संघर्ष पथ

वंदना बाजपेयी

वंदना बाजपेयी की कविता संघर्ष पथ संघर्ष पथ  सुनो स्त्री अगर बढ़ चली हो सशक्तता की ओर तो पता न चलने देना आँसुओं का ओर-छोर माना की रोने के अधिकार से कर वंचित बचपन से पुरुष बनाए जाते हैं  समाज द्वारा सशक्त स्वीकृत पर संघर्षों से तप कर आगे बढ़ती स्त्री के हाथ भी कर दिए जाते हैं आँसुओं से रिक्त जाने कब किसने सबके अवचेतन में कर दी है नत्थी सशक्तता की अश्रु विरोधी परिभाषा रो सकती हो तुम खुलकर  मात्र है शब्दों का झांसा एक बार सशक्त घोषित हो जाने के बाद नहीं रखना स्त्री और आँसुओं के संबंधों को याद कि तुम्हारे कमजोर पड़ जाने के क्षणों को भी नाम दिया जाएगा विक्टिम कार्ड तब तुम्हारे कोमल मन को नहीं देगा संरक्षण तुम्हारी देह पर लिपटा सिक्स यार्ड यहाँ तक कि कुछ समझ कर तुम्हें अंदर से कमजोर बेचारा डाल देंगे तुम्हारे आगे चारा दूर ही रहना इन शातिरों की चाल से पद के साथ और भी फँसोगी जंजाल में दाँव पर लगेगी तुम्हारी निष्ठा जा भी सकता है पद और प्रतिष्ठा   सही या गलत सच या झूठ पर सशक्तता का अलाप बस एक राग गाता कि तोड़ना होगा उसे आँसुओं से नाता भले ही हर अगली सीढ़ी पर पाँव धरती अकेली डरती-सहमती उतनी ही आकुल-व्याकुल है तुम्हारे अंदर की अबला पर दिखाकर आँसुओं को और मत चटका लेना अपने भीतर की दरारें ओ संघर्षों की राह पर आगे बढ़ती सबला पुरुष नहीं हो तुम पर अपेक्षाएँ वही हैं जो उनके लिए नहीं वो तुम्हारे लिए भी नहीं है और आज के पुरुष भी रो सकते हैं के इस झूठे शोर में मत आ जाना प्रचार के विभोर में संघर्ष का पथ होता है जटिल हर अगली सीढ़ी पर समाज हो जाता है और कुटिल माना की आँसू है इंसानियत की निशानी भावनाओं का वेग होता है तूफ़ानी बह ही जाए गर भावावेश में तो रोक लेना पल विशेष में माना कि आँसू नहीं हैं कमजोरी के प्रतीक पर निकाले जाएंगे अर्थ तुम्हारी सोच के विपरीत फिर से कहती हूँ बार-बार हर किसी को मत देना अपने आँसुओं को देखने का अधिकार वंदना बाजपेयी  

काकी का करवाचौथ

हमेशा की तरह करवाचौथ से एक दिन पहले काकी करवाचौथ का सारा सामान ले आयीं| वो रंग बिरंगे करवे, चूड़ी, बिंदी …सब कुछ लायी थीं और हमेशा की तरह सबको हुलस –हुलस कर दे रही थी | मुझे देते हुए बोलीं, “ये लो दिव्या तुम्हारे करवे, अच्छे से पूजा करना, तुम्हारी और दीपेश की जोड़ी बनी रहे|” मैंने उनके पैर छू  कर करवे ले लिए| तभी मेरा ध्यान बाकी बचे सामान पर गया| सामान तो खत्म हो गया था| मैंने काकी की ओर आश्चर्य से देख कर पूछा, “काकी, और आपके करवे ?” “इस बार से मैं करवाचौथ नहीं रहूँगी”, काकी ने द्रणता से कहा| मैं अवाक सी उनकी ओर देखती रह गयी| मुझे इस तरह घूरते देख कर मेरे मन में उठ रहे प्रश्नों के ज्वार को काकी समझ गयीं| वो मुस्कुरा कर बोलीं, “नीत्से ने कहा है, आशा बहुत खतरनाक होती है| वो हमारी पीड़ा को कम होने ही नहीं देती|”  काकी की घोर धार्मिक किताबों के अध्यन से चाणक्य और फिर नीत्से तक की यात्रा की मैं साक्षी रही हूँ| तभी अम्मा का स्वर गूँजा, “नीत्से, अब ये मुआ नीत्से कौन है जो हमारे घर के मामलों में बोलने लगा |” मैं, काकी, अम्मा और ‘नीत्से’ को वहीँ छोड़ कर अपने कमरे में चली आई | मन बहुत  भारी था| कभी लगता था जी भर के रोऊँ उस क्रूर मजाक पर जो काकी के साथ हुआ, तो कभी लगता था जी भर के हँसू क्योंकि काकी के इस फैसले से एक नए इतिहास की शुरुआत जो होनी थी| एक दर्द का अंत, एक नयी रीत का आगाज़| विडम्बना है कि दुःख से बचने के लिए चाहें हम झूठ के कितने ही घेरे अपने चारों  ओर पहन लें पर इससे मुक्ति तभी मिलती है जब हममें  सच को स्वीकार कर उससे टकराने की हिम्मत आ जाती है| मन की उहापोह में मैं खिड़की के पास  बैठ गयी| बाहर चाँद दिखाई दे रहा था| शुभ्र, धवल, निर्मल| तभी दीपेश आ गए | मेरे गले में बाहें डाल कर बोले, “देखो तो आज चाँद कितनी जल्दी निकल आया है, पर कल करवाचौथ के दिन बहुत सताएगा| कल सब इंतज़ार जो करेंगे इसका|”मैं दीपेश की तरफ देख कर मुस्कुरा दी| सच इंतज़ार का एक – एक पल एक एक घंटे की तरह लगता है| फिर भी चाँद के निकलने का विश्वास तो होता है| अगर यह विश्वास भी साथ न हो तो ?  इस अंतहीन इंतज़ार की विवशता वही समझ सकता है जिसने इसे भोगा हो | मन अतीत की ट्रेन में सवार हो गया और तेजी से पीछे की ओर दौड़ने लग गया …छुक –छुक, छुक- छुक| आज से 6  साल पहले जब मैं बहू बन कर इस घर में आई थी| तब अम्मा के बाद काकी के ही पैर छुए थे| अम्मा  ने तो बस “ खुश रहो”  कहा था, पर  काकी ने सर पर हाथ फेरते हुए आशीर्वादों की झड़ी लगा दी| सदा खुश रहो, जोड़ी बनी रहे, सारी जिंदगी एक दूसरे से प्रेम-प्रीत में डूबे रहो, दूधों नहाओ-पूतों फलों, और भी ना जाने क्या-क्या ….सुहाग, प्रेम और सदा साथ के इतने सारे भाव भरे आशीर्वाद| यूँ तो मन आशीर्वादों की झड़ी से स्नेह और और आदर से भीग गया पर टीचर हूँ, लिहाजा दिमाग का इतने अलग उत्तर पर ध्यान जाना तो स्वाभाविक था|कौन है ये के प्रश्न मन में कुलबुलाने लगे l तभी किसी के शब्द मेरे कानों में पड़े “अभी नयी -नयी आई है, इसको काकी के पैर क्यों छुआ दिए| कुछ तो शगुन-अपशगुन का ध्यान रखो |” मेरी जिज्ञासा और बढ़ गयी|   मौका मिलते ही छोटी ननद से पूछा, “ये काकी बहुत प्रेममयी हैं क्या? इतने सारे आशीर्वाद दे दिए |” ननद मुँह बिचका कर बोली  “तुम्हें नहीं, खुद को आशीर्वाद दे रही होंगी या कहो भड़ास निकाल रही होंगी | काका तो शादी की पहली रात के बाद ही उन्हें छोड़ कर चले गए | तब से जाने क्या – क्या चोंचले करती हैं,लाइम लाईट में आने को |” शादी का घर था| काकी सारा काम अपने सर पर लादे इधर-उधर दौड़ रहीं थी| और घर की औरतें बैठे-बैठे चौपाल लगाने में व्यस्त थीं | उनकी बातों  का एक ही मुद्दा था “ काकी पुराण” | नयी बहु होने के कारण उनके बीच बैठना और उनकी बातें सुनना मेरीविवशता थी | काकी को काका ने पहली रात के बाद ही छोड़ दिया था,यह तो मुझे पता था पर इन लोगों की  बातों से मुझे ये भी पता चला कि भले ही काकी हमारे साथ रहती हो पर परिवार-खानदान  में किसी के बच्चा हो, शादी हो, गमी हो काकी बुलाई जाती हैं | काम करने के लिए | काकी पूरी जिम्मेदारी से काम संभालती | काम कराने वाले अधिकार से काम लेते पर उन्हें इस काम का सम्मान नहीं मिलता था | हवा में यही जुमले उछलते … कुछ तो कमी रही होगी देह में, तभी तो काका ने पहली रात के बाद ही घर छोड़ दिया | चंट है, बताती नहीं है | हमारे घर का लड़का सन्यासी हो गया | काम कर के कोई अहसान नहीं करती है | खा तो  इसी घर का रही है, फिर अपने पाप को घर का काम कर – कर के कम करना ही पड़ेगा | एक औरत जो न विधवा थी न सुहागन, विवश थी सब सुनने को सब सहने को | मेरा मन काकी की तरफ खिचने लगा | मेरी और उनकी अच्छी दोस्ती हो गयी | वे उम्र में मुझसे 14-15 साल बड़ी थीं | पर उम्र हमारी दोस्ती में कभी बाधा नहीं आई | मैं काकी का दुःख बांटना चाहती  थी | पर वो तो अपने दुःख पर एकाधिकार जमाये बैठी थीं | मजाल है कभी किसी एक शब्द ने भी मुँह की देहरी को लांघा हो l पर बूंद-बूंद भरता उनके दर्द का घड़ा साल में एक बार फूटता, करवाचौथ के दिन | जब वो चलनी से चाँद को देख उदास सी हो थाली में चलनी  वापस रख देतीं | फिर जब वो हम सब को अपने –अपने पतियों के साथ पूजा करते देखतीं तब उनका दर्द पिघल कर आँखों के रास्ते बह निकलता | अकसर वो हमें वहीं छोड़ पल्लू से … Read more

