हवा का झोंका थी वह -स्त्री जीवन के यथार्थ की प्रभावशाली अभिव्यक्ति    

हवा का झोंका थी वह

     समकालीन कथाकारों में अनिता रश्मि किसी परिचय की मोहताज़ नहीं है। हवा का झोंका थी वह अनिता रश्मि का छठा कहानी संग्रह है। इनके दो उपन्यास, छ: कहानी संग्रह सहित कुल 14 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी रचनाएँ निरंतर देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। इस संग्रह में 14 कहानियाँ संग्रहीत हैं। अनिता रश्मि ने स्त्री विमर्श के विविध आयामों को सरई के फूल तथा हवा का झोंका थी वह संग्रहों की कहानियों के माध्यम से सफलतापूर्वक हमारे सामने प्रस्तुत किया हैं। अनिता रश्मि ने स्त्री पीड़ा को, उसकी इच्छाओं, आकांक्षाओं, भावनाओं और सपनों को अपनी कहानियों के माध्यम से चित्रित किया हैं। इस संग्रह की कहानियों में स्त्रियों के जीवन की पीड़ा, उपेक्षा, क्षोभ, संघर्ष को रेखांकित किया है और साथ ही समाज की विद्रूपताओं को उजागर किया है। इन कहानियों का कैनवास काफ़ी विस्तृत हैं। ये कहानियाँ मध्यवर्गीय जीवन से लेकर निम्न वर्ग तक के जीवन की विडंबनाओं और छटपटाहटों को अपने में समेटे हुए है। इन कहानियों में यथार्थवादी जीवन, पारिवारिक रिश्तों के बीच का ताना-बाना, आर्थिक अभाव, पुरूष मानसिकता, स्त्री जीवन का कटु यथार्थ, बेबसी, शोषण, उत्पीड़न, स्त्री संघर्ष, स्त्रीमन की पीड़ा, स्त्रियों की मनोदशा, नारी के मानसिक आक्रोश आदि का चित्रण मिलता है। संग्रह की सभी कहानियाँ मानवीय संवेदनाओं को चित्रित करती मर्मस्पर्शी, भावुक है। इस संग्रह की कहानियाँ जिंदगी की हकीकत से रूबरू करवाती है। लेखिका अपने आसपास के परिवेश से चरित्र खोजती है। कहानियों के प्रत्येक पात्र की अपनी चारित्रिक विशेषता है, अपना परिवेश है जिसे लेखिका ने सफलतापूर्वक निरूपित किया है। अनिता रश्मि की कहानियों में सिर्फ पात्र ही नहीं समूचा परिवेश पाठक से मुखरित होता है।  हवा का झोंका थी वह -स्त्री जीवन के यथार्थ की प्रभावशाली अभिव्यक्ति     संग्रह की पहली कहानी हवा का झोंका थी वह नारी की संवेदनाओं को चित्रित करती आदिवासी स्त्री मीनवा की एक मर्मस्पर्शी, भावुक कहानी है जो विपरीत परिस्थितियों में भी हँसते मुस्कराते घरेलु नौकरानी का काम करती है। मीनवा एक बिंदास स्त्री है। आँखें एक मध्यम वर्गीय परिवार की कहानी है। पायल और सुमंत लीव इन रिलेशनशिप में रहते हैं। पायल शादी इसलिए नहीं करना चाहती क्योंकि वह अपने माता-पिता को हमेशा लड़ते-झगड़ते हुए देखती है। लेकिन कुछ ही सालों में पायल अनुभव करती है कि वह अपनी माँ में और सुमंत उसके पापा में परिवर्तित हो रहा है तो पायल सुमंत से शादी करने का फैसला करती है। सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए हम कोल्हू के बैल की तरह जूते रहते हैं लेकिन क्या ये सुविधाएँ हमें खुशियाँ देती है? इस प्रश्न का उत्तर जिस दिन हमें मिल जाएगा उस दिन हम भी इस कहानी के पात्रों मथुरा, जिरगी और कजरा की तरह कोलतार की तपती सड़क पर मुस्कुरा उठेंगे। शहनाई कहानी संगीत की दुनिया में ले जाती है। निशांत अपने बेटे अंकुल की मृत्यु के पश्चात टूट जाता है और उसके हाथ से शहनाई छूट जाती है। निशांत के सैकड़ों शिष्य देश विदेश में निशांत का नाम रोशन कर रहे है लेकिन निशांत अपने बेटे के निधन से उबर नहीं पा रहा था। एक दिन अचानक जब निशांत की मुलाक़ात शहनाई पर बेसुरी तान निकालते हुए प्रकाश पर पड़ती है तो निशांत को प्रकाश में अपना बेटा अंकुल दिखता है और निशांत प्रकाश को शहनाई पर सुर निकालने का प्रशिक्षण देता है और निशांत वापस संगीत की दुनिया में लौट आता है।   एक नौनिहाल का जन्म एक आदिवासी युवक वृहस्पतिया की कहानी है। वृहस्पतिया अमीर बनने के लिए अपने सीधे सादे पिता की ह्त्या कर देता है। वह न तो दूसरों के खेतों पर मजदूरी करता है, न ही अपनी किडनी बेचता है और न ही आत्महत्या करता है। वह अमीर होने के लिए अफीम की खेती करता है और एक बड़ी जमीन का मालिक बन जाता है। लेकिन वह पुलिस के डर से इधर उधर भागता रहता है। उस घर के भीतर एक ऐसे माता पिता की कहानी है जो अपने अर्धविक्षिप्त, विकलांग बेटे को घर के अंदर बाँध कर रखते है। इनके पडोसी को इस तरह की हरकत अमानवीय लगाती है और वह इनको एक पत्र लिखता है कि आप अपने बेटे को खुले वातावरण में सांस लेने दो, फिर देखो कि तुम्हारा बेटा कैसे खिल उठेगा। वह अर्धविक्षिप्त, विकलांग बेटे को अपने बेटे के साथ खेलने के लिए भी बुलाता है। किर्चें एक लेडी डॉक्टर की कहानी है जिसका पति दहेज़ का लोभी है। वह अपनी पत्नी की तनखा स्वयं रख लेता है और अपनी पत्नी के द्वारा अपने ससुर से भी पैसे मांगता रहता है। ससुर की मृत्यु के पश्चात वह पत्नी के भाई से भी पैसा मांगता है। पत्नी अपने पति के लालची स्वभाव के कारण परेशान हो जाती है और अपने पति से अलग हो जाती है। वह अपने बेटे को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाती है।    एक उदास चिट्ठी एक पत्र शैली में एक युवती द्वारा अपनी माँ को लिखी कहानी है। यह एक भारतीय संस्कारों में पली बढ़ी आधुनिक युवती के शोषण की कहानी है। जिसे अपनी विदेशी माँ से उपेक्षा मिलती है। वह अपनी जीवन व्यापन के लिए एक रेस्टोरेंट खोलती है जहां उसके जीवन में एक फौजी आता है। वह फौजी एक दिन उसका बलात्कार करता है। तब वह टूट जाती है और कहती है वह मेरी चीख नहीं थी। वह बेबसी की चीख नहीं थी… वह एक औरत की चीख भी नहीं थी। वह एक घायल, मर्माहत संस्कृति की चीख थी ममा।      लाल छप्पा साड़ी गरीब आदिवासी स्त्री बुधनी की कहानी है। बुधनी रोज रात को डॉक्टर निशा के यहाँ पढ़ने के लिए जाती है। बुधनी का पति जीतना दारु पीकर पड़ा रहता है।  