जब मुझे लगता है कि किसी बात पर अपने तरीके से कुछ कहना चाहिए
तो मेरी लेखनी चल जाती है और कोरे कागज़ पर कविता की सूरत में बदल जाती है।मेरे लिए कविता दुखों से साक्षात्कार और सुखों से अनुभव है।सांसारिक, राजनैतिक, प्राकृतिक और मानसिक संवेदनाओं की अभिव्यक्ति से शब्द पुंज का सृजन करना ही मेरे लिए कविता लिखना है।…. रूचि भल्ला
तो मेरी लेखनी चल जाती है और कोरे कागज़ पर कविता की सूरत में बदल जाती है।मेरे लिए कविता दुखों से साक्षात्कार और सुखों से अनुभव है।सांसारिक, राजनैतिक, प्राकृतिक और मानसिक संवेदनाओं की अभिव्यक्ति से शब्द पुंज का सृजन करना ही मेरे लिए कविता लिखना है।…. रूचि भल्ला
रूचि भल्ला की कवितायेँ
1)
महानगर में
हाईटेक सोसायटी में
11वें माले पर एक मौत हो जाती है
और खबर दिखती है
लिफ़्ट के दरवाज़े पर
लिखे एक नोटिस में
न रोना-धोना
न चीख-चिल्लाहट
राम नाम सत्य की कोई गूँज नहीं
चार कंधों की भी दरकार नहीं
शव-वाहिका चुपचाप आती है
और लाश बिना किसी को डिस्टर्ब किए सोसायटी से बाहर हो जाती है।
हाईटेक सोसायटी में
11वें माले पर एक मौत हो जाती है
और खबर दिखती है
लिफ़्ट के दरवाज़े पर
लिखे एक नोटिस में
न रोना-धोना
न चीख-चिल्लाहट
राम नाम सत्य की कोई गूँज नहीं
चार कंधों की भी दरकार नहीं
शव-वाहिका चुपचाप आती है
और लाश बिना किसी को डिस्टर्ब किए सोसायटी से बाहर हो जाती है।
२.……
आदमी जब तलक जंगल में रहा
आदमी रहा
जंगल से बाहर क्या निकला
उसने खो दी अपनी आदमीयत
और अब वो पहचाना जाता है
सभ्य-शिष्ट समाज में
हिन्दू -मुस्लमां के तौर पर
दूर खड़ा जंगल ये सब देख
कर मुस्कराता है
और इतराने लगता है अपने
जंगली पंछी -जानवरों की
मासूमियत पर
आदमी रहा
जंगल से बाहर क्या निकला
उसने खो दी अपनी आदमीयत
और अब वो पहचाना जाता है
सभ्य-शिष्ट समाज में
हिन्दू -मुस्लमां के तौर पर
दूर खड़ा जंगल ये सब देख
कर मुस्कराता है
और इतराने लगता है अपने
जंगली पंछी -जानवरों की
मासूमियत पर
3)
आई जब मेरी विदा की बेला
मेरी थाली – मेरी कुर्सी को
मैंने सूनी होते हुए देखा
मनी -प्लांट मेरी बेगनवेलिया
को खुद से लिपटते देखा
जाते-जाते जो भाग कर गयी
मिलने गंगा-जमुना से
उन आँखों में उतर आया
एक और दरिया देखा
चौक की गलियां
सिविल लाइन्स की सड़कें
स्कूल का चौराहा मेरा मोहल्ला
सबको मैंने खूब पुकारा
मैं रोती रही बेतरह
कभी माँ के गले लग
कभी सहेलियों के संग
जो मुड़ कर देखा
शहर को दूर तलक
मैंने हाथ हिलाते देखा
मेरी थाली – मेरी कुर्सी को
मैंने सूनी होते हुए देखा
मनी -प्लांट मेरी बेगनवेलिया
को खुद से लिपटते देखा
जाते-जाते जो भाग कर गयी
मिलने गंगा-जमुना से
उन आँखों में उतर आया
एक और दरिया देखा
चौक की गलियां
सिविल लाइन्स की सड़कें
स्कूल का चौराहा मेरा मोहल्ला
सबको मैंने खूब पुकारा
