महानगरों में रहने वालों की त्रासदी – कंक्रीट के जंगल में ,छोटे – छोटे फ्लैट्स में गुजर बसर करना .यह कहानी ऐसी ही एक महानगरीय सभ्यता को व्याख्यायित करती है .रोजमर्रा की भाग – दौड़ के बीच अपने और अपनों के लिए समय निकाल पाना महानगरों में रहने वाले हर व्यक्ति के लिए मुश्किलों से भरा काम होता है .पर ,बचपन के संस्कार और कुछ अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण आधुनिकता का चोला पहन उन रीति – रिवाजों के प्रति ये भी अत्यंत सचेत होते हैं जिनका औचित्य वे भले ही जानते – समझते न हों . अपने पूर्वजों के प्रति जुड़े रहने की गारंटी देने के लिए ऎसी ही एक परम्परा को निभाने की बात को लेकर एक मुहल्ले के सभी नागारिकों की मीटिंग चल रही थी .मुद्दा था – पितृ –पक्ष में घर की छत पर कौवों का न मिलना .जाहीर सी बात है पम्परा के अनुसार अगर श्राद्ध के अन्न को कौवे ने नहीं खाया तो श्राद्ध मान्य नहीं होगा .पर ,इस कंक्रीट के जंगल को कौवों ने अपने अनुकूल न जान अब लगभग त्याग ही दिया था .
लोगों की चिंता धीरे – धीरे बहस का रूप लेती जा रही थी कि एक सज्जन ने सुझाया –‘क्यों न हम मुहल्ले से थोड़ा हटकर बने पार्क में श्राद्ध के लिए जाएँ ? मुहल्ले के पार्क में तो यह संभव नहीं क्योंकि वहाँ कई महंगे पेड़ और करीने से सजा – धजा लॉन है जहाँ हमारे बच्चे खेलते हैं या हम कभी वहाँ घूमने ही चले जाते हैं .अत: वहाँ गंदगी फैलाना उचित नहीं ‘ दूसरे ने उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा – ‘ बिलकुल सही कह रहे हैं आप मुहल्ले के बाहर वाला पार्क ही ठीक रहेगा .वहाँ बेतरतीब पेड़ – पौधे भी खूब हैं और आसपास झुग्गियां ही हैं तो कौवे तो मिलेंगे ही गंदगी फैले या न फैले इस बात से भी कोई फर्क नहीं पडेगा ‘ इस बात से हर किसी ने सहमती जताई .नतीजतन ,फैसला हुआ कि कमीटी द्वारा अगले दो दिनों के अन्दर पितृ –पक्ष शुरू होते से पहले पार्क के एक छोटे से हिस्से की साफ़ – सफाई करा दी जाए ताकि लोग अपनी सुविधानुसार या श्राद्ध की तिथि के अनुसार वहाँ जाकर कौवों को अन्न खिला पितरों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन कर सकें ..
