंदा तैयार करना होगा अकेले, तन्हा………! जहां मैं अपने उद्देश्यों को साकार कर, सजा कर अपने उस झोपड़े में रह सकूं पुनः तन्हा, तन्हा और तन्हा……… ही और जीने को प्रेरित करेगी हौसले की किरण। तकनीक तरक्की या त्रास्दी दिनों दिन तकनीकी के विकास का गुल खिल रहा, प्रेम पतझड़ के, पल्लव बन गिर रहा! नाम, पद, पहचान नहीं नम्बरों में बंट गए। तकनीक ने दी त्रासदी, ऐसी की अखियाँ तरस गई बातें तो होती रहीं, मिलने को अखियाँ बरस गई दूर थे पर पास दिलों के अब पास होकर दूर दिल की दूरी बढ़ती गई थे स्नेह प्रेम मानव के मीत दिन वो आज हैं बने अतीत गांधी ने देखा स्वप्न था सब स्वरोजगार हों और आत्मनिर्भर भी भौतिक सुख भोग रहे नैतिकता नष्ट हुई सत्य और सत्य व अहिंसा की रट लगाते हिंसा व असत्य की पगडंडियाँ बनती गईं इतनी बनी, इतनी बढ़ी दर, दर दरारें, दिल की दिवार तक दड़क गई मिसाइलें बना बना, मिसाल कायम कर रहे मानव तो बने नहीं, मानव-बम बन गए प्रवंचना विजय की, पर विजय हुए नहीं यंत्रो का दुरुपयोग कर घट घट घटती गई, मन की देख मानवता आँखों को दिखती हैं कम, आपस की एकता तकनीक की ये त्रासदी, ऐसी की अखियाँ तरस गईं बातें तो होती रहीं, मिलने को अखियाँ बरस गई सुख साधानों से मिली शान्ति, विश्व अशान्ति बढ़ती गई महलों और कारखानों से क्षणिक सुकुन भले मिले लघु व कुटीर उद्योग टूटते गए, दुश्मनी की देख बस्तियां बसती गई ऐसी नहीं थी सोच गांधी की, थी कभी नहीं पर कहते हैं जब तक है साँस लोगों रखो विश्व शान्ति की आश और सोचे सभी है ये क्या …… ? तकनीकी की तरक्की या त्रासदी? सुकून नित्य मिलना तुम्हारा कुछ इस कदर बदली से आतप का चमकना मेघों को मध्य चाँदनी का छिटकना छिटककर पुनः मेघों में सिमटना इस लघु क्षण में तुम्हे जी भर निहारने की चाहत पहचानना समझना तुम्हें अपनाने की चाहत देता है भरपूर सुकून खुद का खुद से सवाल तुम वही हो जिसकी तलाश थी इंतजार था मंद मुस्काता वह रूप तुम्हारा पूनः देता ऐसा सुकूँ मिट गई हो जैसे चिर तृष्णा किसी की सोचता हूँ-काश ! थम जाते वो क्षण तुम्हारा वह ह्रदयस्पर्शी चितवन मैं देखती, देखती बस देखती पाती शाश्वत सुकून अर्चना त्रिपाठी अमृता प्रीतम जी पर अर्चना त्रिपाठी जी का वक्तव्य यहाँ सुनें साहित्यांजलि अमृता प्रीतम यह भी पढ़ें … आलिंगन- कविता व विस्तृत समीक्षा जया आनंद की कविताएँ कैलाश सत्यार्थी जी की कविता -परिंदे और प्रवासी मजदूर आपको अर्चना त्रिपाठी जी की कविताएँ कैसी लगी ?हमें अपनी बहुमूल्य राय से अवश्य अवगत कराएँ | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो atootbandhann.com को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन का फेसबूक पेज लाइक करें |

खटास

लघुकथा -खटास

हमारे घर की रसोई केवल पेट भरने का काम ही नहीं करती | जीवन के कई महत्वपूर्ण सूत्र भी यहीं से निकलते हैं | रिश्तों में खटास आ जाना कोई नई बात नहीं है पर माँ जानती है इस खटास को दूर कैसे किया जाए | प्रस्तुत है अंजू खरबंदा जी की लघुकथा .. खटास  आज आरवी ऑफिस से सीधा माँ के यहाँ आ गई । कुछ देर की हल्की फुल्की बातचीत के बाद माँ  ने कहा- “बेटा! आरव को भी फोन कर दे, खाना यहीं खाना । तुम्हारी पसंद की मसाला भिंडी बना रही हूँ आज!” “हाँ कर दूंगी अभी !” फोन पर गेम खेलते हुए अनमने मन से आरवी ने जवाब दिया । माँ ने रसोई से फिर आवाज लगाई- “अच्छा सुन! फ्रिज में से दही निकाल कर ले आ तो जरा !” आरवी ने फ्रिज खोल दही निकाली, उसकी खुशबू से अंदाजा लगाते हुए कहा- “माँ ये तो खट्टी हो गई लगती है, अब ये खाई नहीं जाएंगी ।” माँ ने आटा गूँथते हुए बिना उसकी ओर देखे ही जवाब दिया – “अरे ताजी दही ही है! तुम इसे अच्छी तरह से मथ लो और इसमें थोड़ा-सा दूध और पकौड़ी डाल रायता बना लो, जो हल्की खटास हुई भी तो चली जाएगी ।” “क्या इतने से ही …. काश इतनी आसानी से रिश्तों की खटास भी निकाली जा सकती !” उसकी हल्की सी बुदबुदाहट माँ के कानों में पड़ी तो वह चौंक उठी! “सब ठीक तो है न आरवी !” माँ ने उसके करीब आकर पूछा तो इतने दिनों से दिल में दबी कसक आँखों से बह निकली – “माँ… बहुत दिनों से आपसे बात करना चाह रही थी पर…  कर नहीं पा रही थी । माँ चपल चंचल खंजन सी फुदकने वाली आरवी के माथे पर पड़ आए बलों को गौर से देखती रहीं । “माँ … एक्चुली हम दोनों के वर्किंग होने के कारण हम एक दूसरे को उतना समय नही दे पा रहे जितना देना चाहिए, इस वजह से मेरे और आरव के बीच … !” आरवी इससे आगे कुछ कह न पायी । “बेटा रिश्ते जताए नहीं निभाए जाते हैं! शुरु शुरु में ऐसी परेशानियाँ सभी के सामने आती हैं पर थोड़ी सी समझदारी से हल भी हो जाती हैं!” माँ की बात समझने की कोशिश करते हुए आरवी ने माँ की ओर देखा । वहाँ उसे आशाओं के दीप झिलमिलाते हुए दिखे । माँ ने मुस्कुराते हुए आरवी के सिर पर हाथ फेरा और दही के साथ मंथनी आरवी के आगे कर दी । अंजू खरबंदा दिल्ली अंजू खरबंदा यह भी पढ़ें ………. लघुकथा – एक सच यह भी लघुकथा -कलियुगी संतान साला फटीचर तीसरा कोण – संजय वर्मा की तीन लघुकथाएं आपको लघु कथा खटास कैसी लगी ? हमें अवश्य अवगत कराये | अटूट बंधन की रचनाएँ प्राप्त करने के लिए हमारा फेसबूक पेज लाइक करें और atootbandhann.com को सबस्क्राइब करें |