सुमन केशरी की कविताएँ

सुमन केशरी की कविताएँ

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर अटूट बंधन पर प्रस्तुत हैं वरिष्ठ कवि-कथा नटी सुमन केशरी दी की कुछ स्त्री विषयक कविताएँ | इन कविताओं में स्त्री मन की पीड़ा, कन्डीशनिंग से बाहर आने की जद्दोजहद और अपनी बेटी के लिए खुले आकाश में उड़ान सुरक्षित कर देने की अदम्य इच्छा के  विभिन्न रूप चित्रित हैं | चाहे वो स्त्री आज की हो या पौराणिक काल की | एक दिन ऐसा आता है जब स्त्री उठ खड़ी होती है, उन सारी बातों के विरुद्ध जो उस पर आरोपित की गईं हैं | वो.. वो सब कुछ कर लेना चाहती है जो उससे कहा गया था  की तुम नहीं कर सकतीं |  शायद वही दिन होता है जब उसकी अपनी दृष्टि विकसित होती है | वो दुनिया को अपने नजरिए से देखना शुरू करती है, याज्ञवल्क्य से प्रश्न पूछती है, द्रौपदी के आक्रोश को सही ठहराती है .. और उसे दिन वो पुरुष में अपना मालिक नहीं साथी तलाशती है, उसे मोनालिसा की रहस्यमयी मुस्कान में उसका दर्द दिखाई देने लगता है, दिखने लगता है राम के यशोगान में सीता के समग्र अस्तित्व का विलय और वो सुरक्षित कर लेना चाहती है आकाश का एक कोना अपनी बेटी के लिए | सुमन केशरी की  कविताएँ (1) मैंने ठान लिया है   मैंने ठान लिया है कि मैं वह सब करूँगी जिसे मैंने मान लिया था कि मैं कर नहीं सकती मसलन कविता करना शब्दों के ताने बाने गूँथ कुछ ऐसा बुनना जिसे देखा नहीं सुना जा सके महसूसा जा सके   तुमने मुझे बंद कर दिया था रंग-बिरंगे कमरे में और मैं तुम्हारी उंगली थामे उसमें से बाहर निकल तुम्हारी आँखों से दुनिया देखती तुम्हारी भाषा में बतियाती चहकती गाती फिर उस कमरे में जा बैठती थी अपने पंख मैंने खुद ही काट दिए थे   मुझे  ताज्जुब होता था जाबाला का उत्तर सुनकर द्रौपदी का आक्रोश देखकर और याज्ञवल्क्य का व्यवहार सहज जान पड़ता था   कि एक दिन अचानक सपने में मुझे गार्गी का अट्टहास सुनाई पड़ा तड़प रही थी तब से अब तक मुक्ति की तलाश में मुझे देख विद्रूप से मुस्काई और आगे बढ़ गई उसकी हिकारत के कोड़े के घाव से अब भी रिस रहा है खून फट गया है माथा और अब तक की सारी आस्थाएँ विचार और सपने चूर चूर हो गए हैं एक हवा का झोंका दरारों के रास्ते रक्त की शिराओं में जा घुसा है और झिंझोड़ कर रख दिया है पूरे शरीर को मय चेतना के   इन दिनों मैंने घर के सारे खिड़की दरवाजे खोल दिए हैं   बड़ा मजा आता है बच्चों के संग कागजी जहाज उड़ाने और नाव चलाने में चट्टानों पर चढ़ कर कूदने में दूर तक दौड़ कर चंदा को साथ साथ चलाने छकने-छकाने में   प्रिय! अब मैं तुमसे दोस्ती करना चाहती हूँ चाहती हूँ कि तुम मेरे संग सूर्यदेश की यात्रा पर चलो   और हाँ पिछले दिनों याज्ञवल्क्य से चलते चलते हुई मुलाकात एक लंबी बहस में बदल गई है क्या तुम मेरे संग उलझोगे याज्ञवल्क्य से बहस में?     (2) मोनालिसा   क्या था उस दृष्टि में उस मुस्कान में कि मन बंध कर रह गया   वह जो बूंद छिपी थी आँख की कोर में उसी में तिर कर जा पहुँची थी मन की अतल गहराइयों में जहाँ एक आत्मा हतप्रभ थी प्रलोभन से पीड़ा से ईर्ष्या से द्वन्द्व से…   वह जो नामालूम सी जरा सी तिर्यक मुस्कान देखते हो न मोनालिसा के चेहरे पर वह एक कहानी है औरत को मिथक में बदले जाने की कहानी….   (3) सुनो बिटिया……..   सुनो बिटिया मैं उड़ती हूँ खिड़की के पार चिड़िया बन   तुम देखना खिलखिलाती ताली बजाती उस उजास को जिसमें चिड़िया के पर सतरंगी हो जायेंगे कहानियों की दुनिया की तरह   तुम सुनती रहना कहानी देखना चिड़िया का उड़ना आकाश में हाथों को हवा में फैलाना और पंजों को उचकाना इसी तरह तुम देखा करना इक चिड़िया का बनना   सुनो बिटिया मैं उड़ती हूँ खिड़की के पार चिड़िया बन तुम आना…..     (4) ऋतंभरा के लिए….   जब जब मैंने नदी का नाम लिया बेटी दौड़ी आई पूछा तुमने मुझे पुकारा माँ?     जब जब मैंने हवा का नाम लिया मेरी पीठ पर झूम-झूम कहा उसने तुमने मुझे पुकारा और लो मैं आ गई   जब जब मैंने सूरज को देखा किरणों की आभा लिए उतरी वह मेरे अंतस्तल का निविड़ अंधेरा मिटाने     जब जब मैंने मिट्टी को छुआ वह हँस दी मानो बीज बो रही हो खुशियों  के मेरे आंगन में   जब जब मैंने आकाश को निहारा वह तिरने लगी बदरी बन बरसी झमाझम सूखी धरा पर     जब जब मैंने क्षितिज की ओर ताका वह मेरा आंचल थाम खड़ी थी कहती मैं हूँ न तुम्हारे पास…     (5) औ..ऋत   डर एक ऐसा पर्दा है जिसके पीछे छिपना जितना आसान उतना ही मुश्किल   कहा था जोगी ने उस रात जिस रात मैंने उसे बादलों के बाहर देखा था निरभ्र आकाश में   डर हमारे बीच पर्दे-सा तना था सांस की आवाज़ तक उसे कंपा जाती थी इतना झीना इतना महीन   डर क्या है धरती-सी बैठी औरत ने पूछा   डर आँधी है उड़ा ले जाता है अपने संग सब-कुछ योगी बुदबुदाया   अच्छा!   डर बाढ़ है बहा ले जाता है सब कुछ…   अच्छा!!   डर तूफान है सब कुछ छिन्न-भिन्नकर देता है     अच्छा!!!   औरत ने कहा और लेट गई…   बिछ गई धरती पर वह हरियाली-सी.. बहने लगी जल की धार-सी स्वच्छ सुंदर.. हवा के झौंके-सी भर ली सुगंध उसने नासापुटों में… बादलों में बूंदों-सी समा तिरने लगी आकाश के सागर में निर्द्वंद…   जोगी ने देखा सब डर के पर्दे के पीछे छिपे छिपे… अब जोगी था और डर था   और था ऋत विस्तृत…     (6) सीता सीता रात के अंधेरे में द्वार के पार आंगन में आंगन पार पेड़ों के झुड़मुटों से घास के मैदान से और उसके भी पार बहती नदी के बूंद बूंद जल से किनारो पर इकठ्ठी रेत के कण कण से नदी पार फैले पहाड़ों की चट्टानों से जिस पर … Read more

बस अब और नहीं !