एक दिन जीतना शहर जाने के लिए निकलता है तो बुधनी उसे पैसे देकर अपने लिए लाल छप्पा साड़ी लाने के लिए कहती है। क्योंकि बुधनी जहां काम करती है उस घर की मालकिन के पास भी एक लाल रंग की साड़ी है जो की बुधनी को बहुत पसंद है। बुधनी का पति शहर से नहीं लौटता है। गाँव में लोग बुधनी को डायन समझने लग जाते है। वह विक्षिप्त सी हो जाती है और बुधनी अपने पुत्र को लेकर अपने पति को ढूंढने शहर जाती है। शहर में उसे पता … Read more

उपन्यास अंश – बिन ड्योढ़ी का घर – भाग दो 

बिन ड्योढ़ी का घर

ऊर्मिला शुक्ल जी का “बिन ड्योढ़ी का घर” एक ऐसा उपन्यास है जिसमें स्त्री के जीवन का हाहाकार सुनाई देता है | साथ ही उपन्यासकार अपने आस -पास के जीवन के पृष्ठों को खोलने में कितनी मेहनत कर सकता है, छोटी से छोटी चीज को कितनी गहराई से देख सकता है और विभिन्न प्रांतों के त्योहारों, रहन सहन, भाषा, वेशभूषा की बारीक से बारीक जानकारी और वर्णन इस तरह से दे सकता है कि कथा सूत्र बिल्कुल टूटे नहीं और कथा रस निर्बाध गति से बहता रहे तो उसकी लेखनी को नमन तो बनता ही है | जल्दबाजी में लिखी गई कहानियों से ऐसी कहानियाँ किस तरह से अलग होती हैं, इस उपन्यास को एक पाठक के रूप में यह जानने के लिए भी पढ़ा जा सकता है | जिसमें लेखक का काम उसका त्याग और मेहनत दिखती है | इस उपन्यास को पाठकों और समीक्षकों द्वारा पसंद किये जाने के बाद अब उर्मिला शुक्ल जी ला रहीं हैं “बिन ड्योढ़ी का घर -2 ” पूरा विश्वास है की ये उपन्यास भी पाठकों की अपेक्षा पर कहर उतरेगा | आइए कर्टन रेजर के तौर पर पढे इस उपन्यास का एक अंश ..   यू ट्यूब पर देखें   उपन्यास अंश – बिन ड्योढ़ी का घर – भाग दो  “ माँ देखो न ! डंकिनी ने मेरी माला खराब कर दी | उसने मुझे जीभ भी चिढाया | ” रूआँसी सी वन्या उसे अपनी माला दिखा रही थी | उसकी माला की लड़ें आपस में उलझ गयी थीं |  “ इसमें रोने की क्या बात है ? चलो अभी ठीक कर देते हैं | ” कात्यायनी को वहाँ से निकलने की राह मिल गयी | वह उसे लेकर वनिता धाम की ओर बढ़ चली |  “भूरी चींटी लाल भितिहा | गिर गई चींटी फूटगे भितिहा | ईइइ ” दीवार की ओट में खड़ी डंकिनी ने वन्या को चिढ़ाया | “ देखो माँ वो फिर चिढ़ा रही है और बिजरा (जीभ चिढ़ा ) भी रही है | ” कात्यायनी ने डंकिनी की ओर देखा | वह उसे देखकर भी डरी नहीं | पूरी ढिठाई से उसकी ओर देखती रही |  “ गंदी बात | अच्छे बच्चे ऐसा नहीं करते | ” “ में अच्छी नई हूँ ? ” “ किसने कहा तुम अच्छी नहीं ? तुम तो सबसे अच्छी हो | “  “ वनिया ने मेरे को डंकिनी फंखनी बोला | ” “ वन्या ! ये गंदी बात है | तुमने क्यों चिढ़ाया इसे ? ”  “ इसने कहा ये माला मेरे को नई फबती और मेरी माला खराब कर दी | ” अपनी उलझी माला देख ,उसका स्वर फिर रुआँसा हो उठा |  “ इसने भी तो मेरे को काली चीटी बोला | डंकिनी डंक मार बी बोली | बिजराया बी | देखो – देखो फिर बिजरा रही | ” कात्यायनी ने देखा ,वन्या उसके पीछे छुपकर अपनी माला दिखाते हुए उसे जीभ दिखा रही थी और डंकिनी की क्रुद्ध नजरें उसकी माला पर टिकी थीं | वह उसकी इर्ष्या कारण समझ गयी |   “ तुमको भी माला पहनना है ? ” डंकिनी ने हाँ में गर्दन हिलाई | “ आओ मेरे साथ | ” “ माँ इसको माला नहीं देना | बहुत गंदी है ये | ” “ ऐसा नहीं बोलते | ये तो तुम्हारी संगी है न | संगी के संग तो मिल कर रहते हैं | ” कात्यायनी ने लाल पाड़वाली कोसा की ओढ़नी निकाली | साड़ी की तरह पहनाया उसे | फिर उसके बालों को समेट कर सुंदर सा जूड़ा बनाया | उसमें कौड़ियों की माला सजाई | फिर अपनी मालाओं में से लाल रंग की एक माला निकाली और  तिहराकर पहना दिया | डंकिनी ने दर्पण देखा | उसका मुख गुड़हल सा खिल उठा | “ देख– देख मेरा माला कितना सुंदर | तेरे से भी सुंदर | ” “ ठेंगा | ” वन्या ने अँगूठा दिखाया और जीभ चिढ़ाती बाहर भाग गयी |  उसके पीछे डंकिनी भी | कात्यायनी महसूस रही थी उस बाल युद्ध को ,जिसमें जीभ चिढ़ाना ,ठेंगा दिखाना और चिढ़ाने वाले शब्द ,ऐसे अस्त्र थे कि सामने वाला तिलमिला उठे | यहाँ डंकिनी का नाम भी ऐसा ही हथियार बन गया था | वरन डंकिनी इस अंचल की ख्यात नदी हैं | उसकी कथा में माँ दंतेश्वरी जुड़ी हैं | सो इस अंचल के लिए एक पवित्र नाम है डंकिनी | ‘ सोचती कात्यायनी को वह दिन याद हो आया जब …….   बस्तर के धुर दक्खिन में डंकिनी की गोद में बैठा पालनार | जंगल ,नदी और पहाड़ का सौंदर्य अपने में समेटे ,एक सुंदर सा गाँव | लोह अयस्क का तो अकूत भंडार ही था वहाँ | अपनी बोली – बानी ,अपने नाच – गान को सहेजता पालनार अपने आप में मस्त था | वह तेलंगाना के ज्यादा करीब था | सो उस गाँव का शेष बस्तर से, कोई ख़ास वास्ता नहीं था | न काहू से दोस्ती न काहू से बैर ,की तर्ज पर वह एक शांतिप्रिय गाँव था ; मगर उस दिन पूरा गाँव राख में बदल गया था ? पुलिस ,सेना और प्रशासन को अंदेसा तो उन्हीं पर था ,जो अपने को इस अंचल का कर्णधार मान बैठे थे ;मगर सबूत कोई न था | वे वहाँ पहुँचीं ,तब तक कुछ नहीं बचा था | बची थी तो सिर्फ राख | मारी माँ उदास हो उठीं | उन्हें लग रहा था आना व्यर्थ हुआ | सो लौटते समय गाड़ी में ख़ामोशी पसरी हुई थी | घाट आने वाला था | मोड़ तीखे हो चले थे | चालक ने गाड़ी की रफ्तार धीमी की | गाड़ी घाट चढ़ने ही वाली थी कि छत पर धम्म की आवाज आई |  “ साड़थी ! गाड़ी साइड लो | देखो कौन है ? ”   “ जिनावर होगा | इहाँ गाड़ी रोकना टीक नई | ये इलाका बहुत डेंजर | ” चालक ने कहा | “ जानवर ? अमको लगता कोई आडमी है ? ” “ आदमी ? इतना अँधेरा में आदमी कहाँ होयेगा ? कोंनो जिनावर है | मै गाड़ी को अइसा मोड़ेगा के वो धड़ाम हो जायेगा | ” और उसने झटके से मोड़ काटा – “ रूको – … Read more

बिन ड्योढ़ी का घर -स्त्री संघर्ष और स्वाभिमान की गाथा

