दीपक शर्मा की कहानी सवारी

सवारी

अपना पैसा,  अपनी सवारी, और अपना मकान  ..अपने वजूद की तलाश करती स्त्री की यही तो पायदानें है जिनसे वो आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान अर्जित करती है | पर क्या ये सब इतना सहज है? और क्या स्त्री देह के प्रति समाज की सोच बदल जाती है ?  हम सबकी प्रिय  वरिष्ठ कथाकार  दीपक शर्मा की कहानी “सवारी”  1967 की कोई तिथि और 27 नवंबर 2019 का वो  जघन्य हादसा ….वर्तमान की घटना के दंश से इतिहास का सफर करती ये कहानी स्त्री जीवन के उस दर्द की बानगी है जो तब से लेकर अब तक हर ही है | आइए सवार हों .. लाइफ ऑन टू व्हीलस/इट इज़ अ ब्युटीफुल राइड सवारी    मानव-स्मृति, में घटनाएं कोई पदानुक्रम नहीं रखतीं । न समय का कोई सोपान-उतरान। वहाँ क्लिक नहीं, ट्रिगर काम करता है । तभी 27 नवम्बर, 2019 की तिथि में डॉ. प्रियंका रेड्डी के संग हुआ जघन्य अपराध मेरे सामने 21 जुलाई, 1967 की तिथि ले आया है । बुआ के क्षत-विक्षत चेहरे के साथ । सांझा कारक दोनों का स्कूटर रहा था । ’’मंगला की सवारी’’ सन् 1967 की फरवरी की किसी एक तिथि में हमारे दालान में उतारे एक  नए स्कूटर को ढक रहे पेपर बोर्ड को हटाते हुए घोषणा की थी, ’’मंगला का वेस्पा । मंगला का वौस्प…’’ ’’वौस्प?’’ उन्हें घेर रही हम तीनों चचेरी बहनें उत्सुक हो ली थीं ।  ’’हाँ वौस्प, ततैया, ही होता है । सुनते हैं इसके इतावली मालिक पियाज्जियों ने जब पहली बार इसे इसकी तैयार अवस्था में देखा तो यही बोला ’सेम्बरा उना वेस्पा’ (यह तो ततैया, वौस्प जैसा है) ततैया ही की भांति इसका पिछला भाग इसके अगले चौड़े भाग के साथ बीच में तंग रखी गयी इस कमर जैसी सीट के साथ जुड़ाए रखा गया है….’’ ’’बहुत बढ़िया है, बाबा,’’ बुआ हमारे दादा के साथ जा चिपटी थीं ।  ’’आप का हर फैसला गलत ही क्यों होता है बाबा?’’ तभी मेरे ताऊ और पिता एक साथ दालान में चले आए थे और चिल्लाए थे, ’’मंगला इसे सम्भाल पाएगी भला? बारह मील कोई रास्ता नहीं । ऊबड़-खाबड़, झाड़ी-झंखाड़ और गड्ढों से भरी वह राह सीधी-सपाट है क्या? टायर पंक्चर होंगे, स्कूटर उलट जाएगा, ब्रेक टूटेगी, मंगला चोट खाएगी……..’’ ’’तुम चुप रहो,’’ दादा उन्हें डपट दिए थे, ’’मंगला सब सम्भाल पाएगी । सब सम्भाल लेगी……’’ ’’जैसी आप अपने सूरतदास को सम्भाल रहे हैं,’’ ताऊ ने तीखा व्यंग किया था । बाद  में हम लड़कियों ने जाना था हमारी बुआ ने अभी अपने अठारहवें वर्ष में कदम रखा ही था कि बाबा ने उनकी सगाई कर दी थी । अपने परम मित्र, सूरतदास जी, के बेटे से । उस समय उनके बेटे के तपेदिक-ग्रस्त होने का न बाबा को पता था और न ही सूरतदास बाबा को । और पता मिलने पर भी हमारे दादा ने सगाई नहीं तोड़ी थी । सूरतदास बाबा के आग्रह बावजूद । हाँ, शादी ज़रूर टाल दी थी । और बुआ को बी.ए., व एम.