पहचान

                                                                 
                                                          
                                            मेरा इस शहर में नया -नया तबादला हुआ था । जिससे दोस्ती करता सब दीनानाथ जी के बारे में कुछ न कुछ बताते । दीनानाथ जी हमारे ही दफ्तर के दूसरे विभाग में काम करते थे । वे क्लर्क थे , पर हर कोई उनकी तारीफ करता था …….. क्या आदमी हैं ……… कहाँ -कहाँ तक उनकी पहुँच है , हर विभाग के अफसर के घर चाय -पानी है ।
एक दिन एक मित्र ने मुझसे यहाँ तक कह दिया कि अगर कोई काम अटके तो दीनानाथ जी से मिल लेना ,चुटकियों में काम हो जाएगा । पर मैंने सोचा मुझे क्या करना है ? दो रोटी खानी हैं और अपनी फकीरी में मस्त ! बच्चों के साथ खेलूं या दीनानाथ से मिलूँ ।
पर विधि का विधान , मेरी एक फाइल फंस ही गई । मैं लोगों के कहने पर उनके घर गया । दीनानाथ जी सोफे पर लेटे थे । स्थूलकाय शरीर, तोंद कमीज की बटन तोड़ कर बाहर आने की कोशिश कर रही थी । पान से सने दांत और बड़ी -बड़ी मूंछें जो उनके व्यक्तित्व को और भी रौबीला बना रही थीं । मैंने जाकर पाँव छुए (सबने पहले ही बता दिया था कि उन्हें पाँव छुआना पसंद है ), वे उठ बैठे ।
मैंने अपनी समस्या बताई। ” बस इतनी सी बात ” वे हंस पड़े ,ये तो मेरी आँख की पुतली के इशारे से हो जाएगा । उन्होंने कहा ” अब क्या बताएं मिश्राजी ,यहाँ का पत्ता-पत्ता मेरा परिचित है ।सब मेरे इशारे पर काम करते हैं !
उन्होंने अपने परिचय सुनाने शुरू किये ,फलाना अफसर बुआ का बेटा ,वो जीएम् … उसकी पोस्टिंग तो मैंने करायी  है । दरअसल उसका अफसर मेरे साले के बहनोई का पडोसी है ।
मैं सुनता जा रहा था ,वो बोलते जा रहे थे । कोई लंगोटिया यार ,कोई कॉलेज का मित्र कोई रिश्तेदार ,और नहीं तो कोई मित्र के मित्र का पहचान वाला । मैं चमत्कृत था, इतना पावरफुल आदमी !! मुझे तो जैसे देव पुरुष मिल गए ! मेरा काम तो हुआ पक्का !!
मैं उनके साथ साहब से मिलने चल पड़ा । साथ में चल रहे थे उनके पहचान के किस्से !वो बताते जा रहे थे और साथ में जगह -जगह पर पान की पीक थूक रहे थे । मुझे उन्हें थूकते हुए देख कर ऐसा लग रहा था जैसे कोई बड़ा अधिकारी किसी फाइल पर अपनी मोहर लगा रहा हो । सारा रास्ता उनकी मोहरों से रंग गया ।मैं मन ही मन सोच रहा था कि कितने त्यागी पुरुष हैं, इतनी पहचान होने पर भी साधारण जीवन व्यतीत कर रहे हैं ।इन्हे तो संसद में होना चाहिए !!
सर्दी के दिन थे । सामने चाय की छोटी सी रेहड़ी थी ।मैने चाय पीने की ईक्षा  ज़ाहिर की । वे अनमने से हो गए । पर मैं क्या करता ? उंगलियाँ अकड़ी जा रही थीं । इसलिए उनसे क्षमा -याचना करते हुए एक चाय का आर्डर दे दिया । दीनानाथ जी मुँह  फेर कर खड़े हो गए।
वृद्ध चाय वाले ने मुझे चाय दी । मैंने चाय पीते हुए दीनानाथ जी को आवाज दी ।
बूढा चाय वाला बोला- उसे मत बुलाओ ,वो नहीं आएगा ।वो मेरा बेटा है । वो अब बड़ी पहचान वाला हो गया है । अब अपने बूढे बाप को भी नहीं पहचानता ।
चाय मेरे गले में अटक गई ।दूसरों से पहचान बढ़ाने के चक्कर में अपनी पहचान से इनकार करने वाले दीनानाथ जी अचानक मुझे बहुत छोटे लगने लगे ।
                              वंदना बाजपेयी