उस पार्क के पास बड़ी संख्या में झुग्गियाँ थीं .सब की सब अवैध रूप से बनी हुई उस में रहने वाले सभी या तो ऑटो चालक थे या ठेले पर फल – सब्जी बेचने वाले या फिर ऐसे ही कोई छोटा – मोटा रोजगार करने वाले .कुछ मजदूर – वर्ग के लोग भी यहाँ झुग्गी बना रहते थे .कई बार सत्ता की और से उन झुग्गियों को हटाने की कोशिश हुई पर हमेश विपक्ष की और से ऐसा बखेड़ा खडा कर दिया जाता कि सत्ता पक्ष चुप हो जाता और शहर के बीचो – बीच गगनचुम्बी इमारतों को चिढाती वे झुग्गियाँ पूरी शान से सर उठाये खडी थीं .आसपास के लोगों को उन झुग्गियों से कुछ ख़ास शिकायत नहीं थी क्योंकि वहाँ की महिलायें उन के घरों के काम करती थीं .अत: यह सभी भली – भांती जानते थे कि अगर यह झुगी – बस्ती यहाँ से हट गई तो कामवालियों का अकाल पड जाएगा .इस तरह परस्पर समन्वय और सहजीवन की प्रतीक ये झुग्गियां निश्चिन्त थीं .इन्हीं झुग्गियों में एक झुग्गी बस अभी – अभी बनी ही थी . रमेश ,उस की पत्नी और एक पाँच वर्ष का उनका बेटा – अभी कुछ दिनों पूर्व ही गाँव से आ कर रोजगार की तलाश में यहाँ बस गए थे .रमेश झुगी से कुछ किलोमीटर की दूरी पर बन रहे एक विशाल शौपिंग – माँल में मजदूरी करने लगा था और उसकी पत्नी अंजू अन्य महिलाओं की तरह एक घर में चौका – बर्तन ,साफ़ – सफाई आदि .करने लगी थी .बेटा गोकुल – जब तक माँ दूसरे घरों के काम निबटाती पास – पड़ोस के बच्चों के साथ खेलता रहता .उस की झुग्गी पार्क से बिलकुल सटी हुई थी .अत: वह अक्सर पार्क में बेतरतीब उगे वृक्षों पर भी चढने की कोशिश करता .इस क्रम में कई बार गिरा भी और माँ से इस के लिए डांट भी खूब सुनी लेकिन वह कभी अपनी इस आदत से बाज न आता था .
ऎसी ही दिनचर्या के साथ एक सुबह गोकुल अपनी झुग्गी के पास बैठा हुआ था .अभी पास – पड़ोस के बच्चे खेलने आये नहीं थे .तभी उसकी आँखें गहरे आश्चर्य से फ़ैल गईं .उस के पास ही कुछ दूरी पर एक बड़ी सी चमचमाती कार आकर हच से रुकी और वह कुछ समझ पाता इस से पहले ही उस कार से एक भारी – भरकम डील – डौल वाले रेशमी कुरते – पायजामे में सजे – धजे एक सज्जन निकले .उन के एक हाथ में एक बड़ा सा कई खानों वाला टीफिन था तथा दूसरे में एक प्लास्टिक की थैली में कुछ सामान .महानगरीय सभ्यता का आदी हुआ जा रहा गोकुल न तो बड़ी गाड़ी से आश्चर्यचकित था और न ही उन सज्जन के पहनावे से .उस के आश्चर्य का कारण था सज्जन का गाड़ी में बैठ कर वहाँ पार्क तक आना .बालक – मन कौतुहल से भर उठा .उसे वह सज्जन रहस्यों से भरे लगे .खासकर उन के हाथ में टंगा वह टीफिन .वह अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए उन सज्जन के पीछे – पीछे पार्क में पहुँच गया .सज्जन ने पार्क की थोड़ी सी साफ़ जगह पर टीफिन रख अभी प्लास्टीक की थैली को खोलने का उपक्रम ही किया था कि उन की नजर पास खड़े गोकुल पर पद गई .गंदे कपडे में लिपटे बच्चे को अपनी और उत्कंठा से देखते हुए देख उन्हों ने उसे जोर से डांटते हुए कहा – ‘ अबे ,चल भाग यहाँ से .खडा – खडा क्या देख रहा है ‘ फटकार सुन गोकुल डर से न चाहते हुए भी उन सज्जन की नज़रों से ओझल होने के लिए पास की झाड़ी के पीछे चला गया और वहीं से उन्हें देखने लगा .
