बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा

बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा

  1857 का संग्राम याद आते ही लखनऊ यानी की अवध की बेगम हज़रत महल के योगदान को कौन भूल सकता है l  खासकर तब जब आजादी के अमृत महोत्सव मना रहा देश अपने देश पर जाँ निसार करने वाले वीरों को इतिहास के पीले पन्नों से निकाल कर फिर से उसे समकाल और आज की पीढ़ी से जोड़ने का प्रयास कर रहा हो l कितनी वीर गाथाएँ ऐसी रहीं, जिन्होने अपना पूरा जीवन अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए बिता दिया और हम उन्हें कृतघ्न संतानों की तरह भूल गए l बेगम हज़रत महल उन्हीं में से एक प्रमुख नाम है l   किसी भी ऐतिहासिक व्यक्तित्व पर लिखना आसान नहीं होता l ज्ञात इतिहास ज्यादातर जीतने वाले के हिसाब से लिखा जाता है जो कई बार सत्य से काफी दूर भी हो सकता है l अतः निष्पक्ष लेखन हेतु लेखक को समय के साथ जमींदोज हुए तथ्यों की बहुत खुदाई करनी पड़ती है, तब जा कर वो कहीं कृति के साथ न्याय कर पाता है l ऐसे में वीणा वत्सल सिंह इतिहास में लगभग भुला दी गई  “बेगम हज़रत महल’ को अपनी कलम के माध्यम से उनके हिस्से का गौरव दिलाने का बीड़ा उठाया है l वो बेगम को उनकी आन-बान-शान के साथ ही नहीं उनके बचपन, मुफलिसी के दिन जबरन परी बनाए जाने की करूण  कहानी से नवाब वाजिद अली शाह के दिल में और अवध में एक खास स्थान बनाने को किसी दस्तावेज की तरह ले कर आई हैं l ये किताब मासूम मुहम्मदी से महक परी और बेगम हज़रत महल तक सफर की बानगी है l जिसमें बेगम हज़रत महल के जीवन के हर पहलू को समेटा गया है l ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की प्रगतिशील सोच रखने वाली एक जुझारू संघर्षशील स्त्री के सारे गुण मुहम्मदी में नजर आते हैं l बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा   बेगम हज़रत महल की संघर्ष यात्रा शुरू होती है एक निम्नवर्ग के परिवार में जन्मी बच्ची मुहम्मदी से l कहते है कि होनहार बिरवान के होत चीकने पात” l जब पाठक मुहम्मदी के बचपन से रूबरू होता है तो लकड़ी की तलवार लेने की जिद और जंगी हुनर सीखने कि खवाइश से ही उसके भविष्य की दिशा दिखने लगती है l एक कहावत है “होनहार बिरवान के होत चीकने पात”यानि  विशिष्ट व्यक्तित्व के निर्माण के बीज उनके बचपन से ही दिखने लगते हैं l ऐसा ही मुहम्मदी के साथ हुआ l बच्चों के खेल “बोलो रानी कितना पानी” जिसमें रानी को कभी ना कभी डूबना ही होता है का मुहम्मदी द्वारा विरोध “रानी नहीं डूबेगी” दिखा कर खूबसूरती से उपन्यास की शुरुआत की गई है l और पाठक तुरंत मुहम्मदी से जुड़ जाता है l शुरुआत से ही पाठक को मुहम्मदी में कुछ नया सीखने का जज्बा, जंगी हुनर सीखने का जुनून, करुणा, विपरीत परिस्थितियों को जीवन का एक हिस्सा समझ कर स्वीकार तो कर लेना पर उस में हार मान कर सहने की जगह वहीं से नए रास्ते निकाल कर जमीन से उठ खड़े होने की विशेषताएँ दिखाई देती हैं lये उसका अदम्य साहस ही कहा जाएगा कि जीवन उन्हें बार-बार गिराता है पर वो हर बार उठ कर परिस्थितियों की लगाम अपने हाथ में ले लेती हैं l  उपन्यास में इन सभी बिंदुओं को बहुत ही महत्वपूर्ण तरीके से उभारा गया है l   निम्न वर्ग के परिवार में तीन भाइयों के बाद आई सबसे छोटी मुहम्मदी यूँ तो पिता की बहुत लाड़ली थी पर गरीबी-मुफलिसी और सबसे बड़े भाई अनवर के हर समय बीमार रहने के कारण उसका बचपन आसान नहीं था l अनवर के इलाज लायक पैसे भी अक्सर घर में नहीं होते l ऐसे में जब भी अनवर को दिखाने हकीम के पास जाना होता उस दिन घर में चूल्हा भी नहीं जलता l ऐसे में उसके मामा सलीम ने जब अपनी बीमार पत्नी की देखभाल के लिए मुहम्मदी को अपने साथ ले जाने को कहा तो माता- पिता को अनुमति देनी ही पड़ी l इसका एक कारण यह भी था कि मुहम्मदी की बढ़ती उम्र और सुंदरता के कारण वो इस कमजोर दरवाजे वाले घर में सुरक्षा नहीं कर पाएंगे l पर खुश मिजाज मुहम्मदी ने माता-पिता के बिछोह को भी स्वीकार कर लिया l अपनी ममेरी बहन नरगिस के साथ उसने ना केवल घर के काम सीखे बल्कि मामूजान से उनका हुनर टोपी बनाना भी सीखा l ताकि आर्थिक संबल भी दे सके l हिफ़ाजत और जंग के लिए तलवार चलाना सीखने की खवाइश रखने वाली मुहम्मदी का दिल बेजूबानों के लिए भी करुणा से भरा था l  यहाँ तक की उपन्यास में मुर्गे की लड़ाई के एक दृश्य में मुहम्मदी मुर्गे को बचाती है l और कहती है कि   “मुर्गे का सालन ही खाना है तो सीधे हलाल करके खाइए ना ! ऐसे क्यों इस गरीब को सताये जा रहे हैं ? क्या इसए दर्द नहीं होता होगा?”   मुहम्मदी की ममेरी बहन नरगिस और जावेद की प्रेम कथा उपन्यास की कथा में रूमानियत का अर्क डालती है l “नरगिस का चेहरा सुर्ख, नजरें झुकी हुई l जबकि जावेद का मुँह थोड़ा सा खुला हुआ और आँखें नरगिस के चेहरे पर टिकी हुई l दोनों के पैरों के इर्द-गिर्द गुलाब और मोगरे के फूल बिखरे हुए और बेचारा टोकरा लुढ़क कर थोड़ी दूर पर औंधा पड़ा हुआ l”   जब भी हम कोई ऐतिहासिक उपन्यास पढ़ते हैं तो हम उस कथा के साथ -साथ उस काल की अनेकों विशेषताओं से भी रूबरू होते हैं l उपन्यास में नृत्य नाटिका में वाजिद आली शाह का कृष्ण बनना उनके सभी धर्मों के प्रति सम्मान को दर्शाता हैं तो कथारस वहीं प्रेम की मधुर दस्तक का कारण बुनता है l कथा के अनुसार कृष्ण बने नवाब वाजिद अली शाह द्वारा जब मुहम्मदी की बनाई टोपी पहनते हैं तो जैसे कृष्ण उनके वजूद में उतर आते हैं l परंतु उसके बाद हुए सर दर्द में लोग उनके मन में डाल देते हैं कि उन्होंने शायद जूठी टोपी यानि किसी की पहनी हुई टोपी पहनी है, ये दर्द उसकी वजह से है l वाजिद के गुस्सा होते हुए तुरंत सलीम … Read more

