मां की सिलाई मशीन -कहानी दीपक शर्मा

मां की सिलाई मशीन

नारी जीवन बस दर्द का पर्याय है या बाहर निकलने का कोई रास्ता भी है ? बचपन में बड़े- बुजुर्गों के मुँह से सुनती थी,  ” ऊपर वाला लड़की दे तो भाग्यशाली दे ” l और उनके इस भाग्यशाली का अर्थ था ससुराल में खूब प्रेम करने वाला पति- परिवार मिले l नायिका कुंती की माँ तो हुनर मंद थी, आत्म निर्भर भी, फिर उसका जीवन दुखों के दलदल में क्यों धंसा था l  वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानी ‘मां की सिलाई मशीन’ एक ऐसी कहानी है जिसे मैंने दो-तीन बार बार पढ़ा और हर बार अलग अर्थ निकले l एक आर्थिक रूप से स्वतंत्र स्त्री का भी आर्थिक शोषण हो सकता है l बाहर से दिखने वाले एक सामान्य संस्कारी परिवार के बीच अनैतिक रिश्ते अपनी पूरी ठसक के साथ चल सकते हैं l मारितयु से परे भी कुछ है जो मोह के धागों संग खींचा चला आता है l आइए पढे एक ऐसी कहानी जो अपने पूरे कहानी पन के साथ पाठक के मन में कई सावाल छोड़ जाती है और दर्द की एक गहरी रेखा भी… मां की सिलाई मशीन -कहानी दीपक शर्मा   मां की सिलाई मशीन               वरर्र ? वरर्र ? सूनी रात के इस सुस्त अंधेरे में ? डयोढ़ी में सो रही मैं जग गयी। व्हिरर ! व्हिरर्र !! फिर से सुना मैं ने ? मां की मशीन की दिशा से ? धप ! मैं उठ बैठी । गली के खम्भे वाली बत्ती की मन्द रोशनी में मशीन दिख रही थी, लेकिन मां नहीं । वह वहां हो भी नहीं सकती थी। वह अस्पताल में थी। ट्रामा सेन्टर के बेड नम्बर तेरह पर, जहां उसे उस दिन दोपहर में पहुंचाया गया था। सिर से फूट रहे उनके लहू को बन्द कराने के वास्ते। बेहोशी की हालत में। मशीन के पास मैं जा खड़ी हुई। उस से मेरा परिचय पुराना था। दस साल की अपनी उस उम्र जितना। मां बताया करतीं पहले मुझे गोदी में लिए लिए और फिर अपनी पीठ से सटाए सटाए उन्होंने अपनी कुर्सी से कितनी ही सिलाई पूरी की थी। मां टेलर थीं। खूब सिलाई करतीं। घर की, मुहल्ले की, शहर भर की। मां की कुर्सी पर मैं जा बैठी। ठीक मां के अन्दाज़ में। ट्रेडिल पर दाहिना पैर थोड़ा आगे। बायां पैर थोड़ा पीछे। क्लैन्क, क्लैन्क, क्लैन्क……… बिना चेतावनी दिए ट्रेडिल के कैम और लीवर चालू हो लिए। फूलदार मेरी फ़्राक पर। जो मशीन की मेज़ पर बिछी थी। जिस की एक बांह अधूरी सिलाई लिए अभी पूरी चापी जानी थी। और मेरे देखते देखते ऊपर वाली स्पूल के गिर्द लिपटा हुआ धागा लूप की फांद से सूई के नाके तक पहुंचने लगा और अन्दर वाली बौबिन, फिरकी, अपने गिर्द लिपटा हुआ धागा ऊपर ट्रैक पर उछालने लगी। वरर्र……वरर्र…… सर्र……..सर्र और मेरी फ़्राक की बांह मेरी फ़्राक के सीने से गूंथी जाने लगी, अपने बखियों के साथ सूई की चाप से निकल कर आगे बढ़ती हुई…….. खटाखट….. “कौन ?’’ बुआ की आवाज़ पहले आयी। वह बप्पा की सगी बहन न थीं। दादी की दूर-दराज़ की भांजी थी जो एक ही साल के अन्दर असफल हुए अपने विवाह के बाद से अपना समय काटने के लिए कभी दादी के पास जा ठहरतीं और कभी हमारे घर पर आ टपकतीं। “कौन ?’’ बप्पा भी चौंके। फट से मैं ने अपने पैर ट्रैडिल से अलग किए और अपने बिस्तर पर लौट ली। मशीन की वरर्र…..वरर्र, सर्र…..सर्र थम गयी। छतदार उस डयोढ़ी का बल्ब जला तो बुआ चीख उठी, “अरे, अरे, अरे…….देखो…देखो…. देखो…..इधर मशीन की सुई ऊपर नीचे हो रही है और उसकी ढरकी आगे-पीछे। वह फ़्राक भी आगे सरक ली है….’’ जभी पिता का मोबाइल बज उठा। “हलो,’’ वह जवाब दिए, ’’हां। मैं उस का पति बोल रहा हूँ…..बेड नम्बर तेरह….. मैं अभी पहुंच लेता हूं…..अभी पहुंच रहा हूं…. हां- कुन्ती…..कुन्ती ही नाम है….’’ “’मां ?’’ मैं तत्काल बिस्तर से उठ बैठी।                “हां…”बप्पा मेरे पास  खिसक आए। “क्या हुआ ?’’ बुआ ने पूछा। “वह नहीं रही, अभी कुछ ही मिनट पहले। नर्स ग्लुकोज़ की बोतल बदल रही थी कि उसकी पुतलियां खुलते खुलते पलट लीं…’’ “अपना शरीर छोड़ कर वह तभी सीधी इधर ही आयी है, ’’बुआ की आवाज़ दुगुने वेग से लरज़ी, “अपनी मशीन पर….’’ “मुझे अभी वहां जाना होगा,’’ बप्पा ने मेरे कंधे थपथपाए, ’’तुम घबराना नहीं।’’ और उनके हाथ बाहर जाने वाले अपने कपड़ों की ओर बढ़ लिए। अपने कपड़ों को लेकर  वह बहुत सतर्क रहा करते। नयी या ख़ास जगह जाते समय ताजे़ धुले तथा इस्तरी किए हुए कपड़े ही पहनते। वह ड्राइवर थे। अपने हिसाब से, कैज़्युल। अवसरपरक। कुछ कार-मालिकों को अपना मोबाइल नम्बर दिए रहते, जिन के बुलाने पर उनकी कार चलाया करते। कभी घंटों के हिसाब से। तो कभी दिनों के। “अभी मत जाएं,’’ बुआ ने डयोढ़ी की दीवार पर लगी मां की घड़ी पर अपनी नज़र दौड़ायी, “रात के दो बज रहे हैं। सुबह जाना। क्या मालुम मरने वाली ने मरते समय हम लोग को जिम्मेदार ठहरा दिया हो !’’ “नहीं। वह ऐसा कभी नहीं करेगी। बेटी उसे बहुत प्यारी है। नहीं चाहेगी, उस का बाप  जेल काटे और वह इधर उधर धक्का खाए…..’’ मैं डर गयी। रोती हुई बप्पा से जा चिपकी। मां की मशीन और यह डयोढ़ी छोड़नी नहीं थी मुझे। “तुम रोना नहीं, बच्ची,’’ बप्पा ने मेरी पीठ थपथपायी, “तुम्हारी मां रोती थी कभी ?’’ “नहीं,’’ मेरे आंसू थम गए। “कैसे मुकाबला करती थी ? अपने ग्राहक-ग्राहिकाओं से ? पास पड़ोसिनों से ?  मुझ से ? बुआ से ? अम्मा से ?’’ यह सच था। ग्राहिकाएं या ग्राहक अगला काम दें न दें, वह अपने मेहनताने पर अड़ी रहतीं। पड़ोसिनें वक्त-बेवक्त चीनी-हल्दी हाज़िर करें न करें, वह अपनी तुनाकी कायम रखतीं। बप्पा लोग लाख भड़के-लपकें वह अविचल अपनी मशीन चलाए रखतीं। “हां…’’ मैं ने अपने हाथ बप्पा की बगल से अलग कर लिए। “अस्पताल जाना बहुत ज़रूरी है क्या ?’’ बुआ ने बप्पा का ध्यान बटांना चाहा।  “जरूरी है।बहुत जरूरी है।कुन्ती लावारिस नहीं है। मेरी ब्याहता है….’’ इधर बप्पा की स्कूटी स्टार्ट हुई, उधर मैं मशीन वाली कुरसी पर जा बैठी।  मां को महसूस करने। मशीन में मौजूद उनकी गन्ध को अपने अन्दर भरने। उन की छुअन को छूने। “चल उठ,’’ … Read more