सज्जन ने कागज़ के बने चमकीले प्लेट्स निकाले तथा टिफीन खोल उस में एक – एक कर खीर ,पूड़ी और सब्जी रखने लगे .इतना बढ़िया खाना देख गोकुल के मुँह में पानी आ गया .उस पर सब्जी से उठती गरम मसाले की सुगन्ध से उस का अपने पर से नियंत्रण हटा जा रहा था .लेकिन सज्जन की डांट को याद कर वह दम साधे चुपचाप वहीं खडा रहा . कुछ देर में जब सज्जन ने पूरी थाली सजा ली तो खड़े हो कर आसमान की और देखने लगे .मिनट – दो मिनट के बाद उनहोंने जोर – जोर से बोलना शुरू किया – ‘ कोबस कोबस …………’ और लगातार आसमान की और देखते ही रहे .करीब पन्द्रह – बीस मिनटों के बाद एक कौवा उड़ता हुआ वहाँ आया .सज्जन कौवे को देख खिल गए और हाथ जोड़ कर उसे प्रणाम कर दो कदम पीछे हट गए .कौवा थोड़ी देर तक खाने के ऊपर मंडराता रहा .फिर थाली के पास बैठ कर उस ने खीर का एक दाना चोंच में उठा लिया .कौवे को ऐसा करते देख सज्जन धन्य हो गए और धीरे से बोले ‘अब चलता हूँ ,वैसे ही काफी देर हो चुकी है ‘ .फिर ,लम्बे – लम्बे डग भरते हुए वहाँ से चले गए .
गोकुल ,जब सज्जन के चले जाने की बात से आश्वस्त हो गया तो जल्दी से झाड़ी से बाहर निकल कौवे को भगा थाली के पास वहीं बैठ जल्दी – जल्दी खीर – पूड़ी और सब्जी खाने लगा .इतना स्वादिष्ट खाना उस के अल्प जीवन में उसे पहली बार नसीब हुआ था .अत: कागज की उस थाली को उँगलियों की सहायता से अच्छी तरह चाट – पोछ कर साफ़ कर ,पास में रखे प्लास्टिक के ग्लास का पानी गट- गट पी डकार लेते हुए वहाँ से उठ अपनी झुग्गी के पास जा प्रसन्न मन बैठ गया .अभी उसे बैठे कुछ ही समय हुआ था कि एक और सज्जन लक – दक लिबास और बड़ी सी टीफिन के साथ आये .इस बार गोकुल निश्चिन्त बैठा रहा .उस की बालक – बुद्धि ने उसे उन सज्जन का सच बता दिया था . ‘कोबस – कोबस ‘की आवाज जैसे ही गोकुल के कानों में पड़ी वह खिलखिला उठा .पर ,इस बार उस ने थोड़ी समझदारी का परिचय दिया और घर के अन्दर जा एक थाली ला उन सज्जन के जाने की प्रतीक्षा करने लगा .ये सज्जन कुछ जल्दी ही पार्क से निकल गाड़ी स्टार्ट कर रवाना हो गए .गोकुल तेज – तेज चलता हुआ पार्क के अन्दर गया और थाली की सारी खाद्य – सामग्री अपनी थाली में डाल वापस आ प्यार से उसे घर में रख खुशी – खुशी खेलने चला गया . आज उस ने एक नया शब्द सीखा था ‘कोबस – कोबस ‘ .इस शब्द से उसे लगाव भी हो गया था क्योंकि इस शब्द के प्रभाव से उसे आज दो बार उत्तम खाने की थाल मिली थी ..अत: वह लगातार कोबस – कोबस बोलता जा रहा था .