ए. कराने के बाद नौकरी में लगा दिया था । कस्बापुर के उसी डिग्री कालेज में उनके विषय, दर्शन-शास्त्र, में लेक्चरर, जिसके हॉस्टल में रह कर बुआ ने अपनी बी.ए. तथा एम.ए. पास की थी । अल्पसंख्यक वर्ग के उस कालेज में गैर-धर्मी विद्यार्थियों के रहने की व्यवस्था तो हॉस्टल में उपलब्ध थी किन्तु अध्यापिकाओं के लिए अल्पसंख्यक उसी वर्ग से होना अनिवार्य था ।   ऐसे में बुआ को अब रोज़ाना हमारे गाँव, बारह मील कस्बापुर से बारह मील की दूरी पर होने के कारण हमारे गाँव ने अनूठा वही नाम पाया था ।………..यही से कालेज के लिए निकलना होता था । एक दिन यदि परिवार की जीप की अगली सीट पर बैठ कर मेरे पिता के संग जाती तो दूसरे तीसरे दिन मेरे चाचा की मोटर-साइकिल के पीछे बैठ कर । ताऊ अपने पोलिए-ग्रस्त पैर के कारण न जीप चलाते और न ही मोटर-साइकिल ।   उन दिनों लड़कियों में साइकिल और लड़कों में मोटरसाइकिल का चलन तो आम था किन्तु स्कूटर का बिल्कुल नहीं ।  सच पूछें तो बूआ का वह वेस्पा हमारे गाँव बारह मील, का पहला स्कूटर था । बल्कि हमारे क्षेत्र में उसे लोकप्रियता प्राप्त करने में पाँच-छः साल तो और लगे ही लगे थे । एक दूसरी इतालवी कम्पनी ने भी लम्ब्रेटा नाम का अपना नया स्कूटर उसी सन् 1957 में बेशक बाज़ार में उतार दिया था किन्तु सन् 1956 का बना हुआ बुआ वाला वेस्पा 150 अभी भी उसे अच्छी प्रतिस्पर्धा देने में सफल हो रहा था ।    हम तीनों चचेरी उसे दिन में लाख बार देखतीं-जोखतीं और जानतीं-समझतीं । और यह भी अब स्वाभाविक था, बुआ का ततैया गाँव भर में चर्चा का विषय बन गया था । महिलाएं यदि कम ऊँचाई पर बनी उस गद्दी और पिछले अलग आसन की बात करतीं तो पुरूष उसके इंजन और पार्सल कम्पार्टमेन्ट के स्थल की । स्टील के एक ही यूनिफाइड दांये में बना वह वाहन अपने सवार को साइकिल और मोटर साइकिल से ज्यादा रक्षा व सुविधा उपलब्ध करा रहा था और उन दो की भांति यहाँ सवार को अपनी गद्दी के ऊपर टाँगे फैला कर नहीं बैठना पड़ता था । पैर रखने के लिए सवार के पास यहाँ सपाट समतल चौड़ा पटरा था, इंजन सीट के नीचे स्थित था, और आधाड़ी हवा रोकने के लिए कवच-नुमा फ़ेयरिंग भी ज़बरदस्त थी ।    मगर जो नज़र लग गयी । इधर मेरी माँ, मेरी ताई और हम चचेरी बहनों के लिए वह स्कूटर अभी साहस-कर्म तथा अपूर्व अनुभव का उपकरण बना ही था और बुआ की पिछली सीट पर बारी-बारी से शहर घूमने का हमारा रोमान्च पुराना भी न पड़ा था, कि नृशंस व अमानवीय यह दुर्घटना उधर घट गयी । ’’मंगला अभी तक घर नहीं पहुँची?’’ बाबा ने उस दिन अपनी मेंटलपीस घड़ी छठी बार उठा कर देखी थी ।   घड़ी की सूइयां अढ़ाई बजाने जा रही थीं । बुआ को अगर पहले कभी देर हुई भी थी तो हद से हद पौने दो से सवा दो बज गए थे । मगर इस तरह अढ़ाई तो कभी नही बजे थे। ’’विनोद,’’ बाबा अपने कमरे में दालान में चले आए थे । और चाचा को आवाज़ लगाये थे ।  बाबा अच्छे उपन्यासकार … Read more