बिन ड्योढ़ी का घर -स्त्री संघर्ष और स्वाभिमान की गाथा

इतनी किताबों पर लिखने के बाद अगर किसी उपन्यास को पढ़ने के बाद भी ये लगे की मैं जो इस पर कहना चाह रही हूँ, उसके लिए शब्द साथ छोड़ रहे हैं तो मेरे विचार से इससे बढ़कर किसी उपन्यास के सशक्त होने का क्या प्रमाण हो सकता है | ऐसा ही उपन्यास है ऊर्मिला शुक्ल जी का बिन ड्योढ़ी का घर | एक उपन्यासकार अपने आस -पास के जीवन के पृष्ठों को खोलने में कितनी मेहनत कर सकता है, छोटी से छोटी चीज को कितनी गहराई से देख सकता है और विभिन्न प्रांतों के त्योहारों, रहन सहन, भाषा, वेशभूषा की बारीक से बारीक जानकारी और वर्णन इस तरह से दे सकता है कि कथा सूत्र बिल्कुल टूटे नहीं और कथा रस निर्बाध गति से बहता रहे तो उसकी लेखनी को नमन तो बनता ही है | जल्दबाजी में लिखी गई कहानियों से ऐसी कहानियाँ किस तरह से अलग होती हैं, इस उपन्यास को एक पाठक के रूप में यह जानने के लिए भी पढ़ा जा सकता है | जिसमें लेखक का काम उसका त्याग और मेहनत दिखती है | बिन ड्योढ़ी का घर -स्त्री संघर्ष और स्वाभिमान की गाथा चार राज्यों, एक पड़ोसी देश की भाषाओं, रहन -सहन और जीवन को समेटे यह उपन्यास मुख्य तौर से स्त्री संघर्ष और उसके स्वाभिमान की गाथा है | ये गाथा है स्त्री जीवन के अनगिनत दर्दों की, ड्योढ़ी से बिन ड्योढ़ी के घर की तलाश की, सीता से द्रौपदी तक की, अतीत के दर्द से जूझते हुए स्त्री संघर्ष और उसके अंदर पनपते स्वाभिमान के वृक्ष की | अंत में जब तीन पीढ़ियाँ एक साथ करवट लेती है तो जैसे स्वाभिमान से भरे युग हुंकार करती हैं | पर अभी भी ये यात्रा सरल नहीं है | इतिहास गवाह है लक्ष्मण रेखा का | वो लक्ष्मण रेखा जो सीता की सुरक्षा के लिए भले ही खींची गई थी | पर उसको पार करना सीता का दोष नहीं कोमल स्त्रियोचित स्वभाव था | जिसका दंड रावण ने तो दिया ही .. पितृसत्ता ने भी दिया | उनके लिए घर की ड्योढ़ी हमेशा के लिए बंद हो गई और बंद हो गई हर स्त्री के लिए ड्योढ़ी के उस पार की यात्रा | घर की ड्योढ़ी के अंदर धीरे -धीरे पितृसत्ता द्वारा बनाई गईं ये छोटी -छोटी ड्योढ़ियाँ उसके अधिकार छीनती गई | खुली हवा का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, जीवनसाथी चुनने का अधिकार और घर के अंदर किसी बात विरोध का अधिकार | “लड़की तो तभी अच्छी लगती है, जब तक उसके कदम ड्योढ़ी के भीतर ही रहते हैं | उसके कदमों ने ड्योढ़ी लांघी नहीं की ….