पुरुस्कार

  
 
पुरूस्कार 

सुबह साढ़े ६ बजे का समय
स्नेह रोज पक्षियों के उठने के साथ उठकर पहले बालकनी में जाकर अपने पति विनोद जी
के लिए अखबार लाती है और फिर रसोई में जाकर
  चाय
बनाने लगती है। पति विनोद जी बिस्तर  पर
टाँग पसार कर बैठ जाते हैं और फिर आवाज़ लगाते हैं ……….”नेहुुु नेहुउउ
जरा मेरा चश्मा तो दे दो। स्नेहा आकर बिस्तर के बगल में रखी मेज से चश्मा उठा कर
 दे देती है। विनोद जी चश्मा
  लगा
कर मुस्कुराते हुए कहते हैं”जानती हो नेहू चश्मे के लिए बुलाना तो बहाना था
मैं तो सुबह -सुबह सबसे पहले अपनी लकी चार्म अपनी नेहू
  का
चेहरा देखना चाहता था अजी पिछले २५ वर्षों से आदत जो है। स्नेहा मुस्कुराकर अपने
स्वेत -श्याम बालों को सँवारते हुए रसोई में चली जाती है। ५५ वर्षीय विनोद जी
अखबार पढ़ने लगते हैं और स्नेह चाय बनाने लगती है। अरे नेहू !सुनती हो तुम्हारी
प्रिय लेखिका” कात्यायनी जी “को उनकी कृति “जीवन” पर साहित्य अकादमी  का  पुरूस्कार मिला है। …. विनोद जी
अखबार पढ़ते हुए जोर से चिल्लाकर कहते हैं। खबर सुनते ही स्नेहा के हाथ से चाय का
प्याला छूट जाता है। चटाक की आवाज़ के साथ प्याला टूट जाता है चाय पूरी रसोई में
फ़ैल जाती है। आवाज़ सुनकर विनोद जी रसोई में आते हैं वहां अवाक सी खड़ी स्नेहा को
देखकर पहले चौंकते हैं फिर मुस्कुरा कर कहते हैं “भाई फैन हो तो हमारी नेहू
जैसा “सारा घर तो कात्यायनी जी के कथा संग्रहों उपन्यासों से तो भरा हुआ है
ही और उनके साहित्य अकादमी पुरूस्कार की बात सुन कर दिल तो दिल कप संभालना
  भी
मुश्किल हो गया है “

       
                     
         
नेहू तुम चिंता ना करो
इस बार मैं साहित्य अकादमी के पुरूस्कार समरोह में जरूर तुम्हारे साथ जाऊँगा। भाई
मैं भी तो देखू हमारी नेहू की कात्यायनी जी लगती कैसी हैं विनोद जी ने चुटकी ली
.अच्छा तुम ऐसा करो ये साफ़ करके दूसरी चाय बना लो तब तक मैं “मॉर्निंग वाक
“करके आता हूँ कहकर विनोद जी घर के बाहर निकल गए। स्नेहा कप के टुकड़े बीन कर
जमीन में फ़ैली चाय के धब्बे मिटाने लगी। आज अचानक उसके सामने उसका अतीत आ कर खड़ा हो
गया। माँ -बाप की चौथी
  संतान स्नेहा जिसका बचपन मध्यमवर्गीय था पर माँ
-बाप और चारों बहनों का आपसी  प्यार अभावों को अंगूठा दिखा ख़ुशी -ख़ुशी जीवन
को नए आयाम दे  रहा था।
       
                     
     