गईया-मईया- पी. शंभू सिंह जी की कहानी

गईया मैया

  गाय    की तुलना अक्सर स्त्री से की जाती है | साम्यता भी तो कितनी है दोनों में गईया हो या स्त्री ..  जिस खूँटे से बाँध दी जाती है आजन्म उसी से बँधी    रहती है | चाहे सूखा घास -फूस ही खाने को मिलता रहे पर पूरे घर की सेवा करने में जी जान से करती रहती हैं |  पर पितृसत्ता दोनों का ही दोहन करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ती | वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय शंभू पी सिंह जी भी अपनी कहानी में गईया मैया और स्त्री के एक ऐसे दर्द की तुलना करते हैं ..अपनी प्रकृति में भिन्न होते हुए भी जिनमें साम्य  है, वो है एक माँ का दर्द |पितृसत्ता अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए जहँ गईया से बछिया चाहती है वहीं स्त्री से पुत्र | और अनचाही संतान का एक ही हश्र , चाहें वो जन्म से पहले हो या बाद में |  पढ़ते हैं .. दो माओं के दर्द को एक तन्तु में पिरोती मार्मिक कहानी .. कहानी की समीक्षा यू ट्यूब पर देखें … कथा समीक्षा -गईया मैया गईया मैया  “रामायणी मैं जा रहा हूं खेत पर। आने में लेट होगी, तो गईया को सानी-पानी दे देना। उसका अंतिम महीना चल रहा है, इस बार बाछी हो जाए तो एक और गाय तैयार हो जायगी। अब ये बूढ़ी भी हो गई, समझो अंतिमें बियान है।” रामायणी को हिदायत करते, कंधे पर गमछा रख, गनौरी चला गया खेत पर। रामायणी मुंह में आंचल दबाए चुपचाप सुनती रही। गाय की इतनी चिंता है। दो दिन से कह रही हूं, एक बार डॉक्टर को दिखा दो, लेकिन मेरी बात का कोई असर नहीं। रामायणी ने टेलीविजन पर देखा है, डॉक्टर बोल रही थी कि गर्भ के बाद हर महीने जांच करानी चाहिए, सास उसे लेकर अस्पताल जाती नहीं, अकेले जाने देती नहीं और रोपनी का टाइम है, तो गनौरी को फुर्सत ही नहीं है। कुछ भी हो इस बार वह लिंग जांच तो नहीं करवाएगी। सास के दबाव में आकर तो दो बच्चे की हत्या कर चुकी है। इस बार जो भी हो, उसका भी अंतिमें होगा। रामायणी का यह तीसरा महीना चल रहा है। चार बच्चे तो जन चुकी, चारों बेटी। दो जिंदा है, दो को आने ही नहीं दिया। गर्भ में ही पता लग गया। अल्ट्रासाउंड की जांच में, दोनों बार लड़की ही थी। उसे तो कुछ भी नहीं पता, कब, क्या, क्यों किया, ये सब।जिसे आना है उसे आने दे, नहीं तो हमेशा के लिए टांका लगवा दे। अब बार-बार की जांच-पड़ताल। कहीं लड़की निकल गई तो दवा देकर अंदर ही मार देना कोई अच्छी बात थोड़े ही न है। मर कर बची थी रामायणी पिछले साल। इतना खून निकला कि लगता था अब दम ही निकल जाएगा। गनीमत ये हुई बड़े भैया आ गए। स्थिति देख तुरत एम्बुलेंस मंगाया गया और शहर के अस्पताल में भर्ती करा दिए, तो जान बची। मरद तो कुछ सुनता ही नहीं। बस रात में शरीर नोचने आ जाता है। उसकी किस्मत खोटी थी कि इस घर ब्याही गई। भैया चाहते तो किसी नौकरी वाले घर भी भेज सकते थे। पिता जिंदा होते तो यहां कभी नहीं ब्याहते। कितना प्यार करते थे। रोज बाबूजी को रामायण की चौपाई पढ़ते सुनाती थी। पांच साल की उम्र में ही वह रामायण की चौपाई पढ़ने लग गई थी। तभी उन्होंने मेरा नाम रामायणी रख दिया। जहां भी जाते मुझे साथ ले जाते। लोगों को बैठाकर चौपाई सुनवाते थे। गर्व करते थे मुझपर। भैया तो सात साल बड़े हैं। पिता जैसा सम्मान देती रही है। भैया तो चाहते भी थे कि थोड़ा अधिक दहेज दे देने से नौकरी वाला लड़का मिल जाएगा, लेकिन भाभी ने एक न सुनी। बस एक ही रट लगाती रही, तीन बहन है तेरी। एक का ब्याह नौकरी वाले के घर करोगे, तो बाकी का भी सोच लो। अकेले कमाने वाले, सात खाने वाले हैं। एक अदना क्लर्क की नौकरी से क्या कर सकते हो। जो भी करो सोच समझकर करो। बाबूजी के गुजरने से पहले भाई की नौकरी हो गई थी। खेती-पथारी से तो साल भर खाने का अनाज भी नहीं हो पाता था। भाभी भैया को हमेशा घर की बाकी जिम्मेदारियों का एहसास कराती रहती। कुछ नहीं तो अपने बच्चों के भविष्य संवारने की बात करना नहीं भूलती। यह सुन भैया चुप हो जाते। रामायणी किसी को दोष नहीं देती। सब किस्मत की बात है। जिसकी किस्मत जहां ले जाय, जाना ही पड़ेगा। आ गई इस घर में। साथ में भैया ने एक कर्यकी बाछी भी लगा दिया। आज वही कर्यकी बाछी, गाय बन गई है। इस घर में रामायणी और कर्यकी की हालत एक जैसी है। कर्यकी ने भी पिछले छह साल में चार बच्चा दे चुकी है। दुधारू गाय है। साल में नौ महीने दूध देती है। गाभिन होने के अंतिम तीन महीना ही दम मारती है। उसकी भी किस्मत रामायणी जैसी ही है। उसके चार बच्चों में पहली ही बाछी हुई, बाद का तीनों बाछा हुआ। दो को तो एक साल बाद ही कसाई के हवाले कर दिया। तीसरे को भी हटाने की तैयारी हो रही है। पता नहीं उतने छोटे बछड़े का कसाई क्या करता है। बछड़े के जन्म को लेकर भी रामायणी को ही सास का उलाहना सुननी पड़ती है। हर बात पर एक ही रट लगाए रहती है, जैसी कुलछिन अपने है, वैसी ही अपने साथ बाछी भी लेकर आई। अपने खाली बेटिये जनती है, तो नैहर से लाई बछिया खाली बछड़ा ही बियाती है। बाछी होती, तो एक साल के अंदर गाय बन जाती। इतनी दुधारू गाय है कि पचास हजार से कम में नहीं बिकती। बाछा तो अब किसी काम का रहा नहीं। हल से खेत जोतने का समय बीत गया। पहले हल और गाड़ी में बैल की जरूरत होती थी, तो लोग बछड़ा को पालते थे। अब खेत की जोताई ट्रैक्टर से होने लगी और बैलगाड़ी की जगह मोटर गाड़ी ने ले ली, तो भला अब बैल को कोई क्यों खरीदेगा। जब तक गईया दूध देती है, तभी तक बछड़ा दिखता है। जैसे ही उसकी कर्यकी गाय गाभिन होती है,  बेचारा बछड़ा कसाई के हवाले कर दिया जाता है। पिछ्ली बार भी तो … Read more

