पद्मश्री उषा किरण खान की कहानी – वो एक नदी
सागर से मिलने को आतुर नदी हरहराती हुई आगे बढ़ती जाती है, बीच में पड़ने वाले खेत खलिहान को समान भाव से अपने स्नेह से सिंचित करते हुए | पर इस नदी में कभी बाढ़ आती है तो कभी सूखा भी पड़ता है | परंतु वो ऐसी नदी नहीं थी, वो अपने दो पक्के किनारों के बीच अविरल बह रही थी .. भले हि कगार के वृक्ष मूक देख रहे हों | आस-पास से गुजरते पथिक प्रश्न उठा रहे हों, यहाँ तक की उसके अंदर पली बढ़ी मछलियाँ भी उसके इस तरह बहने से आहत हों ? फिर भी वो बहती रही अपने ही वेग में अपने ही अंदाज में इस तरह की सारे प्रश्न स्वतः ही गिर गए | अस्वीकृति को मौन स्वीकृति मिल गई और अस्वीकार को स्वीकार | आइए पढ़ते हैं सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लेखिका आदरणीय पद्मश्री उषा किरण खान जी की बेहद सशक्त कहानी “वो एक नदी” | एक स्त्री की नदी से तुलना हमने कई बार सुनी है पर वो कुछ अलग ही थी .. वो एक नदी पद्मश्री उषा किरण खान की कहानी – वो एक नदी जब कभी तुम्हारे बारे में कुछ सोचने बैठती हूँ तो दृष्टि अनायाम आकाश की ओर उठ जाती है। सफेद खरगोश की तरह दौड़ता चाँद दिखने लगता है, उसके पीछे बादलों का झुंड पड़ा दिखता है। लुकता-छिपता यह चाँद मुझे सचमुच नहीं दिखता, यह तो मैं अपने मन के आकाश में देखती हूँ। ऐसा भी नहीं है कि आकाश मे उन दृश्यों को देखकर मुझे तुम याद आती हो। नहीं, मैंने कहा न, मैं तुम्हारी याद आने पर ही उन वस्तुओं की कल्पना करने लगती हूँ जो कभी घटी थी। तुम्हें क्या मालूम कि तुम्हारी आज की इतनी-इतनी, सौन्दर्यबोध वाली माँ उन दिनों क्या कहती थी, कैसी लगती थी। श्यामा कुँअरि से श्यामा शर्मा होते जाने की कहानी का तुम्हें कहाँ पता है? तीन भाईयों वाले जमींदार साहब के घर कई-कई पुश्तों के बाद जनमी पहली लड़की थी श्यामा। भक् गोरा रंग, बड़ी-बड़ी चमकती आँखें और सौन्दर्य के तमाम उपमानों की हेठी करती-सी उसके देहयष्टि देखकर कोई भी सोच सकता था कि इसका नाम श्यामा क्यों है। मुझे याद है, तुमने भी कई बार पूछा था। रेशमी घघरी छोड़कर अभी साड़ी बाँधने ही लगी थी श्यामा कि उसकी शादी उच्च कुलीन बलदेव से कर दी गयी थी। वही बलदेव, जो तुम्हारा पिता है और उसे तुम बेहद-बेहद प्यार करती हो। आठ वर्षो की श्यामा थी, अठारह वर्षो का बलदेव था। कहीं संस्कृत विद्यालय में पढ़ रहा था। श्यामा की ओर बलदेव भौंचक देखता रहता। श्यामा की शैतानियाँ बदस्तूर कायम रहीं। वैसे ही आम की बगीची में जाकर। कोयल के सुर-में-सुर मिलाना, वैसे ही घर से दाल चावल-घी चुराकर ले जाना, कुम्हार के घर से हाँड़ी उठा लाना और कमलबाग में आम की सूखी टहनियों से ईटे जोड़कर खिचड़ी पकाना। हर टोले की छोकरियाँ श्यामा की दोस्त हुआ करतीं। साथ-साथ खिचड़ी खाना और करिया झूमर खेल खेलना ढली साँझ तक चलता रहता आषाढ़ बीतने के बाद ताल-तलैया भर जाते , कमलबाग सूने पड़ते । तब बंसी-बनास लेकर कीचड़े-कादों फलाँगती फिरती मिली हुइ छोटी मछलियों को खेत में ही पकाकर नमक मिर्च के साथ चट कर जाती। अक्सर बूढ़ी दादी के डाँट खाती किन्तु उसकी भी परवाह नहीं करती। बड़ी-बुढ़ियां अक्सर सिर पर हाथ ठोंककर कहतीं ‘‘अरी, यह तो बड़ी बहरबटटू है,दिन भर वन-वन छिछियाती रहती है। घराने की नाक कटाएगी।’’ ‘‘क्या बताऊँ , यह तो बड़े घराने की कन्यादानी बेटी है। कौन क्या कहेगा? लेकिन हम जैसे छोटे घर की लड़कियो को तो बिगाड़ कर रख देगी’’-दूसरी बूढ़ी कहती और सोच में डूब जाती। पहले बड़े घराने के लोग करते थे। बेटी के नाम धन-सम्पत्ति का भाग तो रहता ही था, मायके में रहकर खानदान भर पर रौब गाँठने का स्वार्जित अवसर भी स्वतःहाथ आ जाता था। तो तुम्हारी माँ श्यामा ऐसी ही कन्यादानी बेटी थी। तुम्हारा पिता बलदेव वैसा ही उच्चकुलीन दामाद था जो कई और शादियाँ कर सकता था। तुम्हारे पिता को पढने-लिखने का कुछ अधिक ही शौक था। सो उन्होंनें संस्कृत विद्यालय पास कर मेंडिकल स्कूल में दाखिला ले लिया था। कुऐं की जगत पर ‘‘पाहुन, आप श्यामा कुँअरि को क्यों नहीं कुछ कहते?’’- एक दिन स्नान के बाद धोती पकड़ते खवासन ने कहा था। ‘‘ऊँ, क्या कहूँ?’’ चिहुँक उठे थे बलदेव। ‘‘यही, रन-वन छिछियाती रहती है।’’ ‘‘हें-हें-हें’’ -स्निग्ध हँसी हँस पड़े थे थे बलदेव। ‘‘घर में लोग तो है ही।’’ ‘‘फिर भी, आप स्वामी है।’’ ‘‘नहीं, ऐसा नहीं है।’’ ‘‘हाँ सरकार। कहीं आपके कहने से सुधर जाए।’’ ‘‘कोइ बात नहीं, अभी बच्ची है, बड़ी होगी तो समझ जाएगी।’’ बातों के तार को छिन्न कर दिया उन्होंने । लेकिन उसी रात को जब छोटी काकी ने नहला-धुलाकर चाटी-पाटी करके किशोरी की थी। मेडिकल में नाम लिखाने के बाद बलदेव पहली बार ससुराल आये थे। छह माह में ही श्यामा बड़ी लगने लगी थी। आते ही चहककर पास आ बैठी। आप इस बार बहुत दिनों के बाद आये । डॉक्टरी की पढ़ाई शुरू हो गयी? बार रे। आप भी छुरी से घाव चीर डालिएगा, नौआ की तरह? प्रश्न-पर-प्रश्न दागती चली गयी श्यामा तब तक जब तक बलदेव ने उसे अपनी ओर खींच नहीं लिया। बोल-े ‘‘छोड़ो यह सब, पहले यह बताओं कि अबकी कलमबाग में नीलम परी उतरी थी क्या?’’ ‘‘न, तो, किसने कहा? कैसे पता चला? तुम नीलम परी को जानते तो क्या? झूठे।’’ आँखें मटका कर कहा था श्यामा ने । “तुम्हीं तो बताती थी, नीलम परी आती है, जादू का डण्डा लाती है। जिस साल डण्डा फेरतीहै उस साल आम में बौर लगते है, नहीं, तो नहीं।’’-श्यामा ने सुनकर ठहाका लगाया था। ‘‘जानते हो, अब मैं जान गयी हूँ, कोई परी-वरी नहीं आती है, वह तो धरती माता है, आकाश पिता है, जो आम के गाछों मे बौर लगाते हैं। ‘‘बस’’ -समझदारी से कहा। ‘‘लेकिन मेरा तो विश्वास बढ़ गया है नीलम परी के प्रति कि वह जरूर आती है बगीची में,जरूर जादू की छड़ी फेरती है। उसकी छड़ी अभी तुम्हारे ऊपर फिरी है।’’ अपने से सटाते हुए कहा बलदेव ने। उसकी छड़ी अभी तुम्हारे ऊपर फिरी है।’’ अपने से सटाते हुए कहा बलदवे ने। सीने में सटाकर बलदवे ने जैसे ही दोनों … Read more