जीते जी इलाहाबाद —-ममता कालिया जी के संस्मरणों के साथ अनोखी यात्रा

जीते जी इलाहाबाद

यात्रीगण कृपया ध्यान दे .. अब से ठीक कुछ लम्हों बाद हम एक अनोखी यात्रा पर जा रहे हैं | इस यात्रा की पहली खास बात यह है की आप जिस भी देश में, शहर में, गाँव में बैठे हुए हैं वहीं से आप इस यात्रा में शामिल हो सकते हैं |यूँ तो नाम देखकर लग सकता है की ये यात्रा इलाहाबाद  की यात्रा है जो एक समय शिक्षा का साहित्य का और संस्कृति का केंद्र रहा है | गंगा, जमुना और सरस्वति की तरह इस संगम को भी जब वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया जी अपनी किताब “जीते जी इलाहाबाद में लेकर आती हैं तो इलाहाबादी अमरूदों की तरह उसकाई खास खुशबू, रंगत और स्वाद समाहित होना स्वाभाविक ही है | जीते जी इलाहाबाद —-ममता कालिया जी के संस्मरणों के साथ अनोखी यात्रा  एक ही किताब में ये संस्मरणात्मक यात्रा महज इलाहाबाद की यात्रा नहीं है | ये यात्रा है  आधुनिक हिंदी साहित्य के बेहद जरूरी पन्नों की, ये यात्रा है  उस प्रश्न की, की क्यों हमारे बुजुर्ग हमारे घर आने पर वो अपनापन महसूस नहीं कर पाते और चार दीवारी के अंदर अपना शहर तलाशते रहते हैं, ये यात्रा है  इलाहाबाद की लोक कला और गंगा जमुनी संस्कृति की, ये यात्रा थी चौक, रानी मंडी, मेहदौरी की, ये यात्रा थी भावनाओं की, ये यात्रा थी तमाम उन विस्थापितों की जो दूसरे शहर या देश में रोटी के कारण बस तो जाते हैं पर उनके सीने में उनका छोटा गाँव या शहर दिल बन के धड़कता रहता है | तभी तो ममता कालिया दी “आमुख” में लिखती हैं कि.. “शहर पुड़िया में बांधकर हम नहीं ला सकते साथ, किन्तु स्मृति बन के वो हमारे स्नायु तंत्र में, हूक बनकर हमारे हृदय तंत्र में, और दृश्य बनकर आँखों के छविगृह में चलता फिरता नजर आता है |” “शहर छोड़ने से छूट नहीं जाता, वह खुशब, ख्याल और ख्वाब बन कर हमारे अंदर बस जाता है|” मन का अपना ही एक संसार होता है .. जहाँ आप शरीर से होते हैं वहाँ हो सकता है आप पूरे ना हों पर जहाँ आप मन से होते हैं वहाँ आप पूरे होते हैं |  कोई भी रचना कालजयी तब बनती है जब लेखक अपने दर्द से पाठक के किसी दर्द को छू लेता है | वहाँ द्वैत का भेद खत्म हो जाता है, लेखक -पाठक एक हो जाते हैं .. और रचना पाठक की रचना हो जाती हैं | जो लोग इलाहाबाद में रह रहे हैं या कभी रहे हैं वो उन नामों से जुड़ेंगे ही पर ये किताब हर विस्थापित का दर्द बयान करती है | एक बहुत ही सार्थक शीर्षक है “जीते जी इलाहाबाद” | जब तक जीवन है हमारा अपना शहर नहीं छूटता | शरीर कहीं भी हो, मन वहीं पड़ा रहता है | जैसे ममता दी का रहता है, कभी संगम के तट पर, कभी 370, रानी मंडी में कभी गंगा -यमुना साप्ताहिक अखबार में, कभी मेहदौरी के दीमक लगे सागौन के पेड़ में और कभी एक दूसरे को जोड़ते साहित्यिक गलियारों में|जैसे वो घोषणा कर रही हों की जीवन में वो कहीं भी रहें मन से इलाहाबाद में ही रहेंगी | किताब में ही एक घटना का वर्णन है …. ममता दी लिखती हैं कि, “अरे वे हरे चने कहाँ गए ताजगी से भरे ! यहीं तो रखे हुए थे, मैं तोड़ कर छील कर खा रही थी…. इलाहाबाद मेरे लिए यूटोपिया में तब्दील होता जा रहा है | वह गड्ढों-दु चकों से भर ढचर ढूँ शहर जहँ कोई ढंग की जीविका भी नहीं जुटा पाए हम, आज मुझे अपने रूप रस गंध और स्वाद से सराबोर कर रहा है | कितने गोलगप्पे खाए होंगे वहाँ, और कितनी कुल्फी| कितनी बार सिविल लाइंस गए होंगे |” मैंने इन पंक्तियों को कई बार पढ़ा | क्योंकि  ये पंक्तियाँ शायद हर विस्थापित की पंक्तियाँ हैं | मेट्रो शहर सुविधाओं के  मखमली कालीन के नीचे य हमारे “हम को तोड़ कर “मैं” बना देते है | जो कोई भी छोटे शहर से किसी मेट्रो शहर की यात्रा करता है वो इस बात का साक्षी होता है | वो बहुत दिन तक इस “हम” को बचाए रखने की कोशिश करता है पर अंततः टूट ही जाता है | हर मेट्रो शहर का स्वभाव ही ऐसा है | समाज के बाद घर के अंदर पनपते इस “मैं”को “हम” में बचाए रखने की जद्दोजहद शायद हर विस्थापित ने झेली है | मशीन सी गति पर दौड़ता ये शहर हमें थोड़ा सा मशीन बना देता है | मुझे कभी -कभी w w Jacobs की कहानी “The Monkey’s Paw” याद आती है | एक विश पूरी करने पर एक सबसे प्रिय चीज छिन जाएगी | और ना चाहते हुए भी भावनाएँ चढ़ा हम तनख्वाह घर लाते हैं | ममता दी लिखती है, “अपने शहर का यही मिजाज था, तकल्लुफ ना करता था, ना बर्दाश्त करता |इसलिए इलाहाबादी इंसान जितना अच्छा मेजबान होता है उतना अच्छा मेहमान नहीं | एक यात्रा उम्र की भी होती है, जब पता चलता है कि हमारे बुजुर्ग जो बात आज हमसे कह रहे हैं उसका अर्थ हमें 20 साल बाद मिलेगा | जैसा ममता दी लिखती हैं कि, “आज मैं समझ सकती हूँ चाई जी की शिकायत और तकलीफ क्या थी |उनके लिए पंजाब देश था और यू पी परदेश| वे मन मार कर इलाहाबाद आ गईं थीं पर उनकी स्मृतियों का शहर जालंधर उनके अंदर से कभी उखड़ा ही नहीं | उनकी तराजू में हमारा शहर हार जाता |” सांस्कृतिक यात्रा के साथ ममता दी इलाहाबाद के इलाकों में तो ले ही जाती हैं इलाहाबाद के नाम पर भी चर्चा करती हैं | इलाहाबाद से प्रयागराज नाम हो जाने का भी जिक्र है | प्रयाग यानी ऐसी भूमि जिस पर कई यज्ञ हो चुके हों | वो संगम क्षेत्र है | और ‘इलाहाबाद’ लोगों के दिलों में धड़कता हुआ | प्रयाग वानप्रस्थ है तो इलाहाबाद गृहस्थ | अकबर ने कभी जिसका नाम अलाहाबाद किया था वो वापस इलाहाबाद में बदल गया | इस किताब से एक अनोखी जानकारी मिली की इलाहाबाद शब्द इलावास. से आया है | इलावस .. . संसार में बेटी के नाम पर बसा लगभग अकेला शहर … Read more