दीपक शर्मा की कहानी सवारी

सवारी

अपना पैसा,  अपनी सवारी, और अपना मकान  ..अपने वजूद की तलाश करती स्त्री की यही तो पायदानें है जिनसे वो आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान अर्जित करती है | पर क्या ये सब इतना सहज है? और क्या स्त्री देह के प्रति समाज की सोच बदल जाती है ?  हम सबकी प्रिय  वरिष्ठ कथाकार  दीपक शर्मा की कहानी “सवारी”  1967 की कोई तिथि और 27 नवंबर 2019 का वो  जघन्य हादसा ….वर्तमान की घटना के दंश से इतिहास का सफर करती ये कहानी स्त्री जीवन के उस दर्द की बानगी है जो तब से लेकर अब तक हर ही है | आइए सवार हों .. लाइफ ऑन टू व्हीलस/इट इज़ अ ब्युटीफुल राइड सवारी    मानव-स्मृति, में घटनाएं कोई पदानुक्रम नहीं रखतीं । न समय का कोई सोपान-उतरान। वहाँ क्लिक नहीं, ट्रिगर काम करता है । तभी 27 नवम्बर, 2019 की तिथि में डॉ. प्रियंका रेड्डी के संग हुआ जघन्य अपराध मेरे सामने 21 जुलाई, 1967 की तिथि ले आया है । बुआ के क्षत-विक्षत चेहरे के साथ । सांझा कारक दोनों का स्कूटर रहा था । ’’मंगला की सवारी’’ सन् 1967 की फरवरी की किसी एक तिथि में हमारे दालान में उतारे एक  नए स्कूटर को ढक रहे पेपर बोर्ड को हटाते हुए घोषणा की थी, ’’मंगला का वेस्पा । मंगला का वौस्प…’’ ’’वौस्प?’’ उन्हें घेर रही हम तीनों चचेरी बहनें उत्सुक हो ली थीं ।  ’’हाँ वौस्प, ततैया, ही होता है । सुनते हैं इसके इतावली मालिक पियाज्जियों ने जब पहली बार इसे इसकी तैयार अवस्था में देखा तो यही बोला ’सेम्बरा उना वेस्पा’ (यह तो ततैया, वौस्प जैसा है) ततैया ही की भांति इसका पिछला भाग इसके अगले चौड़े भाग के साथ बीच में तंग रखी गयी इस कमर जैसी सीट के साथ जुड़ाए रखा गया है….’’ ’’बहुत बढ़िया है, बाबा,’’ बुआ हमारे दादा के साथ जा चिपटी थीं ।  ’’आप का हर फैसला गलत ही क्यों होता है बाबा?’’ तभी मेरे ताऊ और पिता एक साथ दालान में चले आए थे और चिल्लाए थे, ’’मंगला इसे सम्भाल पाएगी भला? बारह मील कोई रास्ता नहीं । ऊबड़-खाबड़, झाड़ी-झंखाड़ और गड्ढों से भरी वह राह सीधी-सपाट है क्या? टायर पंक्चर होंगे, स्कूटर उलट जाएगा, ब्रेक टूटेगी, मंगला चोट खाएगी……..’’ ’’तुम चुप रहो,’’ दादा उन्हें डपट दिए थे, ’’मंगला सब सम्भाल पाएगी । सब सम्भाल लेगी……’’ ’’जैसी आप अपने सूरतदास को सम्भाल रहे हैं,’’ ताऊ ने तीखा व्यंग किया था । बाद  में हम लड़कियों ने जाना था हमारी बुआ ने अभी अपने अठारहवें वर्ष में कदम रखा ही था कि बाबा ने उनकी सगाई कर दी थी । अपने परम मित्र, सूरतदास जी, के बेटे से । उस समय उनके बेटे के तपेदिक-ग्रस्त होने का न बाबा को पता था और न ही सूरतदास बाबा को । और पता मिलने पर भी हमारे दादा ने सगाई नहीं तोड़ी थी । सूरतदास बाबा के आग्रह बावजूद । हाँ, शादी ज़रूर टाल दी थी । और बुआ को बी.ए., व एम.ए. कराने के बाद नौकरी में लगा दिया था । कस्बापुर के उसी डिग्री कालेज में उनके विषय, दर्शन-शास्त्र, में लेक्चरर, जिसके हॉस्टल में रह कर बुआ ने अपनी बी.ए. तथा एम.ए. पास की थी । अल्पसंख्यक वर्ग के उस कालेज में गैर-धर्मी विद्यार्थियों के रहने की व्यवस्था तो हॉस्टल में उपलब्ध थी किन्तु अध्यापिकाओं के लिए अल्पसंख्यक उसी वर्ग से होना अनिवार्य था ।   ऐसे में बुआ को अब रोज़ाना हमारे गाँव, बारह मील कस्बापुर से बारह मील की दूरी पर होने के कारण हमारे गाँव ने अनूठा वही नाम पाया था ।………..यही से कालेज के लिए निकलना होता था । एक दिन यदि परिवार की जीप की अगली सीट पर बैठ कर मेरे पिता के संग जाती तो दूसरे तीसरे दिन मेरे चाचा की मोटर-साइकिल के पीछे बैठ कर । ताऊ अपने पोलिए-ग्रस्त पैर के कारण न जीप चलाते और न ही मोटर-साइकिल ।   उन दिनों लड़कियों में साइकिल और लड़कों में मोटरसाइकिल का चलन तो आम था किन्तु स्कूटर का बिल्कुल नहीं ।  सच पूछें तो बूआ का वह वेस्पा हमारे गाँव बारह मील, का पहला स्कूटर था । बल्कि हमारे क्षेत्र में उसे लोकप्रियता प्राप्त करने में पाँच-छः साल तो और लगे ही लगे थे । एक दूसरी इतालवी कम्पनी ने भी लम्ब्रेटा नाम का अपना नया स्कूटर उसी सन् 1957 में बेशक बाज़ार में उतार दिया था किन्तु सन् 1956 का बना हुआ बुआ वाला वेस्पा 150 अभी भी उसे अच्छी प्रतिस्पर्धा देने में सफल हो रहा था ।    हम तीनों चचेरी उसे दिन में लाख बार देखतीं-जोखतीं और जानतीं-समझतीं । और यह भी अब स्वाभाविक था, बुआ का ततैया गाँव भर में चर्चा का विषय बन गया था । महिलाएं यदि कम ऊँचाई पर बनी उस गद्दी और पिछले अलग आसन की बात करतीं तो पुरूष उसके इंजन और पार्सल कम्पार्टमेन्ट के स्थल की । स्टील के एक ही यूनिफाइड दांये में बना वह वाहन अपने सवार को साइकिल और मोटर साइकिल से ज्यादा रक्षा व सुविधा उपलब्ध करा रहा था और उन दो की भांति यहाँ सवार को अपनी गद्दी के ऊपर टाँगे फैला कर नहीं बैठना पड़ता था । पैर रखने के लिए सवार के पास यहाँ सपाट समतल चौड़ा पटरा था, इंजन सीट के नीचे स्थित था, और आधाड़ी हवा रोकने के लिए कवच-नुमा फ़ेयरिंग भी ज़बरदस्त थी ।    मगर जो नज़र लग गयी । इधर मेरी माँ, मेरी ताई और हम चचेरी बहनों के लिए वह स्कूटर अभी साहस-कर्म तथा अपूर्व अनुभव का उपकरण बना ही था और बुआ की पिछली सीट पर बारी-बारी से शहर घूमने का हमारा रोमान्च पुराना भी न पड़ा था, कि नृशंस व अमानवीय यह दुर्घटना उधर घट गयी । ’’मंगला अभी तक घर नहीं पहुँची?’’ बाबा ने उस दिन अपनी मेंटलपीस घड़ी छठी बार उठा कर देखी थी ।   घड़ी की सूइयां अढ़ाई बजाने जा रही थीं । बुआ को अगर पहले कभी देर हुई भी थी तो हद से हद पौने दो से सवा दो बज गए थे । मगर इस तरह अढ़ाई तो कभी नही बजे थे। ’’विनोद,’’ बाबा अपने कमरे में दालान में चले आए थे । और चाचा को आवाज़ लगाये थे ।  बाबा अच्छे उपन्यासकार … Read more

सही तरीका

सही तरीका

रहींम  दास जी का एक दोहे की एक पंक्ति है “जहां काम आवे सुई, कहा करे तलवारि।।  इसका भावार्थ तो ये है की हर वस्तु के अपने -अपने गुण होते है | तलवार सुई से बड़ी है परजहाँ सिलने की जरूरत हो वहाँ तलवार कपड़े को और अधिक फाड़ देती है | क्या यही बातें स्त्री विमर्श पर लागू नहीं होतीं .. कुछ बातें जो संभाल सकती थीं वो गलत तरीका अपनाने से बिगड़ भी जाती  है | कविता सिंह की लघुकथा “सही तरीका” बहुत सावधानी से ऐसे ही बिन्दु की ओर ध्यान आकृष्ट कर रही है | आइए पढ़ें ..  सही तरीका  लघु कथा का वीडियो रूपांतरण देखें –सही तरीका   “हमारी संस्था महिला अधिकारों के प्रति महिलाओं को जागरूक करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। हम जगह-जगह कैम्पेन चलाते हैं।” उन्होंने कुछ पल बोलना बंद करके चारों तरफ नजर दौड़ाया। जब उन्हें तसल्ली हो गयी कि सभी लोग उनकी बात ध्यान से सुन रहे हैं तो उन्होंने दुबारा बोलना शुरू किया। “हाँ तो हम सभी जानते हैं कि पिता की सम्पत्ति में बेटियों को बराबर का हिस्सेदार होने का कानून बन चुका है….” “पर इससे क्या होता है सिर्फ कानून बन जाने से ही उन्हें उनका हक कहाँ मिल पाता है?” एक महिला ने उन्हें बीच में रोकते हुए कहा। “जी! इसीलिए तो हम यहाँ इकट्ठे हुए हैं। हमें अपना हक लेना सीखना होगा।” वो मुस्कुराईं और कुछ पल चुप रहकर फिर बोलीं– “बहनों! हम मायके से रिश्ते खराब होने के डर से अपना हक छोड़ देती हैं पर ऐसा नहीं होना चाहिए, हमें अपने हक़ के लिए आवाज उठाना ही होगा, चाहे रिश्ते बने या बिगड़े। मुझे ही देखिए, मैंने अपने मायके वालों पर केस कर रखा है……” “मैं कुछ कहना चाहती हूँ मैम!” तभी रिया ने उन्हें रोकते हुए कहा और माइक के पास आ गयी। “आप सही कह रही हैं, मैं मानती हूँ। किसी भी समाज की चली आ रही परिपाटी में बदलाव होने में वक़्त लगता है ये सभी जानते हैं। जिन्हें बेटियों को हक़ देना होता है वे बिना कानून के भी देते रहे हैं। हमें उन्हें जागरूक करना है जो इस कानून के बनने के बाद भी आँखे बंद किये हुए हैं पर मेरी समझ से जागरूक करने का ये तरीका सही नहीं  है। हमें अपनी पीढ़ी से शुरुआत करनी है बल्कि अपने घर से करनी है। हमें सबसे पहले अपने सास ससुर और पति को जागरूक करना है कि वो घर की बेटियों को उनका हक बिना मांगें ही उन्हें दें। सच मानिए जिस दिन हम महिलाओं को उकसाने के बजाय उन्हें ये बताएं कि अपनों बच्चों को वो बराबरी का हक देना शुरू कर दें। बचपन से ही उनके मन में ये बीज बोएं कि भाई-बहन दोनों का ही माता-पिता और उनकी संपत्ति पर बराबर का अधिकार है और साथ ही माता-पिता की देखभाल का बराबर का कर्त्तव्य भी । फिर देखिए इसके बाद ना किसी कानून की जरूरत होगी ना रिश्ते खराब होने का डर।” इतना कहकर रिया वापस अपनी जगह पर बैठ गयी साथ ही चारों तरफ तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी और संस्था की स्पीकर अवाक सी सबका चेहरा देखने लगीं। —–कविता सिंह—- यह भी पढ़ें … पद्मश्री उषा किरण खान की कहानी – वो एक नदी इत्ती-सी खुशी  अर्नेस्ट हेमिंग्वे की कहानी- दिन भर का इंतजार दूसरी पारी – समीक्षा आपको लघुकथा “सही तरीका” कैसी लगी ? हमें अपने विचारों से अवश्य अवगत कराए | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती है तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