मैं रोती रही बेतरह
कभी माँ के गले लग
कभी सहेलियों के संग
जो मुड़ कर देखा
शहर को दूर तलक
मैंने हाथ हिलाते देखा
4)
कैंसर के साथ हुई लड़ाई के बाद
——————————————–
श्रद्धांजलि में लोग बहुत थे
हाॅल चहल-पहल से भरा हुया
रंग-बिरंगे फूलों से सजा हुया
हर चेहरे पर मुस्कुराहट थी
खास तौर से वो एक चेहरा
अपने फ़ोटो- फ़्रेम में
सबसे ज़्यादा
मुस्कराहट बिखेरता हुया
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श्रद्धांजलि में लोग बहुत थे
हाॅल चहल-पहल से भरा हुया
रंग-बिरंगे फूलों से सजा हुया
हर चेहरे पर मुस्कुराहट थी
खास तौर से वो एक चेहरा
अपने फ़ोटो- फ़्रेम में
सबसे ज़्यादा
मुस्कराहट बिखेरता हुया
पत्नी व्यस्त थी
मिलने-जुलने वालों
के स्वागत में
मिलने-जुलने वालों
के स्वागत में
बच्चे सब से कह रहे थे
मेरे पिता की मृत्यु नहीं हुई
उनका Transition हुया है
मेरे पिता की मृत्यु नहीं हुई
उनका Transition हुया है
हाॅल भी सब देख रहा था
सुन रहा था
और सबसे हाथ जोड़ कर
विनती कर रहा था
मुस्कराते रहिए
ये शोक सभा नहीं है।
सुन रहा था
और सबसे हाथ जोड़ कर
विनती कर रहा था
मुस्कराते रहिए
ये शोक सभा नहीं है।
5)
जीसस
————-
————-
काश !
कि कोई अपना
तुम्हें भी मिल जाता
जो उतारता घड़ी भर को
तुम्हारे कंधे से सलीब
रख देता उतार कर
तुम्हारे सर से
काँटों का ताज
करता तुम्हारे
ज़ख्मों की मरहम-पट्टी
और पूछता प्यार से
तुम्हारा भी हाल
काश !
इतनी बड़ी दुनिया में
कहीं किसी कोने में
मिल जाता तुम्हें
तेरी फ़िक्र में डूबा बैठा
एक अदद आदमी
कि कोई अपना
तुम्हें भी मिल जाता
जो उतारता घड़ी भर को
तुम्हारे कंधे से सलीब
रख देता उतार कर
तुम्हारे सर से
काँटों का ताज
करता तुम्हारे
ज़ख्मों की मरहम-पट्टी
और पूछता प्यार से
तुम्हारा भी हाल
काश !
इतनी बड़ी दुनिया में
कहीं किसी कोने में
मिल जाता तुम्हें
तेरी फ़िक्र में डूबा बैठा
एक अदद आदमी
6)
दीवार पर छिपकली
देखते ही
एक भय हममें उतर आता है
खूब जानते हैं हम
हमें इससे कोई खतरा नहीं
बस घृणा ही है
देखते ही
एक भय हममें उतर आता है
खूब जानते हैं हम
हमें इससे कोई खतरा नहीं
बस घृणा ही है
और इस खातिर
इस निरीह जीव को
मार दिया जाता है
नाहक इसके जीवन का
अंत कर दिया जाता है।
मार दिया जाता है
नाहक इसके जीवन का
अंत कर दिया जाता है।
7)
जब वो आती है सुबह -सवेरे
मुझे दिक्कत होने लगती है
चाय – नाश्ता बनाने में
मुझे दिक्कत होने लगती है
चाय – नाश्ता बनाने में
उसकी निगाह नहीं होती है
गैस के चूल्हे की तरफ़
जूठे बर्तनों में ही उलझी रहती है
गैस के चूल्हे की तरफ़
जूठे बर्तनों में ही उलझी रहती है
पर मैं बचती रहती हूँ
उससे मिलाने में अपनी नज़र
उससे मिलाने में अपनी नज़र
कभी तवे पर अंडा फ्राई करते हुए
परांठे पर घी ………..
