मन बैरागी

मन बैरागी

प्रेम  की आधारशिला विश्वास है | विश्वासहींन  प्रेम भावनाओं को धीरे -धीरे वैसे ही खोखला करता जाता है जैसे दीमक घर की दीवारों को |कब मन से प्रेम का पक्षी उड़ जाता है और खाली पिजर वैरागी हो जाता है पता ही नहीं चलता | आइए पढ़ें कविता सिंह की लघुकथा .. मन बैरागी वही तो है, बिल्कुल वही। आज पाँच वर्षों के बाद उसे देखा मैंने हरिद्वार में पतितपावनी गंगा के किनारे। गेरुआ वस्त्र में लिपटी हुई, मुख पर असीम शांति लिए हुए चोटिल और बीमार पशुओं की सेवा करते करते हुए। एकबारगी मन हुआ दौड़ के उसके पास पहुँच जाऊँ और पूछूँ कि वो यहाँ इस रूप में क्या कर रही? पर अपने साथ के लोगों के सामने मैं ऐसा नहीं कर सकी। अगली सुबह मैं चुपके से अकेले उसी स्थान पर पहुँची जहाँ उसे कल देखा था। आज भी वो प्रातः ही अपने कल के कार्य में लीन दिखी। मैं धीरे से उसके सम्मुख जाकर खड़ी हो गई। उसने निगाहें उठाकर मेरी तरफ देखा उसकी आँखों में मुझे पहचानने की चमक साफ दिखाई दी। “सुधा! तुम सुधा ही हो ना?” मैंने पूछ ही लिया। वो कुछ देर चुपचाप अपने कार्य में लगी रही फिर वापस एक कुटिया की तरफ बढ़ गई। “बोलो सुधा! यहाँ इस रूप में क्यों और कैसे?” मैंने उसका पीछा नहीं छोड़ा। वो कुटिया के बाहर पेडों के झुरमुट बीच चैपाल पर मुझे बैठने का इशारा करते हुए बैठ गई। “इन चार वर्षों में आप पहली हो दी जो मुझे पहचानने वाली मिली हो। तुम्हें तो सब पता है, सुधा ना जाने किस भाव किस प्यास की तलाश में भटकती रही साल दर साल। ब्याह हुआ लगा तलाश पूरी हुई पर वहाँ तो वो बस देह थी, दासी थी। फिर मिला एक पुरुष प्रेम के सपने दिखाने वाला प्रेम रस में डूबी बातें करने वाला पर अपना बनाने के नाम पर बिदक गया। कुछ वर्ष ऐसे ही कट गए उसी वक्त तो आपसे मुलाकात हुई थी मेरी। मेरी जिंदगी में आई मेरी एकमात्र सखी, बहन जो भी कह लो।” कहते-कहते वो चुप हो गई। ये वही सुधा थी जिसकी आँखें बात बात पर भर जाया करती थी पर आज कितनी कठोरता पूर्वक वो अपने बारे में बता रही थी। “जिसके साथ सारा घर द्वार सारे रिश्ते नाते छोड़ कर निकली थी आपके बहुत समझाने के बाद भी, उसे पाकर लगा मेरी सारी तलाश मेरी इच्छाएं पूरी हो गईं। आरम्भ के छः महीने तो मेरे कदम जमीन पर थे ही नहीं। फिर वक्त ने ऐसी करवट ली कि मैं पत्थर की शिला बनती गयी। उसे मुझ पर सदा सन्देह रहा कहीं मैं पिछली जिंदगी तो याद नहीं करती उसकी अनुपस्थिति में उनसे बात तो नहीं करती। प्रेम अथाह था दी पर विश्वास चूक गया। किस घड़ी मन बैरागी हुआ और यहाँ आ पहुँची पता ही नहीं चला। यह असीम शांति है हृदय परिपूर्ण है इन अबोले जीवों के बीच।” कहते हुए वो उठी और फिर अपने कर्मपथ की ओर बढ़ गयी। कविता सिंह   यह भी पढ़ें ॥ जीवन-संध्या मन की गाँठ (कोरोना इफ़ेक्ट ) रिश्ते तो कपड़े हैं   आपको लघु कथा मन वैरागी कैसी लगी ? अपने प्रतिक्रिया से हमें अवश्य अवगत कराए |अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो अटूट बंधन साइट सबस्क्राइब करें व पेज लाइक करें |