कठिन वक्त (कारोना इफेक्ट -2)

कविता सिंह

जिस शहर को उन्होंने अपने हाथों से सींच कर सुंदर बनाया था वो एक झटके में पराए हो गए |कोरोना के साइड इफेक्ट के रूप में मजदूरों और छोटे स्तर के कामगारों का भारी संख्या में गाँव की तरफ पलायन हुआ | पर गांवों ने उन्हें बाहें पसार कर अपनाया नहीं | रिश्तों की कितनी परते खुलीं |कितने रिश्ते टूटे | पर क्या कोई बीच का रास्ता भी हो सकता है जहाँ हाथों को काम भी मिले और रिश्तों को मुस्कुराहट भी | आइए पढ़े कविता सिंह जी की कोरोनकाल के विस्थापित कामगारों के रिश्तों के ताने -बाने को सँजोती ऐसी ही खूबसूरत कहानी ..   कठिन वक्त (कारोना इफेक्ट -2) “सुना तुमने! प्रकाश क्या कहते चल रहा है?” मधु अपने पति चंद्रेश से बहुत धीरे से बोली, मानों दीवारें भी उसकी बात सुन लेंगी। “क्या हुआ? मुझसे तो कुछ नहीं कहा उसने।” चंद्रेश ने पत्नी की ओर देखते हुए पूछा। “सोनाली कह रहा थी कि दीदी, अब हम यहीं गाँव में रहेंगे, भले की कम कमाएं पर चैन से तो जिएंगे।” मधु ने इधर-उधर देखते हुए कहा। उसकी बात सुनकर चंद्रेश एक पल चौंका फिर मुस्कुराते हुए बोला—” तुम भी पागल हो बिल्कुल, अरे! अभी इस कोरोना से डरे हुए हैं वो….तुम नहीं जानती ये शहर की हवा बहुत बुरी होती है, इतना आसान नहीं गाँव में टिकना।” “अरे आप नहीं समझ रहे, अगर वो सच में यहाँ रहने लगा तो अपने हिस्से के जमीन पर खुद खेती करने लगेगा।” मधु ने जब से ये बात सुनी थी तभी से परेशान थी और ये परेशानी उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी। “चिंता मत करो, माहौल सही होते ही सब के सब फिर भागेंगे। अगर गाँव में ही रहना होता तो वहाँ शहर में कीड़े-मकोड़े की तरह झुग्गी झोपड़ियों में सड़ते नहीं। गया तो था पिछली बार प्रकाश के पास…एक हफ्ते का सोचकर गया था और चार ही दिन मेरा दम घुटने लगा वहाँ।” “फिर भी उसके मन की टोह ले लो, एक तो जमीन कम है, उसका हिस्सा जोतते थे तो अच्छी गुज़र रही अगर वो भी हाथ से निकल गयी तो बेटा की पढ़ाई और सुमन की शादी ….” “चुप करो तुम..कहाँ की बात कहाँ तक ले जाती हो। खाना दो, कब से माथा खा रही मेरा।” चंद्रेश तिलमिलाकर बोला क्योंकि वो समझ गया था मधु सही कह रही है।    अगले दिन मशीन पर प्रकाश बैठा हुआ कुछ सोच रहा था तभी चंद्रेश वहाँ पहुँचा। उसे मधु की बात याद आ गयी तो सोचने लगा क्यों ना प्रकाश के मन की थाह ली जाए। वो भी जाकर प्रकाश के बगल में बैठ गया। “क्या सोच रहे हो प्रकाश?” “अरे भैया! आप कब आये?” प्रकाश उसकी बात सुनकर चिहुँक गया। “सब्जियों में पानी देना था, पंपिंग सेट चलाने आया तो तुम्हें यहाँ देखकर बैठ गया।” चंद्रेश खेतों की ओर देखते हुए बोला। “मैं सोच रहा था कितने दिन ऐसे चलेगा, यहीं कुछ काम धंधा शुरू करूँ पर समझ नहीं आ रहा, क्या काम करूँ?” प्रकाश चिंतित स्वर में बोला। “हाँ, ये बात तो है