गईया-मईया- पी. शंभू सिंह जी की कहानी

गईया मैया

  गाय    की तुलना अक्सर स्त्री से की जाती है | साम्यता भी तो कितनी है दोनों में गईया हो या स्त्री ..  जिस खूँटे से बाँध दी जाती है आजन्म उसी से बँधी    रहती है | चाहे सूखा घास -फूस ही खाने को मिलता रहे पर पूरे घर की सेवा करने में जी जान से करती रहती हैं |  पर पितृसत्ता दोनों का ही दोहन करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ती | वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय शंभू पी सिंह जी भी अपनी कहानी में गईया मैया और स्त्री के एक ऐसे दर्द की तुलना करते हैं ..अपनी प्रकृति में भिन्न होते हुए भी जिनमें साम्य  है, वो है एक माँ का दर्द |पितृसत्ता अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए जहँ गईया से बछिया चाहती है वहीं स्त्री से पुत्र | और अनचाही संतान का एक ही हश्र , चाहें वो जन्म से पहले हो या बाद में |  पढ़ते हैं .. दो माओं के दर्द को एक तन्तु में पिरोती मार्मिक कहानी .. कहानी की समीक्षा यू ट्यूब पर देखें … कथा समीक्षा -गईया मैया गईया मैया  “रामायणी मैं जा रहा हूं खेत पर। आने में लेट होगी, तो गईया को सानी-पानी दे देना। उसका अंतिम महीना चल रहा है, इस बार बाछी हो जाए तो एक और गाय तैयार हो जायगी। अब ये बूढ़ी भी हो गई, समझो अंतिमें बियान है।” रामायणी को हिदायत करते, कंधे पर गमछा रख, गनौरी चला गया खेत पर। रामायणी मुंह में आंचल दबाए चुपचाप सुनती रही। गाय की इतनी चिंता है। दो दिन से कह रही हूं, एक बार डॉक्टर को दिखा दो, लेकिन मेरी बात का कोई असर नहीं। रामायणी ने टेलीविजन पर देखा है, डॉक्टर बोल रही थी कि गर्भ के बाद हर महीने जांच करानी चाहिए, सास उसे लेकर अस्पताल जाती नहीं, अकेले जाने देती नहीं और रोपनी का टाइम है, तो गनौरी को फुर्सत ही नहीं है। कुछ भी हो इस बार वह लिंग जांच तो नहीं करवाएगी। सास के दबाव में आकर तो दो बच्चे की हत्या कर चुकी है। इस बार जो भी हो, उसका भी अंतिमें होगा। रामायणी का यह तीसरा महीना चल रहा है। चार बच्चे तो जन चुकी, चारों बेटी। दो जिंदा है, दो को आने ही नहीं दिया। गर्भ में ही पता लग गया। अल्ट्रासाउंड की जांच में, दोनों बार लड़की ही थी। उसे तो कुछ भी नहीं पता, कब, क्या, क्यों किया, ये सब।