बस अब और नहीं

स्वतंत्रता या गुलामी ये हमारा चयन है | कई बार गुलामी के चयन के पीछे सामाजिक वर्जनाएँ होती हैं  तो कई बार इसके पीछे विलासिता और ऐश की चाह  भी होती है जो हँसकर गुलामी सहने को विवश करती है | स्वतंत्रता अपने साथ जिम्मेदारियाँ लाती है, संघर्ष लाती है और कठोर परिश्रम का माद्दा भी .. “बस अब और नहीं” केवल कह कर समझौता कर लेने वाले शब्द नहीं है | ये शब्द है.. अपने स्वाभिमान को बचाए रख कर जीवन की चुनौतियों को स्वीकार करने के | आइए पढ़ें सुपरिचित लेखिका रश्मि तारिका जी की एक ऐसी कहानी जिसकी नायिका  लता  विपरीत परिस्तिथियों  के सामने मजबूती से खड़ी हुई | बस अब और नहीं !   दर्द अगर कहानियों में निहित है तो कहानियाँ हमारे आस पास ही बिखरी होती हैं  और कहानियाँ हैं तो किरदार भी होंगे ही ..बस ज़रा ढूँढने की ज़द्दोज़हद करनी पड़ती है ! चलिये आज आपके लिए मैं ही एक किरदार ढूँढ लाई हूँ …ऐसा ही शायद आपके भी इर्द गिर्द होगा ही।चलिये इस किरदार से मिलने चलते हैं जो एक ईंटों से बने एक कमरे को ही अपना घर बनाने की कोशिश में है। * सुबह दस बजे का समय और रसोई में  उठा पटक का स्वर रोज़ की बजाए आज तेज़ था।पल्लवी के दिमाग और कदमों ने भी कमरे से रसोई तक पहुंचने में भी एक तीव्रता दिखाई। कारण था किसी नुक्सान की आशंका !   “लता !  ज़रा ध्यान से ! आज जल्दी है या कोई गुस्सा है जो बर्तनों पर निकाल रही है ? पिछली दफा भी तूने जल्दबाज़ी में एक काँच का गिलास तोड़ दिया था।आज ज़रा संभलकर।” पल्लवी ने कहा और लता के उखड़े मूड को देखकर खुद ही चाय चढ़ा दी ,अपने लिए और लता के लिए भी।वरना तो गरमा गरम चाय लता के हाथों, कुर्सी पर बैठे बिठाए उसे रोज़ ही मिल जाती थी।लता काम बाद में शुरू करती और चाय पहले चढ़ा देती थी। “लता ..चाय बन गई है पहले गरम गरम पी ले फिर करती रहना काम।” पर आज लता ने  बर्तनों का काम पूरा किया और हाथ पौन्छ कर चाय लेकर फटाफट पी और अपना मोबाइल उठाकर ले आई। “भाभी ..पहले तो आज मुझे यह बताओ कि ये जो फेसबूक होती है ,उस में  जो अपुन फ़ोटो डालते हैं क्या वो सबके पास पहुँच जाती है ?”भोलेपन से लता ने पूछा। “हाँ ,पहुँचने का मतलब वही लोग देख सकते हैं अगर तुमने उसे अपना दोस्त बनाया हुआ है।”   पल्लवी को लगा फ्रेंड लिस्ट ,मित्र सूची शब्दों का इस्तेमाल लता के समक्ष लेना व्यर्थ है कि वो समझ नहीं पाएगी। ” हाय री मेरी अल्पबुद्धि ! इतना भी न सोच सकी कि फेसबूक की दुनिया में कदम रखने वाली लता क्या फ्रेंड लिस्ट का मतलब भी न जानती होगी ?”पल्लवी को अपनी सोच पर खुद ही हँसी आने लगी।   “अरे भाभी , ये तो मालूम कि एक फ्रेंड लिस्ट होती है जिस में हम अपनी मर्ज़ी से लोगों को लिस्ट में बुलाते हैं।आप भी तो हो न मेरी लिस्ट में !”   लता ने बड़े फ़ख्र से बताया जबकि पल्लवी उसी फ़ख्र से यह न बता सकी कि उसने लता की फ्रेंड रिकुवेस्ट कितना सोचने के बाद स्वीकार की थी। “हाँ ..तो फिर क्या हुआ अब ! परेशानी किस बात की है लता?”   “भाभी ..कल मेरी बेटी ने अपनी एक फ़ोटो डाल दी फेसबूक पर और मेरी जान को एक मुसीबत खड़ी हो गई।इसीलिए परेशान हूँ।” “क्या परेशानी ज़रा खुल कर बताओ न! ” “वो मेरी बेटी की फ़ोटो मेरे किसी रिश्तेदार ने देख ली और  उसने गुड़िया के पप्पा को शिकायत कर दी कि फ़ोटो क्यों डाली ।” “तो क्या हुआ ! आजकल तो सब बच्चे ही अपनी फोटो फेसबूक पर हैं तो डाल ही देते हैं।चिंता वाली क्या बात है ? बस फोटो सही होनी चाहिए, मर्यादा में।” पल्लवी ने मर्यादा शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा ताकि लता आराम से समझ जाए। “भाभी ,बच्ची ने केवल मुस्कुराते हुए ही अपनी फोटो डाली।अब हम लोग कहाँ ऐसे वैसे कपड़े पहनते कि मर्यादा का सोचें।लेकिन लोग फिर भी बातें बनाएँ तो क्या करें ! खुद के अंदर तो झाँक कर नहीं देखते !”   लता का उखड़ा स्वर बता रहा था कि किसी अपने ने ही उसकी बेटी की शिकायत की थी।पल्लवी सुनकर हैरान थी कि एक बारह तेरह साल की मासूम बच्ची जो न बोल सकती है ,न सुन सकती है।केवल इशारों से जो बात सुनती समझती है तो क्या वो मुस्कुरा भी नहीं सकती ? क्या उसके मुस्कुराने पर भी कोई बैन लगा है? “तूँ लोगों की बातों की परवाह क्यों करती है, लता ?कहने दे जिसने जो कहना है।बच्ची ने कोई गुनाह नहीं किया जो तूँ इतना डर रही है।”पल्लवी ने समझाने का प्रयास किया। “”नहीं न भाभी ..आपको मालूम नहीं। अभी तो गुड़िया के पप्पा अपनी साइट(काम) पर गए हैं।आएँगे तो बहुत बवाल करेंगे।अभी तो बस उन्होंने फ़ोन पर बताया।मैं इसी बात को लेकर परेशान हूँ।”   “तो अब क्या इरादा है ,क्या चाहती है तूँ और तूने गुड़िया से पूछा क्या इस फ़ोटो की बात को लेकर ?”   “मैंने उसे इशारे से समझाया तो वो पहले तो अड़ी रही कि फ़ोटो नहीं हटाएगी पर जब मैंने उसे कहा कि पप्पा गुस्सा होंगे तो उसने गुस्से में आकर अपनी फोटो भी हटा ली और  मेरे मोबाइल से फेसबूक भी हटा दिया।” “एक तो तूँ बच्ची को नाहक ही गुस्सा हो रही है।फिर अगर उसने फ़ोटो हटा दी है तो अब क्यों परेशान है ?”   “वो यह पूछना था कि गुड़िया ने फ़ोटो हटा ली तो क्या अब भी फ़ोटो वो रिश्तेदार के पास होगी तो नहीं न ?”लता अपनी बुद्धि के हिसाब से अपनी समस्या का निवारण ही पूछ रही थी । पल्लवी सोचने लगी कि आजकल के बच्चे इतना कहाँ सोचते हैं कि सोशल साइट्स पर तस्वीरें डालने से कई बार समस्याओं का सामना करता पड़ता है।जबकि लता तो अपनी बेटी की मासूमियत को भी लोगों की नज़रों से बचाने का प्रयास कर रही थी। पल्लवी जानती थी कि लता आज संघर्षों और हिम्मत से जूझती हुई एक साहसी महिला थी … Read more

उषाकिरण खान जी का उपन्यास वातभक्षा – स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री

उषाकिरण खान जी का उपन्यास वातभक्षा - स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री