जब दोस्तों ने उस से इस शब्द का माने पूछा तो हँसते हुए चतुराई से उस ने बताया – ‘यह एक जादू का शब्द है जिस से खूब सारा बढ़िया खाना मिल जाता है ‘सुन कर सारे बच्चे ‘कोबस – कोबस ‘कह खेलने लगे .बिना यह जाने कि यह शब्द ‘काग भक्ष’ का अपभ्रंश रूप है ;जो पितृ – पक्ष में कौआ रूपी पितरों या पितरों के प्रतिनिधि रूप कॉए को बुलाने के लिए प्रयुक्त होता है . पूरे पितृ – पक्ष गोकुल की मौज रही .रोजाना माँ के काम से आने से पहले वह खीर ,पूड़ी और सब्जी खा तृप्त हो जाता .माँ खाने को कहती तो बहाने बना देता .माता – पिता दोनों पुत्र के इस नहीं खाने से दुखी रहने लगे .माँ ने पास के किसी ओझा के पास ले जाने का निर्णय लिया और एक दिन गोकुल के हर विरोध के बाद भी माता – पिता शाम में उसे ओझा के पास ले गए .ओझा अपनी तरह से उपचार करता रहा और गोकुल पूरे समय हँसता रहा .अंतत: ओझा ने एक काले कपडे में कुछ बाँध कर दिया और उसे गोकुल को पहनाने की हिदायत दे उन से अपने पैसे बनाए ,अंजू ने पूरी मुस्तैदी से ओझा की बातों का पालन किया .लेकिन जब दो – तीन दिन वैसे ही बीत गए औए गोकुल के रवैये में कोई परिवर्तन नहीं हुआ तो पिता रमेश अपने साथ काम करने वाले मजदूरों से इस समस्या के समाधान हेतु विचार – विमर्श करने लगा .ऐसे ही एक विचार के बीच उसे पता चला कि पास के बड़े मस्जिद के मौलवी साहब पानी फूंक कर ऐसा देते हैं कि किसी भी तरह की रोग – व्याधी हो या किसी साए का प्रकोप ,सब ठीक हो जाता है .फिर क्या था ,गोकुल को लेकर अंजू और रमेश मौलवी साहब के पास भी गए
.मौलवी साहब का दिया पानी पिलाया और पूरी श्रद्धा से उनका दिया ताबीज भी बाँध दिया .इत्तेफाक की बात इस के दो दिनों बाद ही पितृ – पक्ष समाप्त हो गया और गोकुल अब पहले की तरह घर का खाना खाने लगा .लिहाजा मौलवी साहब को उसके ठीक करने का यश मिल गया .. समय अपनी चाल से चलता गया और रमेश तथा अंजू की आमदनी के साथ – साथ उनकी बुद्धि भी बढी .सो ,गोकुल का नामांकन पास के एक सरकारी स्कूल में करवा दिया गया .गोकुल एक जहीन विद्यार्थी के तौर पर उभरा .पूरे साल वह नियम से बिना नागा स्कूल जाता और क्लास के हर टेस्ट में अव्वल आता .पर ,पितृ – पक्ष के आते ही पंद्रह दिनों के लिए उस के व्यवहार में अचानक परिवर्तन आ जाता .मौलवी साहब के गंडे – ताबीज भी अब बेअसर होने लगे थे .माता – पिता ने उन पंद्रह दिनों से हार मान ली थी और पुत्र को उस के हाल पर छोड़ दिया .. उधर ,बच्चों की टोली में इन तीन वर्षों में एक नए खेल का आविष्कार हो चुका था .खेल का नाम था – ‘कोबस – कोबस ‘—इस खेल में एक गोल घेरे के अन्दर एक बॉल रख दी जाती .फिर एक बच्चा जो कि चोर होता उस बॉल के पास खडा हो कोबस – कोबस कह चिल्लाता तो दूसरे सारे बच्चे आकर बॉल उठा भागने की कोशिश करते और वह चोर बच्चा इस बीच उन्हें पकड़ने की चेष्टा करता .इस प्रयास में वह जिस बच्चे को पकड़ लेता उसे चोर की भूमिका में आना पड़ता .इस तरह ,यह कोबस – कोबस खेल झुग्गी के बच्चों का लोकप्रिय खेल बन चुका था .