और हमारी लड़की ने तो ड्योढ़ी लांघी ही नहीं उसे रौंद भी दिया | हमारी मान  मर्यादा का तनिक भी ख्याल नहीं किया उसने | ना, अब वो हमारी ड्योढ़ी के भीतर नहीं आएगी, कभी नहीं |” ये कहानी है कात्यानी और उसकी मां राम दुलारी की | सीता सी राम दुलारी के लिए पति का आदेश ही ईश्वरीय फरमान है | उन्होंने कभी विरोध नहीं किया, तब भी नहीं जब बेटी के जन्म के बाद पिता उसकी उपेक्षा करते रहे, अनदेखा करते रहे, तब भी नहीं जब दूसरे प्रांत में ले जाकर किसी से हिलने मिलने पर रोक लगा दी, जब पितृसत्ता की कमान उन्हें सौंपते हुए बेटी का स्वाभाविक बचपन छीना, बेटी की पढ़ाई छुड़ाकर जिन भाइयों से दुश्मनी थी बिना जाँचे परखे उन्हीं के बताये लड़के से विवाह कर दिया और सबसे बढ़कर तब भी नहीं जब ससुराल से लुटी -पिटी आई कात्यायनी के लिए दरवाजा भी नहीं खोला | जो पुरुष स्त्री को बाहरी दुनिया में यह कहने से रोकते हैं, “तुम कोमल हो बाहर ना निकलो, क्योंकि बाहरी दुनिया कठोर है” विडंबना है कि वो ही उस स्त्री को अपनों के लिए कठोरता चाहते हैं | अपने दूध और रक्त संबंधों के लिए भी | प्रेम और सुरक्षा की चादर के नीचे ढंका ये वर्चस्व या अधिकार भाव बिना आहट किए ऐसे आता है की स्त्री भी उसके कदमों की थाप सुन नहीं पाती और पितृ सत्ता का हथियार बन जाती है | ‘पुरुष में जब मातृत्व भर उठता है तो उसके व्यक्तित्व में निखार आ जाता है और स्त्री में जब पितृत्व उभरने लगता है तो उसका जीवन धूमिल हो जाता है | उसकी विशेषताएँ खो जाती हैं और वो चट्टान की तरह कठोर हो जाती है |” उपन्यास में गाँव, कस्बों के स्त्री जीवन के उस हाहाकार का तीव्र स्वर है| जिसे शहर में बैठकर हम जान नहीं पाते | ऐसी ही है गडही माई की कथा, जिसमें गाँव के जमींदार जब गाँव की बेटियों बहुओं को उठा कर ले जाते तो घरवाले ही उन्हें गडही के जल में डूबा देते और प्रचलित कर देते की गाँव की बहु बेटियों पर माई का प्रकोप है | इसलिए जल्दी ही उनकी शादी कर दो और शादी के बाद दोबारा मायके नहीं आना है क्योंकि इसमें भी माई का श्राप है | एक बार की विदा हमेशा की विदा बन जाती | आपस में छोटी -छोटी बातों पर लड़ते पुरुष इस मामले में चुप्पी साध कर ऐका दिखाते | “जवान बेटियाँ और बहनें और कभी -कभी तो उनकी मेहरारू भी उठवा लि जातीं और वे विवश से देखते रहते |फिर उनके वापस आने पर लोक लाज के डर से उन्हें गढ़ही में डूबा आते , फिर कहते गढ़ही में कोई है जो उन्हें लील लेता है |फिर धर्म का चोला पहना दिया गया और वो गढ़ही से गढ़ही माई बन गईं |” “गढ़ही माई | इस जवाँर की वो अभिशाप थीं जिन्होंने लड़कियों को शाप ही बना डाला था |” और  दहेज के दानव के कारण डूबी कजरी और नंदिनी हैं तो कहीं खेतों में काम करने वालों की स्त्रियों पर गाँव के भया लोगों का अत्याचार, जो उन्हें अनचाही संतान को जन्म देने को विवश करता है, जिसे  वो अपना प्रारबद्ध माँ स्वीकार कर लेती हैं |तो कहीं गंगा भौजी का किस्सा है | अपने चरित्र को निर्दोष साबित करने वाले जिसके चरित्र पर लांछन लगाये जाते रहे | गाँव बाहर कर के भी उसकी बारे में बेफजूल की कथाएँ बनती रहीं पर उसने उन्हीं के बीच में … Read more

बदल दें

किरण आचार्य