पर सुनने में आ रहा कि जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा।” चंद्रेश ने प्रकाश के मन को टटोलना चाहा। “भैया! हम जो भुगतकर वापस आएं हैं वो तो हम और हमारे जैसे लोग ही समझ सकते हैं। अब हिम्मत नहीं वापस जाने की।” “ये क्या बोल रहे हो! वहाँ तुम्हारा जमाजमाया धंधा चल रहा था, ऐसे कैसे वापस नहीं जाने का सोच लिया तुमने?” चंद्रेश थोड़ा घबड़ा गया। “हमारे जैसे कितने लोगों का जो छोटा मोटा धंधा चल रहा था सब का सब चौपट हो गया। अब जब शुरुआत ही करनी है तो यहीं अपने गाँव जवार में ही करेंगे, फिर से अनाथों की तरह सबका मुँह तो नहीं देखना पड़ेगा, कम से कम यहाँ हमारे अपने, हमारे जानने वालों का साथ तो रहेगा।” प्रकाश बेचारगी भरी आवाज में बोला। “पर प्रकाश! इतनी सी जमीन से हम दोनों तो गुजारा नहीं चल पाएगा….” कहकर चंद्रेश चुप हो गया। “सोचते हैं भैया।” कहकर प्रकाश वहाँ से उठकर चला गया।   “दीदी! डिब्बे में घी तो है ही नहीं, राजू बिना उसके दाल भात खाता ही नहीं।” घर में घुसते हुए प्रकाश के कानों में सोनाली की आवाज सुनाई दी, वो कुछ पल को वहीं ठहर गया। “घी खत्म हो गया है, अब क्या-क्या खरीदें पैसे का कुछ पता ही नहीं और खर्चे बढ़ते ही जा रहे।” ये भाभी की आवाज थी। “पर कल तो उसमें आधे डब्बा घी था दीदी…” सोनाली बोल पड़ी। तभी प्रकाश आंगन में पहुँच गया। उसे देखते ही सोनाली चुप हो गयी। “कहाँ चले गए थे सवेरे-सवेरे, बिना कुछ खाये पिये?” सोनाली प्रकाश को देखते ही बोल पड़ी। “कहीं नहीं ऐसे ही खेतों की ओर निकल गया था। तुम खाना निकालो मैं हाथ मुँह धोकर आता हूँ।” कहकर वो चांपाकल पर हाथ मुँह धोने लगा।   सोनाली कोठरी में खाना लेकर आ गई। सात साल का राजू खाना खाने में आनाकानी कर रहा था, वो उसे फुसलाकर खिलाने की कोशिश करने लगी। “देखो सोनाली! जब तक कुछ कमाई- धमाई का जुगाड़ नहीं हो जाता तब तक किसी तरह कम ज्यादा में गुजारा करने की कोशिश करो।” प्रकाश ने कौर अपने मुँह में डालते हुए कहा। “आप समझ नहीं रहे हैं, दीदी का व्यवहार बहुत बदल गया है..पहले यही दीदी इतनी खातिरदारी करती थीं हमारी।” “पहले की बात और थी, साल, छः महीने में हमलोग हफ्ते-महीने के लिए आते थे, और कुछ ना कुछ लेकर आते थे साथ में पैसा भी, पर इस बार उजड़े हुए आये हैं और जाने का कोई ठिकाना भी नहीं।” प्रकाश ने सोनाली को समझाते हुए कहा। “आप भी ना, अरे तो कौन सा बेगार का खा रहे हम, इतने सालों से हमारे हिस्से का जमीन जोत रहे हैं हमने कभी कुछ नहीं कहा। साल में एक बार आये तो जो खिलाया-पिलाया वही ना।” सोनाली तमतमाकर बोली। “फालतू बात मत करो, आज ये लोग हैं तभी तीन महीने से जी खा रहे हैं हम।” प्रकाश ग़ुस्से में बोला। “हाँ, तभी तो अब चीजें छुपाई जाने लगी हैं, सही कह रही थीं रमा ताई…” “रमा ताई?? उससे बात हुई तुम्हारी? अरे उस कुटनी की बात … Read more