स्नेहा सबसे छोटी वाचाल नटखट सबकी लाड़ली थी।
देखने में सामान्य पर ज्ञान में बहुत आगे। स्कूल से लेकर कॉलेज तक उसकी पढाई वाद
-विवाद गायन नाटक मंचन आदि के चर्चे रहते थे। कुल मिला कर उसे “जैक ऑफ़ आल
ट्रेड्स “कह सकते हैं। प्रशंशा व् वाहवाही लूटना उसकी आदत थी। छोटा सा घर घर
में एक से एक चार
  प्रतिभाशाली बहनें घर की
हालत ये कि जाड़ों में जब दीवान से कपडे बाहर निकालकर अलमारियों
  में
जगह बना लेते  तो अलमारियों में रखी लड़कियों की किताबें निकल कर जाड़े भर के
लिए बंद करी गयी फ्रिज में अपनी जगह बना लेटी। सब खुश बहुत खुश। माता -पिता को
अपने बच्चों पर गर्व तो बच्चों की आँखों में कल के सपने। अभावों में ख़ुशी बाँटना
जैसे माँ ने उन्हें दूध के साथ पिलाया हो। जैसे सूर्य का प्रकाश छिपता
  नहीं
है वैसे ही इन बहनों की प्रतिभा के किस्से मशहूर
  हो
गए। पिता जी भी कहाँ चूकने वाले थे। इसी प्रतिभा के दम
  पर
उन्होंने तीन लड़कियों की शादी एक से एक अच्छे घर में कर दी। एक बहन शादी के बाद
 अमेरिका
चली गयी और दो कनाडा। रह गयी तो बस छुटकी स्नेहा। उसके लिए वर की खोज जोर -शोर से
जारी थी। तभी अचानक वो दुर्भाग्यपूर्ण दिन भी आ गया। जब स्नेहा के पिता लड़का देख
कर घर लौट रहे थे एक तेज रफ़्तार ट्रक नें उनकी जान ले ली। जिस घर में डोली सजनी
चाइये थी वहां अर्थी सजी सारा माहौल ग़मगीन था। माँ ,माँ का तो रो रो कर बुरा हाल
था उनकी तो दुनियाँ
  ही पिताजी तक सीमित थी। अब वह क्या करेंगी ?
     मातम
के दिन तो कट गए पर जिंदगी का सूनापन नहीं गया। माँ मामा पर आश्रित हो गयी। अकेली जवान
लड़की को लेकर कैसे रहती। माँ के साथ स्नेहां  भी मामा के घर में रहने लगी। उस समय जब उन्हें
अपनेपन की सबसे ज्यादा जरूरत थी उस समय मिले तानों और अपमान के दौर को याद करके
उसका शरीर
  आज भी सिहर उठता है. तभी
एक और हादसा हुआ मामा की बेटी तुलसी दीदी का देहांत हो गया। तुलसी दीदी की एक पांच
वर्ष की बेटी थी उसका क्या होगा ये सोचकर मामा ने उससे दस वर्ष बड़े विनोद जी से
उसकी शादी कर दी। माँ कुछ कहने की स्तिथि में नहीं थी वह सर झुका कर हर फैसला
स्वीकार करती गयीं। स्नेहा विनोद जी के जीवन में तुलसी दीदी की पांच वर्षीय पारुल
के जीवन में माँ की जगह भरने मेहँदी लगा कर इस घर में आ गयी।
       
                     
                     
       
धीरे -धीरे ही सही पर
पारुल नें उसे अपना लिया। विनोद जी तो उसकी प्रतिभा के बारे में पहले से ही जानते
 थे  उसे कहीं न कहीं पसंद भी करते थे उन्हें एक दूसरे को अपनाने में
ज्यादा वक़्त नहीं लगा। पहला वर्ष  नए घर को समझने में लग गया और दूसरा वर्ष
स्नेह और विनोद के पुत्र राहुल के आने की ख़ुशी में पंख लगा कर उड़ गया। परन्तु
दोनों का विपरीत स्वाभाव कहीं न कहीं अड़चन पैदा कर रहा था। स्नेहा  जो हंसमुख वाचाल और नटखट थी वहीँ विनोद जी अपने
नाम के विपरीत बिलकुल भी विनोद प्रिय नहीं थे। ज्यादा बातचीत उन्हें पसंद नहीं थी।
बड़ा व्यापार था ज्यादातर व्यस्त रहते थे। स्नेहा से प्रेम उन्हें जरूर था लेकिन
स्नेहा का हंसना बोलना बात -बात पर खिलखिलाना उन्हें जरा भी पसंद नहीं था। वह
अक्सर स्नेहा को टोंक देते “कम बोला करों “और स्नेहा तुरंत चुप हो जाती
वो भी पति को नाराज़ नहीं करना चाहती थी। बच्चों की पूरी जिम्मेदारी स्कूल होमवर्क
पैरेंट -टीचर मीटिंग सब स्नेहा के ऊपर थी। स्नेहा ख़ुशी -ख़ुशी अपनी जिम्मेदारियों
में व्यस्त थी। बच्चे बड़े हुए और एक -एक कर दोनों का प्रतियोगी परीक्षाओं में चयन
हो गया। स्नेहा ख़ुशी से फूली नहीं समा रही थी। सारी
  कालोनी
में उसने लड्डू बांटे
  .  
       
                     
                     
           
पर
यहीं से उसके जीवन में एक नया रंग भर गया। खालीपन का रंग बच्चों के लिए हर समय कुछ
न कुछ करने में व्यस्त रहने वाली स्नेहा अचानक से उनके हॉस्टल चले  जाने के
बाद से खाली हो गयी। विनोद जी स्नेहा से प्रेम तो करते थे पर उनके पास स्नेहा को
देने के लिए वक़्त नहीं था। उसका पुराना स्वाभाव फिर बाँध तोड़ती नदी की भाँती बाहर
निकलने को बेकरार होने लगा। उसने पति से कई बार उनके व्यवसाय में हाथ बंटाने की
बात की पर विनोद जी ने हमेशा मन कर दिया। जब कभी वो विनोद जी से काम करने की बात
करती विनोद जी का यही उत्तर होता “मुझे औरतों की कमाई खाना पसंद नहीं है अगर
औरतें काम न करें तो बेरोजगारी की समस्या आधी हो जाएगी। किसी घर में दो लोग कमाने
वाले और
किसी घर में एक लोग भी
कमाने वाला नहीं। मेरे विचार से तो औरतों को घर के बाहर काम करना ही नहीं चाहिए।
पहले कितना संतुलित समाज था। औरतें घर का काम करतीं थी पुरुष बाहर कमाते थे। पुरुष
घर के मुखिया थे उन्हीं के हिसाब से घर चलता था| न हाय ! हाय न चिक -चिक। पर आज
क्योंकि औरतें भी कमाने लगी हैं उनके मुँह में भी जुबान  आ गयी है सारा सामाजिक ढांचा चरमरा गया है
इसीलिए संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और अब तो विवाह भी टूट रहे हैं।
       
