अधजली

सिनीवाली शर्मा

हिस्टीरिया तन से कहीं अधिक मन का रोग है | तनाव का वो कौन सा बिंदु है जिसमें मन अपना सारा तनाव शरीर को सौप देता है …यही वो समय है जब रोगी के हाथ पैर अकड़ जाते हैं, मुँह भींच जाता है और आँखें खुली घूरती सी हो जाती है | हिस्टीरिया का मरीज ज्यादातर लोगों ने देखा होगा …दुनिया से बेखबर, अर्धचेतन अवस्था  में अपने सारे तनाव को शरीर को सौपते हुए, किसी ऐसे बिंदु पर जहाँ चेतन और अवचेतन जगत एकाकार हो जाते हैं |   ऐसी ही तो थी कुमकुम …सुन्दर , सुशील सहज जिसकी ख़ुशी की खातिर  उसके बेरोजगार भाई ने पकडूआ ब्याह (बिहार के कुछ हिस्सों  की एक प्रथा जिसमे लड़कों को पकड कर जबरदस्ती विवाह करा दिया जाता है )के तहत ब्याह दिया एक नौकरी वाले लड़के से |जिसने उसे कभी नहीं अपनाया | बरसों बिंदी, चूड़ी और सिंदूर के साथ प्रतीक्षारत कुमकुम के तन  का तनाव मन पर उतर आया, उसे खुद भी पता नहीं चला | जिसका गुनहगार भाई ने खुद को माना और सजा मिली एक और निर्दोष स्त्री को, भले ही वो कुमकुम की भाभी हो पर उसके साथ बहनापा भी था उसका | अधजली  कहानी है मन की उलझन की, तन और मन के रिश्ते की …बहनापे और इर्ष्या के द्वन्द की और स्त्री की अपूर्ण इच्छाओं की | स्त्री यौनिकता की बात करती ये कहानी भाषा के स्तर पर कहीं भी दायें बाये नहीं होती | आइये पढ़ें सिनीवाली शर्मा जी की कहानी …. अधजली   इस घर के पीछे ये नीम का पेड़ पचास सालों से खड़ा है। देख रहा है सब कुछ। चुप है पर गवाही देता है बीते समय की! आज से तीस साल पहले, हाँ तीस साल पहले ! इस पेड़ पर चिड़ियाँ दिन भर फुदकती रहती, इस डाल से उस डाल। घर आँगन इनकी आवाज से गुलजार रहता। आज सुबह सुबह ही चिड़ियों के झुंड ने चहचहाना शुरू कर दिया था, चीं…चीं… चूं…चूं…! बीच बीच में कोयल की कूहू की आवाज शांत वातावरण में संगीत भर रही थी कि तभी कई पत्थर के टुकड़े इस पेड़ पर बरसने लगे! चिड़ियों के साथ उनकी चहचहाहट भी उड़ गई, रह गई तो केवल पत्थरों के फेंकने की आवाज के साथ एक और आवाज, ‘‘ उड़, तू भी उड़…उड़ तू भी! सब उड़ गईं और तू…तू क्यों अकेली बैठी है…तू भी उड़ !‘‘ ‘‘ क्या कर रही हो बबुनी ? यहाँ कोई चिड़िया नहीं है… एक भी नहीं, सब उड़ गईं, चलो भीतर चलो‘‘ , शांति कुमकुम का हाथ खींचती हुई बोली। ‘‘ नहीं, वो नहीं उड़ी ! मेरे उड़ाने पर भी नहीं उड़ती। उससे कहो न उड़ जाए, नहीं तो अकेली रह जाएगी मेरी ही तरह !‘‘ बोलते हुए उसकी आवाज काँपने लगी, भँवें तनने लगीं और आँखें कड़ी होने लगीं। वो तेजी से भागती हुई बरामदे पर आई और बोलती रही, ‘‘ अकेली रह जाएगी, अकेली…उड़, तू भी उड़…उड़…!‘‘ बोलते बोलते कुमकुम वहीं बरामदे पर गिर गई। सिंदूर के ठीक नीचे की नस ललाट पर जो है वो अक्सर बेहोश होने पर तन जाती है उसकी। हाथ पैर की उंगलियां अकड़ जाती हैं। कभी दाँत बैठ जाता है तो कभी बेहोशी में बड़बड़ाती रहती है। शांति कुमकुम की ये हालत देखकर दरवाजे की ओर भागी और घबराती हुई बोली, ‘‘ सुनिएगा !