अजनबी

रश्मि वर्मा

रिश्ते पौधों की तरह होते हैं, जिन्हें हर दिन सीचना पड़ता है | प्रेम और निष्ठा से संवारना पड़ता है | अगर ध्यान ना दिया जाए तो  कब दोस्त अजनबी बन जाते है और अजनबी गहरे  रिश्तों में बंध जाते हैं | आइये पढ़ते हैं टूटते बनते रिश्तों पर रश्मि वर्मा जी कीकहानी … अजनबी  अनिकेत अनिकेत , राशी दौड़ती हुई अनिकेत से आकर लिपट गयी। क्या हो गया बड़ी खुश हो? अर्रे कम्पनी हम दोनो को ट्रेनिंग  पर हैदराबाद भेज रही है वो भी पूरे ३ हफ़्ते के लिए ,जल्दी से जाकर सूट्केस पैक कर लो और हाँ हाँ स्पोर्ट्स शूज़ नहीं भूलना वहाँ  हॉस्टल में बहुत त बड़ा गार्डन है रोज़ सुबह शाम जमकर घूमेंगे। राशी बोलती जा रही थी अचानक रुकी , अनिकेत का चेहरा सपाट था कोई उत्साह नहीं,वो अपने काम मैं मशगूल जैसे कोई बड़ी बात ना हो। राशी ने मॉनिटर ऑफ़ कर दिया या, अरे ये क्या? मैं तुमसे बात कर रही हूँ तुम्हें सुनाई देना बंद है क्या ? राशी , मुझे इस इस ट्रेनिंग में कोई इंट्रेस्ट नहीं है ,हाँ तुम जाना चाहती हो तो तुम्हारी मर्ज़ी ,कह कर अनिकेत उठ कर ऑफ़िस के कॉरिडर में चला गया। राशी हैरान पर कई बार समझाने ,अनुनय करने पर भी जब अनिकेत नहीं माना तभ राशी ने अपना समान पैक किया और फ़्लाइट ले कर हैदराबाद पहुँच गयी । रात को हॉस्टल पहुँचने पर पता चला की रूम ख़ाली नहीं है शेयर करना पड़ेगा । अजीब मुसीबत है पर आपको क्या मेरे आने की ईमेल नहीं मिली? राशी ने वार्डन को प्रशं मैडम मैडम आप आज रात निकालिए कल सुबह देखते हैं ।जल्दी जा कर डिनर कर लें वरना मेस बंद हो जाएगा। कोई हल ना होता देख राशी ने हालत से समझोता किया फिर रात को ही अपने मैनेजर को ईमेल लिख दी। सुबह होते ही राशी को अलग कमरा मिल गया। हैदराबाद में हॉस्टल के नियम काफी सख्ती से लागू थे , सुबह 0630 चाय , 0900 बजे नाश्ता , फॉर्मल ड्रेस कोड सबके लिए , नाश्ते पर आशा जी जो की मुंबई से आयी थी उनसे हलकी फुल्की मुलाकात हुई फिर पूरा दिन ट्रेनिंग शाम को घूमते हुए आशा जी बातचीत हुई। पता चला यनहा जिम में केरमबोर्ड है जो आशा जी को बेहद पसंद है पर वो जाने में हिचक रही थी क्योंकि जिम में लड़कों का बोलबाला था, पर राशी उन्हें खीँच कर लेगयी । फिर तो दोनो के जैसे कॉलेज के दिन लौट आए ।जम कर केरम खेला ,रात का डिनर करके दोनो अपने अपने कमरे में। दो दिन बाद शनिवार ,इतवार की छुट्टी थी राशी ने सोचा कयों ना रामोजी फ़िल्म सिटी ज़ाया जाए ,आशा जी भी तैयार हो गयी ,बस फिर क्या था सुबह के नाश्ते के बाद फटपट ऊबर बुलायी और चल दी दो अनजान सहकर्मी दोस्त बन्ने। रमोजी फ़िल्म सिटी अपने आप में एक नहीं तीन चीजों का मिलान है ,फ़िल्म सिटी के सेट के अलावा वनहा खूबसूरत गॉर्डन, अम्यूज़्मेंट पार्क , भी है । पूरा एक दिन भी कम है घूमने के लिए पर टाइम से हास्टल वापिस भी आनाथा। अगला हफ़्ता फिर श्री सेलम मंदिर का ,शिवजी के १२ ज्योतिर्लिंग में से एक। रास्ते में जंगल और श्री सेलम डैम की खूबसूरती के क्या कहने जम के फोटोग्राफी की । इसी बीच १५ अगस्त ट्रेनिंग कॉलेज में ध्वजः आरोहण हुआ चेयरमैन सर की स्पीच के बाद राशी ने भी छोटी सी से स्पीच से सबका मन मोह लिया । आख़िरी हफ़्ता आ गया बस उसके बाद जाना था तो राशी और आशा जी ने लगे हाथ बिरला मंदिर , सेलर जंग म्यूज़ीयम चारमीनार का भी प्रोग्राम बना डाला वो भी हैदराबादी मेट्रो से। इसी बीच राशी को पता चला की अनिकेत लंदन पोस्टिंग चला गया है कम्पनी की तरफ से , उसने जान कर राशी से बात छुपाई क्योंकि उसके अलावा राशी ही उस पोस्ट के क़ाबिल थी । एक अजीब सा झटका लगा राशी को कमाल है प्रतिस्पर्धा के इस युग में कोई किसी का मित्र नहीं है , स्कूल,कॉलेज की दोस्ती सब एक तरफ़ , राशी अपने मन की कोई बात अनिकेत से छुपाती नहीं थी ,और अनिकेत ——— तभी मोबाइल की घंटी बजी ,अनिकेत का फ़ोन था, हेलो । राशी कैसी हो ? क्या बताऊँ तुम्हारे जाने के बाद अचानक मुझे लंदन आना पड़ा पर तुम्हारे लिए गिफ़्ट लिये हैं मैंने, पहले बताओ मुझे याद करती हो या भूल गयी? अनिकेत की चहकती हुई आवाज़ राशी का मिज़ाज बिगाड़ने के लियें आग में घी का काम कर रही थी पर फिर भी सयंत होकर राशी बोली , “अनिकेत तुम्हारे बिना मेरी ज़िंदगी के मायने ही क्या थे पर इन चंद दिनो में जाना है ज़िंदगी हर पल जीने के नए मायने देती है ज़रूरत है उन्हें स्वीकारने की।” अनिकेत की आवाज़ नहीं निकली राशी ने फ़ोन रख दिया । अगले दिन दो अजनबी औरते दोस्त बन कर एक दूसरे से विदा ले रही थी जबकि दो पक्के दोस्त हमेशा के लिये अजनबी हो गए थे। रश्मि वर्मा यह भी पढ़ें ……. पतुरिया तबादले का सच  भावनाओं की सरहदें कब होंगी  मन का अँधेरा आपको कहानी  “अजनबी   “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  keywords; hindi story, hindi, relations, friendship

