वो फोन कॉल-मानवीय संबंधों के ताने-बाने बुनती कहानियाँ
अटूट बंधन की संपादक ,बेहद सक्रिय, संवेदनशील साहित्यकार वंदना बाजपेयी जी का दूसरा कहानी संग्रह “ वो फोन कॉल” भावना प्रकाशन से आया है।इस संग्रह में कुल 12 कहानियाँ हैं। आपकी तीन कहानियाँ “वो फोन कॉल, दस हजार का मोबाईल और “जिंदगी की ई. एम. आई” पढ़ते हुये “मार्टिन कूपर” याद आये। तीनों कहानियाँ में मोबाइल ही प्रमुख पात्र है या परिवेश में मौजूद है। “वो फोन कॉल” में मोबाइल जिंदगी बचाने का माध्यम बना है तो “जिंदगी की ई.एम.आई” में किसी को मौत के मुहाने तक ले जाने का बायस भी वही है। वहीं “दस हजार का मोबाइल” कहानी में मद्धयमवर्गीय जीवन के कई सपनों की तरह ही महंगा मोबाइल भी किस तरह एक सपना बन कर ही रह जाने की कथा है।“दस हजार का मोबाइल” लाखों मद्धयमवर्गीय परिवारों की एक सच्ची और यथार्थवादी कथा है। मानवीय संबंधों के ताने-बाने बुनती- “वो फोन कॉल” मोबाइल के जनक “मार्टिन कूपर” ने जब मोबाइल का अविष्कार किया होगा तो कल्पना भी नहीं की होगी की इक्सवीं सदी में आम से लेकर खास और भारत के गांव से लेकर विदेशों तक फोन कॉल लोगों के मानसिक, अद्ध्यात्मिक , वैवसायिक और राजनैतिक जीवन में इंटरनेट से जुडते ही संचार क्रांति की अविस्मरणीय आमूल-चूल परिवर्तन का वाहक साबित होगा। मोबाइल इंटरनेट के साथ संचार माध्यम का सबसे सस्ता और अतिआवश्यक जरुरत साबित होगा।वैसे देखा जाये तो मोबाइल से लाभ ज्यादा और नुकसान कम ही हुये हैं। बहुत पीछे नहीं अभी का ही लेखा-जोखा लेकर बैठे तो वैश्विक महामारी “कोरोना “और उसके पश्चात लॉकडाउन में लोगों के बीच मोबाइल इंटनेट किसी वरदान की तरह ही काम आया। कोरोना के अप्रत्याशित हमले से घबड़ायी- पगलाई और भयभीत दुनिया ने फोन कॉल्स और सोशल मीडिया के द्वारा एक-दूसरे की खूब मदद की और एक-दूसरे के हृदय में समयाये मृत्यु के भय और अकेलापन को दूर किया। कनाडाई विचारक मार्क्स मैकलुहान ने जब अपनी पुस्तक “अंडरस्टैंडिंग मीडिया” (1960) में” ग्लोबल विलेज” शब्द को गढ़ा था उस वक्त किसी ने कल्पना भी नहीं कि होगी इस दार्शनिक की ग्लोबल विलेज की अवधारणा इतनी दूरदर्शी साबित होगी।और वाकई में 21वीं सदी में दुनिया मोबाइल-इंटरनेट के तीव्र संचार माध्यम के कारण ग्लोबल विलेज में बदल जायेगी। एक क्लिक पर दुनिया के किसी कोने में बैठे व्यक्ति से मानसिक तौर पर जुड़ जायेंगे। मैकलुहान की ग्लोबल विलेज की अवधारणा दुनिया भर में व्यक्तिगत बातचीत और परिणामों को शामिल करने के साथ लोगों की समझ पर आधारित था।इंटरनेट के आने के बाद (1960 के दशक इंटरनेट आ चुका था ।) शीत युद्ध के दौरान गुप्त रूप से बहुत तेज गति से सूचनाओं के आदान प्रदान करने की आवश्यकता हुई । अमेरिका के रक्षा विभाग ने अपने सैनिकों के लिए इसका आविष्कार कर किया था) साइबर क्राइम और ट्रोलिंग की नई संस्कृति ने मानसिक तनाव भी खूब दिये।बरहाल मोबाइल और इंटरनेट की अच्छाइयाँ और बुराइयाँ गिनने लगे तो कई पन्ने भर जायेंगे। और मोबाइल और मास मीडिया पर निबंध लिखने की कोई मंशा नहीं है मेरी। लेखिका की पहली कहानी “वो फोन कॉल” जो संग्रह का शीर्षक भी बना है ।