दूध में बॉर्नवीटा मिलाते हुए
परांठे पर घी ………..
दूध में बॉर्नवीटा मिलाते हुए
नहीं मिला सकती
उससे नज़र
उससे नज़र
और जल्द से जल्द
निकल आती हूँ रसोई से
उसे नाश्ते की प्लेट थमा कर
निकल आती हूँ रसोई से
उसे नाश्ते की प्लेट थमा कर
8)
उम्र की सीढ़ी
जो नीचे उतरती
तो दौड़ कर
मिल आती अपने बचपन से
खरीदती रंग-बिरंगे पाॅपिन्स
उड़ाती हवा में गुब्बारे
तैराती पानी में कागज़ की नाँव
रटती ज़ोर से पहाड़े
सहेजती काॅपी – किताबें
जाती फ़िर से स्कूल
पहन कर अपनी यूनिफ़ाॅर्म
जो नीचे उतरती
तो दौड़ कर
मिल आती अपने बचपन से
खरीदती रंग-बिरंगे पाॅपिन्स
उड़ाती हवा में गुब्बारे
तैराती पानी में कागज़ की नाँव
रटती ज़ोर से पहाड़े
सहेजती काॅपी – किताबें
जाती फ़िर से स्कूल
पहन कर अपनी यूनिफ़ाॅर्म
9)
फुटपाथ पर सो जाते हैं
थक- हार कर
वे मैले -कुचैले
जो दिन भर
लिए हाथ में कटोरे
दौड़ती-भागती गाड़ियों
के पीछे देते हैं अपनी गूंगी दस्तक
वे हर बार वहीं लाल बत्ती चौराहे पर
मिल जाते हैं
वे पात्र हैं
हमारी नई-पुरानी कवितायों के
हम उन पर लिखते हैं
खूब छपते हैं
और वे
हमें देने के लिए
अनगिनत कवितायें
खुद चौराहे पर खड़े
रह जाते हैं
थक- हार कर
वे मैले -कुचैले
जो दिन भर
लिए हाथ में कटोरे
दौड़ती-भागती गाड़ियों
के पीछे देते हैं अपनी गूंगी दस्तक
वे हर बार वहीं लाल बत्ती चौराहे पर
मिल जाते हैं
वे पात्र हैं
हमारी नई-पुरानी कवितायों के
हम उन पर लिखते हैं
खूब छपते हैं
और वे
हमें देने के लिए
अनगिनत कवितायें
खुद चौराहे पर खड़े
रह जाते हैं
10)
राजपथ को गयी लड़की……
पीपल का पेड़
रहता होगा उदास
तेरे घर की खिड़की को रहती होगी
तेरे आने की आस
छत पर टूट-टूट कर बिखरती होगी
धूप की कनी
जहाँ तुम खेला करती थी नंगे पाँव
चाँद को आती होगी तुम्हारी याद
घर का कोना होगा खाली
तुम्हारे होने के लिए
एक रात मेरी नींद में उतर कर
मेरे राष्ट्राध्यक्ष ने बतलाया
तारकोल का काला – कलूटा राजपथ
रोता रहा कई दिन कई रात
तुम्हें निगलने के बाद
रहता होगा उदास
तेरे घर की खिड़की को रहती होगी
तेरे आने की आस
छत पर टूट-टूट कर बिखरती होगी
धूप की कनी
जहाँ तुम खेला करती थी नंगे पाँव
चाँद को आती होगी तुम्हारी याद
घर का कोना होगा खाली
तुम्हारे होने के लिए
एक रात मेरी नींद में उतर कर
मेरे राष्ट्राध्यक्ष ने बतलाया
तारकोल का काला – कलूटा राजपथ
रोता रहा कई दिन कई रात
तुम्हें निगलने के बाद
– रुचि भल्ला
नाम :रुचि भल्ला
जन्म :25 फरवरी 1972
प्रकाशन: विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित
प्रसारण : इलाहाबाद -पुणे आकाशवाणी से कवितायें प्रसारित
ई. मेल
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