पति द्वारा श्रापित अहिल्या वातभक्षा बन राम की प्रतीक्षा करती रहीं | और अंततः राम ने आकर उनका उद्धार किया | ना जाने इस विषय पर कितनी कहानियाँ पढ़ी, कितनी फिल्में देखीं जहाँ बिम्ब के रूप में ही सही तथाकथित वातभक्षा अहिल्या के उद्धार के लिए राम सा नायक आ कर खड़ा है | पर पद्मश्री उषाकिरण खान जी के नए उपन्यास “वातभक्षा” वीथिका को किसी राम की प्रतीक्षा नहीं है, उसके साथ स्त्रियाँ खड़ी हैं | चाहे वो निधि हो, यूथिका हो, रम्या इंदु हो या शम्पा | यहाँ स्त्री शिक्षित है, आत्मनिर्भर है, कला को समर्पित है, परिवार का भार उठाती है पर समाज का ताना -बाना अभी भी स्त्री के पक्ष में नहीं है | तो उसके विरुद्ध कोई नारे बाजी नहीं है, एक सहज भाव है एक दूसरे का साथ देने का | एक सुंदर सहज पर मार्मिक कहानी में “स्त्री ही स्त्री की शक्ति का” का संदेश गूँथा हुआ है | जिसके ऊपर कोई व्याख्यान नहीं, कहीं उपदेशात्मक नहीं है पर ये संदेश कहानी की मूल कथा में उसकी आत्मा बन समाया हुआ है | वातभक्षा -राम की प्रतीक्षा की जगह स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री पद्मश्री -उषाकिरण खान ये कहानी हम को उस दौर में ले जाती है जब आजादी मिले हुए 16, 17 वर्ष ही बीते थे | पर लड़कियाँ अपनी शिक्षा के लिए, आर्थिक स्वतंत्रता के लिए, और अधिकारों के लिए सचेत होने लगीं थी | समाज शास्त्र एक नए विषय के रूप में आया था जिसमें अपना भविष्य देखा था वीथिका और उसकी सहेली निधि ने | पिता जमीन जायदाद, भाई का ना होना या भाई को खो देना, दुख दोनों के जीवन की कथा रही पर चट्टान की तरह एक दूसरे के साथ वो खड़ी रहीं | यूँ तो दुख के बादल सभी के जीवन में आए किन्तु निधि और यूथिका को तो अंततः किनारा मिल गया पर वीथिका के जीवन में दुख ठहर गया | जैसा की शम्पा एक जगह कहती है .. ‘हम स्त्रियों की जिंदगी बोनसाई ही तो है | हम कितने भी स्वतंत्र क्यों ना हों हमारी जड़े काट दे जाती हैं, हमारे डाल छाँट दिए जाते हैं, हमारे फूल निष्फल हो जाते हैं |” कहानी में एक तरफ जहाँ जंगल है, हवा है, प्रकृति है, अरब देश में तेल का अकूत भंडार पता चलने के बाद वहाँ बसी नई बस्तियां हैं तो वहीं समाज शास्त्र विषय होने के कारण जनजातियों के विषय में जानकारी है, सेमीनार हैं, आलेख तैयार करने के तरीके, हॉस्टल है स्त्री- स्त्री के रिश्तों की तरफ बढ़ी स्त्री की भी झलक है | मुख्य कहानी है प्रो. शिवरंजन प्रसाद उनकी पत्नी रम्या इंदु और वीथिका की | रम्या इंदु एक प्रसिद्ध गायिका है , पर वो सुंदर नहीं हैं | प्रोफेसर साहब सुदर्शन व्यक्तित्व के मालिक हैं | पर उनका प्रेम विवाह है | शुरू में बेमेल से लगती इस जोड़ी के सारे तीर और तरकश प्रोफेसर के हाथ में हैं | उनकी शोध छात्रा के रूप में निबंधित वीथिका उनके सुदर्शन व्यक्तित्व के आकर्षण से अपने को मुक्त रखती पर एक समय ऐसा आता है जब .. “यह मन ही मन विचार कर रही थी कि उनका स्पर्श उसे अवांछित क्यों नहीं लग रहा है |ऐसा क्यों लग रहा है मानो यही व्यक्ति इसके कामी हैं ? उपन्यास की सबसे खास बात है रम्या इंदु की सोच और उनका व्यवहार | अपने पति का स्वभाव जानते हुए वो दोष वीथिका को नहीं देती | “मेरा पति छीन लिया” का ड्रमैटिक वाक्य नहीं बोलती वरण उसका साथ देते हुए कहती हैं … “वीथिका मैं तुम्हें इतना बेवकूफ नहीं समझती थी | तुम इन पुरुषों के मुललमें में पड़ जाओगी मुझे जरा भी गुमान नहीं था | वरना मैं तुम्हें समझा देती | मैं इनके फिसलन भरे आचरण को खूब जानती हूँ |” वीथिका, एक अनब्याही माँ, की पीड़ा से पाठक गहरे जुड़ता जाता है जो वायु की तरह अपने बेटे के आस -पास तो रहती है पर मौसी बन कर | समाज का तान बाना उसकी स्वीकारोक्ति में रुकावट है पर जीवन भर प्यासी रहने का चयन उसका है | उसके पास कई मौके आते है अपने जीवन को फिर से नए सिरे से सजाने सँवारने के पर उसके जीवन का केंद्र बिन्दु उसका पुत्र है .. जिसके होते हुए भी वो अकेली है | “जिंदगी बार -बार अकेला करती है, फिर जीवन की ओ लौटा लाती है |” इस कहानी के समानांतर निधि और श्यामल की कथा है | जाति -पाती के बंधनों को तोड़ एक ब्राह्मण कन्या और हरिजन युवक का विवाह और सुखद दाम्पत्य है | बदलते समाज की आहट की है, जी सुखद लगती है | अंत में मैं यही कहूँगी की आदरणीय उषा किरण खान दी की लेखनी अपने प्रवाह किस्सागोई और विषय में गहनता के कारण पाठकों को बांध लेती है | कहानी के साथ बहते हुए ये छोटा और कसा हुआ उपन्यास स्त्री के स्त्री के लिए खड़े होने को प्रेरित करता है | वातभक्षा -उपन्यास लेखिका – पद्मश्री उषा किरण खान प्रकाशक – रूदरादित्य प्रकाशन पेज -94 मूल्य – 195 अमेजॉन लिंक –https://www.amazon.in/…/Ush…/dp/B09JX1K8LK/ref=sr_1_6… समीक्षा -वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें ……. जीते जी इलाहाबाद —-ममता कालिया जी के संस्मरणों के साथ अनोखी यात्रा अंतर्ध्वनि-हमारे समकाल को दर्शाती सुंदर सरस कुंडलियाँ देह धरे को दंड -वर्जित संबंधों की कहानियाँ वो फोन कॉल-मानवीय संबंधों के ताने-बाने बुनती कहानियाँ आपको समीक्षात्मक लेख “उषाकिरण खान जी का उपन्यास वातभक्षा – स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री” कैसा लगा ? हमें अपने विचारों से अवश्य परिचित करवाए | अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