ऐसे ही एक शाम गोकुल अपने मित्रों के साथ कोबस – कोबस खेल रहा था तभी उसके पिता के साथ काम करने वाले एक साथी ने आकर उसे बताया कि उसके पिता रमेश एक ऊंची बिल्डिंग पर काम करते हुए नीचे गिर गए हैं .फिलहाल उन्हें पास के एक सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया हैं .माँ काम पर गई थी .अत: यह सुनते ही आठ वर्ष के बालक की बुद्धि ने तुरत निर्णय लिया और वह भागता हुआ जाकर माँ को बुला लाया .सबके साथ अस्पताल जाकर देखा रमेश बुरी तरह से जख्मी हो गया था और बेहोश था .उस के सर में काफी चोट आई थी .डॉक्टर ने कहा – ‘अगर चौबीस घंटों के अन्दर इसे होश आ जाता है तो ठीक है वरना कुछ कह नहीं सकते .’ सुनते ही अंजू गश खाकर वहीं गिर पड़ी और उसी क्षण अचानक आठ वर्ष का गोकुल अपनी उम्र से दस साल और बड़ा हो गया .उस ने लपक कर माँ को सम्भाला .जब तक माँ कुछ स्वस्थ नहीं हुई ,वह वहीं माँ के पास धैर्य से बैठ उस का सर सहलाता रहा .माँ के स्वस्थ होने पर अपने भोले शब्दों से माँ को भविष्य के प्रति आशावान रहने की बात कर धैर्य बंधाता रहा .लेकिन ,होंनी को कौन टाल सकता है दूसरे दिन दोपहर होते – होते रमेश ने दम तोड़ दिया .अंजू पर दुखों के पहाड़ के साथ – साथ अचानक पुत्र की सारी जिम्मेवारी आ गई थी .जी कडा कर उस ने यथा संभव विधी – विधान से रमेश का क्रिया – कर्म संपन्न कराया ..गोकुल लगातार स्कूल जाता रहे इस बात को ध्यान में रख उस ने कई और घरों के काम पकड़ लिए .फिर भी ,अक्सर जरूरतों के हिसाब से पैसे कम पड जाते .अंजू पुत्र की शिक्षा के प्रति दृढ थी अत:: रोज के खान – पान में कटौती कर वह गोकुल की शिक्षा संबंधी जरूरतें पूरा करती .
गोकुल भी अब काफी समझदार हो गया था .वह पूरे मनोयोग से पढाई करता तथा रोज रात माँ के दुखों को कम करने के लिए उस से कहता – ‘देखना माँ मैं पढ़ – लिका कर एक दिन बहुत बड़ा आदमी बनूंगा और तब तुम भी एक बड़ी सी गाड़ी में बैठ घूमा करोगी ‘ अंजू पुत्र की यह बात सुन निहाल हो उसे ह्रदय से लगा लेती और अपनी दिन भर की थकान भूल हँसने लगती .
तब ,गोकुल बड़े प्यार से माँ के चेहरे को निहारता रहता और फिर पूरे ध्यान से अपना पाठ याद करने लगता . माँ – बेटे के साथ संघर्ष का समय ऐसे ही बीतता जा रहा था .एक बार समय – चक्र के अनुरूप फिर पितृ – पक्ष आया .लेकिन ,गोकुल अब मन से बड़ा हो गया था . अब ‘कोबस – कोबस ‘ की आवाज से उस के कदम पार्क की और नहीं जाते वह चुपचाप गंभीर मुद्रा बनाए स्कूल जाता . अब वह साथियों के बहुत आग्रह करने पर भी ‘कोबस – कोबस ‘ नहीं खेलता . माँ मन ही मन खुश थी कि इस बार इस महीने में पुत्र के ऊपर का साया खुद ब खुद हट गया ..इस के साथ उसे एक चिंता भी खाए जा रही थी – चार – पाँच दिनों के बाद पति के श्राद्ध के लिए कहाँ से पैसे आयेंगे .इधर – उधर मिन्नतें कर कुछ पैसों का जुगाड़ हुआ तो था .पर ,वे पर्याप्त नहीं थे .उस ने काफी कोशिशें कीं लेकिन उस से अधिक राशि जुटा नहीं पाई ..अंतत: उसी छोटी सी रकम में ही उस ने यथासंभव पति का श्राद्ध करने का निर्णय लिया .