पौ फटी पगरा भया

शिवानी शर्मा

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है | समाज में कई रिश्तों के बीच उनका जन्म होता है और जीवन पर्यन्त इस रिश्तों को निभाता चला जाता है | कुछ रिश्ते उसके वजूद का इस कदर हिस्सा बन जाते हैं कि उनसे अलग वो अपने अस्तित्व को समझ ही नहीं पाता | कभी कभी कोई एक घटना आँखों पर बंधी ये  पट्टी खोल देती और अहसास कराती है कि दो लोगों के बीच परस्पर विश्वास की तथाकथित धुरी पर टिका ये रिश्ता कितना एक तरफ़ा था | ऐसे समय में क्या निर्णय सही होता है ? ये द्वन्द उसे कैसे तोड़ता है ? और वो किसके पक्ष में खड़ा होता है एक टूटे जर्जर रिश्ते के नीचे कुचले अपने वजूद के साथ या अपने आत्मसम्मान के साथ | पौ फटी पगरा भया , 30 साल के अँधेरे के छटने के बाद ऐसे ही निर्णय की कहानी है |ये कहानी है सुमन और अनूप के रिश्तों की , ये कहानी है , ये कहानी है परस्पर विश्वास की , ये कहानी है स्त्री चरित्र की …आइये पढ़ें स्त्री विमर्श को रेखांकित करती शिवानी शर्मा जी की सशक्त कहानी। .. “पौ फटी पगरा भया” सुमन हफ्ते भर से परेशान थी। रसोई में सब्जियों को गर्म पानी में धोते हुए मन ही मन भुनभुना रही थी! भतीजे की शादी अगले हफ्ते है और ये पीरियड्स समय से क्यों नहीं आए? एन शादी के वक्त आए तो दर्द लेकर बैठी रहूंगी, नाचने गाने की तो सोच भी नहीं सकती! डॉ को भी दिखा आई। उन्होंने कहा कि मेनोपॉज़ का समय है कुछ दिन आगे पीछे हो सकता है!क्या मुसीबत है! और एक ये अनूप हैं! हर बात हंसी-मजाक में उड़ाते हैं! कहते हैं कोई खुशखबरी तो नहीं सुना रही? हद्द है सच्ची! पंद्रह साल पहले ही खुद ने अपना ऑपरेशन करवाया था फिर बच्चे की बात कहां से आ गई? कुछ भी मज़ाक करना बस! और ये इतनी सारी पत्ते वाली सब्जियां एक साथ क्यों ले आते हैं जाने!सारा शनिवार इनमें ही निकल जाता है। साफ-सूफ करने में कितना समय और मेहनत लगती है!पालक,मेथी, बथुआ, सरसों,मटर सब एक साथ थोड़े ही बनेगी? ज्यादा दिन रख भी नहीं सकते! उफ़!ये अनूप भी ना अपनी तरह के बस एक ही अनोखे इंसान हैं शायद! बरसों से समझा रही हूं कि ये सब एकसाथ मत लाया करो पर मंडी में घुसते ही मुझे भूलकर सब्जियों के प्रेम में पड़ जाते हैं! पालक,मेथी, बथुआ, सरसों और धनिया साफ करके और धो कर अलग-अलग टोकरियों में पानी निथरने के लिए रख दिए गए हैं और गाजर, पत्तागोभी, फूलगोभी एक टोकरी में रखी है।अब मटर छीले जाएंगे। आज सरसों का साग और बथुए का रायता बनेगा। कल सुबह मेथी के परांठे और शाम को मटर पनीर! हरी सब्जियों को ठिकाने लगाने की पूरी योजना बन चुकी थी। अपने लिए चाय बनाकर सुमन मटर छीलने बैठी।मटर छीलते हुए मां बहुत याद आती हैं! भैया और मैं आधी मटर तो खा ही जाते थे। फिर मम्मी खाने के लिए अलग से मटर लाने लगी और कहतीं कि पहले खालो फिर छीलना और तब बिल्कुल मत खाना। मम्मी ने सब्जी-सुब्जी साफ करने के काम शायद ही कभी किए होंगे। संयुक्त परिवार में पहले देवर-ननदें फिर बच्चे और सास-ससुर ही बैठे बैठे ऐसे काम कर देते थे। एक हम हैं कि कोई सहारा नहीं! एकल परिवार अनूप की नौकरी के कारण मजबूरी रही! बार-बार स्थानांतरण के चलते कोई स्थाई साथ भी नहीं बन पाया। बच्चों को पढ़ाई-लिखाई और हॉबी क्लासेज से फुर्सत नहीं मिली फिर बाहर पढ़ने चले गए और अब दोनों की शादी हो गई, नौकरी में बाहर रह रहे हैं। हम फिर दोनों अकेले रह गये घर में! सुमन के विचारों की चक्की अनवरत चलती रहती है! उसने तय कर लिया है कि जो दुख उसने उठाया वो बहूओं को नहीं उठाने देगी! अनूप की सेवानिवृत्ति के बाद उनके साथ रहेगी, बच्चे पालेगी और काम में मदद करेगी। अभी भी कभी कभी सुमन उनके साथ रहने चली जाती है। बहुएं भी उसका इंतज़ार ही करती रहती हैं। अभी तक तो बहुत अच्छी पट रही है और वो प्रार्थना करती है कि आगे भी भगवान ऐसे ही बनाए रखे। मटर भी छिल गये हैं। भैया का फोन आ गया। “हां सुमी!कब पहुंच रही है?” “आती हूं भैया एक-दो दिन पहले पहुंच जाऊंगी।” “अरे पागल है क्या? तुझे तो हफ्ते दस दिन पहले आना चाहिए। कल ही चल दे। अनूप को छुट्टी मिले तो दोनों ही आ जाओ वरना तू तो कल ही आ जा। तीन घंटे का तो रास्ता है। सुबह ही चल दे।”( अनूप भैया के बचपन के दोस्त हैं इसलिए भैया उनको नाम से ही बुलाते हैं) “देखती हूं भैया! अनूप तो बाद में ही आएंगे। मैं पहले आ जाऊंगी। यहां से कुछ लाना हो तो बताओ।” “रावत की मावे की कचौड़ी ले आना सबके लिए!” “ठीक है भैया। मैं रात को सब पक्का करके बताती हूं।” सुमन का मन सब्जियों में अटका हुआ था। इतनी सब्जियां आई पड़ी हैं। छोड़ जाऊंगी तो खराब हो जाएंगी और फिकेंगी! वहां ले जाऊं, इतनी भी नहीं हैं! परसों जाऊं तो केवल गाजर और गोभियाँ बचेंगी। काट-पीट कर रख जाऊंगी। अनूप बना लेंगे। मन ही मन सब तय करके सुमन रसोई में खाना बनाने में लग गयी।दो दिन अनूप की छुट्टी होती थी। शनिवार को सुबह सब्जी मंडी जाते हैं। फिर बैंक और बाज़ार के काम निपटाते हैं और खूब सोते हैं। रविवार का दिन सुमन के साथ बिताते हैं। सुमन इसलिए रविवार को कहीं और का कोई काम नहीं रखती। ज़िन्दगी अच्छी भली चल रही है बस ये सर्दियों में सब्जियां ही सौतन सी लगती हैं सुमन को! खैर… शादी से निपटकर सुमन और अनूप वापस आ गये दोनों बेटे-बहू भी आए थे। सीधे वहीं आए और वहीं से चले गए। खूब मौज-मस्ती के बीच भी सुमन के पीरियड्स आने की धुकधुकी लगी रही जिसके चलते वो थोड़ी असहज रही। भाभी ने टोका भी तो भाभी को बताया। भाभी भी खुशखबरी के लड्डू मांगकर छेड़छाड़ करती रही। आज सुबह अनूप के ऑफिस जाने के बाद सुमन फिर डॉ के गयी। जाते ही डॉ ने भी बच्चे की संभावना के बारे में पूछा। सुमन ने … Read more