स्त्रीनामा -भगवती प्रसाद द्विवेदी की स्त्री विषयक कविताएँ

भगवती प्रसाद द्विवेदी

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, “कविता से मनुष्य के भावों की रक्षा होती है | यह हमारे मनोभावों को उच्छ्वसित करके हमारे अंदर एक नया जीव डाल देती है |सृष्टि के पदार्थ या व्यापार विशेष को कविता इस तरह से व्यक्त करती है कि वो नेत्रों के सामने मूर्तिमान दिखाई देने लगते हैं |वस्तुतः कविता मनोवेगों को उत्तेजित करने कए एक उत्तम साधन है |” बेटियाँ कविता का वीडियो लिंक …….. स्त्रियों को लेकर भी कवियों द्वारा समय -समय पर कविताएँ लिखी गई | जब राष्ट्र कवि मैथली शरण गुप्त जी कहते हैं कि अबला,जीवन,हाय, तुम्हारी,यही,कहानी, आंचल, में है,दूध,और, आंखों,में,पानी तो उनका उद्देश्य स्त्री की करूण  दशा को दिखाना रहा होगा | संवेदना भी अपने उच्च स्तर पर पहुँच कर परिवर्तन की वाहक बनती  है |कुछ परिवर्तन समाज में दृष्टिगोचर भी हुए हैं |  पर स्त्री उसी स्थान पर बैठी तो नहीं रह सकती उसे  आँसू पोछ कर खड़ा होना होगा, समय और परिस्थिति से लड़ना होगा और समाज में अपनी जगह बनानी होगी | आज स्त्रीनामा में आदरणीय भगवती प्रसाद द्विवेदी जी की जो रचनाएँ हम लाए हैं वो स्त्रियों को उसी स्थान पर बैठ कर सिसकने की हिमायती नहीं हैं |ये कविताएँ उन्हें उनके गौरव का स्मरण करा कर ना केवल उनका आत्मसम्मान  जगाने की चेष्टा करती हैं अपितु अपने अधिकारों के लिए सचेतकर उनके संघर्ष में उनके साथ खड़ी  होती हैं | आईये पढ़ते हैं आदरणीय भगवती प्रसाद द्विवेदी जी का … स्त्रीनामा  स्त्रीनामा के अंतर्गत तीन कविताओं को पढ़ेंगे ……… अस्मिता, अस्तित्वबोध और बेटियाँ .. बेटियाँ इतिहास रचती रहें, कुछ ऐसा करें । खुलेपन की हिमायत भी जकड़बंदी भी वही, बने हाथी-दाँत कब तक रहेंगे, शिकवा यही, खलबली चहुँओर मचती रहे,कुछ ऐसा करें । तीनों ही कविताओं का मुख्य स्वर एक है जो समाज के स्त्री के प्रति दोमुँहे  चेहरे को समझने और प्रकृति द्वारा प्रदत्त अपनी सशक्तता को पहचान पर संघर्ष करने का आवाहन कर रही हैं | ** अस्मिता आखिर क्या हो तुम? आँगन की तुलसी फुदकती-चहकती गौरैया पिंजरे में फड़फड़ाती परकटी मैना अथवा किसी बहेलिए के जाल में फँसी बेबस कबूतरी? तुम्हारे माथे पर दहकता हुआ सिन्दूर है भट्ठे की ईंट है टोकरियों का बोझ है या काला-कलूटा पहाड़? पहाड़ जिसे तुम ढोती हो अपने माथे पर अनवरत जीवन पर्यन्त ! पहाड़ सरीखी तुम्हारी ज़िन्दगी में उग आये हैं अनगिनत फौलादी हाथ झाड़ू-बुहारू करते हाथ चाय-बागान से पत्तियाँ चुनते हाथ स्वेटर बुनते हाथ किचन में जूझते हाथ कंप्यूटर पर मशीनी अक्षर उगलते हाथ कलम की जादूगरी दिखाते हाथ हाथ,जो होम करते जल उठते हैं । सिरजती हो तुम्हीं छातियों से अमृतस्रोत मगर भरता है तुम्हारा पेट बची-खुची जूठन से उस खाद्य से जिसकी निर्मात्री खुद तुम्हीं हो ढोता है तुम्हारा पेट बीज को वृक्ष में तब्दील होने तक मनुजता का भार उस कुटिल मनुजता का भार जिसे बखूबी आता है लात मारना तुम्हारे ही पेट पर । तुम्हारे केले के थंब सरीखे पाँव खड़े हैं तुम्हारी सगी पृथ्वी के वक्षस्थल पर, पर कराया जाता है तुम्हें अहसास कि तुम्हारे पाँव अड़े हैं किसी की बैसाखी पर दादी!नानी!माँ!दीदी! पत्नी!बेटी!पोती! जरा झटककर तो देखो अपने -अपने पाँवों को , कहीं ये सचमुच किसी की बैसाखी पर तो नहीं खड़े? क्या तुम हो सिर्फ सिर, हाथ,पेट व पाँव वाली मशीनी रोबोट? नहीं, नहीं! किसी के इशारे पर कदमताल करती कतई नहीं हो तुम आदेशपाल रोबोट लहराता है तुममें भावनाओं का समुंदर उठते हैं इंद्रधनुषी सपनों के ज्वार जिन्हें कर दिया जाता है तब्दील आँसुओं के भाटे में सिकुड़ जाता है तुम्हारा अस्तित्व मुनाफे और घाटे में । तुम्हें पहचानना होगा पंक में धँसे रक्तकमल-से अपने आप को अपनी अस्मिता को उबारना होगा स्वयं को कीचड़ की सड़ाँध से कराना होगा तुम्हें अपने होने का अहसास ताकि महमहा उठे तुम्हारे पहाड़-से जीवन में भावना, फूल और खुशबुओं का सपनीला उजास । ** अस्तित्वबोध तुम्हारा आना आते ही खूब हुलसना-अगराना मगर तुम्हारे आने की ख़बर सुन सबका मुँह झवाँ जाना, हुलास-उछाह का जहाँ का तहाँ तवाँ जाना, नौ माह से अनवरत जलते-बलते आस के अनगिन दीपकों का भभककर एकाएक बुझ जाना और तुम्हारा अचरज में डूबकर रट लगाना– केआँ-केआँ! यह क्या हुआ?कैसे हुआ? तुम उठकर लगीं बढ़ने अमरबेल-सी ऊपर चढ़ने न जाने कहाँ से लेकर रस होनहार बिरवा के हरे पत्ते-सा किन्तु बूँट-मटर के साग की नाईं टूसा लगा बार-बार खोंटाने भला कैसे दिया जाता तुम्हें गोटाने! अँखिगर बनने की तुम्हारी कामना थी जरूर, मगर तभी तुम्हें सिखाया जाने लगा शऊर क्या तुम्हें नहीं है पता?यहाँ तो है सुकुमार सपनों को धुआँने का दस्तूर! लगा दी गयीं पगों में आबरू की बेडियाँ कतर दिये गये उड़ने वाले रेशमी पंख और दिखाई जाने लगी बात-बेबात तुम्हें लाल-पीली आँख । तुम्हारे सुबकने-सिसकने पर दादी माँ पुचकारने-पोल्हाने लगीं राजकुमारी फुलवा की कथा सुनाने लगीं उस फुलवा की कथा दर्द और व्यथा जिसका कर लिया था एक दरिंदे ने चहेटकर अपहरण मगर आख़िर में एक राजकुमार ने मुक्ति दिलवाई थी, जीवन में फिर सुख की सुधामयी नदी लहराई थी । कल तुम्हें भी एक दरिंदे के हाथ में सौंप दिया जाएगा डगमगाएगी धरती भूकंप आएगा वह बूढ़े बाघ-सा ठठाकर हँसेगा करैत साँप बनकर डँसेगा और जब सदा-सदा के लिए बाएगा मुँह तो ननद-श्वसुर-सास सभी तुम्हें कोंच-कोंचकर बनाएँगे रूपकुँवर जलाएँगे जिन्दा अथवा मौत के घाट उतारेंगे रोज-रोज मगर कथा का मुक्ति दिलवाने वाला राजकुमार कभी नहीं आएगा तुम्हारी ज़िन्दगी में । आख़िर कब चेतोगी तुम? चेतो,आज ही चेतो जिससे वह भयावह कल कभी न आने पाए और वह दरिंदा तुम्हें बेजान वस्तु बनाकर मत भरमाने-फुसलाने पाए नहीं है तुम्हें सिर्फ रेंड़ी-सा चनकना तुम्हें तो है लुत्ती बनकर धनकना धनको, जिससे फटे पौ सोझिया का मुँह चाटने के लिए फिर कोई कुत्ता पास न फटके धनको, ताकि छिटके दिनकर की रश्मियों-सी तुम्हारे अस्तित्व की लौ और यह हो जाए साबित कि आगर है यह धरती जौ-जौ ।   बेटियाँ बेटियाँ इतिहास रचती रहें, कुछ ऐसा करें । खुलेपन की हिमायत भी जकड़बंदी भी वही, बने हाथी-दाँत कब तक रहेंगे, शिकवा यही, खलबली चहुँओर मचती रहे,कुछ ऐसा करें । फूल-कलियों, तितलियों की खुशबुओं की चाह हो, पर चमन की हिफाज़त की ही नहीं परवाह हो! पुतलियों-सी मगन नचती रहें कुछ ऐसा करें । पढ़ें बेटी, बढ़ें बेटी तुंग शिखरों पर चढ़ें , हम सभी … Read more