‘‘ ये शब्द महेंद्र न जाने कितनी बार सुन चुका है। शांति की घबराती आवाज ही बता देती है कि कुमकुम को फिर बेहोशी का दौरा आया है। कितने डॅाक्टर, वैध से इलाज करा चुका है, सभी एक ही बात कहते हैं, मन की बीमारी है! ‘‘आ…आ ‘‘ ‘‘तुम…तुम, मैं…मैं…!‘‘ ये सब देखकर महेंद्र के भीतर दबी अपराध बोध की भावना सीना तानकर उसके सामने खड़ी हो जाती। कुमकुम की बंद आँखों से भी वो नजर नहीं मिला पाता। सिरहाने बैठकर वो उसके माथे को सहलाने लगता और शांति कुमकुम के हाथ पैर की अकड़ी हुई उंगलियों को दबा कर सीधा करने की कोशिश करने लगती। महेन्द्र पानी का जोर जोर से छींटा तब तक उसके चेहरे पर मारता जब तक कुमकुम को होश नहीं आ जाता। होश आने के बाद कुछ देर तक कुमकुम की आँखों में अनजानापन रहता। वो चारों ओर ऐसे शून्य निगाहों से देखती जैसे यहाँ से उसका कोई नाता ही न हो। धीरे धीरे पहचान उसकी आँखों में उतरती। कुमकुम धीरे से बुदबुदायी, ‘‘ दादा…दादा !‘‘ महेंद्र के भीतर आँसुओं का अथाह समुद्र था पर आँखें सूखी ! वो कुमकुम का माथा सहलाता रहा। ‘‘ दादा, क्या हुआ था मुझे ?‘‘ कुमकुम की आवाज कमजोर थी। ‘‘कुछ नहीं…बस तुम्हें जरा सा चक्कर आ गया था।ये तो होता रहता है। अब तुम एकदम ठीक हो।‘‘ ‘‘ हाथ पैर में दर्द हो रहा है, लगता है देह में जान ही नहीं हो, जैसे किसी ने पूरा खून चूस लिया हो‘‘ ‘‘ तुम आराम करो, भौजी पैर दबा रही है।‘‘ ‘‘ पता नहीं क्यों…मैं बराबर चक्कर खा कर गिर जाती हूँ !‘‘ महेंद्र के पास इसका कोई जवाब नहीं था। ‘‘ इसका ध्यान रखना‘‘, इतना बोलकर उसका माथा एक बार बहुत स्नेह से सहला कर वो चला गया। महेंद्र के जाने के कुछ देर बाद तक कुमकुम, शांति को गौर से देखती रही। ‘‘भौजी, दादा कुछ बताते नहीं, मुझे क्या हुआ है ! डाक्टर क्या कहता है मुझे बताओ तो !‘‘ ‘‘ तुम्हें आराम करने के लिए कहा है‘‘, कुमकुम का हाथ सहलाती हुई शांति बोली। ‘‘ भौजी, क्या डाक्टर सब समझता है, मुझे क्या हुआ है ?‘‘ ‘‘ हाँ, बबुनी ! वो डाक्टर है न !‘‘ ‘‘तुम तो ऐसे बोल रही हो जैसे वो डाक्टर नहीं भतार हो !‘‘ शांति के चेहरे पर मुस्कुराहट की बड़ी महीन सी लकीर खिंच गई। ‘‘ जाओ भौजी, तुम्हें भी काम होगा। मैं भी थोड़ी देर में आती हूँ…अभी उठा नहीं जाता !‘‘ ‘‘ मैं तो कहती हूँ थोड़ी देर सो जाओ, रात में भी देर तक जगना होगा।‘‘ ‘‘ क्यों ?‘‘ ‘‘ याद नहीं कल गौरी का ब्याह है और आज रात मड़वा ( मंडपाच्छादन ) है। मैं तो जा नहीं सकती, तुम्हें ही जाना पड़ेगा, नहीं तो कल कौन…!‘‘ बोलते बोलते शांति बिना बात पूरी किए तेजी से बाहर निकल गई। … Read more

निगोड़ी