बस अब और नहीं !

बस अब और नहीं

स्वतंत्रता या गुलामी ये हमारा चयन है | कई बार गुलामी के चयन के पीछे सामाजिक वर्जनाएँ होती हैं  तो कई बार इसके पीछे विलासिता और ऐश की चाह  भी होती है जो हँसकर गुलामी सहने को विवश करती है | स्वतंत्रता अपने साथ जिम्मेदारियाँ लाती है, संघर्ष लाती है और कठोर परिश्रम का माद्दा भी .. “बस अब और नहीं” केवल कह कर समझौता कर लेने वाले शब्द नहीं है | ये शब्द है.. अपने स्वाभिमान को बचाए रख कर जीवन की चुनौतियों को स्वीकार करने के | आइए पढ़ें सुपरिचित लेखिका रश्मि तारिका जी की एक ऐसी कहानी जिसकी नायिका  लता  विपरीत परिस्तिथियों  के सामने मजबूती से खड़ी हुई | बस अब और नहीं !   दर्द अगर कहानियों में निहित है तो कहानियाँ हमारे आस पास ही बिखरी होती हैं  और कहानियाँ हैं तो किरदार भी होंगे ही ..बस ज़रा ढूँढने की ज़द्दोज़हद करनी पड़ती है ! चलिये आज आपके लिए मैं ही एक किरदार ढूँढ लाई हूँ …ऐसा ही शायद आपके भी इर्द गिर्द होगा ही।चलिये इस किरदार से मिलने चलते हैं जो एक ईंटों से बने एक कमरे को ही अपना घर बनाने की कोशिश में है। * सुबह दस बजे का समय और रसोई में  उठा पटक का स्वर रोज़ की बजाए आज तेज़ था।पल्लवी के दिमाग और कदमों ने भी कमरे से रसोई तक पहुंचने में भी एक तीव्रता दिखाई। कारण था किसी नुक्सान की आशंका !   “लता !  ज़रा ध्यान से ! आज जल्दी है या कोई गुस्सा है जो बर्तनों पर निकाल रही है ? पिछली दफा भी तूने जल्दबाज़ी में एक काँच का गिलास तोड़ दिया था।आज ज़रा संभलकर।” पल्लवी ने कहा और लता के उखड़े मूड को देखकर खुद ही चाय चढ़ा दी ,अपने लिए और लता के लिए भी।वरना तो गरमा गरम चाय लता के हाथों, कुर्सी पर बैठे बिठाए उसे रोज़ ही मिल जाती थी।लता काम बाद में शुरू करती और चाय पहले चढ़ा देती थी। “लता ..चाय बन गई है पहले गरम गरम पी ले फिर करती रहना काम।” पर आज लता ने  बर्तनों का काम पूरा किया और हाथ पौन्छ कर चाय लेकर फटाफट पी और अपना मोबाइल उठाकर ले आई। “भाभी ..पहले तो आज मुझे यह बताओ कि ये जो फेसबूक होती है ,उस में  जो अपुन फ़ोटो डालते हैं क्या वो सबके पास पहुँच जाती है ?”भोलेपन से लता ने पूछा। “हाँ ,पहुँचने का मतलब वही लोग देख सकते हैं अगर तुमने उसे अपना दोस्त बनाया हुआ है।”   पल्लवी को लगा फ्रेंड लिस्ट ,मित्र सूची शब्दों का इस्तेमाल लता के समक्ष लेना व्यर्थ है कि वो समझ नहीं पाएगी। ” हाय री मेरी अल्पबुद्धि ! इतना भी न सोच सकी कि फेसबूक की दुनिया में कदम रखने वाली लता क्या फ्रेंड लिस्ट का मतलब भी न जानती होगी ?”पल्लवी को अपनी सोच पर खुद ही हँसी आने लगी।   “अरे भाभी , ये तो मालूम कि एक फ्रेंड लिस्ट होती है जिस में हम अपनी मर्ज़ी से लोगों को लिस्ट में बुलाते हैं।आप भी तो हो न मेरी लिस्ट में !”   लता ने बड़े फ़ख्र से बताया जबकि पल्लवी उसी फ़ख्र से यह न बता सकी कि उसने लता की फ्रेंड रिकुवेस्ट कितना सोचने के बाद स्वीकार की थी। “हाँ ..तो फिर क्या हुआ अब ! परेशानी किस बात की है लता?”   “भाभी ..कल मेरी बेटी ने अपनी एक फ़ोटो डाल दी फेसबूक पर और मेरी जान को एक मुसीबत खड़ी हो गई।इसीलिए परेशान हूँ।” “क्या परेशानी ज़रा खुल कर बताओ न! ” “वो मेरी बेटी की फ़ोटो मेरे किसी रिश्तेदार ने देख ली और  उसने गुड़िया के पप्पा को शिकायत कर दी कि फ़ोटो क्यों डाली ।” “तो क्या हुआ ! आजकल तो सब बच्चे ही अपनी फोटो फेसबूक पर हैं तो डाल ही देते हैं।चिंता वाली क्या बात है ? बस फोटो सही होनी चाहिए, मर्यादा में।” पल्लवी ने मर्यादा शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा ताकि लता आराम से समझ जाए। “भाभी ,बच्ची ने केवल मुस्कुराते हुए ही अपनी फोटो डाली।अब हम लोग कहाँ ऐसे वैसे कपड़े पहनते कि मर्यादा का सोचें।लेकिन लोग फिर भी बातें बनाएँ तो क्या करें ! खुद के अंदर तो झाँक कर नहीं देखते !”   लता का उखड़ा स्वर बता रहा था कि किसी अपने ने ही उसकी बेटी की शिकायत की थी।पल्लवी सुनकर हैरान थी कि एक बारह तेरह साल की मासूम बच्ची जो न बोल सकती है ,न सुन सकती है।केवल इशारों से जो बात सुनती समझती है तो क्या वो मुस्कुरा भी नहीं सकती ? क्या उसके मुस्कुराने पर भी कोई बैन लगा है? “तूँ लोगों की बातों की परवाह क्यों करती है, लता ?कहने दे जिसने जो कहना है।बच्ची ने कोई गुनाह नहीं किया जो तूँ इतना डर रही है।”पल्लवी ने समझाने का प्रयास किया। “”नहीं न भाभी ..आपको मालूम नहीं। अभी तो गुड़िया के पप्पा अपनी साइट(काम) पर गए हैं।आएँगे तो बहुत बवाल करेंगे।अभी तो बस उन्होंने फ़ोन पर बताया।मैं इसी बात को लेकर परेशान हूँ।”   “तो अब क्या इरादा है ,क्या चाहती है तूँ और तूने गुड़िया से पूछा क्या इस फ़ोटो की बात को लेकर ?”   “मैंने उसे इशारे से समझाया तो वो पहले तो अड़ी रही कि फ़ोटो नहीं हटाएगी पर जब मैंने उसे कहा कि पप्पा गुस्सा होंगे तो उसने गुस्से में आकर अपनी फोटो भी हटा ली और  मेरे मोबाइल से फेसबूक भी हटा दिया।” “एक तो तूँ बच्ची को नाहक ही गुस्सा हो रही है।फिर अगर उसने फ़ोटो हटा दी है तो अब क्यों परेशान है ?”   “वो यह पूछना था कि गुड़िया ने फ़ोटो हटा ली तो क्या अब भी फ़ोटो वो रिश्तेदार के पास होगी तो नहीं न ?”लता अपनी बुद्धि के हिसाब से अपनी समस्या का निवारण ही पूछ रही थी । पल्लवी सोचने लगी कि आजकल के बच्चे इतना कहाँ सोचते हैं कि सोशल साइट्स पर तस्वीरें डालने से कई बार समस्याओं का सामना करता पड़ता है।जबकि लता तो अपनी बेटी की मासूमियत को भी लोगों की नज़रों से बचाने का प्रयास कर रही थी। पल्लवी जानती थी कि लता आज संघर्षों और हिम्मत से जूझती हुई एक साहसी महिला थी … Read more