लैण्ड स्लाइड

लैंड स्लाइड

लैंड स्लाइड या भूस्खलन -ठोस चट्टान अथवा शैल यदि अचानक ढलान पर फिसल जायें तो उसको भू-स्खलन कहते हैं ।  भू-स्खलन चंद सेकंडों में हो सकता है तथा इसमें कुछ दिन और महीने भी लग सकते हैं । वरिष्ठ लेखिका कुसुम भट्ट जी की  कहानी “लैंड स्लाइड”  भी एक भूस्खलन की ओर इशारा करती है | सतरी की तुलना धरती से की गई है |ये धरती स्थिर रहती आई है हमेशा .. तो क्यों ना आम धारणा बन जाए कि क्या कर सकती है बेचारी औरत ? आइए जाने मन के इस लैंड स्लाइड के प्रभाव को ..   लैण्ड स्लाइड   गौरी का देहरी से बाहर निकलना हुआ ही था कि चट्टान की तरह बीच में आ गया अवरोध – पहचाना फूफू जी….?’’ जरा भी खिसकना उसने मुनासिब न समझा! अंगद पांव जमाये खड़ा रहा कम्बख्त – ऐसे क्या देख रही फूफू जी मैं कल्लूऽ…’’ गौरी ने कलाई घड़ी देखी सिर्फ तीस मिनट! साढ़े दस बजे नहीं पहुँची तो सबकी आँखों की किरकिरी हो जायेगी, कई मर्तबा उसे देर से आने के लिये माफी मांगनी पड़ी थी, पर हर बार उसे माफ कर ही दिया जायेगा, इसकी गारंटी थोड़े ही है। उसकी जिंदगी में ही इस कदर अवरोध क्यों, जब भी आगे बढ़ने को होती बीच सड़क में लैण्डस्लाइड! उसने आॅटो रिक्शा मंगवा लिया था। अगर वह दस मिनट में होटल हिम पैलेस के पास नहीं पहुँची तो…? वह एक टक गौरी की आँखों मे ंदेख रहा था – कलम सिंह हूँ, बचपन में आप मुझे कल्लू कल्वा कहती थी न?’’ उसे गौरी की पेशानी पर चिन्ता की सिल्बटें देख कर भी कोई फर्क नहीं पड़ा – बहुत तीसा (प्यासा) हूँफू फू जी.. देखो तो गर्मी से पसीना की छप-छप हो री है…’’ वो हंसा, उसके तवे से काले चेहरे पर उजली मुस्कान उभरी, सफेद दंत पंक्ति चमकी! एक पल को गौरी तनाव भूल गई और पीछे मुड़कर फ्रिज से पानी की बोतल लाकर उसे थमा दी बे आवाज। उसका ंप्यास से हल्कान गला पूरी बोतल एक सांस में गटक गया – चाचा घर में नहीं हैं?’’ मामुली सा फिजूल सवाल करके वह बरामदे में बिछी कुर्सी पर बैठ गया, जबकि उसे पता था कि पुरोहित जी इस समय आॅफिस में होंगे, फिर भी गौरी को उलझाने की उसकी मूर्खतापूर्ण चेष्टा! गौरी को किसी भी हालत में राजपुर रोड के होटल अजन्ता में जहाँ उसकी संस्था बुरांस और कुछ बाहर की संस्थाओं के पदाधिकारियों की मीटिंग में पहुँचना था। अब गौरी को बोलना पड़ा, फिर कलाई घड़ी पर नजर डालते हुए उसने शून्य में देखा – कल्लू अभी तू सुमन नगर चला जा….’’ वह चिहुँका – तो पहचान लिया अपने भतीजे को? कहीं दूर जा रही हैं..?’ गौरी ने उसकी तरफ देखे बिना गर्दन हिलाई, उसकी आँखों की याचना वह मन ही मन टालने का संकल्प करती रही। और भीतर का एक कोना पिघलते रहने के बावजूद फुर्ती से ताला लगाकर निकल पड़ी थी। अंधेरा घिर जाने पर वह थकी कलान्त घर पहुँची तो कल्लू पुरोहित जी के साथ चाय पीते हुए गपबाजी करते हुए हंस रहा था, दोनों किसी तीसरे की मनोस्ाििति की चीरफाड़ करते हुए शब्दों का उत्सव मना रहे थे, छोटी मेज पर नमकीन मठरियाँ सजी हुई थीं। गौरी को देखकर पुरोहित जी भीतर लपके और चिंहुक कर बोले – सुन गौरी तू जल्दी से भात चढ़़ा कर मसाला पीस कर आटा गूंथ ले, मैं मछली लेकर आता हूँ।’’ गौरी चुपचाप गुसलखाने में बन्द हो गई। उसने शावर खोला और देर तक नहाती रही। आज भी उसे सुनना पड़ा था, बमुश्किल बाहर की संस्थाओं को उसने अपने जंगल प्रोजैक्ट के साथ जोड़ा था, वरना पहाड़ में बरसात के दिनों लैण्डस्लाइड के चलते कोई काम करने को तैयार नहीं था – भई जंगल तो मैदानों में भी कट-कट कर खाली हो चुके हैं’’उनका तकिया कलाम होता-‘‘हाँ अपने तो बस का नहीं पहाड़ की चढ़ाई चढ़ना’’ नींव के अजय मिश्रा बोले थे, पर फिर गौरी के बुझते चेहरे को देख कर तैयार हो गये थे। जाड़ों के दिन थे, अभी-अभी उसने बुरांस की हरीतिमा की नींव में ईंटों की पहली खेप रखी थी कि शाम के धुंधलके में पुरोहित जी के साथ एक साये को टहलते पाया था! गौरी को देख कर पुरोहित जी आज की तरह लपके थे – इतनी देर कहाँ थी मैडम! कलम सिंह कब से राह देख रहा है… बहुत भूखा है बेचारा, जल्दी से नाश्ता बना दो।’’ इस आदेश को अनसुना कर उसने कपड़े बदल कर चाय चढ़ा दी थी, आँच कम करने वह रजिस्टर में हिसाब लिखने लगी थी, चाय पीने का उसका भी मन था। उसने रेडियो चला दिया था। तलत महमूद की दर्द भरी आवाज गूँजने लगी थी – ऐ! गमे दिल कहीं और चल… और चल.. और चल… इस दर्द भरे गीत में वह भूल गई थी चाय का पानी खौल कर जल चुका था, पुरोहित जी जले हुए की गंध संूंघकर भीतर आये, उन्होंनंे भगोने को जोर से बेसिन में पटका और दहाड़ मारी -फूअड़ औरत! देख अपनी करतूत! वे उसके कलम पकड़े हाथ को खींच कर रसोई में ले गये- देऽख….? उन्हांेने थप्पड़ मारने के लिये हाथ उठाया ही था कि कल्लू बीच में आ गया – मारो मत चाचा, फू फू फिर बना लेगी चा..’’. गौरी की आँखों में धुआँ भर गया था। कल्लू जो उसके घर में उसके भाईयों की उतरन पहन कर अपनी नंगई ढकता रहा था, जिसके परिवार के सब लोग उसके परिवार और गांव के टुक्ड़ों पर पले थे। उसके सामने जैसे उसके कपड़े उतार दिये थे पुरोहित जी ने!गौरी को आग और धुएं के बीच जलता छोड़ वे बाहर निकल गये थे! कल्लू गौरी को ताकता रहा था – कोई बात नी फू फू जी, आराम से बन जायेगा खाने का क्या है।’’ गौरी ने भर आई आँखों के पानी को बमुश्किल भीतर घूँटा और भीतर के खारे समुद्र में अपने वजूद को छपछपाते देख कर गुसलखाने में घुसी तो पानी की धार के साथ आँखों का सारा खारा पानी धरती को भेज दिया। माँ के शब्द कानों में शीशा घोलने को बढ़े – स्त्री की नियती पुरूष के हाथों पिटना और वाक बाणों से घायल होना ही लिखा है … Read more