परछाइयों के उजाले 

प्रेम को देह से जोड़ कर देखना उचित नहीं पर समाज इसी नियम पर चलता है | स्त्री पुरुष मैत्री संबंधों को शक की निगाह से देखना समाज की फितरत है फिर अगर बात प्रेम की हो …शुद्ध खालिस प्रेम की , तब ? आज हम भले ही प्लैटोनिक लव की बात करते हैं पर क्या एक पीढ़ी पीछे ये संभव था | क्या ये अपराध बोध स्वयं प्रेमियों के मन में नहीं था | बेनाम रिश्तों की इन पर्चियों के उजाले कहाँ दफ़न रह गए | आइये जानते हैं कविता वर्मा जी की कहानी से … परछाइयों के उजाले    सुमित्रा जी है? दरवाजे पर खड़े उन सज्जन ने जब पूछा तो में बुरी तरह चौंक पड़ी। करीब साठ बासठ की उम्र ऊँचा पूरा कद सलीके से पहने कपडे,चमचमाते जूते, हाथ में सोने की चेन वाली महँगी घडी, चेहरे पर अभिजात्य का रुआब, उससे कहीं अधिक उनका बड़ी माँ के बारे में यूं नाम लेकर पूछना. यूं तो पिछले एक महिने से घर में आना जाना लगा है, लेकिन बड़ी माँ, जीजी, भाभी, बुआ, मामी, दादी जैसे संबोधनों से ही पुकारी जाती रहीं हैं, ये पहली बार है की किसी ने उन्हें उनके नाम से पुकारा है और वो भी नितांत अजनबी ने। मैं  अचकचा गयी.हाँ जी हैं आप कौन? उनका परिचय जाने बिना मैं बड़ी माँ से कहती भी क्या? उनसे कहिये मुरादाबाद से सक्सेना जी आये हैं. उन्हें ड्राइंग रूम में बैठा कर मैंने पंखा चलाया और पानी लाकर दिया. क्वांर की धूप में आये आगंतुक को पानी के लिए इंतज़ार करवाना भी तो ठीक नहीं था. आप बैठें मैं बड़ी माँ को बुलाती हूँ. लगभग एक महिने की गहमा गहमी के बाद बस कुछ दो-चार दिनों से ही सब कुछ पुराने ढर्रे पर आया है.पापा भैया काम पर गए हैं घर में कोई भी पुरुष सदस्य नहीं है.मम्मी भाभी सुबह की भागदौड के बाद दोपहर में कुछ देर आराम करने अपने अपने कमरों में बंद हैं.बड़ी माँ तो वैसे भी अब ज्यादातर अपने कमरे में ही रहती हैं.मैं भी खाली दुपहरी काटने के लिए यूं ही बैठे कोई पत्रिका उलट-पलट रही थी,तभी गेट खोल कर इन सज्जन को अन्दर आते देखा.घंटी बजने से सबकी नींद में खलल पड़ता इसलिए पहले ही दौड़ कर दरवाजा खोल दिया. बड़ी माँ के कमरे का दरवाज़ा धीरे से खटखटाया वह जाग ही रहीं थीं। कौन है?अन्दर आ जाओ। कुर्सी पर बैठी वह दीवार पर लगी बाबूजी और उनकी बड़ी सी तस्वीर को देख रहीं थीं.मुझे देखते ही उन्होंने अपनी आँखों की कोरें पोंछी।  मैंने पीछे से जाकर उनके दोनों कन्धों पर अपने हाथ रख दिए. बड़ी माँ को ऐसे देख कर मन भीग जाता है। एक ऐसी बेबसी का एहसास होता है जिसमे चाह कर भी कुछ नहीं किया जा सकता। कुछ नहीं रे बस ऐसे ही बैठी थी. उन्होंने मुस्कुराने की कोशिश की.तू क्या कर रही है सोयी नहीं? बड़ी माँ आपसे मिलने कोई आये हैं। कौन हैं?उन्होंने आश्चर्य से पूछा माथे पर सलवटें उभर आयीं शायद वह याद करने की कोशिश कर रहीं थी की अब कौन रह गया आने से? कोई सक्सेना जी हैं मुरादाबाद से आये हैं.