उपन्यास अंश – बिन ड्योढ़ी का घर – भाग दो 

बिन ड्योढ़ी का घर

ऊर्मिला शुक्ल जी का “बिन ड्योढ़ी का घर” एक ऐसा उपन्यास है जिसमें स्त्री के जीवन का हाहाकार सुनाई देता है | साथ ही उपन्यासकार अपने आस -पास के जीवन के पृष्ठों को खोलने में कितनी मेहनत कर सकता है, छोटी से छोटी चीज को कितनी गहराई से देख सकता है और विभिन्न प्रांतों के त्योहारों, रहन सहन, भाषा, वेशभूषा की बारीक से बारीक जानकारी और वर्णन इस तरह से दे सकता है कि कथा सूत्र बिल्कुल टूटे नहीं और कथा रस निर्बाध गति से बहता रहे तो उसकी लेखनी को नमन तो बनता ही है | जल्दबाजी में लिखी गई कहानियों से ऐसी कहानियाँ किस तरह से अलग होती हैं, इस उपन्यास को एक पाठक के रूप में यह जानने के लिए भी पढ़ा जा सकता है | जिसमें लेखक का काम उसका त्याग और मेहनत दिखती है | इस उपन्यास को पाठकों और समीक्षकों द्वारा पसंद किये जाने के बाद अब उर्मिला शुक्ल जी ला रहीं हैं “बिन ड्योढ़ी का घर -2 ” पूरा विश्वास है की ये उपन्यास भी पाठकों की अपेक्षा पर कहर उतरेगा | आइए कर्टन रेजर के तौर पर पढे इस उपन्यास का एक अंश ..   यू ट्यूब पर देखें   उपन्यास अंश – बिन ड्योढ़ी का घर – भाग दो  “ माँ देखो न ! डंकिनी ने मेरी माला खराब कर दी | उसने मुझे जीभ भी चिढाया | ” रूआँसी सी वन्या उसे अपनी माला दिखा रही थी | उसकी माला की लड़ें आपस में उलझ गयी थीं |  “ इसमें रोने की क्या बात है ? चलो अभी ठीक कर देते हैं | ” कात्यायनी को वहाँ से निकलने की राह मिल गयी | वह उसे लेकर वनिता धाम की ओर बढ़ चली |  “भूरी चींटी लाल भितिहा | गिर गई चींटी फूटगे भितिहा | ईइइ ” दीवार की ओट में खड़ी डंकिनी ने वन्या को चिढ़ाया | “ देखो माँ वो फिर चिढ़ा रही है और बिजरा (जीभ चिढ़ा ) भी रही है | ” कात्यायनी ने डंकिनी की ओर देखा | वह उसे देखकर भी डरी नहीं | पूरी ढिठाई से उसकी ओर देखती रही |  “ गंदी बात | अच्छे बच्चे ऐसा नहीं करते | ” “ में अच्छी नई हूँ ? ” “ किसने कहा तुम अच्छी नहीं ? तुम तो सबसे अच्छी हो | “  “ वनिया ने मेरे को डंकिनी फंखनी बोला | ” “ वन्या ! ये गंदी बात है | तुमने क्यों चिढ़ाया इसे ? ”  “ इसने कहा ये माला मेरे को नई फबती और मेरी माला खराब कर दी | ” अपनी उलझी माला देख ,उसका स्वर फिर रुआँसा हो उठा |  “ इसने भी तो मेरे को काली चीटी बोला | डंकिनी डंक मार बी बोली | बिजराया बी | देखो – देखो फिर बिजरा रही | ” कात्यायनी ने देखा ,वन्या उसके पीछे छुपकर अपनी माला दिखाते हुए उसे जीभ दिखा रही थी और डंकिनी की क्रुद्ध नजरें उसकी माला पर टिकी थीं | वह उसकी इर्ष्या कारण समझ गयी |   “ तुमको भी माला पहनना है ? ” डंकिनी ने हाँ में गर्दन हिलाई | “ आओ मेरे साथ | ” “ माँ इसको माला नहीं देना | बहुत गंदी है ये | ” “ ऐसा नहीं बोलते | ये तो तुम्हारी संगी है न | संगी के संग तो मिल कर रहते हैं | ” कात्यायनी ने लाल पाड़वाली कोसा की ओढ़नी निकाली | साड़ी की तरह पहनाया उसे | फिर उसके बालों को समेट कर सुंदर सा जूड़ा बनाया | उसमें कौड़ियों की माला सजाई | फिर अपनी मालाओं में से लाल रंग की एक माला निकाली और  तिहराकर पहना दिया | डंकिनी ने दर्पण देखा | उसका मुख गुड़हल सा खिल उठा | “ देख– देख मेरा माला कितना सुंदर | तेरे से भी सुंदर | ” “ ठेंगा | ” वन्या ने अँगूठा दिखाया और जीभ चिढ़ाती बाहर भाग गयी |  उसके पीछे डंकिनी भी | कात्यायनी महसूस रही थी उस बाल युद्ध को ,जिसमें जीभ चिढ़ाना ,ठेंगा दिखाना और चिढ़ाने वाले शब्द ,ऐसे अस्त्र थे कि सामने वाला तिलमिला उठे | यहाँ डंकिनी का नाम भी ऐसा ही हथियार बन गया था | वरन डंकिनी इस अंचल की ख्यात नदी हैं | उसकी कथा में माँ दंतेश्वरी जुड़ी हैं | सो इस अंचल के लिए एक पवित्र नाम है डंकिनी | ‘ सोचती कात्यायनी को वह दिन याद हो आया जब …….   बस्तर के धुर दक्खिन में डंकिनी की गोद में बैठा पालनार | जंगल ,नदी और पहाड़ का सौंदर्य अपने में समेटे ,एक सुंदर सा गाँव | लोह अयस्क का तो अकूत भंडार ही था वहाँ | अपनी बोली – बानी ,अपने नाच – गान को सहेजता पालनार अपने आप में मस्त था | वह तेलंगाना के ज्यादा करीब था | सो उस गाँव का शेष बस्तर से, कोई ख़ास वास्ता नहीं था | न काहू से दोस्ती न काहू से बैर ,की तर्ज पर वह एक शांतिप्रिय गाँव था ; मगर उस दिन पूरा गाँव राख में बदल गया था ? पुलिस ,सेना और प्रशासन को अंदेसा तो उन्हीं पर था ,जो अपने को इस अंचल का कर्णधार मान बैठे थे ;मगर सबूत कोई न था | वे वहाँ पहुँचीं ,तब तक कुछ नहीं बचा था | बची थी तो सिर्फ राख | मारी माँ उदास हो उठीं | उन्हें लग रहा था आना व्यर्थ हुआ | सो लौटते समय गाड़ी में ख़ामोशी पसरी हुई थी | घाट आने वाला था | मोड़ तीखे हो चले थे | चालक ने गाड़ी की रफ्तार धीमी की | गाड़ी घाट चढ़ने ही वाली थी कि छत पर धम्म की आवाज आई |  “ साड़थी ! गाड़ी साइड लो | देखो कौन है ? ”   “ जिनावर होगा | इहाँ गाड़ी रोकना टीक नई | ये इलाका बहुत डेंजर | ” चालक ने कहा | “ जानवर ? अमको लगता कोई आडमी है ? ” “ आदमी ? इतना अँधेरा में आदमी कहाँ होयेगा ? कोंनो जिनावर है | मै गाड़ी को अइसा मोड़ेगा के वो धड़ाम हो जायेगा | ” और उसने झटके से मोड़ काटा – “ रूको – … Read more

