गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9

ग्वालियर का छूटना

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 अब आगे …. गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9:ग्वालियर छोड़ना (दिल्ली 1992 से 96)   इस समय तक ग्वालियर में सिर्फ चाचा जी चाची जी रह गये थे। शशि बीबी का बेटा जो दसवीं के बाद से ग्वालियर में ही पढ़ा था, इंजीनीयरिंग करके दिल्ली में नौकरी करने लगा था। शशि बीबी (बड़ी ननद) के पति रवि भाई साहब सेवानिवृत्तहो कर सिंदरी (बिहार) से लखनऊ आ चुके थे। तनु कॉलिजके अंतिम वर्ष में थी।   इसी साल होली से कुछ पहले परिवार को एक बहुत बड़ा झटका लगा जिसने सब को हिला दिया। आधी रात को पता चला कि सड़क दुर्घटना में नीता के पति की मृत्यु हो गई थी । वह होली मनाने अपने घर रायपुर जा रहे थे। सिर की चोट ने वहीं प्राण ले लिये, नीता के हाथ में ज़रा सी खरोंचे आईं, बच्ची और नीता के देवर को कोई चोट नहीं लगी। उनकी जीप एक खड़े हुए ट्रक से टकराती हुई निकली तो उनके सिर को आघात लगा था। नीता की शादी को केवल आठ साल हुए थे और ढाई साल की बेटी थी। नीता के पति के निधन की सूचना सबसे पहले हमें ही मिली। ग्वालियर में केवल दुर्घटना की सूचना दी गई थी,उनके निधन की नहीं।   उन दिनों दिनेश भैया गुरु तेग बहादुर अस्पताल से सऱदर जंग अस्पताल में आ गये थे और लक्ष्मी बाई नगर में रह रहे थे परन्तु जयश्री की नौकरी अभी भी पूर्वी दिल्ली में थी, बच्चे भी वहीं पढ़ रहे थे इसलिये वह अपने माता पिता के साथ रह रही थी। दक्षिण दिल्ली तबादले की कोशिश थी और अगले सत्र में बच्चों को भी द.दिल्ली के स्कूल में दाखिला करवाना था। ये सब यहाँ बताना ज़रूरी है क्योंकि आगे आने वाले घटनाक्रम में ये बातें महत्वपूर्ण होंगी।   मृत्यु  की सूचना पाते ही हम दिनेश भैया के यहाँ गये,  जो होना था हो चुका था,  अब क्या करना है यह विचार करना था। उमा दीदी भी वहाँ जाना चाहती थीं। नागपुर से कुछ घंटे की सड़क यात्रा करनी थी। इन्होंने अपना दिनेश भैया और उमा दी का रेल आरक्षण  करवा लिया था, उसी ट्रेन से मैं और उमा दी के पति ब्रजेश भाई  साहब भी चले, पर हम ग्वालियर उतर गये, चाचा जी और चाची जी को संभालने के लिये । अभी तक उनको मृत्यु की सूचना नहीं दी गई थी।  जयश्री हमारे और अपने बच्चों की देखभाल करने हमारे घर आ गई थी ।   ग्वालियर पहुँचकर मैंने जो नज़ारा देखा उसकी सपने में भी कल्पना नहीं की थी। दुख से ज़्यादा चाची जी को क्रोध था जिसमें उन्होंने शब्दों की सभ्य सीमा को पार करके अपने दोनों बेटों को कोसना शुरू कर दिया था, जो मेरे लिये तो असह्य थापरंतु मौका ऐसा था कि मेरे लिये चुप रहना ही सही था। अड़ौसी पड़ौसी रिश्तेदारों की संवेदनायें स्वाभाविक था, कि उन  ही के साथ थीं। मुझमें सुनने का साहस नहीं रहा तो मैंने दूसरे कमरे में जाकर शरण ली।   उनका निशाना उनके दोनों लायक बेटे थे जो उस समय दुनिया के सबसे बुरे बेटे बने हुए थे। उनको सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि दोनों उन्हें लेकर नहीं गये, दूसरी शिकायत थी कि पैसे बचानेके लिये ट्रेन से गये, हवाई जहाज़ से जाना चाहिये था। उनकी दोनों ही शिकायत वाजिब नहीं थी। उन दोनों का स्वास्थ्य सफ़र के लायक नहीं था, यदि उन दोनों को ले जाते तो इतनी जल्दी नहीं पहुँच सकते थे।   जहाँ तक हवाई जहाज़ से जाने का सवाल था उन दिनों ए.टी.ऐम.  क्रैडिट कार्ड डैबिट कार्ड नहीं होते थे। एयरलाइंस की बुकिंग के लिये पैसे निकालने के लिये सुबह बैंक खुलने की प्रतीक्षा करनी पड़ती।इंटरनैट नहीं था, ट्रैवल एजैंसी बहुत कम होती थी और हमें उनके बारे में कुछ मालूम नहीं था। रेलवे में होने के कारण सुबह की ट्रेन का आरक्षण तुरंत मिल गया, संबंधित अधिकारी को पैसे बाद में भिजवा दिये गये। जहाँ वे रहते थे वहाँ के लिये नागपुर स्थित सहकर्मियों ने कैब का भी प्रबंध पहले ही कर दियाथा। आख़िरी बात शिकायत में विरोधाभासथा!यदि उन्हें ग्वालियर से लेना ही था तो हवाई जहाज़ से कैसे जाते!  अतः उनकी किसी भी शिकायत में दम नहीं था, गहरा दुख था पर यह दुख उनके बेटों ने नहीं दिया था, प्रभु इच्छा थी, जिसके आगे किसी की नहीं चलती, पता नहीं कौन सी कुंठाये और शिकायतें मौक़ा पाकर लावा की तरह ज्वालामुखी से फूट रही थीं।   अभी तक मैं अवसाद और व्याकुलता (depression& anxiety) से पूरी तरह उभरी नहीं थी,यहाँ के वातावरण ने मुझे फिर अँधेरों में ढकेल दिया था। मैंने सबसे अलक थलक अपने को एक कमरे में बंद कर लिया था, तीन चार दिन सिर्फ चाय और पार्ले जी बिस्किट पर रही थी। जब दोनों भाई वहाँ से लौटे तो बिना समय गँवाये उसी समय ये मुझे लेकर  पहली उपलब्ध ट्रेन से दिल्ली आ गये।  यहाँ मेरा इलाज चल ही रहा था।जितने दिन मैं ग्वालियर रही दिनेश भैया के एक डाक्टर मित्र ने मेरा बहुत ध्यान रखा, दवाॉइयों का प्रबंध किया औरनींद काइंजैक्शन भी लगाना पड़ा था। ये वही मित्र थे जिन्होने तनु के पैदा होने के समय भी मेरा बहुत ख़याल रखा था।   कुछ दिनों से यह बात चल रही थी कि चाचा  जी और चाची जी का अब ग्वालियर में रहना मुश्किल है और अब वह दिल्ली आकर रहेंगे। वे दोनों निश्चय कर चुके थे कि उन्हें दिनेश भैया और जयश्री के साथ रहना हैं … Read more