जेल के पन्नों से

जेल के पन्नों से

जेल .. ये शब्द सुनते ही मन पर एक खौफ सा तारी हो जाता है | शहर की भीड़ -भाड़ से दूर,अपनों से अलग, एक छोटा सा कमरा,अंधेरा सीलन भरा | जेल जाने का डर इंसान को अपराध करने से रोकता है |फिर भी अपराध होते हैं | लोग जेल जाते हैं |क्या सब वाकई खूंखार होते हैं ?या कुछ परिस्थितिजन्य  अपराधी होते हैं और क्षणिक आवेश में किये गए अपराध की सजा भुगतते हैं | आइए मिलते हैं ऐसे ही जेल के कैदियों से और जानते हैं उनकी सच्ची कहानी वरिष्ठ लेखिका आशा सिंह जी की कलम की जुबानी .. जेल के पन्नों से  जेल का नाम ही मन में भय उत्पन्न कर देता है ।एक बार जेल में ही पतिदेव की पोस्टिंग हुई,सो जेल और क़ैदियों से मिलने का अवसर मिला । गीता का ज्ञान देने वाले भगवान श्री कृष्ण का जन्म जेल में हुआ था ।जेल के परिसर में कृष्ण जन्माष्टमी बहुत धूमधाम से मनाई जाती है ।जन्माष्टमी पर झाँकी देखने जेल परिसर में गयी।बड़े ही सुंदर ढंग से सजाया गया था कागज की पट्टियों को काटकर मंदिर बनाया गया था ।एक्स-रे प्लेट पर बालकृष्ण की छवि जो लाइट पड़ते जगमगा उठती।किसी पंखे के चक्र पर किनारे गोपियाँ और बीच में बाँसुरी बजाते कृष्ण ।बुरादे को अलग अलग रंगों में रंग कर रास्ते,उसपर प्रभु के नन्हे चरण,जो नंदवाल के झूले तक जा रहे थे । मैं तन्मयता से झांकी को देख रही थी।कुछ क़ैदी भजन कीर्तन कर रहे थे।एक क़ैदी से पूछा -‘बहुत सुंदर सजाया है।‘उसने बताया कि उमर का कमाल है। मैंने उमर को बधाई देनी चाही,एक दुबला पतला सांवले रंग का युवक मेरे सामने लाया गया मैंने उसकी कला की बहुत तारीफ की। उसने झुक कर शुक्रिया कहा। उसके चेहरे पर इतनी मासूमियत भरी थी कि मैं सोच में पड़ गई कि इससे अपराध हुआ होगा। डाक्टर सिंह ने बताया कि इस पर तीन कत्ल का जुर्म है। फांसी की सजा हुई थी,पर महात्मा गांधी के सौ वर्ष पूरे होने के कारण उम्रकैद में तब्दील हो गई। ‘पर यह कितना मासूम दिखता है,शरीफ लगता है।इसने खून किया, विश्वास नहीं होता।‘ ‘अच्छा ,आप खुद ही पूछ लेना ।‘जेलर साहब ने मेरी जिज्ञासा शान्त करने के लिए उसे मेरे बंगले पर भेज दिया। हथकड़ी बेड़ी में जकड़ा उमर सिपाही के संग लाया गया।उसको देखकर मस्तिष्क में ववंडर चलने लगा। इतनी कम उम्र में जेल में आ गया।जब तक छूटेगा एकदम कृशकाय वृद्ध हो चुका होगा। शायद उसे खुले आसमान के नीचे अच्छा लगा। मैंने चाय मंगवायी तो उसने अपने तसले में ली। ‘अरे तुम लोग अपना तसला साथ लेकर चलते हो।‘ ‘अरे मालकिन, छोड़ कर आता तो चोरी हो जाता।ससुरे चोर डकैत तो भरे हुए हैं।‘चाय में बिस्कुट डुबो कर खाते हुए बोले। देखो हम बैठे है, मैडम जो पूछे बता देना। बड़ी मुश्किल से वह मोंढे पर बैठा। ज्यादा समय नहीं था,सो मैंने बात शुरू की-‘तुम तो शरीफ खानदान के लगते हो। यहां कैसे आ गये।‘ उसने सिर झुकाए कहा-‘मैडम इश्क के कारण। मैंने किया नहीं पर हो गया। लखनऊ में अब्बा हुजूर की फोटो फ्रेम करने की छोटी सी दुकान थी,साथ में बुक बाईंडिग का भी काम करते थे। मैं इकलौता बेटा, मां बाप की आंखों का नूर था।दो मकान भी थे। किराया अच्छा खासा आ जाता। जिन्दगी मजे से बीत रही थी। अचानक तूफान आ गया।कश्ती डगमगाने लगी। दुपहर को अब्बा खाना खाने घर जाते,उस समय मैं कालेज से लौटकर दुकान पर बैठता। मैं एक फ्रेम सही कर रहा था कि दुकान रोशन हो गई। निहायत खूबसूरत हसीना मेरे सामने खड़ी थी।उनके गोरे रंग की वजह से पूरी जगह जगमगा उठी। मैंने पूछा‘जी बताइए।‘ उन्होंने एक बेहद पुरानी तस्वीर जो पानी में भीग कर खराब हो गई थी। जगह जगह से फट गई थी,कई जगह बदरंग हो गई थी,‘यह मेरी दादी जान की तस्वीर है। पता नहीं कैसे पानी में भीग गई। अब्बा हुजूर को बहुत ही प्यारी है। अम्मी ने कहा कि किसी तरह ठीक कराओ,अब्बू को पता नहीं लगे। मैने तस्वीर ली-‘कोशिश करता हूं।‘ ‘कोशिश नहीं,आपको करना ही है।आपकी दुकान का नाम सुनकर ही आई हूं।‘ मैने फोटो देखी।वे भी अपने जमाने की हूर की परी होंगी। एकाएक दिमाग में बिजली कौंधी,ये तो अपनी दादी पर पड़ी है। पुराने जमाने के ढेरों जेवरात पहिने गोया खुद से शरमा रही हो। पता नहीं कैसे फोटो खींचने की इजाजत दी होगी। विचारों के समन्दर से बाहर आया। धीरे धीरे फोटो फ्रेम से अलग की। बाबा आदम के जमाने की तस्वीर,किस मुसीबत में फंसा गई। मैं पेन्टिग कर ही लेता था। आहिस्ता आहिस्ता खराब जगहों को भरने लगा। एक एक जेवर को संवारा। बालों पर, कपड़े सब पर कहीं ब्रश कहीं पेन्सिल चली।अब्बा मुझे व्यस्त देख बहुत खुश हुए। तीसरे दिन वे आ धमकी। अपने मोतियों जैसे दांतों की नुमाइश करती हुई-‘हो गया।‘ मैंने धीरे से पेपर में लिपटी हुई फोटो उन्हें दी। ‘माशा अल्लाह।कमाल कर दिया।जी चाहता है कि ऊंगलियां चूम लूं।‘अपनी बात पर खुद ही शर्मा गई। बटुआ खोल कर मेहनताना देना चाहा, मैंने मना कर दिया। ‘आपने इतनी तारीफ कर दी, मेहनताना वसूल। वे शुक्रिया अदा कर चली गई। अगले दिन वे पेन्टिग का ढेरों सामान लेकर हाजिर हो गई।ब्रश बहुत नफीस और महंगे थे। मैं हतप्रभ-‘ नहीं बहुत महंगे हैं।‘ मैं चाहती हूं कि तुम बहुत बड़े आर्टिस्ट बनो। खूब नाम कमाओ। ‘अरे नहीं साहब‘मैने कहना चाहा। ‘क्यो मकबूल फिदा हुसैन साहब हैं ना। तुम क्यों नहीं उनकी तरह मशहूर हो सकते।‘ मन में सपने जगाकर चली गई। हुसैन तो नहीं बन पाया, कैदी नंबर २२१ बन गया। मैं ने तसल्ली दी। मैंने कैनवस पर शायरी शुरू कर दी।वे आतीं,पेन्टिग को सराहती।मेरा हौसला अफजाई करतीं।‘बहुत सारी बना डालो।मै आर्ट गैलरी में नुमाइश लगवा दूंगी‘ मेरी उड़ान को पंख देती। अब्बू की अनुभवी आंखों ने ताड़ लिया-‘बेटा हम छोटे लोग हैं।वे बड़े बिजनेसमैन मिर्जा साहब की बेटी हैं।‘ ‘नहीं अब्बू,वे बस हौसला अफजाई करतीं हैं।‘ हौसला अफजाई कब मुहब्बत में तब्दील हो गई, पता नहीं चला। हम अक्सर पार्क में मिलते।वे अपनी शानदार कार से आतीं, मैं अपनी खटारा सायकिल से। ‘जब तुम्हारा नाम हो जाए, मुझे भूल न जाना।‘ ‘सवाल ही नहीं है,आप हमेशा मेरे साथ रहेंगी‘ पर हमारे फैसले … Read more