क्या इतिहास को बदला जा सकता है | हालांकि ये ये संभव नहीं है फिर भी कवी मन ऐतिहासिक पात्रों से गुहार लगा उठता है कि वो अपने निर्णयों को बदल दें | खासकर तब जब उनके निर्णय की अग्नि में स्त्री का अतीत और वर्तमान झुलस रहा हो | क्योंकि इतिहास की कोख से ही भविष्य जन्म लेता है | तो क्या संभव है कि हम उन निर्णयों को बदल दें | आइये पढ़ें किरण आचे जी की खूबसूरत कविता … बदल दें  समुद्र तट पर अग्नि परीक्षा के लिए चढ़ रही चिता पर वह समुद्र भी नहीं लाता कोई लहर चिता बुझाने को मौन सब नहीं करता कोई विरोध वह स्वयं भी नहीं रूको देवी …… देवी की तरह नहीं मनुष्य की भाँति करो व्यवहार कहो ,तट पर खड़े हर एक बुद्धिमना से मेरे हृदय के सत्य को ठुकरा कर ले रहे हो देह की परीक्षा हृदय तो जल चुका अविश्वास के ताप में पलट जाओ उतर आओ उल्टे पैर नहीं तो युगों तक हर एक नारी से माँगी जाएँगी ये परीक्षा तुम्हारा नाम ले कर कड़ा करो मन को कहो कि मेरी पवित्रता है मेरे शब्दों में नहीं जो हूँ स्वीकार तो वन में जा रहूँगी वैसे भी अंत में है यही मेरी नियति भरी उस सभा में थामती तुम चीर अपना हर किसी से माँगती न्याय की दुहाई किससे गूँगों की भीड़ से रूको देवी जो खींचते घसीटते तुम्हें लाए हैं निर्ल्लजता से तनिक वो देखो खड्ग उठा कर काट दो वो हाथ और फिर ग्रीवा रोक दो ये अट्टाहस सिंहनी बन होना है इसी क्षण हो जाए महाभारत क्यों वर्षों तक उलझे केश तेरे करे लहू स्नान  की प्रतीक्षा बढ़ो आगे बढ़ो नहीं तो युगों तक बना रहेगा इनका रहेगा पशु व्यवहार क्या पता उन निर्णयों की गूँज नारी को बल दे यूँ पूछ रहा है मन कहाँ बुना जाता है समय का ताना बाना कहाँ रखा जाता है अतीत के पन्नों को पात्रों को वहीं ले चलो उस काल की कुछ घटनाओं को बदल दें २ एक इच्छा अनकही सी आज फिर गली से निकला ऊन की फेरी वाला सुहानें रंगों के गठ्ठर से चुन ली है मैनें कुछ रंगों की लच्छियाँ एक रंग वो भी तुम्हारी पसंद का तुम पर खूब फबता है जो बैठ कर धूप में पड़ोसन से बतियाते हुए भी तुम्हारे विचारों में रत अपने घुटनों पर टिका हल्के हाथ से हथेली पर लपेट हुनर से अपनी हथेलियों की गरमी देकर बना लिए हैं गोले फंदे फंदे में बुन दिया नेह तुम्हारी पसंद के रंग का स्वेटर टोकरी में मेरी पसंद के रंग का गोला पड़ा बाट देखता है अपनी बारी की और मैं सोचती हूँ अपनी ही पसंद का क्या बुनूँ कोई नहीं रोकेगा कोई कुछ नहीं कहेगा पर खुद के लिए ही खुद ही,,, एक हिचक सी पर मन करता है कभी तो कोई बुने मेरी पसंद के रंग के गोले लो फिर डाल दिए है नए रंग के फंदे टोकरी में सबसे नीचे अब भी पड़ा हैं मेरी पसंद के रंग का गोला लेखिका किरन आचार्य आक्समिक उद्घोषक आकाशवाणी चित्तौड़गढ मंगत्लाल की दीवाली रिश्ते तो कपड़े हैं सखी देखो वसंत आया नींव आपको  कविता   “बदल दें “   लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-poem, hindi poem, history, sita, draupdi