खटास

लघुकथा -खटास

हमारे घर की रसोई केवल पेट भरने का काम ही नहीं करती | जीवन के कई महत्वपूर्ण सूत्र भी यहीं से निकलते हैं | रिश्तों में खटास आ जाना कोई नई बात नहीं है पर माँ जानती है इस खटास को दूर कैसे किया जाए | प्रस्तुत है अंजू खरबंदा जी की लघुकथा .. खटास  आज आरवी ऑफिस से सीधा माँ के यहाँ आ गई । कुछ देर की हल्की फुल्की बातचीत के बाद माँ  ने कहा- “बेटा! आरव को भी फोन कर दे, खाना यहीं खाना । तुम्हारी पसंद की मसाला भिंडी बना रही हूँ आज!” “हाँ कर दूंगी अभी !” फोन पर गेम खेलते हुए अनमने मन से आरवी ने जवाब दिया । माँ ने रसोई से फिर आवाज लगाई- “अच्छा सुन! फ्रिज में से दही निकाल कर ले आ तो जरा !” आरवी ने फ्रिज खोल दही निकाली, उसकी खुशबू से अंदाजा लगाते हुए कहा- “माँ ये तो खट्टी हो गई लगती है, अब ये खाई नहीं जाएंगी ।” माँ ने आटा गूँथते हुए बिना उसकी ओर देखे ही जवाब दिया – “अरे ताजी दही ही है! तुम इसे अच्छी तरह से मथ लो और इसमें थोड़ा-सा दूध और पकौड़ी डाल रायता बना लो, जो हल्की खटास हुई भी तो चली जाएगी ।” “क्या इतने से ही …. काश इतनी आसानी से रिश्तों की खटास भी निकाली जा सकती !” उसकी हल्की सी बुदबुदाहट माँ के कानों में पड़ी तो वह चौंक उठी! “सब ठीक तो है न आरवी !” माँ ने उसके करीब आकर पूछा तो इतने दिनों से दिल में दबी कसक आँखों से बह निकली – “माँ… बहुत दिनों से आपसे बात करना चाह रही थी पर…  कर नहीं पा रही थी । माँ चपल चंचल खंजन सी फुदकने वाली आरवी के माथे पर पड़ आए बलों को गौर से देखती रहीं । “माँ … एक्चुली हम दोनों के वर्किंग होने के कारण हम एक दूसरे को उतना समय नही दे पा रहे जितना देना चाहिए, इस वजह से मेरे और आरव के बीच … !” आरवी इससे आगे कुछ कह न पायी । “बेटा रिश्ते जताए नहीं निभाए जाते हैं! शुरु शुरु में ऐसी परेशानियाँ सभी के सामने आती हैं पर थोड़ी सी समझदारी से हल भी हो जाती हैं!” माँ की बात समझने की कोशिश करते हुए आरवी ने माँ की ओर देखा । वहाँ उसे आशाओं के दीप झिलमिलाते हुए दिखे । माँ ने मुस्कुराते हुए आरवी के सिर पर हाथ फेरा और दही के साथ मंथनी आरवी के आगे कर दी । अंजू खरबंदा दिल्ली अंजू खरबंदा यह भी पढ़ें ………. लघुकथा – एक सच यह भी लघुकथा -कलियुगी संतान साला फटीचर तीसरा कोण – संजय वर्मा की तीन लघुकथाएं आपको लघु कथा खटास कैसी लगी ? हमें अवश्य अवगत कराये | अटूट बंधन की रचनाएँ प्राप्त करने के लिए हमारा फेसबूक पेज लाइक करें और atootbandhann.com को सबस्क्राइब करें |