गुजरे हुए लम्हे (परिशिष्ट)-अध्याय 15

गुज़रे हुए लम्हे

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 11 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 12 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -14 अब आगे ….   गुजरे हुए लम्हे (परिशिष्ट)अध्याय 15 2019 से आज तक एक ख़ुशी और दुख अनेक  (कोरोना- काल) ‘गुजरे हुए लम्हे’ के अंत में मैंने लिखा था यह जीवन यात्रा है… जब तक यात्रा समाप्त नहीं होती इसमें पन्ने जुड़ते रहेंगे। अंतिम अध्याय में मैंने महत्वपूर्ण यात्राओं का वर्णन किया था। अब हम 2019 में आ जाते हैं। मैं इस वर्ष आगरा गई थी जहाँ की कवि गोष्ठी का मैंने विवरण पहले दिया था। इसी साल हमारी शादी की पचासवीं वर्ष  गाँठ होने वाली थी।  नेहा ने मुझसे पूछा कि हम कहीं घूमने जाना चाहेंगे या एक पार्टी करें। इन्हें तो किसी भी अवसर पर कोई जश्न मनाना इतना पसंद नहीं है इसलिये उसने मुझसे ही पूछा। घूमने जाने के लिये उस समय कमर का दर्द इजाजत नहीं दे रहा था अतः पार्टी करने का ही सोचा । वैन्यू और बाकी चीज़ों पर विचार करने के लिये बहुत समय था पर आगरा में मैंने पूनम के साथ मिल कर मेहमानों की विदाई में देने वाले उपहार की योजना बना ली।  मुझे हमेशा से ही ख़रीदकर देने की बजाय हाथ की बनाई या ख़ुद से डिज़ाइन की हुई चीज़ें देना  पसंद है।  हमने एक कलैंडर बनाया जिसमें अलग अलग फूलों पर मेरे लिखे हुए दोहे और उसी फूल के चित्र थे। 12 दोहे 12 फूलों के चित्र 12 महीनों में। जैसी कि उम्मीद थी पहले तो ये  थोड़ा नाराज़ हुए  कि ये सब करने की क्या ज़रूरत है फिर थोड़ा समझाने पर मान गये और कहा कि पार्टी सादगी से हो। मुझे भी सादगी ही पसंद है। दोबारा शादी की रस्में पूरी करने की नौटंकी तो मुझे भी पसंद नहीं है। बस एक बार मित्रों और परिवार को इकट्ठा करने का बहाना चाहिये होता है। पार्टी में बस केक काटा जायेगा और कुछ खास नहीं होगा यह निश्चित हो गया। पहले सोचा था अपूर्व की सोसायटी के कम्यूनिटी हॉल को बुक कर दें पर वह कई जगह से बहुत दूर पड़ता, इसलिये CSOI में ही करवा दिया वहाँ मेरी पहली किताब  ‘मैं सागर ने एक बूंद सही’ का अनावरण भी हुआ था।  स्थान चयन कर लेने के बाद तारीख़ तय करके बुकिंग कराना भी ज़रूरी था 12 दिसंबर की जगह हमने 15 दिसंबर की तारीख़ तय की क्योंकि रविवार को अधिकतर लोगों को आने में सुविधा होती है। बीबी को तो सर्दियों में आना ही था उनको पहले से ही सूचित कर दिया तो उन्होंने उसके ही अनुसार आने का कार्यक्रम बनाया। उनके साथ नीरू को भी आना था। सब से पहले इन्हीं तीनों के आने की पुष्टि हुई। बाकी लोगों का तो अंतिम क्षण तक ही हाँ और न  चलता रहा।लोगों को कहाँ ठहराना है इसका इंतज़ाम तो तब होता जब पता होता कि कौन कौन आ  रहा है। बीबी को तो घर में ही ठहरना था उनकी तारीख़ भी पक्की थी। अंत में हमें बगल वाले और एक ऊपर वाले फ्लैट की चाबी मिल गई वे लोग दिल्ली से बाहर गये  हुए थे। अत: सब के रहने की व्यवस्था अच्छी हो गई। आगरा से सभी  आये थे लखनऊ से आशा भाभी और अनुज आये बड़ौदा से चारू सुखदेव भी आये यद्यपि वो शाम को चले गये। पार्टी में शिरकत नहीं कर सके बस सब से मिल लिये। इनके परिवार से नीता और स्वीटी शामिल हुए। दिनेश भैया और उमा दीदी तो यहीं थे। जयश्री की कमी खली वह लंदन गई थी। शशि बीबी के परिवार से कोई नहीं आया, लोकेश भाई साहब भी नहीं आ पाये थे। बीबी की ससुराल के लोग और नेहा के मायके के लोग भी शामिल हुए। पार्टी में क़रीब 50 लोग थे और घर में 20 के लगभग रिश्तेदार ठहरे थे। काफ़ी अच्छा माहौल रहा सब ने मज़े किये। पार्टी में कुछ लोगों ने पुरानी यादें ताज़ा की , कोई पार्टी गेम नहीं रखा था बस एक लकी डिप था। रात को जब हम लौट रहे थे तभी पता चला था कि  CCA, NRC के विरोध में दिल्ली में कुछ थे हिंसक घटनायें हुई है। धीरे धीरे ये हिंसक विरोध देश भर में उग्र होते चले गये। दिल्ली में शाहीनबाग़ में महिलाओं ने सड़क को घेर लिया और दिल्ली में काफ़ी बड़े स्तर पर दंगे हुए। देश की शांति व्यवस्था बुरे दौर में थी। देश की राजनीति के साथ पारिवारिक स्तर पर और पड़ौस के स्तर पर भी 2019 में 15 दिसंबर के बाद बुरा वक्त चल रहा था। बीबी वापिस चली गईं थी पर उनके वापिस पहुँचने के दो दिन बाद ही सूचना मिली कि उनका  बड़ा पुत्र जो केवल 62 साल का था अचानक चल बसा। उसकी तो मामूली सी बीमारी की भी कभी ख़बर नहीं आई थी। रिटायरमैट लेने के बाद वह अपनी पत्नी के साथ पर्यटन पर ही रहता था चाहें देश हो या विदेश।  बीबी की  रोती  हुई सूरत  देख कर गले लगाने का मन होता था पर….. मजबूर थे। मेरा अशोक से बचपन का नाता था… मेरे से सिर्फ 9 साल छोटा  था बचपन में उसके हाथ बहुत खेली थी। यहाँ घर में मातम छा गया था। बीबी भाई साहब के दुख का हम अंदाज भी नहीं लगा सकते, परन्तु दोनों ने ही अपने दुख के साथ जीना सीख लिया और ख़ुद को सामान्य जिंदगी … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -14

यात्रा वृत्त