वसीयत 

वसीयत

बिन ब्याही बेटियाँ, तलकशुदा, परित्यक्ता या विधवा महिलायें सदियों से उस घर पर बोझ समझी गईं जिस के आँगन की मिट्टी में खेल कर बड़ी हुई, जिन्होंने अपनी कच्ची उम्र अपने छोटे भाई बहनों को पालने में बिता दी , और विवाह से पहले के हर दिन माँ के साथ घर की देखभाल में खपने खटने में | उन्हीं का जीवन जब  पति की छाया से दूर हुआ तो मायके बाहें नहीं पसारी, भाई-भौजाइयों ने मुँह बिचकाया, और अपने ही घर में वो बन गई बोझ | एक दुख के साथ उनके नसीब में लिख दिया गया हाड़ -तोड़ काम और बदले में ढेर सारे ताने और दो जून की रोटी .. घर की चारदीवारी के अंदर सदियों तक लिखी जाती रही स्त्री शोषण की सबसे दारुण कहानी | उनके घावों पर मरहम बन कर आया वो कानून जो लड़की को भी पिता की संपत्ति में हक देता है | पर क्या सब लड़कियाँ वसीयत पर अपना  जानती है ? क्या सब जीवन भर को भाई का प्रेम छोड़ने को तैयार हैं ? क्या सब अकेले रहने की हिम्मत कर पाती हैं ? बहुत से सवाल हैं लड़कियों के सामने पर सवालों में उलझने से  कहीं ज्यादा जरूरी है जवाबों की ओर कदम बढ़ाना | आइए पढ़ते हैं कलम की धनी सुपरिचित लेखिका आशा पाण्डेय जी की एक ऐसी ही अनब्याही लड़की की बेहतरीन कहानी वसीयत         यहीं, इसी जगह पर पहले एक चाल हुआ करती थी | उसमें  चार खोली हमारी थी | उधर , आनंद अपार्टमेंट के सामने वाले उस फ्लैट में तो हम बाद में गए थे | पहले यहाँ से दिखता था वो फ्लैट | अब तो देखो, बीच में ये इतने फ़्लैट  हो गए ! यहाँ मुंबई का तो पूछो मत , हर महीने एक नया फ़्लैट उग आता है |       तो उस साल म्हाडा की स्कीम इस इलाके के लिए भी आई थी | मेरे भाई ने भी फार्म भर दिया | उसका नसीब देखो , लग गया उसका नम्बर ! उस समय उसके पास पूरे पैसे भी नहीं थे | इधर-उधर से मांग के भी कम पड़ रहे थे | मेरी भाभी ने भाई को सुझाया कि माँ के गहने बेच दो , आखिर गहने इन्हीं दिनों के लिए तो होते हैं | भाई ने गहने बेच दिये | अच्छे पैसे मिले थे माँ के गहनों से … पुराने जमाने के एकदम शुद्ध सोने के मोटे-मोटे चार कड़े थे , गले की मोटी – सी चेन थी , दादी की दी हुई सोने की मोटी करधनी भी थी | अंगूठियाँ ,बुँदे तो कई-कई जोड़ थे माँ के पास | कुछ उसे शादी में मिले थे , कुछ मेरी दादी ने दिया था | माँ जब तक रहीं अपने गहनों को संभाल कर रखीं , तभी तो भाई के काम आये वो गहने |      उधर हमारा फ़्लैट चौथे माले पर था | उस माले पर चार फ़्लैट और थे | सारे वन बी .एच. के. | एक हाल , एक बेडरूम , एक किचन , | रसोई मिलाकर बस तीन कमरे , रहने वाले हम पांच जन – मैं ,मेरा भाई , मेरी भाभी और उसके दो बच्चे –एक बेटा , एक बेटी |             मैं सुबह उठकर घर में झाड़ू-पोछा करती , बरतन मांजती , दुकान से दूध और ब्रेड ले आती , सब्जी-भाजी काट लेती , आटा गूँथ कर रख लेती | तब तक मेरी भाभी भी उठ जाती | मेरी भाभी को घर में भीड़-भाड अच्छी नहीं लगती थी, इसलिए उनके उठने के बाद मैं हाल से लगकर ऊपर जाने वाली सीढ़ियों पर बैठ जाती थी |  लोग लिफ्ट से ऊपर –नीचे आते- जाते थे न , इसलिए  सीढ़ियाँ खाली ही रहती थीं और मुझे बैठने का स्थान मिल जाता था |       नाश्ता और खाना भाभी ही बनाती थीं | मुझे देख कर उन्हें घिन आ जाती थी … वो मेरे दांत थोड़े बड़े और भद्दे थे न , इसलिए | जब तक खाना बनता था , मुझे रसोई में जाने की इजाज़त नहीं थी | जब भाभी सबका टिफिन भरकर तैयार कर देती थीं और खुद भी अपना टिफिन लेकर डयूटी पर निकल जाती थीं , तब मैं रसोई में जाती थी | नाश्ता- खाना जो कुछ भी रहता था , खा लेती थी और फिर से किचन की सफाई करती , बरतन मांजती , कपड़े धोती और दोपहर में बैठकर टी . बी . देखती  |       मेरी भतीजी मीता जब बड़ी हुई तो उसकी शादी हो गई | पर कैसे – कैसे तो लोग हैं इस दुनिया में | बेचारी को ठीक से रक्खे ही नहीं, आ गई लौटकर | कुछ दिन बाद उसका तलाक हो गया | उसे देख-देख कर मेरा मन भीतर ही भीतर बहुत रोता था |      अब मेरी भतीजी भी घर में रहने लगी | अब दोपहर में हम दोनों साथ-साथ बैठकर टी . बी . देखते | वह दीवान पर बैठ जाती , मैं नीचे फर्श पर | वह मुझसे घिनाती नहीं थी | भाभी की छुट्टी वाले दिन मैं काम करके पूरी दोपहर सीढियों पर ही बैठी रहती थी | अन्य दिनों में तो कोई दिक्कत नहीं होती थी पर बरसात में पानी की बौछार सीढ़ियों तक आ जाती थी |      मेरे घर के सामने वाले फ़्लैट में शिंदे परिवार रहने आया | शिंदे भाभी और मेरी भाभी कभी-कभी बात-चीत करती थीं | लिफ्ट से ऊपर-नीचे आते-जाते समय जब उन्हें मैं सीढ़ियों पर बैठी दिख जाती थी तब वो मेरा भी हाल-चाल पूछ लेती थी | मेरे होंठ बहुत अधिक न फ़ैल जाएँ इस बात का ध्यान रखते  हुए मैं धीरे से मुस्करा देती थी | मुस्कराने के अलावा मैंने उन्हें कभी कोई जवाब दिया ही नहीं | धीरे-धीरे उन्होंने मुझसे कुछ पूछना छोड़ दिया पर सामने पड़ने पर मुस्करा जरुर देतीं थीं |      मेरी भाभी कहती थीं कि मेरे दांत गंदे हैं तो मैं सोचती थी कि जैसे भाभी को मेरे दांतों की घिन है वैसे दूसरों को भी होगी | बस , इसलिए मैंने सब से बोलना , मुस्कराना छोड़ दिया था |      एक दिन जब मेरी भाभी की छुट्टी  थी , उन्होंने पकौड़े बनाये | एक प्लेट में पकौड़े भरकर उन्होंने … Read more