साला फटीचर

साला फटीचर

सफलता किसी खास पद या पैकेज  को प्राप्त करना नहीं है |हर वो व्यक्ति सफल है जो अपने मन के अनुसार निर्णय लेता है | अक्सर बड़े ओहदों पर बैठे लोगों को मन को बहुत मारना पड़ता है | पैकेज  के चक्कर में मशीन बन जाते हैं लोग |जीत कर हारने का एहसास बहुत खोखला कर देने वाला होता है| प्रस्तुत है श्रुत कीर्ति जी की ऐसी ही एक आंखे खोलने  वाली कहानी .. साला फटीचर आज काम का बोझ बहुत ज्यादा था, आलोक को मानो साँस लेने की भी फुर्सत नहीं थी। ऐसे में जब पियून ने किसी विजय कुमार का कार्ड लाकर सामने रखा तो उसने मना ही कर दिया…  एक तो थकान से मन चिड़चिड़ाया हुआ है तिस पर से  बिना पहले से अपॉइंटमेंट लिए क्यों आ जाते हैं लोग? किसी दूसरे की प्राॅब्लम समझने का कल्चर ही नहीं है इधर! कोई जिद्दी आदमी ही रहा होगा जो पियून के रोकने के बावजूद फिल्मी स्टाइल में जबरदस्ती केबिन में घुसा चला आ रहा था। झल्लाकर नजर ऊपर उठाई तो चौंक ही गया वह…  “विजय तुम? इतने सालों में न खैर न खबर… कहाँ हो यार आजकल?” आलोक को अब अपनी स्टूडेंट लाइफ याद आने लगी थी। यह विजय…  ऊँचा, बलिष्ठ, बेहद खुशमिजाज… सबसे बढ़कर आईआईटी की प्रवेश परीक्षा में रैंक होल्डर… फिर लगातार, हर साल का टॉपर! ईश्वर कभी-कभी इतने पक्षपाती हो जाते हैं कि एक ही इंसान को सबकुछ दे डालते हैं। फैकल्टी का दुलारा, कालेज का हीरो… कभी इग्ज़ाम के कारण, तो कभी प्रोजेक्ट्स बनाने में जब सब पागल से हो चुके होते, वह सीटी बजाता, मस्तियाँ कर रहा होता। किसी को उससे नोट्स चाहिये होते थे तो कोई उससे कुछ पढ़ने-समझने को उतावला होता और हमेशा उसके आगे-पीछे स्टूडेंट्स की एक  भीड़ सी लगी रहती! जिसे देखो वही उसकी गुड बुक में आने को परेशान…  पर आलोक जानता है, अंदर से  सभी उसी की तरह, विजय से ईर्ष्या भी करते थे, उसी के जैसा बनने के सपने भी देखते थे! उसके प्रश्न पर ध्यान दिए बिना विजय ने कहा, “बहुत बड़ा अफसर हो गया है तू तो! बिना अपॉइंटमेंट के आने वालों को धक्के मार कर निकलवा ही देगा?” “क्या करूँ यार… इतना प्रेशर है कि क्या बताऊँ! यही तो नौकरी की हकीकत है! पैसे तो मिलते हैं यहाँ  पर एक-एक पाई की चार गुनी कीमत चुकानी पड़ती है। गलाकाट प्रतियोगिता है और हर पल स्वयं को साबित करते रहने की मजबूरी! जिस दिन परफार्मेंस में जरा सी कमी आई, दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंकेंगें। और हम, इस तनख्वाह की नाव पर सवार होकर इतना हाथ-पैर फैला चुके होते हैं, कि बँधुआ मजदूर बन जाते हैं इनके!  पर आजकल किसे नहीं पता ये सब, हम सभी तो एक ही नाव में सवार हैं। चल तू अपनी सुना!  