बड़ी माँ के चेहरे पर अचानक ही कई रंग आये और गए। ऐसा लगा जैसे वह अचानक ही किसी सन्नाटे में डूब गयीं हों। वह कुछ देर बाबूजी की तस्वीर को देखती रहीं फिर उन्होंने पलकें झपकाई और गहरी सांस छोड़ी. उन्हें बिठाओ कुछ ठंडा शरबत वगैरह बना दो में आती हूँ. कुछ नाश्ता और शरबत लेकर जब मैं ड्राइंग रूम में पहुंची तो दरवाजे पर ही ठिठक गयी। वह अजनबी सज्जन बड़ी माँ के हाथों को अपने हाथों में थामे बैठे थे। मेरे लिए ये अजब ही नज़ारा था जिसने मेरे कौतुक को फिर जगा दिया, आखिर ये सज्जन हैं कौन? पहले उन्होंने बड़ी माँ को नाम से पुकारा फिर अब उनके हाथ थामे बैठे हैं. बाबूजी के जाने के बाद पिछले एक महिने में मातम पुरसी के लिए आने जाने वालों का तांता लगा था.दूर पास के रिश्तेदार जान पहचान वाले कई लोग आये।कुछ करीबी रिश्तेदारों को छोड़ दें जो बड़ी माँ के गले लगे बाकियों में मैंने किसी को उनके हाथ थामे नहीं देखा। तो आखिर ये हैं कौन? मैंने ट्रे टेबल पर रख दी। उन सज्जन ने धीरे से बड़ी माँ का हाथ छोड़ दिया। बड़ी माँ वैसे ही खामोश बैठी रहीं। जैसे कुछ हुआ ही न हो। कहीं कोई संकोच कोई हडबडाहट नहीं। जैसे उनका हाथ पकड़ना कोई नया या अटपटा काम नहीं है। बड़ी माँ को मैंने हमेशा एक अभिजात्य में देखा है. उन्हें कभी किसी से ऐसे वैसे हंसी मजाक करते नहीं देखा।छुट्टियों में जब बुआ, मामी, भाभी सब इकठ्ठी होती तब भी उनकी उपस्थिति में सबकी बातों में हंसी मजाक की एक मर्यादा होती थी।फिर उनकी अनुपस्थिति में सब चाहे जैसी चुहल करते रहें। बाबूजी के साथ भी वह ऐसे हाथ पकडे कभी ड्राइंग रूम में तो नहीं बैठी। एक बार छुटपन में छुपा छई खेलते मैं उनके कमरे का दरवाजा धडाक से खोल कर अन्दर चली गयी थी बाबूजी ने बड़ी माँ का हाथ पकड़ रखा था। लेकिन मुझे देखते ही उन्होंने तेज़ी से अपना हाथ छुड़ा लिया था जैसे उनकी कोई चोरी पकड़ा गयी हो।लेकिन आज वह बिना किसी प्रतिक्रिया के चुपचाप बैठी हैं,मानों उन सज्जन का उनका हाथ पकड़ना बहुत सामान्य सी बात है। लेकिन वे सज्जन आखिर हैं कौन? मैं इसी उहापोह में खड़ी रही तभी बड़ी माँ ने मेरी ओर देखा हालांकि उन्होंने कुछ कहा नहीं लेकिन उन नज़रों का आशय में समझ गयी। वे कह रहीं थीं मैं वहां क्यों खड़ी हूँ?   बड़ी माँ, मम्मी को बुला लाऊं? मैंने अपने वहां होने को मकसद दिया? नहीं रहने दो। संक्षिप्त सा उत्तर मिला जिसका आशय मेरे वहां होने की अर्थ हीनता से था।   मैं वहां से चुपचाप चल पड़ी लेकिन वह प्रश्न भी मेरे साथ ही चला आया था की आखिर वे सज्जन हैं कौन? एक बार नाश्ते की ट्रे उठाने मैं फिर वहां गयी। उनके बीच ख़ामोशी पसरी थी शायद उनका वहां होना ही बड़ी माँ के लिए बहुत बड़ी सान्तवना थी और उसके लिए शब्दों की जरूरत नहीं थी। बड़ी माँ कुछ और लाऊं? उन्होंने इनकार में सिर हिला दिया और मैं खाली ट्रे में अपने कौतुक के साथ वापस आ गयी।वे … Read more