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 11 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 12 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13 अब आगे ….     गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 14 –यात्रा वृत्त (2011 के बाद) मैं छोटी थी तो मेरी यात्रायें जब बुलंदशहर सिकंद्राबाद और ज्यादा से ज्यादा दिल्ली तक होती थीं, जिनका उद्देश्य भी कभी पर्यटन नहीं होता था। पर्यटन के लिये विवाह से पूर्व एक नैनीताल यात्रा की थी और दूसरी काश्मीर की थी। ये इतनी पुरानी बातें है कि उनकी हल्की झलक ही दिमाग़ में है, इनका जिक्र मैं अध्याय 2 और 3 में कर चुकी हूँ।   शादी के बाद ही एक तरह से मैं उत्तर प्रदेश के बाहर निकली थी। मुंबई, केरल और गोवा भी तनु के इलाज के सिलसिले में गये तो वहाँ के प्रमुख आकर्षण देख लिये थे। सिकंद्राबाद हैदराबाद भी घूमा। शोलापुर से आते आते  पंढरपुर, शिरडी,बीजापुर और महाबलेश्वर भी गये थे। इन सब यात्राओं का जिक्र समय समय पर यादों पर ज़ोर डालकर मैंने किया है।   दिल्ली आने के बाद हरिद्वार, ऋषिकेश, शिमला, देहरादून  और मसूरी गये थे।।शिमला तो तीन बार जाना हुआ था, वहाँ रेलवे के रैस्टहाउस में रुके थे। ये तो हर बार ड्यूटी पर ही थे, रेलकार से जब चाहें जहाँ रुके निरीक्षण किया  और आगे बढ़ गये। कुफरी और शिमला का भव्य राषट्रपति निवास देखा जो कि अब उच्च शिक्षा का केंद्र है। अद्भुत इमारत है जिसका एक हिस्सा पर्यटकों के लिये खुला रहता है। यहाँ का लॉन और उद्यान भी बहुत सुंदर है।   जब से लिखना शुरू किया है हर यात्रा की स्मृतियों से कभी कविता सजाई है तो कभी लेख लिखा है और कभी गद्य और पद्य दोनों रूपों में यात्रा वृत्त लिखे हैं। ये स्मृतियाँ मेरे जीवन का अंग हैं, इसलिये इनको इस अध्याय में प्रस्तुत करूँगी। ये सभी यात्रा संस्मरण किसी न किसी पत्रिका या वैब साइट पर आ चुके हैं परन्तु  इनका कॉपी राइट मेरा ही है, यह मैं पहले स्वानुभूति में भी बता चुकी हूँ।  इस अध्याय में मैं दार्जिलिंग, गैंगटॉक यात्रा(2011), केरल यात्रा(2013) और उत्तराखंड यात्रा(2016) और ग्वालियर यात्रा(2019) के संस्मरण ही प्रस्तुत करूँगी। शिमला और हरिद्वार ऋषिकेश यात्राओं पर जो कवितायें लिखी थीं वे पेश करूँगी,तो पहले कवितायें-     शिमला से.. खिड़की खोली, दर्शन किये प्रभात के, सूर्य की किरणें पड़ी जब, हिम शिखर पर, विस्तार ज्योति पुंज का, मेरे द्वार पे।   ये नोकील पेड़ देवदार के, प्रहरी बने खड़े हैं, पर्यावरण के बहार के।     एक सौ तीन सुरंगें, पार करती घूमती चढ़ती हुई, रेल की ये पटरियां, दौड़ती हैं जिन पर सुन्दर, सजीली गाड़ियां। अति सुखद है यात्रा, शिवालिक पहाड़ की।   ऊंचे नीचे, टेढे-मेढे, रास्ते पहाड़ के, रेंगते हैं इन पर वाहन प्रवाह से ऊंचे शिखर, नीची वादी, सौन्दर्य रचनाकार के।   जीवित हूँ या स्वर्ग में, भ्रम मुझे होने लगा है, मुग्ध मुदित मन मेरा, होने लगा है। चारों ओर फैला है, बादलों का एक घेरा, छू लिया है बादलों को, मुट्ठी में बन्द किया है, पागल आशिकों को।   शाम ढली पुलकित हुई मैं, ठंडी बयार से, तन मन शीतल हो रहा है रात्रि के प्रहार से।   तारों भरा आसमां नीचे कैसे हो गया, आकाश ऊपर भी नीचे भी, फिर मुझे कुछ भ्रम हो गया। स्वप्न है या यथार्थ, यथार्थ कबसे इतना सुखद हो गया !   ऊपर निगाह डाली तो बादलों के घेर थे, बूँदें गिरी मौसम ज़रा नम हो गया यह सुख फिर कहीं खो गया।   सूखी चट्टानें, कटे पेड़, देखकर मन विचलित हो गया। सीढियों पर उगती फ़सल देखकर, फिर मन ख़ुश हो गया।   धरती के इस स्वर्ग को बचायेंगे, ये पेड़ देवदार के।   हरिद्वार और ऋषिकेश   उत्तराखण्ड का द्वार हरिद्वार, यहाँ आई गंगा पहाड़ों के पार। पहाड़ों के पार शहर ये सुन्दर। सुन्दर शहर उत्तराखण्ड का मान। मंसादेवी, चंडीदेवी के मन्दिर सुन्दर, मंदिर का रास्ता बन गया है सुगम, केबल कार की यात्रा अति मनोरम। हर की पौड़ी शहर का मान, गंगा की आरती, गंगा की भक्ति, ऊपरी गंगा नहर और गंगा, हरिद्वार का बनी है अभिमान। तैरते हैं यहां प्रज्वलित दीप हर शाम। आयुर्वेद्यशाला पंतजलि संस्थान, गुरुकुल कांगड़ी यहां विद्यमान। हरिद्वार के निकट ही शहर ऋषिकेश, आश्रमों में साधुओं का होता है प्रवेश। विशाल झूला सा पुल झूला लक्ष्मण, राम के नाम का भी झूला विलक्षण। युवा पर्यटकों का भी मन मोहे  ऋषिकेश, डेरों में रहते थे युवा नदी के तट पर, डेरे तो उठ गये प्रदूषण से बचाव को, फिर भी नदी में है राफ़्टिग जारी ।   यहां से ही शुरू होती है शुभ यात्रा, उत्तराखण्ड की चार धाम यात्रा। गंगोत्री, जमनोत्री, केदारनाथ, और बद्रीनाथ की तीर्थयात्रा। (अब राफ्टिंग पूरी तरह बंद हो चुकी है)     दार्जिलिंग और गैंगटॉक यात्रा (2011)   अपूर्व की शादी के बाद ये हमारी पहली पर्यटन यात्रा थी, जिसमें परिवार की नयी सदस्य नेहा भी हमारे साथ थी।  हम दिल्ली से विमान द्वारा बागडोगरा हवाई अड्डे पर पहुँचकर सामान की प्रतीक्षा कर रहे थे। मौसम साफ़ था। अचानक नेहा कभी नीचे ज़मीन पर देख रही थी कभी ऊपर और कहने लगी ये पानी कहाँ से आ रहा है। नीचे कुछ गीला था। कुछ देर में पता चाला कि पानी की बोतल जो कि ठीक से बंद नहीं की गई थी, नेहा के बैग में थी उसी से पानी टपक रहा था।इस ज़रा सी लापरवाही की भेंट उसका मोबाइल हो गया जो बहुत कोशिशों के बाद … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13 -कभी ख़ुशी कभी ग़म