मम्मा हमको ब्वाय बना दो

मम्मा हमको बॉय बना दो

मासूम  प्यारी सी बच्ची  जिसको दखकर मन स्वत: ही स्नेह से भर जाता है | जरा उसकी दर्द भरी  गुहार को सुनिए |तब  स्त्री और पुरुष  की बराबरी की बातें बेमानी हो जाती हैं |  बेमानी हो जाती है ये बात कि शिक्षा और कैरियर में स्त्री पुरुष का संघर्ष बराबर है जब उन्हें घर के बाहर ही नहीं अंदर भी खतरा हो | कब मासूम बच्ची इस खतरे को समझती है और अपनी माँ से कहती है “मम्मा  मुझको भी बॉय बना दो ” |सौरभ दीक्षित मानस जी की एक मार्मिक कविता .. मम्मा हमको ब्वाय बना दो मम्मा हमको ब्वाय बना दो अब बाहर डर लगता है। छोटे बच्चों के संग भी दुष्कर्म हो सकता है।। सबसे पहले आप कटा दो, काले लंबे बाल घने। ये ही सबसे बड़ी मुसीबत, ये जी का जंजाल बने।। भइया अंकल दादा जैसे, गंदी हरक़त करते हैं, सुनती हो ना, अखबारों में ये ही सब तो छपता है। मम्मा हमको ब्वाय बना दो अब बाहर डर लगता है। जैसे जैसे बड़ी हो रही सबको चिंता होती जाती। क्या होगा स्कूल में मेरे किस रास्ते से मैं हूँ आती।। अंकल बाहर बोल रहे थे अब बकरी भी नहीं सुरक्षित, मार जिसे खाते थे पहले उसकी इज्ज़त आज लूटी है। मूक यहां सरकार बनी है क्या कौन यहाँ कर सकता है। मम्मा हमको ब्वाय बना दो अब बाहर डर लगता है। तुम मेरी बेटी कह लेती हो, वो बेटी अब किसे बताये? जिनके घर में रहती हो वो, रक्षक भी भक्षक बन जाये। खेल खिलौने की आयु में उसके तन को नोच रहे। वो भी होंगे बाप किसी के तनिक न ऐसा सोच रहे।। टीवी चैनल में दिखता है अखबारों में छपता है आ बेटी मैं ब्वाय बना दूँ अब बाहर डर लगता है। …….#मानस यह भी पढ़ें .. मै भी गाऊँ सांग प्रभु ऐ, सुनो ! मैं तुम्हारी तरह 6 साल के बच्चे का अपने सैनिक पिता को फोन….. आज के साहित्यकार आपको कविता “मम्मा हमको बॉय बना दो” कैसी लगी ? अपनी राय से हमें अवश्य अवगत कराएँ | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन का  फेसबुक पेज लाइक करें | ReplyForward