छोटी सी उलझन

छोटी सी उलझन

स्त्री विमर्श के इस दौर में एक मांग पुरुष विमर्श की भी उठने लगी है | ऐसा रातों -रात नहीं हुआ पर ये सच्चाई  है की  पुरुष भी शोषण का शिकार हो रहे हैं | कई  बार वो जान बूझ कर परिवार की शांति के लिए चुप रह जाते हैं वहीं से मानसिक शोषण शुरू होता है |भले ही आप और हम उसे विमर्श की श्रेणी में रखे या न रखे पर इस पर बात जरूर होनी चाहिए | “छोटी सी उलझन’ एक ऐसी ही कहानी है | छोटी सी उलझन कहाँ गलती हो गई मुझसे?” रेखा का ऐसा रूप देखकर विकास सकते में था। सात वर्षों के वैवाहिक जीवन में आज पहली बार उसे एहसास हुआ कि कहीं उससे गलती तो नहीं हो गयी। आज वो अपने कमरे में अकेला लेटा यही सोच रहा था। एक छोटी सी बात का बतंगड़ बन गया था, सुबह वो ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था तभी रेखा ने बात छेड़ दी। “कहा ना मैंने कि गाँव की जमीन बेचकर यहाँ शहर में जमीन ले लेते हैं पर तुम्हारे कान पर तो जूं ही रेंगती।” रेखा की हर बात मानने वाला विकास उसकी ये बात सुनकर भड़क उठा— “आजकल रोज यही बात लेकर क्यों झिक-झिक करती हो? कितनी बार कहा मैंने की वो जमीन ही है जो हमें हमारे गाँव से जोड़कर रखे हुए है, कान खोलकर सुन लो मैं अपनी जड़ों से कटकर नहीं रह सकता, समझी ना तुम?” विकास का लहजा सुनकर वो तिलमिला गयी, आखिर क्यों ना तिलमिलाए, विवाह के सात वर्षों में पहले कभी विकास ने उससे इस तरह से बात नहीं  की थी। अपनी बात की अवहेलना उससे सहन नहीं हो रही थी। वो उठी और चिल्लाते हुए बोली— “रहो तब अपनी जड़ों के साथ मैं कुहू को लेकर मम्मी के यहाँ जा रही।” कहने के साथ ही वो अपना और कुहू का सामान पैक करने लगी। विकास भी बिना कुछ बोले आफिस के लिए निकल गया।    शाम को जब विकास आफिस से वापस आया तो रेखा सच में बेटी को लेकर अपनी माँ के घर चली गयी थी। अकेला विस्तर पर लेटा विकास पंखे को एकटक देखे जा रहा था। नींद उसकी आँखो से कोसों दूर थी। बचपन से लेकर अबतक का अतीत उसकी आंखों के सामने से गुजर रहा था। पिताजी गाँव में स्कूल मास्टर थे और माँ एक गवईं गृहणी। मां का अनपढ़ होना पिताजी के लिए जीवन भर का कलंक हो गया था, जिसे मिटाने के प्रयत्न में वो हमेंशा मां का तिरस्कार करते रहे। पिताजी जी की दृष्टि में मां जीवन भर केवल एक नौकर ही रही। जब वो छोटी-मोटी भूलों पर भी मां को बुरी तरह लताड़ देते, तो फिर घर या बच्चे के विषयों में मां को कैसे शामिल करते। विकास ये सब देखते हुए बड़ा होता रहा और मां को कभी चुप रहते तो कभी पानी सर से ऊपर निकल जाने पर पिताजी से लड़ते हुए भी देखा। विकास के कोमल मन पर मां की स्थिति का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसने कभी भी किसी स्त्री को स्वयं से नीचा नहीं समझा। विवाह के बाद उसने अपनी पत्नी को वो सारे मान सम्मान देने की भरसक कोशिश की जो उसकी माँ को कभी नहीं मिले। इसके लिए मित्रों और स्वजनों से अक्सर उसे कटाक्ष भी सुनने पड़ते रहे थे, जैसे- “बीवी से तो इसकी फटती रहती है”,..”बिना बीवी की सहमति के एक कदम नहीं उठाता”… सबसे प्रसिद्ध वाक्य- “जोरू का गुलाम है” आदि। वो सबकी बात हँसी में उड़ा देता क्योंकि उनकी बातों से अधिक उसे अपनी गृहस्थी प्यारी थी। अच्छे शहर में अच्छी नौकरी, एक समझदार और सुघड़ जीवनसाथी…जिंदगी अच्छी चल रही थी। मां और पिताजी भी बहुत खुश थे। बस जब वो पत्नी के साथ गाँव जाता तो पिताजी उसे एक ही बात समझाते कि औरतों को ज्यादा सर नहीं चढ़ाना चाहिए। वो उनकी बात पर कुछ बोलता नहीं बस मुस्कुरा कर टाल जाता। उसे एक आत्मसंतुष्टि थी कि उससे जुड़े उसके सारे रिश्ते खुश हैं। रेखा भी एक सुलझी स्त्री थी। घर परिवार और रिश्तों में अच्छा संतुलन बनाकर रखती। पिता के सेवानिवृत्ति के बाद वो मां पिताजी को अपने साथ ही शहर ले आया, रेखा ने कोई आपत्ति नहीं की बल्कि उनकी देख-रेख बहुत अच्छे से कर रही थी। इसी बीच उसके गर्भवती होने पर घर में खुशी का माहौल रहने लगा। गर्भावस्था से लेकर कुहू के जन्म के बाद तक मां ने दोनों की देखरेख बहुत कुशलता से सम्भाल ली थीं जिससे वो भी बिल्कुल निश्चिंत हो गया था। बेटी के जन्म के बाद से स्थिति कुछ बदलने लगी, विकास को रेखा के व्यवहार में एक अलग तरह का आभास मिलने लगा। उसने उसकी धीरता को भीरुता समझना आरम्भ कर दिया। अब तो घर के सभी निर्णय रेखा द्वारा ही लिये जाने लगे, उसे केवल सहमति का मुहर लगाना होता। घर के निर्णय तक तो सही रहा पर अब तो वो बाहर के निर्णय भी स्वयं लेने लगी, विकास घर में शांति बनाए रखने के लिए थोड़ी फेरबदल के साथ उसके निर्णयों पर चलने भी लगा,  जबकि अभी तक कोई भी निर्णय, उनदोनों की सहमति से, आपस मेें बात करके लिया जाता रहा था। बेटी क्या खाएगी, क्या पहनेगी, उसे किस वस्तु की आवश्यकता है, मां को कितने की साड़ी आनी चाहिए पिताजी का इलाज किस डॉक्टर से करवाना है, उसे क्या पहनना है, किस रिश्ते पर अधिक ध्यान देना है किसपर नहीं देना है, ये सभी निर्णय रेखा द्वारा लिया जाने लगा था। यहाँ तक भी ठीक था पर उसे पहली बार बुरा तब लगा जब पिताजी के आकस्मिक निधन के बाद अंतिम संस्कार के लिए रेखा ने गाँव में मृत्युभोज करने के लिए मना किया। “क्या जरूरत है गाँव में जाकर इतनी तामझाम करने की?” रेखा ने विरोध किया। “कैसी बात करती हो वहीं पिताजी के सभी परिचित हैं, सारे नाते रिश्तेदार हैं, अगर वहाँ नहीं करेंगे तो दुनिया क्या कहेगी।” वो पहली बार रेखा से रूखे शब्दों में बात किया था। “देख लो, तुम्हारे भले के लिए ही कह रही थी। क्योंकि ये वक़्त और पैसे दोनों की बर्बादी है।” अनमने मन से रेखा ने कहा था। ऐसे ही … Read more

पौ फटी पगरा भया

शिवानी शर्मा

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है | समाज में कई रिश्तों के बीच उनका जन्म होता है और जीवन पर्यन्त इस रिश्तों को निभाता चला जाता है | कुछ रिश्ते उसके वजूद का इस कदर हिस्सा बन जाते हैं कि उनसे अलग वो अपने अस्तित्व को समझ ही नहीं पाता | कभी कभी कोई एक घटना आँखों पर बंधी ये  पट्टी खोल देती और अहसास कराती है कि दो लोगों के बीच परस्पर विश्वास की तथाकथित धुरी पर टिका ये रिश्ता कितना एक तरफ़ा था | ऐसे समय में क्या निर्णय सही होता है ? ये द्वन्द उसे कैसे तोड़ता है ? और वो किसके पक्ष में खड़ा होता है एक टूटे जर्जर रिश्ते के नीचे कुचले अपने वजूद के साथ या अपने आत्मसम्मान के साथ | पौ फटी पगरा भया , 30 साल के अँधेरे के छटने के बाद ऐसे ही निर्णय की कहानी है |ये कहानी है सुमन और अनूप के रिश्तों की , ये कहानी है , ये कहानी है परस्पर विश्वास की , ये कहानी है स्त्री चरित्र की …आइये पढ़ें स्त्री विमर्श को रेखांकित करती शिवानी शर्मा जी की सशक्त कहानी। .. “पौ फटी पगरा भया” सुमन हफ्ते भर से परेशान थी। रसोई में सब्जियों को गर्म पानी में धोते हुए मन ही मन भुनभुना रही थी! भतीजे की शादी अगले हफ्ते है और ये पीरियड्स समय से क्यों नहीं आए? एन शादी के वक्त आए तो दर्द लेकर बैठी रहूंगी, नाचने गाने की तो सोच भी नहीं सकती! डॉ को भी दिखा आई। उन्होंने कहा कि मेनोपॉज़ का समय है कुछ दिन आगे पीछे हो सकता है!क्या मुसीबत है! और एक ये अनूप हैं! हर बात हंसी-मजाक में उड़ाते हैं! कहते हैं कोई खुशखबरी तो नहीं सुना रही? हद्द है सच्ची! पंद्रह साल पहले ही खुद ने अपना ऑपरेशन करवाया था फिर बच्चे की बात कहां से आ गई? कुछ भी मज़ाक करना बस! और ये इतनी सारी पत्ते वाली सब्जियां एक साथ क्यों ले आते हैं जाने!सारा शनिवार इनमें ही निकल जाता है। साफ-सूफ करने में कितना समय और मेहनत लगती है!पालक,मेथी, बथुआ, सरसों,मटर सब एक साथ थोड़े ही बनेगी? ज्यादा दिन रख भी नहीं सकते! उफ़!ये अनूप भी ना अपनी तरह के बस एक ही अनोखे इंसान हैं शायद! बरसों से समझा रही हूं कि ये सब एकसाथ मत लाया करो पर मंडी में घुसते ही मुझे भूलकर सब्जियों के प्रेम में पड़ जाते हैं! पालक,मेथी, बथुआ, सरसों और धनिया साफ करके और धो कर अलग-अलग टोकरियों में पानी निथरने के लिए रख दिए गए हैं और गाजर, पत्तागोभी, फूलगोभी एक टोकरी में रखी है।अब मटर छीले जाएंगे। आज सरसों का साग और बथुए का रायता बनेगा। कल सुबह मेथी के परांठे और शाम को मटर पनीर! हरी सब्जियों को ठिकाने लगाने की पूरी योजना बन चुकी थी। अपने लिए चाय बनाकर सुमन मटर छीलने बैठी।मटर छीलते हुए मां बहुत याद आती हैं! भैया और मैं आधी मटर तो खा ही जाते थे। फिर मम्मी खाने के लिए अलग से मटर लाने लगी और कहतीं कि पहले खालो फिर छीलना और तब बिल्कुल मत खाना। मम्मी ने सब्जी-सुब्जी साफ करने के काम शायद ही कभी किए होंगे। संयुक्त परिवार में पहले देवर-ननदें फिर बच्चे और सास-ससुर ही बैठे बैठे ऐसे काम कर देते थे। एक हम हैं कि कोई सहारा नहीं! एकल परिवार अनूप की नौकरी के कारण मजबूरी रही! बार-बार स्थानांतरण के चलते कोई स्थाई साथ भी नहीं बन पाया। बच्चों को पढ़ाई-लिखाई और हॉबी क्लासेज से फुर्सत नहीं मिली फिर बाहर पढ़ने चले गए और अब दोनों की शादी हो गई, नौकरी में बाहर रह रहे हैं। हम फिर दोनों अकेले रह गये घर में! सुमन के विचारों की चक्की अनवरत चलती रहती है! उसने तय कर लिया है कि जो दुख उसने उठाया वो बहूओं को नहीं उठाने देगी! अनूप की सेवानिवृत्ति के बाद उनके साथ रहेगी, बच्चे पालेगी और काम में मदद करेगी। अभी भी कभी कभी सुमन उनके साथ रहने चली जाती है। बहुएं भी उसका इंतज़ार ही करती रहती हैं। अभी तक तो बहुत अच्छी पट रही है और वो प्रार्थना करती है कि आगे भी भगवान ऐसे ही बनाए रखे। मटर भी छिल गये हैं। भैया का फोन आ गया। “हां सुमी!कब पहुंच रही है?” “आती हूं भैया एक-दो दिन पहले पहुंच जाऊंगी।” “अरे पागल है क्या? तुझे तो हफ्ते दस दिन पहले आना चाहिए। कल ही चल दे। अनूप को छुट्टी मिले तो दोनों ही आ जाओ वरना तू तो कल ही आ जा। तीन घंटे का तो रास्ता है। सुबह ही चल दे।”( अनूप भैया के बचपन के दोस्त हैं इसलिए भैया उनको नाम से ही बुलाते हैं) “देखती हूं भैया! अनूप तो बाद में ही आएंगे। मैं पहले आ जाऊंगी। यहां से कुछ लाना हो तो बताओ।” “रावत की मावे की कचौड़ी ले आना सबके लिए!” “ठीक है भैया। मैं रात को सब पक्का करके बताती हूं।” सुमन का मन सब्जियों में अटका हुआ था। इतनी सब्जियां आई पड़ी हैं। छोड़ जाऊंगी तो खराब हो जाएंगी और फिकेंगी! वहां ले जाऊं, इतनी भी नहीं हैं! परसों जाऊं तो केवल गाजर और गोभियाँ बचेंगी। काट-पीट कर रख जाऊंगी। अनूप बना लेंगे। मन ही मन सब तय करके सुमन रसोई में खाना बनाने में लग गयी।दो दिन अनूप की छुट्टी होती थी। शनिवार को सुबह सब्जी मंडी जाते हैं। फिर बैंक और बाज़ार के काम निपटाते हैं और खूब सोते हैं। रविवार का दिन सुमन के साथ बिताते हैं। सुमन इसलिए रविवार को कहीं और का कोई काम नहीं रखती। ज़िन्दगी अच्छी भली चल रही है बस ये सर्दियों में सब्जियां ही सौतन सी लगती हैं सुमन को! खैर… शादी से निपटकर सुमन और अनूप वापस आ गये दोनों बेटे-बहू भी आए थे। सीधे वहीं आए और वहीं से चले गए। खूब मौज-मस्ती के बीच भी सुमन के पीरियड्स आने की धुकधुकी लगी रही जिसके चलते वो थोड़ी असहज रही। भाभी ने टोका भी तो भाभी को बताया। भाभी भी खुशखबरी के लड्डू मांगकर छेड़छाड़ करती रही। आज सुबह अनूप के ऑफिस जाने के बाद सुमन फिर डॉ के गयी। जाते ही डॉ ने भी बच्चे की संभावना के बारे में पूछा। सुमन ने … Read more