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 11 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 12 अब आगे …. गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13 –कभी ख़ुशी कभी ग़म (दिल्ली 2006- अब तक) साहित्यिक गतिविधियों के बाद अब पुनः पारिवारिक कथा-क्रम से जुड़ने का समय आ गया है। अपूर्व  अपनी नौकरी में अभ्यस्त हो गया था और तनु घर में 11 वीं और 12 वीं कक्षा के बच्चों को अर्थशास्त्र पढ़ाने में व्यस्त हो गई थी। सेवानिवृत्त होने के बाद दोबारा काम करने का  इनका मन कभी बना ही नहीं। काफ़ी दबाव के बाद एक काम लिया था, पर बहुत जल्दी छोड़ दिया। दोनों समय घूमने जाना बाज़ार के काम करना, घर के कामों में मेरी मदद कर देना और आराम करना ही इनकी दिनचर्या रही, जिससे इन्हें कभी कोई शिकायत नहीं हुई।   2007 जुलाई में एक छोटी सी दुर्घटना हो गई थी।मैं वाशरूम साफ़ करते समय फिसल गई दर्द बहुत ज़्यादा था, पर मैं ख़ुद उठकर खड़ी हो सकी थी, इसलिये मैंने सोचा कि कोई गंभीर बात नहीं है। थोड़ी देर आराम करके, दर्द की गोली खा कर अपने रोज़ के कामों में लग गई थी।सिंकाई  की, दर्द की गोली खाली, क़रीब 10 दिन तक ऐसे ही चला, परन्तु दर्द कम नहीं हो रहा था।   इसी समय गुड़गाँव में शशि बीबी के बेटे के नये फ्लैट का गृह प्रवेश था , जहाँ हम सब को भी जाना था। कार में भी ढाई तीन घंटे बैठना फिर वहाँ हवन, खाने पीने में पूरा दिन ही लगना था इसलिये मैं नहीं गई। ये और दोनों बच्चे ही गये, पर घर में अकेले मैंने आराम भी नहीं किया, सफ़ाई में लग गई, सारी चादरें और कुशन कवर वगैरह बदले, मशीन में कपड़े धोये और सुखाये। शायद शारीरिक कष्ट सहने की अधिक क्षमता के कारण मैं अपनी चोट की गंभीरता को समझ ही नहीं पाई थी। शाम के समय पास के बाज़ार भी चली गई। बहुत दर्द महसूस हुआ तो वापिस आने के लिये रिक्शा कर  ली। रिक्शा में इतने दचके लगे कि रही सही कसर भी पूरी हो गई। रात भर असहनीय दर्द होता रहा तब अगले दिन ऐक्स रे करवाया और हड्डियों के डाक्टर को दिखाया। रीढ़ की हड्डी में दो जगह फ़्रैक्चर थे, डाक्टर ने 6 सप्ताह के लिये बिस्तर पर सीधे लेटे रहने का निर्देश दे दिया था।   ये छः सप्ताह और उसके बाद का लम्बा समय मेरे लिये और पूरे परिवार के लिये बहुत कष्ट का समय था। 6 सप्ताह तक करवट लेने पर भी प्रतिबंध था। शारीरिक कष्ट के अलावा सामने की दीवार को देखते देखते ऊब गई थी। मैं ऐसी जगह पर लेटी थी जो बाथरूम से निम्नतम दूरी पर थी। यहाँ से दूसरे कमरे में रखा टी वी दरवाज़े से देखा जा सकता था परंतु मुझे सुनाई भी दे इसके लिये वॉल्यूम बहुत तेज रखना पड़ता था जिससे वहाँ बैठकर देखने वालों को कुछ परेशानी अवश्य होती होगी।   सारे काम मिल जुल कर ये तीनों कर रहे थे ।दाल चावल सब्जी मुझ से पूछ पूछ कर किसी तरह बना रहे थे पर रोटी पराँठा बनाना उसके लिये आटा गुँधना मुश्किल था। कभी कभी ब्रैड से काम चला लेते थे। अपूर्व का ऑफिस उन दिनों पास ही में था तो वह लंच के समय आ जाता था क्योंकि घर पर जो भी बना हो वह खा लेता था। सुबह सुबह खाना पैक कर के देना मुमकिन नहीं था। ऐसे में हमारी एक पड़ौसन ने खाना बनाने के लिये एक नौकरानी का प्रबंध किया जो रात का खाना बनाने लगी थी। नयी नौकरानी वह भी खाना बनाने के लिये…………….. जिसे मैं कमरे में बुलाकर ही सब निर्देश देती थी, धीरे धीरे वह हमारी पसंद का भोजन बनाना सीख गई थी। 6 सप्ताह बीतने के बाद, जब मैं खड़ी हुई तो दर्द और भी बढ़ गया था। दर्द निवारक गोलियाँ तो महीनों खाईं। दर्द कम होने में क़रीब दो साल लगे पर ठीक तो आज तक नहीं हुआ है। एम्स और स्पाइन इंजरी संस्थान दोनों जगह  दिखाया परन्तु सर्जरी कर के भी दर्द से मुक्ति मिलने की संभावना डॉक्टरों को नज़र नहीं आई थी और फिज़ियोथैरपी की ही बात हुई थी।  साथ ही सही  तरह से आराम, काम और व्यायाम के बीच समन्वय बनाने की सलाह मिली थी। जब कभी दर्द बढ़ा तो फिज़ियोथैरैपी करवाई, सिंकाई की, बहुत ज़रूरी हुआ तो दर्द की गोली खाली । ये दर्द अब जीवन का अंग है, ये सत्य स्वीकार कर लिया है।   अब तक अपूर्व  को नौकरी  करते  हुए  क़रीब दो ढाई साल हो चुके थे। अपूर्व  की दोस्ती हमेशा लड़कियों  से भी रही है इसलिये  हमें लगता था किसी दिन वह आकर कहेगा कि “मुझे फलां लड़की से शादी करनी है” परन्तु अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ था ,पूछने पर भी उसने हमेशा यही कहा कि  ऐसा कुछ नहीं है। मुझे लगा था कि अब लड़की ढूँढने की जिम्मेदारी  हमें ही निभाना होगी। अतः मैंने अख़बार  में विज्ञापन  देखना शुरू किया और कुछ चुने हुए परिवारों को मेल भेजीं।  मैंने सजातीय कॉलम ही देखे,  ऐसा नहीं है कि मुझे अंतरजातीय  विवाह से एतराज है,  सजातीय लड़की ढूँढने  के पीछे दो कारण थे पहला तो यह कि रविवार को विवाह विज्ञापन  इतने होते हैं कि सब  को नहीं देखा जा सकता किसी न किसी आधार पर सीमा  रेखा बनानी होती है,  दूसरा कारण यह था कि सजातीय परिवारों के बारे में मालूम … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9 अब आगे ….     अध्याय 10-लेखन की शुरुआत (दिल्ली 1997 से 2000) 1997 में अपूर्व ने 10 वीं कक्षा पास कर ली थी। हिंदी तो दसवीं तक ही पढ़ी थी उस समय का एक संस्मरण उद्धरित करके इस अध्याय का आरंभ करती हूँ।–   मैं और मेरा बेटा (संस्मरण 9 )   आज कुछ पुरानी बाते याद आ रहीं हैं, अपूर्व मेरा बेटा जब दसवीं कक्षा में था तो  मैं उसे हिन्दी पढ़ाया करती थी विशेषकर कविता। कविता में उसे बिल्कुल रुचि नहीं थी पर परीक्षा देनी थी इसलिये पढ़ना तो था ही। शब्दों का अर्थ समझाने के बाद भावार्थ समझाना बहुत कठिन हो जाता था क्योंकि उसके पाठ्यक्रम की कविताओं में जो विषय लिये गये थे, वो या तो दार्शनिक से थे या फिर उस आयु के लिये बेहद नीरस। अंत में यही होता कि ‘’मां मैं रट लूँगा परीक्षा से 2-3 दिन पहले लिख कर रख दो।  ‘’आखिर मैं कितना लिखूँ और वह कितना रटे!   कवियों का जीवन परिचय और साहित्यिक परिचय भी परीक्षा में अवश्य ही आता था, जब कवि की एक रचना समझना कठिन है तो साहित्यिक परिचय कैसे लिखें!  8-9 कवि और उतने ही लेखक तो होंगे पाठ्यक्रम में।   अपूर्व ने ही सुझाव दिया कि ‘’मां एक चार्ट बना दो उस में सब कवियों और लेखकों के नाम फिर जन्म तिथि जन्म स्थान और हर एक की दो दो किताबों के नाम लिख दो बाकी सब  की कविताओं की तारीफ में कुछ कुछ लिख दूँगा नम्बर लेने के लिये कुछ तारीफ करना ज़रूरी है, बुराई तो कर नहीं सकते।‘’   मैंने चार्ट बना दिया सुपुत्र जी ने देखा फिर अपने अंदाज में बोले ‘’ये बर्थ डे क्यों याद करनी पड़ती है?अब कवियों को फोन कर के हैप्पी बर्थ डे कहना है क्या !   मैं निरुत्तर…   फिर उनके जन्म स्थान ‘’अरे माँ ये सब कहाँ कहाँ जाकर पैदा हुए इन छोटे छोटे गाँवों के नाम कैसे याद होंगे दिल्ली मुंबई में कवि और लेखकों जन्म क्यों नहीं लेते ? यहाँ भी हमसे दुश्मनी !’’ ‘’ माँ आप कहाँ पैदा हुईं थी?’’ अचानक मुझ पर सवाल दाग दिया ।   ‘’बेटा, बुलन्दशहर’’ मैंने बताया।   ‘’तभी कविता लिखने का शौक है’’ उसने निराशा के साथ कहा।‘’   उस समय मेरी कवितायें और लेख पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे।   अपूर्व एकदम बोल पड़ा ‘’लिखना है तो कविता लिखो पर छपवाना बन्द करो।‘’   मैंने पूछा ‘’क्यों ?’’   ‘’अगर किसी NCERT वाले को पसंद आ गईं आपकी कवितायें और कोर्स की किताब में डाल दी गईं तो बच्चे बहुत कोसेंगे। मेरी माँ को कोई बुरा भला कहे मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। ‘’उसने मासूम सा, भावुक सा जवाब दिया ।   समस्त कवि गण इसे चेतावनी समझ सकते हैं ! कृपया ध्यान दें! पाठ्यक्रम निर्धारित करने वाले भी विचार करें।   संस्मरण का सिलसिला शुरू हुआ है तो एक के बाद एक दो संस्मरण और-     नाम गुम जायेगा..   (संस्मरण 10 )   हमारे पति श्री अरुण भटनागर रेलवे में  उच्च अधिकारी रहे हैं, उस समय उनकी आयु 55 के क़रीब होगी। अपने सारे काम पूरी निष्ठा से करते रहे हैं। बुद्धिमान हैं, अपने कार्यालय में अच्छी छवि है। याददाश्त इतनी अच्छी है कि क्रिकेट में कब क्या हुआ या कोई ऐतिहासिक घटना हो तुरन्त बता देते हैं। कभी कभी मैं उनसे कहती  थी कि उन्हें तो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में जाना चाहिये। जब भी यह कार्यक्रम देखते हैं फटाफट उत्तर देते जाते हैं, कोशिश करके एक बार वहाँ पहुंच जायें तो कम से कम 50 लाख तो जीत ही सकते हैं।   याददाश्त इतनी अच्छी होते हुए भी इनके लिये मेरा और बच्चों का जन्मदिन याद रखना मुश्किल होता है, पर बच्चे और मैं इन अवसरों के आने से पहले ही इतने उत्साहित रहते हैं कि उन्हें याद आ जाता है। कभी बच्चे पहले आकर कह देते हैं ‘’मम्मी पापा शादी की साल गिरह मुबारक हो’’ तो उन्हें भी याद आ जाता है कि पत्नी को मुबारकबाद दे दें।   इनकी सबसे बड़ी परेशानी है कि वे लोगों के और कभी कभी स्थानों के नाम भी भूल जाते हैं। कभी किसी पार्टी में कोई बहुत दिन बाद मिलता और उत्साहित होकर पूछता ‘’कैसे हैं भटनागर साहब, पहचाना नहीं क्या ?’’ ‘’अरे, कैसी बात कर रहे हैं पहचानूँगा क्यों नहीं।‘’ कहने को तो ये कह देते, वे उन महाशय को पहचान भी रहे होते, बस नाम दिमाग़ से फिसल जाता। ऐसे में वहाँ से खिसक लेने मे ही भलाई समझते कि कहीं बात बढ़े और पोल खुल जाये।   इनका अपना परिवार काफ़ी बड़ा है। अपने भाई बहनों के नाम तो याद रहते हैं पर उनके बच्चों के नाम कभी कभी भूल जाते है। मेरे परिवार में बहुत लोगों के दो नाम हैं, घर का एक नाम और असली नाम कुछ बिल्कुल अलग!, वहाँ तो उनकी मुश्किल दोगुनी हो जाती है। इन्हें अकसर सरकारी काम से शहर से बाहर जाना पड़ता है। एक बार ये नई दिल्ली से लखनऊ मेल में सवार हुए। रात का समय था ट्रेन चल चुकी थी वे आराम से सोने की तैयारी में थे, कंडक्टर ने आकर भारतीय रेल का पास देखा, जैसे ही वह जाने को हुआ तो इन्होंने कहा ‘’मुझे हरिद्वार मेये जगा देना।‘’   कंडक्टर ने कहा ‘’सर, ये ट्रेन हरिद्वार नहीं जाती।‘’   ‘’अरे, कैसे नहीं जाती लखनऊ मेल ही है न। ‘’   … Read more

गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8

गुजरे हुए लम्हे

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 अब आगे ….     गुजरे हुए लम्हे-अध्याय 8: बच्चे बड़े हो रहे थे (दिल्ली 1987 से 91 तक)   तनु ने 87 में दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी और स्वेच्छा से कॉमर्स स्ट्रीम को चुना था। अपूर्व कक्षा 1 में आ गया था।  उस समय ट्यूशन या कोचिंग का चलन शुरू हो चुका था पर अधिकतर विज्ञान के छात्र दाख़िले की प्रतियोगी परीक्षाओं के लिये कोचिंग में जाते थे। कॉमर्स वाले भी मैथ्स और ऐकाउंट्स के लिये जाने लगे थे पर तनु ने कभी कोचिंग नहीं ली थी।   जब तनु 12 वीं कक्षा में थी तभी इनका तबादला पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे के अलीपुरद्वार( प. बंगाल) में हो गया। दिल्ली में किसी तरह 10- 11 साल निकाल चुके थे। कभी रेलवे बोर्ड में तो कभी उत्तर रेलवे में पर अब रुकना मुश्किल था। पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे में जाने से दो लाभ थे पहला तो ये कि दिल्ली में सरकारी मकान रख सकते थे दूसरा यह कि 2-3 साल वहाँ काम करने के बाद अपनी मनचाही जगह नहीं सकते थे, वापिस तबादला माँग सकते थे। हम तनु को नेवल स्कूल से स्कूल के आख़िरी साल में हटा नहीं सकते थे,  इसलिये मुझे बच्चों के साथ दिल्ली में ही रहना था, जो कि आसान तो नहीं था। जाने से पहले रेलवे बोर्ड के उच्चाधिकारियों को इन्होंने अपनी समस्या बताई तो इन्हें आश्वासन दिया गया कि जैसे ही कोई जगह खाली होगी इन्हें वापिस बुला लिया जायेगा। जगह खाली भी हुईं और भरती भी गईं पर हमें दिया हुआ आश्वासन आश्वासन ही रहा। दिल्ली आने के लिये लोग राजनैतिक दबाव के अलावा और भी तरीके अपनाते हैं।  किसी की सच्ची बड़ी समस्या लोगों को नहीं दिखती और कभी बिना समस्या के समस्या गढ़ ली जाती है और तरह तरह के दबाव डालकर तबादले हो जाते हैं। बार बार की नाउम्मीदी असह्य होने लगी थी, बहुत से काम थे जो करने में मैं दिक्कतें महसूस कर रही थी। इसके अलावा पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे में बोडो आंदोलन हिंसक हो रहा था। इन सब मिली जुली बातों का मेरे मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ रहा था जो पड़ौसियों और मित्रों को दिखने लगा था। इसी बीच में शशी बीबी की बेटी दिव्या का विवाह ग्वालियर से हुआ बारात इंदौर से आई थी। इस शादी में ये गुवाहाटी से आये ज़रूर थे परंतु ग्वालियर बहुत कम समय के लिये ही जा पाये थे। अगली पीढ़ी की यह पहली शादी थी।   इस समय मुझे लगा कि मेरा ड्राइविंग सीखना बहुत ज़रूरी है। मैंने पास के ही ड्राइविंग स्कूल से सीखने का प्रबंध कर लिया। पहले दिन ही एक मज़ेदार वाकया हो  गया जो बाद में मैंने संस्मरण के रूप में लिखा था। वह प्रस्तुत है। –   एकाग्रता (संस्मरण- 5) मेरी एकाग्रता हमेशा से बहुत अच्छी है। यदि कोई काम ज़रूरी हो और उसमें रुचि भी हो तो मेरा ध्यान इधर उधर नहीं भटकता। अभी भी मैं जब कुछ लिखती पढ़ती हूँ तो आस पास से कौन निकल गया, पता ही नहीं चलता।   पहले दिन मैं बहुत उत्साह के साथ ड्राइविंग सीखने निकली। ड्राइविंग स्कूल की गाड़ियों में दोहरे नियंत्रण होते हैं, इसलिये प्रशिक्षक मुझे पहले ही दिन भीड़ वाली जगह ले गया। क्लच ब्रेक सब  का प्रयोग पहले ही सिखा दिया था। एक जगह जाकर उसने कहा कि” मैंम आप उस बस के पीछे जाकर कार को ब्रेक लगाकर रोकियेगा” मैंने कहा “ठीक है।” अब मुझे बस बस दिखाई दे रही थी जिसको पीछे मुझे कार रोकनी थी।  बीच में प्रशिक्षक ने झटके से ब्रेक लगाया और कहा “मैंम देखकर चलाइये” मैंने जवाब दिया” देखकर ही चला रही हूँ उस बस के पीछे ही गाड़ी रोकना है न” वह बोला “तो बीच में जो भी आयेगा उसे उड़ा देंगी ! ”   खैर धीरे धीरे कार चलाना अच्छी तरह सीख लिया और यह भी समझ लिया कि इसमें निशाना लगाने वाली एकाग्रता नहीं चाहिये बल्कि आगे पीछे ही नहीं दायें बायें कौन चल रहा है इस पर भी नज़र रखना ज़रूरी है।कार चलाना सीख लेने से कुछ तो सुविधा हो गई थी परंतु अभी आसपास के इलाकों में ही चलाती थी। रास्ते भी ज्यादा पता नहीं थे।हमारे दो तीन पड़ौसी जो कि इनके सहकर्मी थे वे और उनकी पत्नियाँ बहुत ध्यान रखते थे,पर मेरी लाख कोशिशों के बावजूद अवसाद और व्याकुलता(depression & anxiety ) बढ़ रहे थे। हर काम को करने में दो गुना प्रयत्न लगता था। घबराहट रहती थी,लगता था कि कुछ बुरा या ग़लत होने वाला है। मैं स्वयं ही डॉक्टर के पास चली गई उन्होंने हल्की ऐंटी डिप्रैसैंट और ऐंटी ऐंग्ज़ायटी दवाइयाँ दे दी थी। कोई सैडेटिव नहीं दी थी क्योंकि घर में कोई और बड़ा व्यक्ति नहीं था और मुझे गाड़ी भी चलानी होती थी। दवाइयाँ लेने से कुछ सुधार हुआ, मैं घर ठीक से चला रही थी ,नकारात्मक विचार कम हो गये थे।   तनु को मैथ्स पढ़ाने के लिये कुछ दिन आशू पूनम आकर रह गये थे। उनके एक बेटा भी हो चुका था जो उस समय कुछ uउपन्यास महीने का था। 1989 में तुनु ने 12 वीं पास कर ली। इसी साल सुरेन भैया की तीसरी बेटी चारु की शादी दयालबाग से  गर्मी में ही होनी थी। पूनम ने हमारे ठहरने का प्रबंध अपनी ताई जी के यहाँ कर दिया था । वहाँ तो शादियाँ बहुत सादगी से होती हैं। हमारी मारुति 800 की यह इकलौती शहर से बाहर की यात्रा थी जबकि वह  86 से 03 … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7

महानगरीय जीवन का आरंभ

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 अब आगे ….   गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 –महानगरीय जीवन का आरंभ (दिल्ली1978 से 86 तक) हम लोग ज्यादातर सामान शोलापुर में पैक करके रख आये थे ओर काफ़ी कुछ बेच भी दिया था। बस सूटकेस में कपड़े लेकर दिनेश भैया के यहाँ चले आयेथे।मकान मिलने में कुछ समय लगना था। बाकी लोग रमा दी, चाची जी वगैरह वहाँ से जा चुके थे। दिनेश भै़या को भी सूरत मैडिकल कालेज में नौकरी मिल गईथी तो वह भी चले गयेथे, जयश्री दिल्ली में ही रही, कभी कभी सूरत चली जाती थी। यह मकान कुछ दिन रख तो सकते ही थे। जयश्री भी ज्यादातर अपने माता पिता के पास रहने लगी थी, इसलिये मकान उनका होते हुए भी घर हम ही चला रहेथे। जैसे जैसे दिन बीत रहे थे,सरकारी मकान मिलने और तनु का स्कूल में दाख़िलाकरवाने कीचिंता मन पर बहुत हावी हो रहीं थी।   हम दोनों ही महानगरों में अभी तक नहीं रहे थे। छोटे शहरों और महानगरों की जीवन शैली में बहुत अंतर होता है। इनकी पोस्टिंग रेलवे बोर्ड में हुई थी। जुलाई आते आते सरोजनी नगर के रेलवे बोर्ड के ट्राँज़िट फ्लैट में हमें घर मिल गया था। घर छोटा था परंतु बहुत सुविधाजनक था। आउट हाउस और छोटा सा लॉन भी था। सरोजनी नगर का बाज़ार बहुत पास था। अब तो इसबाज़ार की गिनती दिल्ली के मुख्य बड़े बाज़ारों में होती है।   घर के सामने रिंग रेलवे की लाइन थी और उसके पार कुछ दूर पर ही नेवल पब्लिक स्कूल था।  तनु का दाख़िला वहीं करवाना था। प्रधानाचार्य से जाकर पहले ही बात कर ली थी। हालाँकि उन्होंने बहुत सहृदयता दिखाई और बिना कोई परीक्षा लिये दाख़िला देने को तैयार हो गईं परंतु  दूसरी कक्षा में लिया, क्योंकि उनके अनुसार तीसरी कक्षा में जगह नहीं थी। तनु शोलापुर से दूसरी कक्षा उत्तीर्ण करके आई थी। हमने ये भी स्वीकार कर लिया क्योंकि हमारे पास कोई और विकल्प था ही नहीं। किसी दूर के स्कूल में दाख़िल करवाते तो और बहुत सी कठिनाइयाँ सामने आती।   आउट हाउस वाली नौकरानी इसे स्कूल में कक्षा तक पहुँचा कर आती थी और वापिस भी लाती थी। मैं ब्रेक में नाश्ता लेकर जाती थी और देख लेती थी कि कोई और ज़रूरत तो नहीं है। दो तीन महीने बीतने के बाद इसकी कक्षा अध्यापिका श्रीमती मित्तल ने कहा कि इसको तो सब आता है, समझाने से पहले ही काम पूरा कर देती है। मैंने उन्हें बताया कि इसे तीसरी कक्षा में होना चाहिये था। श्रीमती मित्तल ने प्रधानाचार्य  से बात की और इसे तुरंत तीसरी कक्षा में भेज दिया गया था। इस प्रकार बेवजह एक साल बर्बाद होने से बच गया। नेवल स्कूल पास था यह सुविधा थी ही ,स्कूल में पढ़ाई भी अच्छी थी और सभी अध्यापिकायें तनु का ध्यान रखती थीं। अध्यापिकायें स्कूल के बाहर भी पिकनिक पर और अन्य दर्शनीय स्थानों पर बस में पूरी ज़िम्मेदारी से ले जाती थीं। प्रिंसपल ने कई साल तक इसके क्लास को भूतल पर ही रखा था।   इस समय हम तीनों के अलावा जयश्री भी हमारे साथ रह रही थी। मोती बाग़ में उसके माता पिता रहते थे ,वहाँ आती जाती रहती थी। सूरत से दिनेश भैया दूसरे तीसरे महीने आ जाते थे , उनकी गृहस्थी एक जगह जम नहीं पा रही थी। जयश्री का तनु पर बहुत लाड़ था। तनु भी चाची से, उसके पहनावे से, पर्स व सैंडिल इत्यादि से बेहद  प्रभावित रहती थी। वह घर से बाहर जाती थी तो सलीके से साड़ी पहनती थी जबकि मैं तो घर में रहती थी,  इतना व्यवस्थित नहीं रहती थी। जयश्री जब कोई नयी सी या बढ़िया साड़ी पहनकर तैयार होती तो तनु समझ जाती थी कि आज चाची डिसपैंसरी से सीधी घर नहीं आयेगी। दिनेश भैया का आना भी इसे अखरता था क्योंकि चाची पर एकाधिकार जो नहीं रहता था।  हम हमेशा की तरह दीवाली पर तो ग्वालियर जाते ही थे, साल में एक बार लखनऊ भी चले जाते थे। अधिकतर सुरेन भैया और उनके परिवार से भी वहीं मिलना हो जाता था। ग्वालियर में नीता मैडिकल कालेज में पढ़ रही थी।   सरोजनी नगर के इस छोटे से घर में मेहमानों का आना जाना बहुत रहता था।  उस समय तक लोग रिश्तेदारों के यहाँ बेखटके रहने आ जाते थे।  आजकल लोग अपने काम से आते हैं तो होटल में रुकते हैं, उस समय रिश्तेदारों का रुकना, बिना कहे आना सब सामान्य था।  शोलापुर से आकर ये सब हमें अच्छा लग रहा था। शोलापुर तो कम ही लोग पहुँचते थे। हमारे सरोजिनी नगर के घर से सुरेन भैया की बड़ी बेटी अपर्णा की सगाई का एक शुभ  कार्य भी संपन्न हुआ। दरअसल यह रिश्ता हमने हीतय करवाया था। वर उमा दी की ननद का बेटा अशोक था। लड़के वाले उमा दी के घर ठहरे थे, लड़की वाले हमारे यहाँ।  एक प्रकार से रिश्ता भाई बहन की ससुराल के परिवारों के बीच हुआ था।हमारे यहाँ आकर लड़की लड़के को देखने की औपचारिकताओं के बाद दोनों तरफ़ से ‘हाँ’ हो गई और अगले दिन ही सगाई हो गई। सब कुछ घर में ही हो गया। यहाँ तक कि खाना भी घर में ही बना दोनों तरफ़ केपरिवारके लोग ही थे। अन्य रिश्तेदारों या मित्रों को नहीं बुलाया था। अपर्णा की शादी भी 80 की मई में लखनऊ से भैया के घर से संपन्न हुई।   इस समय तक हमारे पास स्कूटर ही था। कभी कभी उमा दी के घर हम तीनों स्कूटर पर ही चले जाते थे । ये … Read more