इस शीर्षक से मैंने अनुमान किया था, कोई संस्पेंस से भरी थ्रीलर कहानी होगी। संस्पेंस तो है पर यह कोई जासूसी कहानी नहीं है। यह समाजिक अवधारणायों पर विचार- विमर्श तैयार करती, जीवन संघर्ष के लिए मजबूत करती मानवीय संबंधों की भावनात्मक सच्ची सरोकारों की कहानी है। एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है। जो हमारे आस-पास है। उसे हमारी जरुरत है पर हम उसे नहीं जानते। या हमें समय ही नहीं है उसे जानने की। या जान भी गये तो उसकी सच्चाई को स्वीकार करने का मनोबल नहीं है। अपनी रुढीगत अवधारणाओं को तोड़ कर ही उसकी पीड़ा को समझ सकते हैं। “वो फोन कॉल” पाठक को जीवन संघर्ष को स्वीकार करने की प्रेरणा देती है। प्रकृति सबको समान रुप से देखती है। वह विभिन्नता के कारण किसी को कम या ज्यादा नहीं देती है। अपने ऊपर सबको समान अधिकार देती है। मनुष्य ही है जो विभिन्नता को अवगुण समझ भेद-भाव करता है।“ वो फोन कॉल” इस विमर्श को सधे शब्दों में पूरजोर तरीके से उठाती है। “वो फोन कॉल” में जहाँ मोबाइल एक अनजान व्यक्ति की जिंदगी बचाने के काम आता है। मानवीय संवेदनाओं और संबंधों की नई खिड़की भी खोलता है। “ जिंदगी की ई. एम.आई”में उसी मोबाइल इंटनेट के विकृत चेहरे और संबंधों में आई तकनीकी कठोरता के कारण सहज संबंधों से दूर जटिल उलझन भरे रास्तों पर जाते हुये देखा जा सकता है। किंतु कहानी के पात्र भाग्यशाली हैं।समय रहते भटके हुये रास्तों से अपने मूल जड़ों की ओर उनकी वापसी हो जाती है। किंतु आम जीवन में सबका भाग्य साथ दे। जरुरी नहीं है। शहरी दंपत्ति अपने महंगे फ्लैट की ई एम आई भरने के लिए 24 घन्टे तनाव भरी जिंदगी जीते हैं और अपने बच्चे को अकेला छोड़ देते हैं जिसकी वजह से वह हत्यारिन ब्लू व्हेल गेम के चक्रव्यूह में फंस जाता है। बड़े- बुजुर्ग हमेशा कहते हैं-“ जैसा अन्न वैसा मन”।खान-पान की शुचिता कोई रुढीगत अवधारणा नहीं बल्कि वैज्ञानिक सोच इसके पीछे रही है। समय के साथ इस परंपरागत अवधारणा में छूत-छात जैसी मैल पड़ गई थी। किंतु मूल भाव यही था कि ईमानदारी से मेहनत करें, किसी प्रकार की चलाकियाँ न करें,किसी कमजोर को सताये नहीं। और ईमानदारीपूर्वक कमाये धन से जीवन चलाये ।तभी तन और मन दोनों स्वस्थ रहेंगे।“ प्रेम की नयी वैराइटी” कहानी इस कथन की सार्थकता को बहुत ही सुंदर और वैज्ञानिक तरीके से कहती है। आज प्रेम संबंध मोबाइल की तरह हर एक-दो साल में बदल जाते हैं। आधुनिक प्रेमी किसी एक से संतुष्ट नहीं है। वह नये एडवेंचर के लिए नये रिश्ते बनाता है। कुछ नया , कुछ और बेहतर की तलाश में भटकता रहता है। संबंधों की शुचिता उसके लिए पुरातन अवधारणा है। वह आज अपना औचित्य खोता जा रहा है। इसतरह की बेचैनी- भटकाव कहीं न कहीं अत्यधिक लाभ के लिए अप्राकृतिक तरीके से फलों- सब्जियों और अन्न का उत्पादन और आमजन द्वारा उसका सेवन करने का परिणाम है। मन की चंचलता। अस्थिरता। असंतुष्टी की भावना। संवेदनहीनता।अत्यधिक की चाहना।महत्वकांक्षाओं की अंधी दौड़ में शामिल होकर दौड़े जा रहे हैं।सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, एक परिवार नहीं आस-पास का … Read more