शोकपर्व-चमत्कार के मनोविज्ञान पर निधि अग्रवाल की कहानी
आज हर जगह चमत्कार और चमत्कारियों की चर्चा है l कहीं चमत्कार को नमस्कार है तो कहीं चमत्कार पर प्रहार है l लेकिन ये बात केवल आज की नहीं है, वो कौन सा दौर था या होगा या कौन सा धर्म था/ होगा जहाँ चमत्कारी लोगों का अस्तित्व नहीं रहा ? क्यों भीड़ की भीड़ इनकी तरफ आती है l मानव मन की कौन सी गुत्थियों को ये सुलझा देते हैं? क्या ये सिर्फ दिखावा है या जीवन की गहरी और अगर आप लूटते हैं तो क्या आप पूरेविश्वास के साथ कह सकते हैं कि विकास हो या मेडिकल साइंस आप को नहीं लूट रहा ? निधि अग्रवाल ने समकालीन युवा कथाकारों में जीवन को गहराई से उकेरने वाली लेखिका के रूप अपनी सशक्त पहचान बनाई है l प्रस्तुत कहानी शोकपर्व में वो पिता पुत्र के रिश्ते के साथ इन तमाम प्रश्नों से उलझती सुलझती चलती हैं l यह बहुपर्तीय बेहतरीन कहानी चमत्कार और चमत्कारी बाबाओं के साथ-साथ जीवन को के विविध रंगों को खोलती चलती है l आइए पढ़ें कहानी — शोकपर्व ——– “ज़बान देखो। कमाया धेला नहीं और ज़बान गज भर की कर लाया।” माँ दराती से सरसों काटती हुई चिल्लाई। ध्यान हटा तो दराती ने सरसों के संग अँगुली भी काट दी। वह सी सी करती पल्ला अँगुली में लपेट दूसरे हाथ से उसे दबाए बैठी रही। आँखों में नमी तैर गई। उसकी आँखों में नहीं… माँ की आँखों में । वह और बाबा तो वैसे ही अविचलित बैठे रहे। स्त्री की चोट पुरुष के मन को स्पर्श कब करती है? सच कहा जाए तो एक संतुष्टि का अनुभव किया उसने। अपनी बेइज़्ज़ती पर मूक-बधिर बनी बैठी रहने वाली माँ, बाबा को एक शब्द कहने पर तिलमिला जाती है। उसका मन हुआ कहे, देख लो अपने परमेश्वर की हक़ीक़त। माँ अब तक हल्दी की पट्टी अँगुली में लपेट फिर से साग काट रही थी। उसके कष्टों के प्रति विरक्ति की सज़ा किसी दिन इसी दराती से वह उन दोनों की गर्दन काट कर क्यों नहीं देती? वह अपलक माँ को देखता रहा। ये कोई पहली नौकरी नहीं थी जो वह छोड़ आया था। इसके पहले चार साल में कोई बीस नौकरी आज़मा चुका था। उदासी इसलिए गहरी थी कि इस बार नौकरी के साथ छोकरी से भी हाथ धोना पड़ा था। “सेठ की लड़की को फसाएँगा तो देर सवेर जूत्ते ही खाएँगा।” बाबा ने हिकारत से कहा था, “पढ़ लिख लेता कुछ तो कहीं ढंग की नौकरी मिल जाती। अब करता रह गुलामी।” “क्या फ़ायदा पढ़कर। पढ़े लिखे लोग तुम जैसों के पैर पड़ते हैं।” वह वैसा ही शिथिल पड़ा, जम्हाई लेता हुआ बोला था। इस जवाब पर माँ तिलमिला गई थी। “और कितनी देर है खाने में। दो बजे गद्दी पर बैठना है। कोई काम समय से नहीं कर पाती ये औरत।” बाबा का बड़बड़ाना चालू है। अब वह उनकी लंबी नुकीली जीभ को दराती पर टँगा देख रहा था। माँ के सधे हाथ बिना देखे ही चलते जा रहे हैं। छोटे