आजादी से निखरती बेटियाँ  

  कुछ दिन पहले एक मौल में शौपिंग कर रही थी कि पांच वर्ष से नौ दस वर्ष की तीन बहनों को देखा जो अपने पिता के पीछे पीछे चल रहीं थी. रैक पर सजे सामानों को छूती और ललचाई निगाहों से पिता की ओर देखती और झट से उसे छोड़ दूसरे चीजों को निहारने लगतीं. इतनी कम उम्र में हिजाब संभालती इन बच्चियों को देख साफ़ पता चल रहा था कि इन्हें यहाँ बहुत कुछ लेने की इच्छा है पर खरीदा वही जायेगा जो पिता चाहेंगें. दिखने में धनाड्य पिता धीर-गंभीर बना अपनी धुन में सामान उठा ट्राली में रख रहा था. वहीँ बच्चियों की माँ पीछे घसीटती हुई गोद के बच्चे को संभालती चल रही थी, जो कुछ भी छूने के पहले अपने पति का मुख देखती थी. अगल-बगल कई और परिवार भी घूम रहें थें, जहाँ बेटियाँ अपनी माँ को सुझाव दे रही थी या पिता पूछ रहें थें कि कुछ और लेनी है. उन बच्चियों को हसरत भरी निगाहों से स्मार्ट कपड़ों में घूमती उन दूसरी आत्मविश्वासी लड़कियों को निहारते देख, मेरे मन में आ रहा था कि जाने वे क्या सोच रही होंगी. उनकी कातरता बड़ी देर तक मन को कचोटते रही. इसी तरह देखती हूँ कि घरों में भाई अक्सर ज्यादा अच्छे होतें हैं पढने में कि वे डॉक्टर, अभियंता या कुछ और बढ़िया सी पढ़ाई कर बड़ी सी नौकरी करते हैं और उसी घर की लडकियां बेहद साधारण सी होती हैं पढ़ने में और अन्तोगत्वा साधारण पढ़ाई कर उनकी शादी हो जाती है. ऐसा कैसे होता कि लडकियां ही कमजोर निकलती हैं उनके भाई नहीं? कारण है भेदभाव जो आज भी अलिखित रूप से हमारे समाज में मौजूद है. बेटियों को ऊँचा सोचने के लिए आसमान ही नहीं मिलता है, बोलने को हिम्मत ही नहीं होती है, पाने को वो मौका ही नहीं मिलता है जो उनके पंख पसार उड़ने में सहायक बने. एक आम सी धारणा है कि बेटियों को दूसरे घर जाना है सो दबा के रखनी चाहिए. उनके मन की हर बात मान उन्हें बहकाना नहीं चाहिए क्यूंकि कल को जब वे ससुराल जाएँगी तो उन्हें तकलीफ होगा. इतनी टोका-टोकी और पाबंदियां बचपन से ही लगा दी जाती है कि बच्चियों का आत्मविश्वास कभी पनप ही नहीं पाता है. आज के युग में भी उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे वही काम करें वैसे ही करें जो उनकी माँ, दादी या बुआ कर चुकी हैं. बच्चियों को हर क्षण मानों एहसास दिलाया जाता है कि तुम लड़की हो और तुम इन अधिकारों की हकदार नहीं हो. तुम अकेले कहीं जा नहीं सकती हो, तुम अपनी पसंद के कपडे नहीं पहन सकती, तुम को अपने पिता-भाई की हर बात को माननी ही होगी. स्पोर्ट्स और पसंद के विषय चुनना तो दूर की बात है. ऐसा नहीं है कि समाज में बदलाव नहीं आया है. आया है और बेहद जोरदार तेजी से आया है. उच्च वर्ग और निम्न वर्ग तो सदैव पाबंदियों और वर्जनाओं से दूर रहा है. सारा प्रपंच तो मद्ध्य्म वर्ग के सर पर है. मद्ध्यम वर्ग में भी शहरी लोगो की सोच में बहुत बदलाव आ चुका है जो अपनी बेटियों को भी ज्यादा-कम आजादी दे रहें हैं. पूरी आजादी तो शायद अभी देश में किसी तबके और जगह की लड़कियों को नहीं मिली होगी. ‘आजादी’ देने का मतलब छोटे कपड़े पहनने, शराब पीना या देर रात बाहर घूमने से कतई नहीं होता है, ये तो बेटे या बेटी किसी के लिए भी अवारागार्दियों की छूट कहलाएगी. आजादी से मतलब है बेटी को ऐसे अधिकारों से लैस करना कि वह घर-बाहर कहीं भी खुल कर अपनी बात रख सके. उसका ऐसा बौद्धिक विकास हो सके कि वह अपने जीवन के निर्णयों के लिए पिता-भाई या पति पर आश्रित नहीं रहे. शिक्षा सिर्फ शादी के मकसद से न हो, सिर्फ धार्मिक पुस्तकों  तक ही सीमित न हो बल्कि बेटियों को इतना योग्य बनाना चाहिए ताकि वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो सके. बच्चियों के स्वाभाविक गुण व् रुझान की पहचान कर उसके विकास में सहयोग करना हर पालक का धर्म है. पालन ऐसा हो कि एक बेटी ‘अपने लिए भी जिया जाता है’, बचपन से सीख सके. वरना यहाँ मानों ‘ससुराल’ और सास’ के लिए ही किसी बेटी का लालन-पालन किया जाता है. अगर यही सोच सानिया मिर्जा, सायना नेहवाल, पी वी सिन्धु या गीता फोगाट के माता-पिता जी का होता तो देश कितनी प्रतिभाओं से के परिचय से भी वंचित रह जाता. बेटे-बेटियों के लालन-पालन का अन्तर अब टूटता दिख रहा है. उन्हें परवरिश के दौरान ही इतनी छूट दी जा रही है कि वह भी अपने भाई की तरह अपनी इच्छाओं को व्यक्त करने लगी है. ‘पराये घर जाना है’ या ‘ससुराल जा कर अपनी मन की करना’ बीते ज़माने के डायलाग होते जा रहें हैं. शादी की उम्र भी अब खींचती दिख रही है, पहले जैसे किसी लड़के के कमाने लायक होने के बाद ही शादी होती थी. आज लोग अपनी बेटियों के लिए भी यही सोच रखने लगें हैं. इस का असर समाज में दिखने लगा है, चंदा कोचर, इंदु जैन, इंदिरा नूई, किरण मजुमदार शॉ आज लड़कियों की रोल मॉडल बन चुकी हैं. परवरिश की सोच के बदलावों से बेटियों की प्रतिभाएं भी सामने आने लगी है. मानव संसाधन देश का सबसे बहुमूल्य संसाधन हैं. उनका विकास ही देश को विकसित बनता है. यदि आधी आबादी पिछड़ी हुई है तो देश का विकास भी असंभव है. जरुरत है प्रतिभाओं का विकास, उनको सही दिशा देना. फिर चाहे वह लड़का हो या लड़की, प्रतिभा को खोज उन्हें सामने लाना ही चाहिए. आजादी से निखरती ये बेटियाँ घर-परिवार-समाज के साथ साथ स्व और देश को भी विकसित कर रहीं हैं. बस जरुरत है कि हर कोई ‘आजादी और स्वछंदता’ के अंतर के भान का ज्ञान रखे. रीता गुप्ता RANCHI, Jharkhand-834008. email id koylavihar@gmail.com