स्मृतियाँ हमें तोडती भी हैं हमें जोडती भी हैं | ये हमारी जीवन यात्रा की एक धरोहर है | हम इन्हें कभी यादों के गुद्स्तों की तरह सहेज कर रख लेना चाहते हैं तो कभी सीखे गए पाठ की तरह |स्मृति का जाना एक दुखद घटना है | पर क्या कभी कोई व्यक्ति स्वयं ही स्मृति लोप चुन लेता है | ऐसा क्यों होता है अत्यधिक तनाव के कारण उपजी एक मानसिक अस्वस्थता या फिर जीवन के किसी से भागने का एक मनोवैज्ञानिक उपक्रम | आखिर क्या था रूपक्रांति  की जिंदगी में जो वो इसका शिकार हुई |जानते हैं दीपक शर्मा जी की एक सशक्त कहानी से … निगोड़ी  रूपकान्ति से मेरी भेंट सन् १९७० में हुई थी| उसके पचासवें साल में| उन दिनों मैं मानवीय मनोविकृतियों परअपनेशोध-ग्रन्थ की सामग्री तैयार कर रही थी और रूपकान्ति का मुझसे परिचय ‘एक्यूट स्ट्रेस डिसऑर्डर’, अतिपाती तनाव से जन्मे स्मृति-लोप कीरोगिणी के रूप में कराया गया था| मेरे ही कस्बापुर के एक निजी अस्पताल के मनोरोग चिकित्सा विभाग में| अस्पताल उसे उसके पिता, सेठ सुमेरनाथ, लाए थे| उसकी स्मृति लौटा लाने के वास्ते| स्मृति केबाहर वह स्वेच्छा सेनिकलीथी| शीतलताईकी खोज में| यह मैंने उसके संग हुई अपनी मैत्री के अन्तर्गत बाद में जाना था| क्योंकि याद उसे सब था| स्मृति के भीतर निरन्तर चिनग रही थी उस भट्टी की एक-एक चिनगारी, एक-एक अगिन गोला, जिसमें वह पिछले पाँच वर्षों से सुलगती रही थी, सुलग रही थी और जिस पर साझा लगाने में मैं सफल रही थी| (१) “किरणमयी को गर्भ ठहर गया है,” भट्टी को आग दिखायी थी उसके पति कुन्दनलाल ने| “कैसे? किससे?” वहहक-बकायी थी| किरणमयीरूपकान्तिकी बुआ की आठवीं बेटी थी जिसे दो माह की उसकी अवस्था में सेठ सुमेरनाथबेटी की गोद में धर गए थे, ‘अब तुम निस्संतान नहीं| इस कन्या की माँ हो| वैध उत्तराधिकारिणी|’ अपने दाम्पत्य के बारहवें वर्ष तक निस्संतान रही रूपकान्ति अपने विधुर पिता की इकलौती सन्तान थी और वह नहीं चाहते थे कुन्दनलाल अपने भांजों अथवा भतीजों में से किसी एक को गोद ले ले| “मुझी से| मुझे अपनी सन्तान चाहिए थी| अपने शुक्राणु की| अपने बीज-खाद की| जैविकी,” कुन्दनलालतनिक न झेंपा था| शुरू ही से निस्तेज रहा उनका वैवाहिक जीवन उस वर्ष तक आते-आते पूर्ण रूप से निष्क्रियता ग्रहण कर चुका था| “मगर किरणमयी से? जिसके बाप का दरजा पाए हो? जोअभी बच्ची है?” भट्टी में चूना भभका था| पति की मटरगश्ती व फरेब दिली से रूपकान्ति अनभिज्ञ तो नहीं ही रही थी किन्तु वह उसे किरणमयी की ओर ले जाएँगी, यह उसके सिर पर पत्थर रखने से भी भयंकर उत्क्रमण था| “वह न तो मेरी बेटी है और न ही बच्ची है| उसे पन्द्रहवां साल लग चुका है,” कुन्दनलाल हँसा था| “बाबूजी को यह समझाना,” पति की लबड़-घौं-घौं जब भी बढ़ने लगती रूपकान्ति उसका निपटान पिता ही के हाथ सौंप दिया करती थी| जोखिम उठाना उसकी प्रकृति में न था| “उन्हें बताना ज़रूरी है क्या?” कुन्दनलाल