गुज़रे हुए लम्हे – अध्याय -5

गुज़रे हुए लम्हे

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 अब आगे ….     अध्याय 5 विवाह के बाद (ग्वालियर, ओबरा, कोरेगाँव दिसम्बर 1969 से 71)   विदाई के बाद ओबरा से बनारस तक टैक्सी से ही जाना था।  बनारस से ट्रेन लेनी थी फिर मानिकपुर और उसके बाद झाँसी पर बदलनी थी।  बारात की कोच पूर्ण रूप से आरक्षित थी जो अलग अलग ट्रेनों में कटकर लगनी थी, पर हम दोनों के लिये अलग प्रथम श्रेणी में आरक्षण था।  यहाँ से हमारी जान पहचान होनी शुरू हुई थी। सबसे पहले तो वह दुल्हन वाली पोशाक बदलकर दूसरे कपड़े पहने, ज़ेवर उतार कर रखे ।ट्रेन कुछ लेट थी, मानिकपुर पर दूसरी ट्रेन छूटने का डर था तो अरुण बहुत तेज़ी से पुल की तरफ चले बिना ये सोचे कि कोई और भी साथ है। कुली भी दौड़ा और मुझे भी दौड़ना पड़ा पर हमने ट्रेन पकड़ ली। बारात की कोच उस ट्रेन में लग नहीं पाई कुछ घंटों बाद किसी दूसरी ट्रेन में लगी थी। हम बारात से 5,6 घंटे पहले ग्वालियर पहुँच गये। मोबाइल क्या उस समय घरों में भी फोन होना बड़ी बात होती थी। स्टेशन मास्टर के कमरे से जाकर अरुण……….. नहीं अब मैं ‘इन्होंने’ कहूँगी क्योंकि उस समय पति का नाम लेने का रिवाज नहीं था न इसकी इजाजत थी !अब ये अब आदत बन चुकी है।वहाँ घर पर भी फोन नहीं था किसी पड़ौसी के यहाँ से संदेश भेजा कि हम पहुँच गये हैं अब क्या करें। कुछ समय में इनकी बहने  वहाँ स्टेशन आ गईं और वहाँ वेटिंग रूम में ही मैं वापिस दुल्हन के जोड़े में तैयार हुई और हम बहनों के साथ चले दिये । जहाँ हम पहुँचे थे वह पड़ौसी का घर था, ये मुझे कुछ देर बाद पता चला। मेरी सास जिन्हें सब चाची जी कहते हैं ,उन्होंने आदेश दिया था कि जब बारात वापिस आ जायेगी तभी बहू प्रवेश करेगी, हमें वहाँ शायद पाँच छ: घंटे तक तो रुकना पड़ा था, तब जाकर गृह प्रवेश हुआ।  हमारे यहाँ कोई पैर से चावल गिराने या रंगीन पानी में पैर रखकर गृह प्रवेश की प्रथा नहीं है, ये प्रथा पता नहीं कहाँ की है जो टीवी धारावाहिकों ने लोकप्रिय बनाई है। चाची जी ने आरती की मुंह मीठा कराया और प्रवेश हो गया।   हम दोनों की जान पहचान तो ट्रेन में ही हो गई थी ,अब दोस्ती की शुरुआत होनी थी, लेकिन उससे पहले बहुत सी रस्में निभानी थीं और परिवार के तौर तरीके समझने थे। वहाँ का वातावरण हमारे घर से बहुत अलग था, चाची जी(सास जी) कुछ मामलों में बहुत अलग थीं। वह घूँघट पल्ला वगैरह पर ध्यान देती थीं, टोकती थीं, तो बड़ी नंद भी कम नहीं थी,  बड़ों के बराबर नहीं बल्कि नीचे पीढ़े  पर बैठना चाहिये यह इशारा बार बार आता था, जो मुझे बहुत बुरा लगता था। कभी इशारा न समझ के मैं साथ में बैठ ही जाती थी। ऐसी परम्परायें हमारे भारतीय परिवारों में होती ही थी, लेकिन और कोई बात परेशानी वाली नहीं थी। हलवा  बनाने क रस्म भी प्रतीकात्मक ही थी, बस हाथ लगवा दिया न हलवा बना न नेग मिला।   पहले तो इन्होंने सोचा था कि ये मुझे अपने साथ छुट्टी खतम होने पर विजयवाड़ा ले जायेंगे परंतु  लम्बी छुट्टी लेते ही विजयवाड़ा से तबादला कोरेगाँव हो गया।  कोरेगाँव सतारा जिले का महाराष्ट्र में एक गाँव था।  छोटी लाइन से बड़ी लाइन का निर्माण चल रहा था, वहाँ एक डेढ़ साल काम चलना था और कोई सुविधा नहीं थी इस लिये मुझे लेकर नहीं जा सकते थे। वैसे भी एक बार ओबरा जाना ही था। आम तौर पर पहली बार ससुराल से लेने छोटे भाई जाते हैं पर मेरा कोई छोटा भाई नहीं था, भैया ही लेने आये।  मैं शायद एक डेढ़ महीने ओबरा  रही थी। कोरेगाँव जाना तो था ही ओबरा या ग्वालियर में बहुत समय तक तो नहीं रह सकती थी। ये ओबरा लेने आये फिर ग्वालियर कुछ दिन रुककर हम कोरेगाँव पहुँच गये।   उन दिनों हनीमून का तो रिवाज था नहीं ,यही हनीमून था।नई लाइन के लिये स्टेशन मास्टर के लिये जो घर बनाया गया था वह फिलहाल हमारा घर था।दो छोटे छोटे कमरे, न बिजली न पानी की व्यवस्था।काम करने के लिये दो तीन आदमी थे । सामने स्टेशन की बिल्डिंग में छोटा सा दफ्तर एक दो क्लर्क एक जीप और ड्राइवर थे। दफ्तर सामने था पर ये लगभग रोज़ ही लाइन का दौरा करने जाते थे । पास में नदी से पानी आता था। कपड़े एक आदमी नदी पर ही धोकर ले आता था।  दो लालटेन थीं, बाद में पैट्रोमैक्स भी आ गई थी, मौसम वहाँ हमेशा सुहावना रहता था इसलिये गर्मी कभी नहीं लगी, पंखे की कमी महसूस नहीं हुई।  बिजली नहीं थी पर फ़ोन था, बिना डायल वाला,जिसमें नम्बर बताने पर सामने वाला जुड़ता था।पानी नदी से आता था पर रसोई गैस थी, जिसका सिलेंडरसतारा से आता था। हमारी गृहस्थी की शुरुआत ख़ूबसूरत सी थी।  ये ज्यादा बात नहीं करते थे, शुरुआत मुझे ही करनी पड़ती थी। कभी सतारा जाकर पिक्चर देख आते थे। कभी कभीपूना जाते तो वहाँ भी कोई पिक्चर देख लेते थे। शाम के समय रमी खेलते या फिर ट्राँजिस्टर पर गाने सुनते थे। उन दिनों बिनाका गीत मालाऔर रेडियो सीलोन से और बी.बी सी. से समाचार सुनते थे।   कोरेगाँव के प्रवास में हमने करीब डेढ़ साल में तीन घर बदले। ज़िंदगी से ज़्यादा  उम्मीद नहीं की थी इसलिये सब अच्छा लग रहा था। एक दूसरे को समझने की कोशिश कर रहे थे। इनका स्वभाव शांत सा था,  कुछ ज़्यादा … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार

गुजरे हुए लम्हे

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 अब आगे …. गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 4 उलझनों में घिरा यौवन व विवाह समारोह (लखनऊ और औबरा 1967 से69)   एम.ए.पास करने के बाद लखनऊ में ललिता और बीबी दोनों नहीं थे। मैं तब लखनऊ में बहुत अकेली हो गई थी।फोन सबके घरों में नहीं होते थे, यह अकेलापन मेरे पहले अवसाद का कारण  बना, जिसे मैं मनोविज्ञान का इतना ज्ञान होने के बाद भी समझ नहीं पाई थी। वैसे इसमें अचंभे वाली कोई बात नहीं है क्योंकि कोई भी मनोवैज्ञानिक अपने या अपने परिवार के बारे में कोई प्रोफैशनल राय नहीं बना सकता।मैं पी. एच. डी. करना चाहती थी परन्तु हमें बताया गयाथा कि वह मिलने में कुछ महीने लग सकते हैं,पर हो अवश्य जायेगा, तब तक विभाग के एक रिसर्च प्रौजैक्ट में रिसर्च असिसटैंट का काम मैं कर सकती हूँ ।मैने उसे स्वीकार लिया।रिसर्च प्रोजैक्ट के लिये मुझे इकट्ठा किये गये डेटा का विश्लेषण करना होता था ।आजकल तो कम्प्यूटर से सब फटाफट हो जाता है, उन दिनों तो हमारे पास कैलकुलेटर भी नहीं होते थे। सारी गणनाये स्वयं करनी पड़ती थी, साँख्यकी(statistics)  का अच्छा ख़ासा ज्ञान था, पर दिन भर यही काम अकेले लायब्रेरी में या किसी साइड रूम में करते रहना आसान नहीं था।हॉस्टल में भी किसी से बात करने का मन नहीं करता था। अपने ही विभाग में भी किसी से बात नहीं की, मुक्ता वहीं थी, उससे भी कभी नहीं मिली । अपने अन्य किसी सहपाठी की भी खोज ख़बर नहीं ली।अब याद करती हूँ तो सहम जाती हूँ, क्योंकि अब मैं अवसाद को अच्छी तरह समझ गई हूँ।उस समय मैं अंदर ही अंदर घुट रही थी,मर रही थी।   मम्मी भी बार बार वापिस आने को कहती रहती थीं, उन्हे मेरा अब लखनऊ में रहना बेकार लग रहा था।मेरा ओबरा जाने का भी कतई मन नहीं था। वहाँ नानी, मम्मी, भैया ,भाभी और उनके तीन बच्चे थे। सुरेन भैया देहरादून ज़िले में कोटी में थे।वहाँ मम्मी साल में एक बार चली जाती थीं।भैया भाभी ने मम्मी और नानी की देखभाल में कोई कमी नहीं रखी फिर भी वैचारिक अंतर तो होते ही हैं, नानी और मम्मी दोनों का बुढ़ापा था, उनमें भी खटपट होती रहती थी।मुझे लग रहा था वहाँ मैं ख़ुश नहीं रह पाऊँगी।अब यह सीखो,वह सीखो, भैया और मम्मी पीछे पड़ेगें…………….. फिर शादी की बातें, लड़की देखना दिखाना, इसके लिये मैं ख़ुद को तैयार नहीं कर पा रही थी। लखनऊ में रहकर भी मैं कुछ नहीं कर पा रही थी, असफल महसूस कर ही थी, अपनी क़ाबलियत पर शक कर रही थी, मैं हार रही थी, मैं बहुत दुखी थी, अवसाद ग्रस्त थी। अंत मे मैने हार स्वीकार करली और मैं ओबरा चली गई।   उस ज़माने में जब संचार के साधन बहुत कम थे, लगता था कि जब अपने विभाग में पी. एच. डी. मिलने में कुछ समय लगने की बात हो रही है तो किसी और विश्वविद्यालय में तुरंत तो नहीं मिलेगी।एक विकल्प था कि बैंगलोर से क्लिनिकल सायकौलोजी में पी.जी. डिप्लोमा करूँ पर, इसकी इजाज़त कभी नहीं मिलती, ये भी मैं जानती थी। कोई जानकारी पाना भी कहीं से बहुत मुश्किल होता था, फिर मानसिक तनाव झेलते हुए कुछ सूझ भी नहीं रहा था।मेरी हार घर वालों की जीत थी,मैं पढ़ाई पूरी करके घर आ गई थी।अब मम्मी ने शादी के लियें वर की तलाश शुरू कर दी मेरे पास भी न करने के लिये कोई कारण नहीं था।बस यही सोचा कि अब ज़िंदगी जिस तरफ़ ले जायेगी चल दूँगी! वैसे ओबरा आकर परिवार के बीच भतीजों भतीजी के साथ रहकर अकेलापन कम होने लगा था। ललिता से कभी कभी पत्रों का आदान प्रदान होता रहा, वह जल्दी ही एक बेटे की माँ बन गई थी। रज्जू भैया भी अमरीका में जाकर बसने की तैयारी में लगे थे।   ओबरा में मुझे कॉन्वैंट स्कूल में नौकरी मिल गई थी,वहाँ की सिस्टर ख़ुद प्रस्ताव लेकर आई थी, जबकि मैने बी.ऐड. नहीं किया हुआ था।मुझे पाँचवीं और छटी क्लास को पढ़ाना था।मैंपाँचवीं की कक्षा अध्यापिका बना दी गईथी।पाँचवीं में मेरा भतीजा भी पढ़ता था।ओबरा में केवल उ.प्र. के बिजली विभाग के लोग थे, वहाँ कुछ और था ही नहीं, इसलिये बच्चे भी जान पहचान के थे, जो स्कूल के बाद मुझे भुआ ही कहते थे। मेरा भतीजा बहुत ज़हीन था, प्रथम आता था,  मुझे लगता था कि कहीं कोई पक्षपात न समझे, कोई बच्चा उसके आस पास भी नहीं था।यह सेक्रेड हार्ट कान्वेंट पाँचवीं तक ही था, मेरे आने के बाद उन्होनेसिर्फ एक लड़की के साथ छटी कक्षा शुरू की थी।   इसके अलावा वहाँ सहशिक्षा का सरकारी इंटर कॉलिज था जो उ.प्र. के बिजली विभाग के प्रबंधन में चल रहा था।यहाँ माध्यम हिन्दी था और इस छोटी सी जगह के विद्यालय ने एक वर्ष उ.प्र. बोर्ड का टॉपर दिया। यहाँ के छात्र अच्छे से अच्छे इजीनियरिंग कॉलिज और मैडिकल कॉलिजों में बिना किसी कोचिंग के प्रवेश पाते रहे थे।   यहाँ पर मेरी एक सहेली बनी साधना भार्गव, जिसकी शादी तय हो चुकी थी। वह पढ़ाई ख़त्म करके ओबरा में अपने माता पिता के साथ रह रही थी, बस इंतज़ार था कि कब उसका मंगेतर अमरीका से आये और वह शादी करके वहाँ जाये। वह शादी के सपने देखने में व्यस्त थी। उसके अपने कोई सपने थे ही नहीं। मैं शादी के लिये तैयार थी, पर उसे लेकर मेरे कोई सपने नहीं थे। मैं कुछ करना चाहती थी, पर लक्ष्य सुनिश्चित नहीं था, पी.एच.डी करने का सपना टूट सा चुका था। शायद मुझमें धैर्य की कमी थी और कोई मार्गदर्शक भी नहीं था।   यहाँ एक संगीत के शिक्षक श्री रवींद्र पाँडे भी थे, जो बनारस से … Read more