कहाँ रहकर डॉलर छाप रहा है? न्यूयार्क या शिकागो?” उसके साधारण से पैंट-शर्ट पर नजर डालते हुए आलोक ने पूछा। विजय ने उसकी आवाज़ में आश्चर्य सुना था या व्यंग्य कि  ठहाका मारकर हँस पड़ा। “केनी में रहता हूँ मैं,  अपने गांव में!” “क्या बात कर रहा है?” आलोक बुरी तरह चौंक पड़ा। “तेरे जैसा लड़का गांव में? तेरा  पैकेज तो सबसे शानदार  था। वर्ल्ड  की इतनी बड़ी कंपनी के लिये तेरा कैंपस सिलेक्शन हुआ था!” फिर कुछ सोंचकर आवाज़ धीमी कर ली, “क्या कोई दिक्कत हुई जो वापस आना पड़ा?” “नहीं,  गया ही नहीं था मैं!” विजय ने कहा, “न्यूज़ में सुना होगा तुम लोगों ने, उस साल हमारे इलाके में भयंकर सूखा पड़ा था और कर्जे के बोझ से दबे हुए बहुत सारे किसानों ने आत्महत्या कर ली थी, याद है तुझे?” ऐसी खबरें तो रोज ही आती रहती हैं पर उनपर ध्यान किसका जाता है? आलोक कुछ बोलने ही वाला था मगर विजय के चेहरे की गंभीरता देख, चुप रह गया। “उसमें मेरे चाचा भी थे, रामधनी कक्का भी थे, और मेरे सबसे प्यारे दोस्त के वो फूफा भी थे जिन्होंने उसे अपने बच्चे की तरह पाला था! एक-एक कर के, महीने भर में इतने लोग चले गये पर कसूर क्या था उनका? किसी ने सुध क्यों नहीं ली उनकी?  मैं उन सभी के साथ बहुत अटैच्ड था। उनके परिजनों के आँसू मुझसे बर्दाश्त नहीँ होते थे। बहुत बुरा  समय था वह… मै डिस्टर्ब था!  यूँ तो सबने यही समझाया कि मुझे नौकरी ज्वाइन करनी चाहिए और बहुत सारे पैसे कमा कर यहाँ भेजने चाहिये, पर मुझे यह समझ में नहीं आता था। उससे तो केवल मेरे परिवार का कर्जा उतरता न? मुझे लगता था कि मैं तो पूरे गाँव के लिए, बहुत कुछ करने में सक्षम हूँ, फिर खुद को दायरे में क्यूँ  बाँधकर रखूँ? इस हवा, पानी, मिट्टी, प्यार मुहब्बत का कर्ज मात्र पैसे भेज देने से उतर जाता क्या?” बहुत सोंचा, माँ-बाबा से लड़ाई भी बहुत हुई, बेहद परेशान रहा, पर डिसाइड कर ही लिया कि अब यहीं रहना है और लाइफ में चैलेंज अगर लेने ही हैं तो अपने लिए लूँगा, विदेशियों के लिए नहीं! कैसे बताऊँ तुझे, एक बार निर्णय लेते ही मैंने कितना रिलेक्स फील किया था…” आलोक ने डरते-डरते पूछा, “अब सब ठीक हो गया?” अतीत के दर्द से बाहर आ, विजय अब मुस्कुरा रहा था। बहुत काम कर रहे हैं हम लोग, और बहुत कुछ करना अभी बाकी है। वाटर हार्वेस्टिंग, आधुनिक तकनीक से खेती, सिंचाई…  कुँए तालाबों का जीर्णोद्धार, स्वयं उत्तम क्वालिटी के बीज पैदा कर रद्दी बाजारू बीजों से छुटकारा, इंटरनेट पर बोली लगाकर फसल की बिक्री…  इसके अलावा फलदार पेड़ लगाना, मवेशियों का चारा.. अगर नई तकनीक में पुराने अनुभवों को मिला लिया जाय न, तो चमत्कार भी किया जा सकता है।” फिर शायद  याद आ गया कि वह कुछ ज्यादा ही तो नहीं बोल रहा, उसने अपनी बात एकाएक वहीं समाप्त कर दी।  “छोड़ वह सब! अभी तेरे पास तीन पीस ट्रैक्टर का आर्डर करने आया हूँ डियर… हो सके तो कुछ डिस्काउंट में दिलवा दे।” आलोक को उस जमाने के अपने आदर्श याद आने लगे थे… देश, समाज, स्वच्छ राजनीति, पर्यावरण… वो सब बातें ही क्यों रह गईं? क्यों सबकुछ भूल कर वह महज भौतिक सुखों के पीछे भागने लग पड़ा? शरीर पर एक लाख का सूट होने के … Read more