ससुर से भय खाता था| कारण, दामाद बनने से पहले वह इधर बस्तीपुर के उस सिनेमा घर का मात्र मैनेजर रहा था जिसके मालिक सेठ सुमेरनाथ थे| औरदामाद बनने की एवज़ में उस सिनेमाघर की जो सर्वसत्ता उसके पास पहुँच चुकी थी, उसे अब वह कतई, गंवाना नहीं चाहताथा| “उन्हें बताना ज़रूरी ही है,” रूपकान्ति ने दृढ़ता दिखायी थी, “किरणमयी उनकी भांजी है और उसकी ज़िम्मेदारी बुआ ने उन्हीं के कंधों पर लाद रखी है…..” “मगर एक विनती है तुमसे,” कुन्दनलाल एकाएक नरम पड़ गया था, “वह सन्तान तुम किरणमयी को जन लेने दोगी…..” “देखती हूँ बाबूजी क्या कहते हैं,” रूपकान्तिने जवाब में अपने कंधे उचका दिए थे| (२) “जीजी?” किरणमयी को रूपकान्ति ने अपने कमरे में बुलवाया था और उसने वहाँ पहुँचने में तनिक समय न गंवाया था| रूपकान्ति ने उस पर निगाह दौड़ायी थी| शायद पहली ही बार| गौर से| और बुरी तरह चौंक गयी थी| कुन्दनलाल ने सच ही कहा था, किरणमयी बच्ची नहीं रही थी| ऊँची कददार थी| साढ़े-पांच फुटिया| कुन्दनलाल से भी शायद दो-तीन इंच ज्यादा लम्बी| चेहरा भी उसका नया स्वरुप लिए था| उसकी आँखेंविशालतथा और चमकीली हो आयी थीं| नाकऔर नुकीली| गाल और भारी| होंठ और सुडौल तथा जबड़े अधिक सुगठित| सपाट रहे उसके धड़ में नयी गोलाइयां आन जुड़ी थीं जिनमें से एक उसकी गर्भावस्था को प्रत्यक्ष कर रही थी| “मेरे पास इधर आओ,” रूपकान्ति अपनी आरामकुर्सी पर बैठी रही थी| जानती थी पौने पांच फुट के ठिगने अपने कद तथा स्थूल अपने कूबड़ के साथ खड़ी हुई तो किरणमयी पर हावी होना आसान नहीं रहेगा| रूपकान्तिअभी किशोरी ही थी जब उसकी रीढ़ के कशेरूका विन्यास ने असामान्य वक्रता धारण कर ली थी| बेटी के उस घुमाव को खत्म करने के लिए सेठ सुमेरनाथ उसे कितने ही डॉक्टरों के पास ले जाते भी रहे थे| सभी ने उस उभार के एक्स-रे करवाए थे, उसका कौब एन्गल, उसका सैजिटल बैलेन्स मापाजोखा था| पीठ पर बन्धनी बंधवायी थी| व्यायाम सिखाए थे| दर्द कम करने की दवाएँ दिलवायी थींऔर सिर हिला दिए थे, ‘यह कष्ट और यह कूबड़ इनके साथ जीवन भर रहने वाला है…..’ “यह क्या है?” रूपकान्ति ने अपने निकटतम रहे किरणमयी के पेट के उभार पर अपना हाथ जा टिकाया था| “नहीं मालूम,” किरणमयी कांपने लगी थी| “काठ की भम्बो है तू?” रूपकान्ति भड़क ली थी, “तेरी आबरू बिगाड़ी गयी| तुझेइस जंजाल में फँसाया गया आयर तुझे कुछ मालूम नहीं?” “जीजा ने कहा आपको सब मालूम है| आप यही चाहती हैं,” किरणमयी कुन्दनलाल को ‘जीजा’ ही के नाम से पहचानती-पुकारती थी और रूपकान्ति को ‘जीजी’ के नाम से| रूपकान्ति ही के आग्रह पर| परायी बेटी से ‘माँ’ कहलाना रूपकान्ति को स्वीकार नहीं रहा था| “मुझसे आकर पूछी क्यों नहीं? मुझसे कुछ बतलायी क्यों नहीं?” रूपकान्ति गरजी थी| “बिन बुलाए आती तो आप हड़का नहीं देतीं?” किरणमयीडहकी थी| रूपकान्ति