श्राद्ध वाले दिन अंजू सुबह जल्दी उठ कर खीर ,पूड़ी और सब्जी बनाने लगी तो गोकुल खाने की और लालच भरी नज़रों से देख कुछ पूछना चाह कर भी चुप ही रहा .यह सोच कर –‘कहीं मेरी बातों से माँ को दुःख न पहुंचे ‘ खाना बना अंजू ने बेटे को स्नान कर धुले कपडे पहनने को कहा. जब गोकुल माँ के कहे अनुसार तैयार हो गया तो उसे साथ ले सारा खाना एक थाली में रख और उन में से थोड़ा सा पुत्र के लिए बचा – वह पार्क में पहुंची .खाना रख माँ – बेटे कई मिनटों तक वहाँ खड़े रहे .गोकुल था तो अभी अल्पवय ही सुस्वादु भोजन की थाल सामने देख उसकी आंतें भूख से कुलबुलाने लगीं .वह बड़ी मुश्किल से अपनी भूख और अपने लालच पर संयम रखे हुए चुपचाप माँ के पास खडा रहा क्योंकि माँ ने बताया था कि यह खाना उस के मृत पिता के लिए है जो कौए के रूप में आकर उसे ग्रहण करेंगें .कुछ मिनट और बीत गए खड़े – खड़े .गोकुल का बाल – मन बार – बार माँ की बात को भूल खाने की और ललचाता .खाने से उठती सुगंध उसे व्याकुल किये जा रही थी .
अंजू थोड़े समय के अंतराल पर ‘कोबस –कोबस ‘बोले जा रही थी ..लेकिन एक भी कौआ आसपास नहीं फटक रहा था .गोकुल की बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी .अंतत: जब उस की बेचैनी सीमा पार हो गई तो उस ने विह्वल हो जोर से कहा ‘कोबस – कोबस ‘. उसके इतना कहते ही न जाने कहाँ से एक कौआ मंडराता हुआ काँव-काँव करता आ थाली के पास बैठ उस में से ग्रास ले खाने लगा .अंजू का चेहरा खुशी से खिल उठा और आँखें बरसने लगीं ..कुछ सेकेण्ड वहाँ खड़े रह झुग्गी की और चली गई .घर के दरवाजे पर पहुँच उस ने पुत्र को संबोधित कर कहा – ‘बेटा चलो अब तुम खा लो .मैं ने तुम्हारे लिए थोड़ा सा बचा रखा है ‘ लेकिन ,अपनी बात का कोई जवाब न पा उस ने पीछे मुड़कर देखा तो गोकुल वहाँ न था .वह लगभग भागते हुए पार्क में पहुंची तो सन्न रह गई – गोकुल कौवे की दूसरी ओर बैठा थाली में रखा खाना खाने में व्यस्त थ और कौआ थोड़ी दूर पर चुपचाप बैठा देख रहा था .
यह दृश्य देखते ही अंजू की दोनों आँखों से आँसुओं की अविरल धारा फूट पड़ी .जब थाली का सारा खाना समाप्त हो गया तो गोकुल का ध्यान सामने खडी माँ की ओर गया .देखा ,माँ का चेहरा आँसुओ से भरा है .अपराध – बोध से भर वह उठ माँ से चिपट फफक पडा .माँ ने प्यार से उस के सर पर हाथ फेरते हुए आसमान की ओर देख कहा – ‘तुमरा श्राद्ध तो अब जाकर सही माने में पूरा हुआ गोकुल के बाबू ,है न .’ ऊपर मंडराता कौआ ‘काँव-काँव’ कर उठा .जैसे अंजू की बातों का समर्थन कर रहा हो”
वीणा वत्सल सिंह
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