बबूल पर गुलाब

बबूल पर गुलाब

क्या बबूल पर गुलाब का रेशमी खुशबूदार फूल उग सकता है | नहीं | पर कहते हैं कि व्यक्ति का स्वाभाव नहीं बदलता …पर जिम्मेदारी कई बार ऐसा कर दिखाती है | ये लघु कथा भी बबूल पर गुलाब उगाने की है |आइये जानते हैं कैसे   बबूल पर गुलाब घर में रामचरित मानस का पाठ होना | खाने-पीने का मेनू चुपके से बदल जाना और आते-जाते लोगों का बार-बार धीरे चलो, खुश रहा करो जैसे नसीहत भरे वाक्य कहना और सारा का धीरे से मुस्कुरा देना……..बता रहा था कि घर में नन्हा मेहमान आने वाला है | “बहू तुमसे कितनी बार कहना पड़ेगा कि अपनी बहू के लिए गरी-मिसरी मँगवा दो |” सारा की अजिया सास खीज पड़ीं | “अरे अम्मा! हम आपके पास ही आ रहे थे,बताओ क्या मँगवा लें |” सारा की सास क़ागज-पेन लेकर अजिया की खटोली के पास आ बैठी | “तुम्हारी गृहस्थी तुम जानो | हम तो बस बहू के लिए …|” “हाँ हाँ, तो बताओ न अम्मा ! कितने गोले मँगवा लें |” “अब उसमें बताना क्या पहलौटी का बच्चा है सात-पाँच गोला तो होना ही चाहिए|” “हमने तो पूरे नौ गरी के गोले खाये थे, तुम्हारे दूल्हा के होने में |” “तभी इतने मधुर स्वभाव के निकले कि मेरी जिन्दगी ही स्वाहा कर दी |” “पुरानी बातों को मत सोचो बहुरिया अब तुम दादी बनने वाली हो |” अजिया ने सारा की सास के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा | “अम्मा क्या बातें हो रही हैं ?” कहते हुए सारा के ससुर आँगन में आकर खड़े ही हुए थे कि अचानक वातावरण बोझिल हो उठा | सारा की सास अपने में ऐसे सिमट गई मानो उसके चारों ओर काँटे उग आये हों | “अम्मा मैं ये कह रहा था कि अब बहू को ऱोज दस ग्राम बबूल की पत्तियां खिलाना है | “तुम्हारी आयुर्वेदिक नुख्सों की आजमाइश की आदत से अब मेरा जी ऊब गया है ……..और ये बताओ तुम ! तुम्हारी बहू क्या बकरी है |” “अरे अम्मा ! हर बात टाला मत करो |” कहते हुए उनकी आव़ाज में तनाव उभर आया | “आपको शायद पता नहीं, जिज्जी ने भी अपनी बहू को बबूल की पत्तियाँ ही खिलाई थीं | देखा नहीं कैसा गोरा-चिट्टा और कुशाग्र बुद्धि वाला बच्चा पैदा हुआ है | सात पीढ़ियाँ तर गईं मानो उनकी |” इतना सुनते ही कोई और बोल पाता इसके पहले सारा चहक कर बोल पड़ी | “लेकिन पापा जी, प्रतिदिन बबूल की पत्तियाँ लाएगा कौन ?” “होने वाले बच्चे के दादा जी और कौन |” कहते हुए वे मुस्कुरा उठे | सबने चौंक कर उनकी ओर देखा – आज तो जैसे बबूल पर गुलाब खिल आये थे | कल्पना मनोरमा यह भी पढ़ें … नौकरी छोड़ कर खेती करने का जोखिम काम आया        मेरा एक महीने का वेतन पिता के कर्ज के बराबर  जनसेवा के क्षेत्र में रोलमॉडल बनी पुष्प पाल   “ग्रीन मैंन ” विजय पाल बघेल – मुझे बस चलते जाना है  आपको    “ बबूल पर गुलाब  “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: short stories, kalpna manorama, rose, rose plant