का ही आदेश था, उसके बुलाने पर ही किरणमयी उसके पास आएगी| वास्तव में वह शुरू ही से किरणमयी के प्रति उदासीन रही थी| पिता उसे जब रूपकान्ति के पास लाए भी थे तोउसने आपत्ति जतलायी थी, मुझेइस झमेले में मत फंसाइए| मगर पिता ने उसे समझाया था, घरमें एक सन्तान रखनी बहुत ज़रूरी है| तुम्हें इसके लिए कुछ भी करने की कोई ज़रुरत नहीं| मानकर चलना यह तुम्हारी गोशाला की … Read more

स्लीप मोड

वंदना गुप्ता

“आज कल मुझे कुछ याद नहीं रहता” कितनी बार हम खुद ये शब्द कहते हैं और कितनी बार अपनों के मुँह से सुनते हैं | पर क्या एक कदम ठहर कर सोचते हैं कि ऐसा क्यों होता है ? क्या हम रोगी के साथ उस तरह से जुड़ पाते हैं जिस तरह से जुड़ना चाहिए | मेडिकल भाषा में कहें तो dissociative disorder के अंतर्गत आने वाला memory loss (amnesia) दो प्रकार का होता है | एक अचानक से और एक धीरे -धीरे | धीरे -धीरे यानी कि भूलने की बिमारी | आज इसी भूलने की बिमारी पर आज हम पढेंगे वंदना गुप्ता जी की कहानी स्लीप मोड | बहुत लोगों ने इस कहानी को पढने की इच्छा व्यक्त की थी | इस कहानी की खास बात है कि ये कहानी एक रोगी की डायरी का हिस्सा है | रोगी किस तरह से एक एक चीज भूलते जाने की अपनी व्यथा कथा डायरी में अंकित करता जाता है | आइये पढ़ें बेहद मार्मिक कहानी … स्लीप मोड   रो पड़ी श्वेता माँ की डायरी का ये पन्ना पढ़कर .  ‘उफ़ , ममा आपको पहले से ही बोध हो गया था अपनी इस दशा का और एक हम बच्चे हैं जिन्होंने कभी भी आपकी बातों को सीरियसली नहीं लिया . ममा आप तो हमारे लिए हमारी ममा थी न . हमें कभी लगा ही नहीं कि आपको कुछ समस्या हो सकती है . शायद हमारी ये सोच होती है ममा सब हैंडल कर सकती हैं और कर लेंगी . और आप इतना अन्दर तक खुद को जान गयीं . इस हद तक कि भविष्य इंगित कर दिया और हम अपने स्वप्न महलों में सोये रहे .‘    “रोहित , रोहित देख , पढ़ इसे और जान , ममा पहले ही जान गयी थीं उन्हें क्या होने वाला है ” रोते हुए श्वेता ने जब डायरी रोहित को पढवाई उसका हाल भी अपनी बहन से कम न था . बिना पतवार की नाव सी हिचकोले खा रही थी उनकी नैया . वो वहां हैं जहाँ न शब्दों का महत्त्व है न अर्थों का . न माँ की ममता न दुलार . सब अतीत का पन्ना हो गए . दोनों ने अगला पन्ना पल्टा जहाँ लिखा था :   आज श्वेता दौड़ती दौड़ती आई और मुँह बना बना कर कहने लगी ,” ममा जानती हो आज क्या हुआ ?”  “क्या हुआ ?” आँखें चौड़ी कर फाड़ते हुए बोली , “ममा आज अलुमनाई मीट थी न तो सभी पुराने दोस्तों से मिलकर बहुत अच्छा लग रहा था लेकिन तभी एक आकर मेरे गले लगी और बहुत प्यार से बतियाने लगी . मैं बात करने लगी उससे लेकिन उसका नाम ही याद नहीं आ रहा था . चेहरा तो पहचानती ही थी लेकिन उसका नाम क्या था सोच सोच परेशान भी हो रही थी तभी किसी ने उसे आवाज़ दी ,अरे रूही , वहीँ मिलती रहेगी या हमसे भी मिलेगी ? तब जाकर याद आया सिर पर हाथ मारते हुए जब उसने बताया तो मेरी सोच के काँटे फिर अपने अस्तित्व की ओर उठ गए . ‘ओह ! तो इसका मतलब ये सभी के साथ होता है फिर मैं क्यों नाहक परेशान होती हूँ . जबकि सच ये है मुझे चेहरे याद नहीं रहते . यदि चेहरे याद रहते हैं तो नाम भूल जाती हूँ . जब तक उनसे २-४ बार मिलकर बात न कर लूँ , स्मृतिकोष में फीड ही नहीं होते .‘    रोहित अगला पन्ना पलटता है , आज मिसेज गुप्ता बता रही थीं जब वो बाज़ार जा रही थीं तो कोई उनका पीछा करने लगा. वो तेज तेज चलने लगीं तो पीछे चलने वाले ने भी गति पकड़ ली . किसी तरह वो बाज़ार पहुँची तो साँस में साँस आई . बहुत सुन्दर हैं मिसेज गुप्ता . लगता ही नहीं शादीशुदा और दो बच्चों की माँ हैं . यूं लगता है अभी रिश्ता करवा दिया जाए . उस पर वेस्टर्न ड्रेस में तो उम्र और छोटी दिखने लगती है ऐसे में वो क्या कहते हैं ………..और सोच की बत्ती गुल हो गयी . शब्द किसी बीहड़ में जाकर दफ़न हो गया . मैं सोचती रहती हूँ और सोचती ही रहती हूँ उस अंग्रेजी नाम को मगर सिरे से नदारद . हाँ हाँ जानती हूँ , दिमाग से निकल गया है , अभी आएगा याद मगर हर कोशिश नाकाम हो जाती है . मैं उनके साथ इस बातचीत में शामिल होना चाहती थी क्योंकि वो बार बार उसी घटना को दोहरा रही थीं मगर इतनी सी देर में ही शब्द स्मृति से फिसलकर जाने किस खाई में खो गया कि मैंने हिंदी में ही बात करना ठीक समझा . वैसे भी अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करना मेरी आदत में शुमार है इसलिए गाडी वहीँ अटक गयी . लेकिन अब याद आ गया हाँ , स्टाकर(stalker). जैसे ही याद आता है बच्चे सी खिल उठती हूँ जैसे कोई खजाना हाथ लग गया हो . जाने वो क्या करता सोच परेशान जो थी . बस उतर गयी पटरी से गाड़ी . सोचती हूँ कब तक चलेगी या चल पाएगी ऐसे भी ज़िन्दगी . जब जरूरत हो वांछित शब्द मेरे पास नहीं आते जाने कहाँ स्मृति तकिया लगाकर सो  जाती है . शायद नियति किसी तथ्य से वाकिफ कराना चाह रही हो जो अभी समझ से परे है .    अगला पन्ना    पटाक्षेप जल्दी नहीं होता लाइलाज बीमारियों का . सुना है लाइलाज है . तो क्या मुझे भूलने की बीमारी हो गयी है . चलो अच्छा ही है . भूल जाऊँ सब कुछ . करता है मन कभी कभी ऐसा . एक बिल्कुल शांत , अलौकिक आनंद में उतर जाऊँ . खुद को डूबा डालूँ तो स्मृति लोप अभिशाप से वरदान बन जाए . मगर हकीकत की बेड़ियों ने इस कदर जकड़ा है कि सोचती हूँ , क्या याद रहेगी  मुझे वो अलौकिक आनंद की अनुभूति ? समस्या तो यही है . समाधान सिर्फ दवाइयों और दिनचर्या में …….. कहा था डॉक्टर ने . चलने लगी खींची गयी पगडण्डी पर . शायद बदल जाए जीवन और लिखे एक नयी इबारत . मगर क्या संभव है अकेले के बलबूते पहाड़ चढ़ना . जरूरत … Read more