थ्री बी एच के

थ्री बी ऐच के

स्त्री का कोई घर नहीं होता | यहाँ तक की किसी कमरे में उसका एक कोन भी सुरक्षित नहीं होता | ऐसी ही है कहानी की नायिका अंकिता  की जिंदगी जो अपने थ्री बी एच के फ्लैट   में अपने लिए एक कोना तलाश रही है | उसकी  परेशानी हल होती है .. पर कैसे ? आइए जानते हैं रश्मि तारिका जी की कहानी से…..   थ्री बी ऐच के      मन के   अंधेरे को चारदीवारी की रौशनी कभी खत्म नहीं कर सकती या शायद आँखों में वो रोशनी चुभती सी लगती है तो पलकें मूँद लेने से खुद को एक दिलासा दिया जा सकता है कि हाँ , अब ठीक है।पर वास्तव में क्या सही  हो जाता है ? नहीं न…! “मॉम ,आप यहाँ सोफे पर सो रहीं हो ?” बोर्ड की परीक्षा की एक्स्ट्रा क्लासेस से आकर बड़े बेटे अंशुल ने पूछा और बैग वहीं अंकिता के पास ही रख दिया। “अंशुल , अपना बैग अंदर रखो।ये कौन सी जगह है ?कितनी बार समझाया है तुम लोगों को लेकिन ..!”कहकर अंकिता उठने लगी कि अंशुल ने चिढ़कर कहा “खुद कमरा होते हुए भी सोफे पर पड़ी रहती हो ,और हमें डांटती हो”कहते हुए बैग उठा कर अपने कमरे में जाकर बैठ कर टीवी देखने लगा। अंकिता उठी और बेटे को खाना देने की तैयारी करने लगी। आजकल उसके हाथ पाँव और दिमाग बस परिवार की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ही चल रहे थे। तीन कमरों के इस फ्लैट में एक कमरा पति शैलेश का बन चुका था जिसमें वो अपने बिज़नेस की फाइलों से घिरे रहते थे और बचा हुआ वक़्त भी “बिज़नेस टाइम” चैनल पर व्यतीत होता था मानो सारे जहाँ के कारोबार की चिंता इस इंसान पर ही आ चुकी है और उस में किसी प्रकार का कोई व्यवधान नहीं पड़ना चाहिए। दूसरा कमरा बड़े बेटे अंशुल का था जो अपने कमरे को अपनी मिल्कियत समझता था।उसके कमरे में किसी के भी आने जाने की अनुमति नहीं थी जब तक कोई ठोस कारण न हो।कमरे का दरवाज़ा उतना ही खुला रहता जितना कि अंकिता उसे हल्का सा उढेल कर बच्चे को केवल खाने पीने के लिए पूछ सके। यहाँ भी बोर्ड की परीक्षा महत्वपूर्ण कारण था इसलिए घर के इस दूसरे कमरे के बाहर एक बेटे के नाम की एक अदृश्य नेम प्लेट लगी थी। अब रहा तीसरा कमरा जो साइज में छोटा था और था भी छोटे बेटे मेहुल का जिसे बहुत बड़ी शिकायत थी कि उसे छोटे होने की वजह से न तो मनपसंद जगह मिली है और न ही बड़े भाई की तरह पूरी छूट कि वो अपने इस कमरे में किसी के आने जाने की मनाही कर सके क्यूँकि मेहुल की अलमारी के साथ वाली अलमारी में पूरा सामान अंकिता ने अपना रखा हुआ था और उसे ज़रूरत पड़ने पर बार बार उस कमरे में आना पड़ता था।कमरा छोटा था तो वहाँ बनाया गया पलँग का साइज भी छोटा था कि मेहुल को लगता कि वो केवल उसी का है। यानी “थ्री बी एच के ” के इस फ्लैट में अंकिता अपने नाम से किसी कमरे को अपना नहीं कह सकती थी।कहे भी कैसे ..भारतीय पत्नी का कमरा तो वही होगा न जो उसके पति का होगा ! बंगला हो या फ्लैट ,पत्नी का अपने कमरे का कोई वज़ूद नहीं क्योंकि पत्नी का वज़ूद होगा तो कमरा या घर होगा या फिर उसके नाम की नेम प्लेट ! “सुनो ,एक महीने के लिए बाबूजी अपने यहाँ रहने आ रहे हैं।”फेक्ट्री से आकर शैलेश ने बताया। “जी ..ठीक है।”अंकिता ने पानी का गिलास देते हुए कहा। “क्या ठीक है ..बाबू जी आ रहें हैं तो उनके लिए जगह का भी तो सोचना होगा न।” “मेहुल के कमरे में …!” अंकिता ने अभी वाक्य पूरा भी न किया था कि शैलेश ने इन तरह से नज़र उठा कर देखा मानो कुछ गलत कहने का अपराध कर दिया हो। “उस छोटे कमरे में उन्हें पिछली बार ठहराया था न।जानती हो न बाद में कितनी दिक्कत हुई थी उन्हें ? ” “देखिए , अंशुल की परीक्षा के दिन करीब आ रहे हैं।उसे परेशान नहीं करते।हम अपने कमरे में बाउजी के रहने का प्रबंध कर देते हैं।” “लेकिन हम दोनों कैसे मेहुल के कमरे में और उसे अंशुल के साथ भी नहीं एडजस्ट कर सकते क्यूँकि किसी भी बात पर झगड़ पड़ेंगे और अंशुल परेशान होगा।” “आप मेहुल के साथ आराम से सो सकते हैं।पलंग इतना भी छोटा नहीं। दो बड़े इंसानों का मुश्किल है उस पर पूरा आना ।मेहुल तो अभी छोटा बच्चा ही है न !”अंकिता ने जैसे समाधान खोज कर दे दिया हो। बस इंतज़ार तो उसे अगले उस पल का था जब शैलेश उसके लिए पूछते कि वो कहाँ सोएगी या रहेगी उस दौरान जब बाबूजी उनके यहाँ होंगे।कुछ पल की खामोशी को तोड़ते हुए शैलेश ने पूछा “तुम कहाँ सोओगी..?” “हॉल में सोफे पर सो जाऊँगी ।” “क्यों..अंशुल जब सो जाया करे तो तुम उसके पास सो सकती हो न ?” “नहीं..अंशुल  कभी वो रात को पढ़ता है कभी सुबह उठकर तो मैं उसके पास कैसे सो सकती हूँ ?” “ठीक है जैसे तुम्हें सही लगे।” शैलेश ने चाय का कप रखा और जैसे ही जाने लगे अंकिता ने डरते डरते पूछ लिया। ” बाबूजी को हम अंशुल की परीक्षा के बाद न बुला ले  ?” “क्यों ,तुम्हें अपना कमरा देने में परेशानी हो रही है क्या ?”बेरुखी से शैलेश ने पूछा और बिना जवाब का इंतज़ार किये अपने कमरे में जाकर कमरा बंद कर लिया। ऐसी बेरुखी और कमरा बंद कर देना आज कोई नई बात नहीं थी।जब भी शैलेश को कोई बात नागवार गुजरती वो ऐसा ही करते।एक दो बार अंकिता ने एतराज़ किया तो शैलेश ने ऐ सी चलने का बहाना बता दिया तो दूसरी तीसरी बार मच्छरों  का।अंकिता ने एक बार दबी ज़ुबाँ में कह दिया कि ए सी गर्मियों में चलता है सर्दियों में तो नहीं ..!” जिस भाव से कहा शैलेश ने समझा लेकिन इस बात को लेकर उसने अगले पंद्रह दिन कमरे के दरवाजे को बन्द नहीं किया और गर्मी ,घबराहट ऐसी दिखाई कि ऐ सी चलने पर दरवाज़ा खुला रहने से … Read more