सुबह ऐसे आती है –उलझते -सुलझते रिश्तों की कहानियाँ

    अंजू शर्मा जी से मेरा परिचय “चालीस साला औरतें” से हुआ था | कविता फेसबुक में पढ़ी और परस्पर मित्रता भी हुई | इसी कविता की वजह से मैंने बिंदिया का वो अंक खरीदा था | उनका पहला कविता संग्रह “कल्पनाओं से परे का समय”(बोधि प्रकाशन) लोकप्रिय हुआ | और  मैं शुरू –शरू में उनको एक सशक्त कवयित्री के रूप में ही जानती रही परन्तु हौले –हौले से उन्होंने कहानियों में दस्तक दी और पहली ही कहानी से अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराई | पिछले कुछ वर्षों से वो कहानी के क्षेत्र में तेजी से काम करते हुए एक सशक्त कथाकार के रूप में उभरी हैं | पिछले वर्ष उनका कहानी संग्रह आया, “एक नींद हज़ार सपने”(सामयिक प्रकाशन) और इस वर्ष भावना प्रकाशन से “सुबह ऐसे आती है “आया  | इसके अतिरिक्त डायमंड प्रकाशन से उनका उपन्यास “ शंतिपुरा- अ टेल  ऑफ़ लव एंड ड्रीम्स” आया है | इसके  अतिरिक्त ऑनलाइन भी उनका उपन्यास आया है | वो निरंतर लिख रही हैं | उनके साहित्यिक सफ़र के लिए शुभकामनाएं देते हुए आज मैं बात करुँगी उनके दूसरे कहानी संग्रह “ सुबह ऐसे आती है “ के बारे में ….   वैसे शेक्सपीयर ने कहा है कि “नाम में क्या रखा है” पर इस समय मेरे जेहन में दो नाम ही आ रहे हैं | उनमें से एक है “एक नींद हज़ार सपने” तो दूसरा “सुबह ऐसे आती है “ | एक कहानी संग्रह से दूसरे तक जाते हुए नामों की ये यात्रा क्या महज संयोग है या ये आती हुई परिपक्वता  की निशानी या  एक ऐलान | यूँ तो नींद से जागने पर सुबह आ ही जाती है | परन्तु सपनों भरी नींद से जागकर निरंतर परिश्रम करते हुए “सुबह ऐसे आती है “ का ऐलान एक समर्पण, निष्ठां और संकल्प का ऐलान है | तो साहित्यिक यात्रा के एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव तक ले जाता है |ऐसा कहने के पीछे एक विशेष उद्देश्य को रेखांकित करना  है | वो है एक स्त्री द्वारा अपने फैसले स्वयं लेने की शुरुआत करने का | यह एक स्त्री के जीवन में आने वाली सुबह है, जहाँ वो पितृसत्ता को नकार कर अपने जीवन की बागडोर अपने हाथ में लेने का संकल्प करती है | सुबह ऐसे आती है –उलझते -सुलझते रिश्तों की कहानियाँ अंजू शर्मा जी का कहानी कहने का एक सिग्नेचर स्टाइल है | वो कहानी की शुरुआत  बहुत ही इत्मीनान से करती हैं …शब्द चित्र बनाते हुए, और पाठक उसमें धंसता जाता है | हालाँकि इस कहानी संग्रह  में कहने का लहजा थोड़ा जुदा है पर उस पर अंजू शर्मा जी की खास शैली दिखाई देती है | जहाँ उनकी कवितायें बौद्धिकता का जामा  पहने होती हैं वहीँ कहानियाँ आस –पास के जीवन को सहजता से उकेरती हैं | पहले कहानी संग्रह में वे ज्यादातर वो कहानियाँ लायी थी जो समाजिक सरोकारों से जुडी हुई थी पर इस कहानी संग्रह में वो रिश्तों की उलझन से उलझती सुलझती कहानियाँ  लायी हैं | क्योंकि रिश्ते हमारे मन और भावनाओं से जुड़े हैं इसलिए  ज्यादातर कहानियों में पात्रों का मानसिक अंतर्वंद व् आत्म संवाद उभरकर आता है | रिश्तों के सरोकार भी सरोकार ही होते हैं | जहाँ सामाजिक सरोकार सीधे समाज या समूह की बात करते हैं वहीँ रिश्ते से जुड़े सरोकार व्यक्ति की बात करते हुए भी समष्टि तक जाते हैं | आखिर मानवीय संवेदना एक जैसी ही तो होती है | अंजू जी सपष्ट करती हैं कि, “सरोकारों से परे कोई रचना शब्दों की कीमियागिरी तो हो सकती है पर वो कहानी नहीं बन सकती | लिहाजा सरोकारों का मुझे या मेरा सरोकारों से दूर जाना संभव नहीं | तो भी कहानियों में पढ़ा जाने लायक कहानीपन बना रहे बस इतनी सी कोशिश है |” सबसे पहले मैं बात करुँगी संग्रह की पहली कहानी “उम्मीदों का उदास पतझड़ साल का आखिरी महीना है” | ये कहानी प्रेम कहानी है | यूँ तो कहते हैं कि हर कोई अपनी पहली कविता प्रेम कविता ही लिखता है और संभवत: पहली कहानी प्रेम कहानी ही लिखता होगा | प्रेम पर लिखना कोई खास बात नहीं है | खास बात ये है कि प्रेम पर जब इतना लिखा  जा रहा हो तो उसे अलहदा तरीके से लिखना ताकि ध्यान खींचा जा सके | इस कहानी में कुछ ऐसा ही है | मुझे लगता है किप्रेम के संयोग और वियोग में संयोग लिखना आसान है क्योंकि वहां शब्द साथ देते हैं | मन साथ देता है और पाठक सहज जुड़ाव महसूस करता है परन्तु वियोग में शब्द चुक जाते हैं | प्रकृति भी विपरीत लगती है | तुलसीदास जी ने बहुत सुंदर लिखा है, “घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥“ जो पीड़ा होती है सब मनोभावों में अन्तर्निहित होती है | सारा कुछ मानसिक अंतर्द्वंद होता है | ये कहानी भी कुछ ऐसी ही कहानी है | जहाँ लेखिका ने वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है | जिसमें सारी  प्रकृति सारे मनोभाव निराशा और अवसाद के स्वर में बोलते हैं | एक प्रेम कहानी के ऐसे धीरे धीरे त्रासद अंत की ओर बढ़ते हुए पाठक का दिल टूटता जाता है | यहीं कहानी यू टर्न  लेती है, जैसे बरसात के बाद धूप  खिल गयी हो | दरअसल कहानी एक रहस्य के साथ आगे बढती है और पूरे समय रहस्य बना रहता है | यह इस कहानी की विशेषता है |   “सुबह ऐसे आती है” कहानी एक स्त्री के अपने भावी बच्चे के साथ खड़े होने की है | माँ और बच्चे का रिश्ता दुनिया का पहला रिश्ता है और सबसे अनमोल भी | पितृसत्ता बच्चे के नाम के आगे पिता का नाम जुड़ने/न जुड़ने से उसे जायज या नाजायज भले ही कह दे पर इससे माँ और बच्चे के बीच के संबंद्ध पर कोई फर्क पड़ता | यूँ पति-पत्नी के रिश्तों में विचलन मर्यादित तो नहीं कहा जा सकता पर अस्वाभाविक भी नहीं है | कई बार ये विचलन पूर्व नियोजित नहीं होता | कई बार जीवन नदिया में धीरे –धीरे कर के बहुत सारे कारण इकट्ठे हो जाते हैं जब संस्कार और मर्यादाएं अपना बाँध तोड़ देते हैं | ऐसी ही एक स्त्री है … Read more