ऊँटकी करवट

ऊँट किस करवट बैठता है यह बहुत ही प्रसिद्द मुहावरा है | ये एक संदेह की स्थिति है | दरअसल वो परिणाम जो हमें पता नहीं होते हैं | फिर भी मर्जी तो ऊँट की ही चलती है | ये कहानी भी कुछ ऐसी ही हैं | जहाँ पुरुष या पितृसत्ता की तुलना ऊँट से की गयी है | कयास लगाए जाते हैं पर मर्जी उसी की चलती है | ये कहानी वैसे तो १९६१ की हैं पर स्त्री -पुरुष के समीकरण में बहुत अंतर नहीं आया है | आइये जानते हैं दीपक शर्मा जी की मार्मिक कहानी से … ऊँटकी करवट यह घटना सन् इकसठ की है किन्तु उसका ध्यान आते ही समय का बिन्दु-पथ अपना आधार छोड़ कर नए उतार-चढ़ाव ग्रहण करने लगता है. बीत चुके उन लोगों के साए अकस्मात् धूप समान उजागर हो उठते हैं और मेरे पीछे चलने की बजाय वे मेरे आगे चलने लगते हैं. और कई बार तो ऐसा लगता है उस घटना को अभी घटना है और बहुत बाद में घटना है….. अभी तो उस घटना के वर्तमान में मेरा आना बाक़ी है….. कौन कहता है कोई भी व्यक्ति समय से आगे या पीछे पहुँचकर भविष्य अथवा अतीत के अंश नहीं देख सकता? यदि प्रत्येक बीत रहे अनुभव का समय बोध वाले वर्तमान में घटना ज़रूरी हैं तो फिर तो स्मृति क्या है? अन्तर्बोध क्या है? “देखो” अपनागौना लाए जब खिलावन को दो सप्ताह से ऊपर हो गए तो माँ ने बागीचे से ढेर सारी अमिया तुड़वायीं और खिलावन से कहा, “गुलाब को आज इधर बँगले पर भेजना. अमिया कद्दूकस कर देगी. आज मैं मीठी चटनी बनाऊँगी.” उन दिनों बँगले पर तैनात हमारे दूसरे नौकरों की पत्नियों के ज़िम्मे माँ ने अनन्य काम सौंप रखे थे : माली हरिप्रसाद की पत्नी फ़र्श पर गीला पोंछा लगाती और रसोइए पुत्तीलाल की पत्नी घर का कपड़े धोया करती. “मैं बताऊँ मालकिन?” खिलावन थोड़ा खिसिया गया, “गुलाब के घर वालों ने मुझसे वादा लिया है उससे बँगले का काम न करवाऊँगा.” “ऐसा है क्या?” ‘न’ सुनने की माँ को आदत न थी किन्तु खिलावन उनका चहेता नौकर था. पाँच साल पहले सत्रह वर्ष की आयु में उसने यहाँ जो काम सीखना शुरू किया था सो अब वह बहुत काम का आदमी बन गया था. उसकी फुरती और कार्यकुशलता देखने लायक रही. मिनटों-सैकंडों में वह जूठे बर्तनों की ढेरी चमका देता, चुटकियों में पूरा बँगला बुहार लेता; तिस पर ईमानदार इतना कि सामने रखे सोने को देखकर भी उसका चित्त डुलाये न डोलता. “जी, मालकिन,” खिलावन ने अपने हाथ जोड़े, “गुलाब ग़रीब घर की ज़रूर है मगर उसके यहाँ औरत जात से बाहर का काम करवाने काप्रचलन नहीं.” दोपहर में माँ ने मेरे पिता से यह बात दोहरायी तो माँ की झल्लाहट में सम्मिलित होने की बजाय वे हँस पड़े, “देखने में ज़रूर अच्छी होगी.” मेरे पिता अत्यन्त सुदर्शन रहे जब कि माँ देखने में बहुत मामूली. मुझेयक़ीन है माँ मेरे धनाढ्य नानाकी यदि इकलौती सन्तान न रहीहोतीं तो मेरेपिता कदापि उनसे शादी न करते. “देखने में अच्छी है,” जवाबी वारमें माँ का जवाब नथा, “तभी तो काम में फिसड्डीहै.” काम के मामले में मेरे पिता खासे चोर रहे. साड़ियोंके विक्रेता मेरे नाना की दुकान पर वेकभी-कभार ही बैठते. बस, उनके हाथ बँटाने के नाम पर केवल साड़ियों को उठाने या पहुँचाने का कामही करते; वहभी इसलिए क्योंकि उस काम में हरतिमाही-छमाही रेलपर घूमनेका उन्हेंअच्छा अवसर मिल जाता. कभी बनारस तो कभी कलकत्ता और कभी हैदराबाद तो कभी त्रिवेन्द्रम. वरना इधर तो आधा दिन वे सजने-सँवरने मेंबिताते औरआधा रात की नींद पूरी करने में. रात को क्लबमें देरतक शराब पीनेऔर ब्रिज खेलने की उन्हें बुरी लत रही. रात का खाना वे ज़रूर घर पर लेते. कभीग्यारहबजेतोकभीसाढ़ेग्यारहबजे. अकेले. खिलावन की मदद लेकर माँ उन्हें खाना परोसतीं ज़रूर किन्तु स्वयं कुछ न खातीं. असल में माँका रात में रोज़ व्रतरहता. “भली मानस तेरी माँ तेरे पिता को तो दण्ड दे नहीं सकती,” रात में जल्दी सोने की आदत की वजह से विधुर मेरे नाना ठीक साढ़े आठ बजे मेरी बगल में खाने की मेज पर अपना आसन ग्रहण करते ही रोज़ कहते, “इसीलिए खुद को दंड दे रही है.” नौ साल पहले मेरे पिता को मेरे नाना के पास बी. ए. में पढ़ रही माँ ही लायी रहीं, “इनसे मिलिए. हमारे इलाके के एम. पी. के मँझले बेटे.” सन् बावन के उन दिनों में हाल ही में संगठित हुई देश की पहली लोक सभा का रुतबा बहुत बड़ा था और मेरे नाना उनके परिचय के‘क्या’, ‘कितना’ और‘क्यों’ के चक्कर में न पड़े थे. वैसे माँ मेरे पिता को क्लब के लॉन टेनिस टूर्नामेंट के अन्तर्गत मिली रहीं. उनकी तरह माँ भी टेनिस की बहुत अच्छी खिलाड़ी थीं. दोनों ने एक साथ मिक्स्ड डबल्स कीकई प्रतियोगिताओं में भाग भी लिया. आप चाहें तो सन् तिरपनकी कुछ अख़बारों में उन दोनों की एक तस्वीर भी देख सकते हैं. राजकुमारी अमृत कौर के हाथों एक शील्ड लेते हुए. “कहो जगपाल,” अगले दिन सुबह गोल्फ़ के लिए मोटर में सवार मेरे पिता ने ड्राइवर को टोहा, “खिलावन के क्या हाल हैं?” मोटर में उस समय मैं भी रहा. मेरे पिता का गोल्फ-ग्राउण्ड मेरे स्कूल के समीप था. “बंदर के हाथ हिरणीलग गयी,” जगपाल ने अपने दाँत निपोरे, “वह गुलाब नहीं गुलनार है, सरकार!” “दूर से ही लार टपकाते हो या कभी पार भी गए हो?” मेरे पिता और जगपाल के बीच असंयत ठिठोली का सिलसिला पुराना था. हरिप्रसाद और पुत्तीलाल की पत्नियों के बारे में लापरवाह बातें करते हुए भी मैं उन्हें अक्सर पकड़चुका था. हरिप्रसाद की पत्नी को वे ‘चिकनिया’ कहते और पुत्तीलाल की पत्नी को ‘लिल्ली घोड़ी’. “आप कहें तो आजमाइश करें, सरकार?” जगपाल ने अपना सिर पीछे घुमाया- मेरे पिताकी दिशा में- “आप के लिए यह भी सही-” “आजमाइश नहीं, तुम निगहबानी करना. पहरा रखना.” “रखवाली किसकी करनी है, सरकार? उसकी या आपकी?” स्कूल पर पहुँच जाने की मजबूरी के कारण उसी समय मुझे मोटर से उतरना पड़ा और अपने पिता का उत्तर मैं जान न पाया. मगर स्कूल से लौटते ही खाना खाने के उपरान्त मैं बाग़ीचे की तरफ़ आ निकला. हमारे नौकर लोगों के कमरे हमारे पिछवाड़े के बागीचे की तरफ़ रहे. हमारे निजी कुएँ के … Read more