अनामिका चक्रवर्ती की स्त्री विषयक कवितायें

अनामिका

अनामिका चक्रवर्ती आज कविता में एक सशक्त हस्ताक्षर हैं | यूँ तो वो हर विषय पर कवितायें लिखती हैं पर उनकी कलम से स्त्री का दर्द स्वाभाविक रूप से ज्यादा उभर कर आता है | आज आपके लिए उनकी कुछ ऐसी ही स्त्री विषयक कवितायें लेकर आये हैं |इन कविताओं को पढ़ते हुए कई बार लोकगीत “काहे को ब्याही विदेश” मन में गुंजायमान हो गया | कितनी पीड़ा है स्त्री के जीवन में जब उसे एक आँगन से उखाड़कर दूसरे में रोप दिया जाता है | पर क्या पराये घर में उसे अपनी बात कहने के अधिकार मिल पाते हैं उड़ने को आकाश मिल पाता या स्वप्न देखने को भरपूर नींद | आधुनिक पत्नी में वो कहती हैं .. क्योंकि जमाना बदल गया है औरतों के पास कई कई डिग्रियाँ होती हैं कुछ डिग्रियों की तख़्तियाँ उनके ड्राइंग रूम की शान होती है साक्षरता के वर्क से सजी हुई लड़की पढ़ी लिखीं चाहिए समाज को दिखने के लिए पर उसकी डिग्री ड्राइंग रूम का शो केस बन कर रह जाती हैं |किस तरह से पति गृह में बदलती जाती है एक स्त्री | कहीं पीड़ा की बेचैनी उनसे कहलवाती है कि औरतें तुम मर क्यों नहीं जाती तो कहीं वो क पुरुष कहकर पुरुष को ललकारती हैं | समाज में हाशिये से भी परे धकेली गयीं बदनाम औरतों पर लिखी उनकी रचनायें उनके ह्रदय की संवेदना पक्ष को उजागर करती है | कम से कम स्त्री तो सोचे उनके बारे में …जिनके बारे में ईश्वर  भी नहीं सोचता | अनामिका चक्रवर्ती की स्त्री विषयक कवितायें आधुनिक_पत्नी जमाना बदल गया है तकनीकी तौर पर गाँवों का भी शहरीकरण हो चुका है कच्ची सड़कों पर सीमेंट की वर्क बिछा दी गई है और सड़क की शुरूआत में टाँग दी गई है एक तख्ती उस सड़क के उदघाटन करने वाले किसी मंत्री का नाम पर क्योंकि जमाना बदल गया है औरतों के पास कई कई डिग्रियाँ होती हैं कुछ डिग्रियों की तख़्तियाँ उनके ड्राइंग रूम की शान होती है साक्षरता के वर्क से सजी हुई तकनीकी तौर पर ये आज की आधुनिक औरतें कामकाजी कहलाती हैं मगर इनका अपनी ही जेबों पर खुद का हक़ नहीं होता इनको महिने भर की कमाई का पूरा पूरा हिसाब देना पड़ता है अपने ही आजाद ख्यालात परिवारों को घर के बजट में ही होता है शामिल उसके खर्चों का भी बजट जबकि उसके कंधे भी ढोते हैं बजट भार की तमाम जिम्मेदारी मगर उन कंधों को देखा जाता है केवल आंचल संभालने की किसी खूंटी की तरह ये औरतें भी गाँव की उन कच्ची सड़कों जैसी होती हैं जिनपर बिछा दी जाती हैं सीमेंट की वर्क जिनका उदघाटन उनके पतिनुमा मंत्री ने किया होता है और परिवार के शिलालेख पर लिखा होता है आधुनिक पत्नी के आधुनिक पति का नाम। बदलाव  उसे लहसुन छीलना आसान लगता था प्याज काटना तो बिलकुल पसंद नहीं था रह-रहकर नहीं धोती थी मुँह अपना जबकि सूख जाता था चेहरे पर ही पसीना आँखें तो रगड़कर पोछना बिलकुल पसंद नहीं था पीते पीते पानी ठसका भी नहीं लगता था न होती थी नाक लाल बीच में चाहे कुछ भी कर ले बातें चुप रहना तो बिलकुल पसंद नहीं था उसे अब प्याज काटना बहुत पसंद है मुँह भी धोती है रह-रहकर पोछती है आँखें रगड़कर पीते पीते पानी लग जाता है अक्सर अब ठसका जबकि चुपचाप ही पीती है नाक भी दिख जाती है लाल वो अब भी बहुत बोलती है अब तो खत्म होने लगा है जल्दी काजल भी पसंद करने लगी है मगर चुप रहना….. वेश्याएँ आखिर कितनी वेश्या ? मोगरे की महक जब मादकता में घुलती है शाम की लाली होंठों पर चढ़ती है वेश्यायें हो जाती है पंक्तियों में तैयार कुछ लाल मद्धम मद्धम रोशनी में थिरकती हैं दिल के घाव पर मुस्कराहट के पर्दे डालकर झटकती है वो जिस्मों के पर्दों को जिसमें झाँक लेना चाहता है हर वो मर्द जिसने कुछ नोटों से अपना जमीर रख दिया हो गिरवी और कुछ चौखटों पर दिखती हैं तोरण सी सजी अपने अपने जिस्म को हवस की थाली में परोसने के लिए लगाती है इत्र वो अपनी कलाइयों में उस पर बाँधती है चूड़ा मोगरे का आँखों के कोने तक खींचती है वो काजल और काजल के पर्दे से झाँकती है औरत होने की असिम चाह जिनके नसीब में सुबह भी काली होती है मगर जिस्म बन कर रह जाती हर बार हवस की थाली लिये मर्द नामर्द हवस के भूखे भेड़िये नहीं होते क्योंकी भेड़िया हवस का भूखा नहीं होता वे होते है किसी के खसम, भाई, दद्दा, बेटा जो घर की औरतों को इज्जत का ठेका देते हैं और बाजारों में अपनी हवस मिटाने का लेते है ठेका फिर भी नहीं मिटती उनकी भूख कभी न देते है औरत को औरत होने का हक़ कभी आस मिटती नहीं, आँखें छलकती नहीं फिर हर बार बनती है वो वेश्या सजती सवँरती है लगाती है इत्र फिर गजरे बालों में बांधती रखती गालो में पान ऐसे श्रृगाँर से रखना चाहती दूर वह अपनी बेटीयों को, जिनके नसो में बहता नाजायज बाप का खून मगर सर पर साया नहीं रहता कभी न होते है जन्मप्रमाण पत्र पर हस्ताक्षर कोई औरत न होने की पीड़ा लिये जीती है ऐसी माएँ वेश्या की आड़ में तब तक झुर्रियाँ उसकी सुरक्षा का कवच न बन जाए जब तक ।  सच है, स्त्रियाँ नहीं कर सकतीं पुरुष की बराबरी क्या हुआ अगर उसी ने जन्म दिया है पुरुषों को कोई हक़ नहीं उसे अपनी भूख को मिटाने का खाने का आखिरी निवाला भी वह पुरुष की थाली में ही परोस देती है चाहे फिर उसे भूख से समझौता ही क्यों न करना पड़े खाने के साथ साथ अपनी कामनाओं से भी कर लेती है समझौता बेहद जरूरी होता है पुरुष का पेट भरना, मन भरना जब तक कि उसको न दोबारा भूख लगे क्यों हर भूख को मिटाना पुरुष के लिये ही होता है परन्तु भूख तो स्त्रियों की भी उतनी ही होती है पुरुष की संतुष्टि से तृप्त नहीं होतीं स्त्रियाँ मगर वह खुशी से जीती हैं अपनी ज़िन्दगी अपनी असंतुष्टि और अतृप्त पीड़ा को लेकर नहीं करतीं वह बातें इस … Read more

लघुकथा – एक सच यह भी

स्वतंत्रता अनमोल होती है | पर क्या स्त्री कभी स्वतंत्र रहती है | एक सच यह भी है कि तमाम बंदिशों में रहने वाली स्त्री के हिस्से मे स्वतंत्रता के वो कुछ पल आते हैं जब उसका पति ऑफिस गया होता है | एक बार मैत्रेयी पुष्पा जी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि जब अकेली होती हूँ तो मैं उडती हूँ , घर की चार दीवारी के अन्दर | क्या ये स्त्री का सच है ? लघुकथा – एक सच यह भी   तेजी से अनार के दाने निकालती हुई, चार महीने में कितनी एक्सपर्ट हो गयी थीं अनु की ऊँगलियाँ ! उस दिन भी वह अनार के दाने ही तो निकाल रही थी। तभी दीदी आ गई थीं। देखते ही बोली थीं, “अनु, ये क्या हाल बना रखा है तूने ! देखा है आईने में खुद को ! कितनी कमजोर हो गयी है !” हँसकर वह भी बोली थी, “दीदी, अभी तो मेरा ध्यान सिर्फ इन पर लगा रहता है।” दीदी ने एक गहरी साँस ली थी और फिर दुलार करते हुए बोली थीं, “देख अनु, ये मुश्किल भरे दिन भी कट जाएँगे। मगर तेरा स्वास्थ गिर गया तो फिर कौन सम्हालेगा? देख, जब भी तू भास्कर के लिए कुछ सूप वगैरह बनाती है, एक कप खुद के लिए भी बनाकर पी लिया कर । इसी तरह अनार का रस या और जो भी कुछ, तेरे शरीर को भी तो पोषण चाहिए।” उसने गहरी नजरों से उनकी ओर देखा था। “ऐसे क्या देख रही है?” “और जो मन को चाहिए, और आत्मा को …?” दीदी फट पड़ी थीं, “उफ्फ ! कैसे समझाऊँ ! इतनी आपाधापी में या तो तू शरीर का कर ले या फिर … जो तेरी समझ में आए।” वह चुप रह गयी थी और सिर झुका लिया था। कैसे कहे अपने मन की बात, है तो छोटी-सी … । जब से भास्कर का आॅफिस जाना बंद हुआ है, बस उन्हीं के मन का जीती है। उसे कमरे की खिड़कियाँ खोलकर रहना अच्छा लगता है और वे, सारे दिन खिड़कियाँ बंद करके रखते हैं। मानो खिड़कियों के साथ उनके मन के दरवाजे भी बंद हो गये थे । कितना जी घुटता है उसका। दीदी फिर बोल पड़ी थीं, मगर इस बार धीरे से, “अनु, मैं समझती हूँ सब। अभी तू जो कुछ भी कर रही है न, समझ ले ये तेरी साधना है …।” और फिर वह उसका सिर सहलाती रही थीं। अचानक उसकी तंद्रा टूट पड़ी, “सुनो अनु, डॉक्टर ने मुझे आज से आॅफिस जाने की अनुमति दे दी है। चहकते हुए भास्कर ने कहा। वह भी खुशी से चहक उठी, “तो चलिए, जल्दी से ये रस तो पी लीजिए। और हाँ समय से खाना जरूर मँगवा लीजियेगा।” “सच कहूँ तो, तुम्हारी वजह से आज मैं इतनी जल्दी ठीक हो गया हूँ। तुमने जो किया मेरे लिए, कोई और नहीं कर सकता। लेकिन एक सच और कहूँ …?” उसकी नजरें उस सच को जानने के लिए उत्सुक हो उठीं। “इतने दिनों तक घर में रह कर, मैं घुटता ही रहा । आॅफिस जाने की तलब लगी रहती थी।” “ओह मुझे भी … !” कहते-कहते चुप रह गयी वह। भास्कर के ऑफिस जाते ही वह कमरे में आ गयी और सारी खिड़कियाँ खोल दीं। पूरे कमरे में बस वह थी और उसका तन-मन, जो उसकी रूह के साथ अब सुर-लय-ताल मिला कर थिरक रहा था।● मौलिक एवं स्वरचित प्रेरणा गुप्ता – कानपुर prernaomm@gmail.com *** यह भी पढ़ें … श्राद्ध की पूड़ी मजबूरी नीम का पेड़ आपको लघु कथा   ” एक सच यह भी  ” कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under –story, hindi story, emotional hindi story, short story