जिसे आना है उसे आने दे, नहीं तो हमेशा के लिए टांका लगवा दे। अब बार-बार की जांच-पड़ताल। कहीं लड़की निकल गई तो दवा देकर अंदर ही मार देना कोई अच्छी बात थोड़े ही न है। मर कर बची थी रामायणी पिछले साल। इतना खून निकला कि लगता था अब दम ही निकल जाएगा। गनीमत ये हुई बड़े भैया आ गए। स्थिति देख तुरत एम्बुलेंस मंगाया गया और शहर के अस्पताल में भर्ती करा दिए, तो जान बची। मरद तो कुछ सुनता ही नहीं। बस रात में शरीर नोचने आ जाता है। उसकी किस्मत खोटी थी कि इस घर ब्याही गई। भैया चाहते तो किसी नौकरी वाले घर भी भेज सकते थे। पिता जिंदा होते तो यहां कभी नहीं ब्याहते। कितना प्यार करते थे। रोज बाबूजी को रामायण की चौपाई पढ़ते सुनाती थी। पांच साल की उम्र में ही वह रामायण की चौपाई पढ़ने लग गई थी। तभी उन्होंने मेरा नाम रामायणी रख दिया। जहां भी जाते मुझे साथ ले जाते। लोगों को बैठाकर चौपाई सुनवाते थे। गर्व करते थे मुझपर। भैया तो सात साल बड़े हैं। पिता जैसा सम्मान देती रही है। भैया तो चाहते भी थे कि थोड़ा अधिक दहेज दे देने से नौकरी वाला लड़का मिल जाएगा, लेकिन भाभी ने एक न सुनी। बस एक ही रट लगाती रही, तीन बहन है तेरी। एक का ब्याह नौकरी वाले के घर करोगे, तो बाकी का भी सोच लो। अकेले कमाने वाले, सात खाने वाले हैं। एक अदना क्लर्क की नौकरी से क्या कर सकते हो। जो भी करो सोच समझकर करो। बाबूजी के गुजरने से पहले भाई की नौकरी हो गई थी। खेती-पथारी से तो साल भर खाने का अनाज भी नहीं हो पाता था। भाभी भैया को हमेशा घर की बाकी जिम्मेदारियों का एहसास कराती रहती। कुछ नहीं तो अपने बच्चों के भविष्य संवारने की बात करना नहीं भूलती। यह सुन भैया चुप हो जाते। रामायणी किसी को दोष नहीं देती। सब किस्मत की बात है। जिसकी किस्मत जहां ले जाय, जाना ही पड़ेगा। आ गई इस घर में। साथ में भैया ने एक कर्यकी बाछी भी लगा दिया। आज वही कर्यकी बाछी, गाय बन गई है। इस घर में रामायणी और कर्यकी की हालत एक जैसी है। कर्यकी ने भी पिछले छह साल में चार बच्चा दे चुकी है। दुधारू गाय है। साल में नौ महीने दूध देती है। गाभिन होने के अंतिम तीन महीना ही दम मारती है। उसकी भी किस्मत रामायणी जैसी ही है। उसके चार बच्चों में पहली ही बाछी हुई, बाद का तीनों बाछा हुआ। दो को तो एक साल बाद ही कसाई के हवाले कर दिया। तीसरे को भी हटाने की तैयारी हो रही है। पता नहीं उतने छोटे बछड़े का कसाई क्या करता है। बछड़े के जन्म को लेकर भी रामायणी को ही सास का उलाहना सुननी पड़ती है। हर बात पर एक ही रट लगाए रहती है, जैसी कुलछिन अपने है, वैसी ही अपने साथ बाछी भी लेकर आई। अपने खाली बेटिये जनती है, तो नैहर से लाई बछिया खाली बछड़ा ही बियाती है। बाछी होती, तो एक साल के अंदर गाय बन जाती। इतनी दुधारू गाय है कि पचास हजार से कम में नहीं बिकती। बाछा तो अब किसी काम का रहा नहीं। हल से खेत जोतने का समय बीत गया। पहले हल और गाड़ी में बैल की जरूरत होती थी, तो लोग बछड़ा को पालते थे। अब खेत की जोताई ट्रैक्टर से होने लगी और बैलगाड़ी की जगह मोटर गाड़ी ने ले ली, तो भला अब बैल को कोई क्यों खरीदेगा। जब तक गईया दूध देती है, तभी तक बछड़ा दिखता है। जैसे ही उसकी कर्यकी गाय गाभिन होती है,  बेचारा बछड़ा कसाई के हवाले कर दिया जाता है। पिछ्ली बार भी तो … Read more