छोटे रक्तरंजित टुकड़े जूट की बोरी पर इकट्ठे हो रहे हैं। बहते हुए रक्त की धार का छोर उसे स्पर्श करने ही वाला था जब माँ का थका हुआ मरियल स्वर उसे इस वीभत्स दृश्य से बाहर खींच लाया। “खाना तैयार है। आ जाओ दोनों।” माँ के स्वर का ठंडापन उसकी रीढ़ की हड्डी में सिहरन पैदा कर गया। इस दृश्य की वीभत्सता से अधिक भयावह यह कल्पना थी कि बाबा के बाद अगली जीभ उसकी हो सकती थी। उसने थूक निगला। मुँह का स्वाद कड़वा था। उसने पानी का लौटा उठा, एक बार में खाली कर दिया। “एक चपाती तो और ले लो!” माँ बाबा से कह रही है। उसने आँखों की कोर से बाबा को ‘न’ में गर्दन हिलाते देखा। वह मुँह पोंछता थाली के पास बैठा। माँ एक चपाती बाबा की प्लेट में रखती हुई बोली- “छोटी-सी है। खा लो।” बाबा गुर्रा रहे हैं, “मना किया न फालतू ज़िद करके दिमाग खराब करती है ये औरत।” माँ इसरार कर-कर के भूख से अधिक खिला देने में निपुण है। उसके अन्नपूर्णा नाम के कारण उसने अपने जीवन का लक्ष्य बाबा की क्षुधा शांत करना बना लिया है। क्षुधा से उसे उषा याद आ गई। कल इसी समय वह उसकी देह चख रहा था। तृप्ति से क्षण भर पूर्व ही सेठ अचानक घर आ गया था। विवस्त्र बेटी को खींच कर अलग कर दिया और बिना बक़ाया दिए उसे काम से निकाल दिया। आदिम भूख उसके शरीर पर रेंगने लगी। वह थाली छोड़कर खड़ा हो गया। “बरसाती वाले किरायेदार हैं क्या अभी भी?” बेध्यानी में माँ से पूछा। “नाबालिग़ लड़की पेट से हो गई थी। पिछले साल ही मुँह काला करवा कर चले गए।” जवाब बाबा ने दिया। उसे अपने हाथों में लड़की का गदराया बदन महसूस हुआ। उसकी देहगंध नथुनों में भर गई। उम्र में लड़की उससे कुछ साल छोटी थी। कोई न कोई सबक समझने के बहाने उसके पास चली आती। उस बरस कहानी की किताब उसे पढ़ाते कितनी ही कविताएँ उसके शरीर पर लिखी थी। लड़की की देह को जानने के लिए जितना उत्सुक वह रहता उससे अधिक वह लड़की आतुर रहती। उसे दुःख हुआ कि बाबा की किसी बात पर बिगड़ कर घर छोड़ गया था। रुका रहता तो वह बच्चा उसका दिया हुआ होता। वह अनजाने लड़की के बड़े हुए पेट पर हाथ फेरने लगा। सेठ की गद्दी के नीचे रखी पत्रिका में पढ़ा था कि गर्भावस्था में कुछ स्त्रियों की प्यास और बढ़ जाती है। वह तो थी ही रेत की नदी। बाबा ने थाली सरकाई। बर्तनों की झनझनाहट कमरे में तैर गई। उन्होंने बनियान के ऊपर कुर्ता पहना। साफ धोती के लिए माँ को पुकारा। वह रसोई छोड़ धोती लाने नंगे पाँव दौड़ गई। “सुबह निकाल कर क्यों नहीं रख देती। रोज़ माँगनी पड़ती है।” बाबा का बड़बड़ाना जारी। बात बात पर उफ़न पड़ने वाला यह इंसान दुनिया को शांति बाँटने का दावा करता है। घोर आश्चर्य! २ पाँचवी की कक्षा का पहला दिन था। नए आए मास्टर जी सबका परिचय पूछ टाइम खोटी कर रहे … Read more