                     
                     
 
ऐसा कुतर्क बोलना नहीं पसंद हंसना नहीं पसंद और अब ये रूप। स्नेहा
जड़वत खड़ी रह गयी फिर धीरे से बोली ” तो आप के हिसाब से औरतों को पढ़ना भी नहीं
चाहिए। “विनोद जी उसका मुँह देखे बिना फ़ाइल में मुँह गड़ाए गड़ाये बोले
“पढ़े अपने बच्चों को पढ़ाये “फिर थोड़ा रुक कर बोले “बच्चों को पढ़ाना
तक तो ठीक है पर समाज में अपना ज्ञान दिखाने की क्या जरूरत है। जैसे एक म्यान में
दो तलवारें नहीं रह सकती वैसे ही एक घर में दो मुखिया नहीं हो सकते “. मेरे
विचार से किसी स्त्री का आर्थिक व् शैक्षिक रूप से मजबूत हो जाना उसे वो तलवार बना
देता है जो परिवार की जड़ ही काट देती है “. तो क्या पुरुष रुपी तलवार की धार
को स्त्री सहन करती रहे “शादी के इतने वर्ष बाद स्नेहा ने प्रतिप्रश्न किया।
विनोद जी ने घूर कर स्नेहा की ऒर देखा फिर तीव्र स्वर में बोले “मैं देख रहा
हूँ तुम्हारी जुबान बहुत चलने लगी है अभी जब कुछ करती नहीं हो तो इतने तेवर जब कुछ
करने लगोगी तो आज के बाद मेरे घर में इस विषय में कोई बात नहीं होगी। मैं तुमसे
प्यार करता हूँ इसका मतलब ये नहीं की तुमको कुछ भी करने की इज़ाज़त दे दूँ। मेरी बात
मानती हो तो ठीक वरना  अपनी माँ के घर जा
सकती हो कहते कहते हुए विनोद जी घर के बाहर निकल गए। “फटाक “
  तेजी
से दरवाजा बंद करने की यह आवाज़ बहुत देर तक स्नेहा के कानों में गूंजती रही।
       
                     
                     
   
स्नेहा जहाँ खड़ी थी वहीँ बैठ गयी। बहुत देर तक अपना सर घुटनों के बीच
छिपाए रोती
 रही. कहाँ जाये वो कहाँ जाये वो ?. तीनों
बहने अपनी गृहस्थी में मस्त हैं। बूढी बीमार अस्सी वर्षीय माँ जो खुद आश्रित हैं
उसे क्या आश्रय देंगी और विनोद जी कितनी आसानी से कह गए ये शब्द
?क्या
उसके वर्षों के त्याग प्रेम समर्पण का यही मूल्य उसे मिलेगा विचार विचार और विचार
स्नेहा के मन में तर्क
,वितर्क करते एक के बाद एक अनेक विचार उठने लगे। सागर की तरह एक लहर
आती एक लहर जाती। क्यों ऐसा बोल गए विनोद
  जी
जो पुरुष अपनी बेटी पारुल को शिक्षित कर अपने पैरों पर खड़ा करना चाहता है उसके मन
में अपनी पत्नी के लिए ऐसे भाव। …………. ऐसी कौन सी असुरक्षा की भावना है
उनके मन में क्या उसकी और विनोद जी की उम्र में जो दस वर्ष का अंतर है उसकी वजह से
वो असुरक्षित महसूस करते हैं या पुरुषवादी अहंकार  उनके मन में अपनी पत्नी को
प्रेयसी दासी घरेलू आदि उपनामों से आगे जाने ही नहीं देना चाहता।
       
                     
                     
 
जो भी हो स्नेहा ने हथियार डाल दिए.उसने विनोद जी को मना  लिया। ऊपर से सब कुछ पहले जैसा हो गया पर स्नेहा
का टूटा स्वाभिमान जुड़ नहीं पाया। विनोद जी तो उसे अब भी पूर्वव्रत प्रेम करते थे
पर स्नेहा।
………… पहले तो स्नेहा को केवल बोरियत की ही शिकायत थी
पर अब।
पर  अब
तो उसे अपनी शिक्षा
,अपनी प्रतिभा यहां तक की अपना अस्तित्व ही बेमानी लगने लगा। बहुत दिन
तक खुद से लड़ाई लड़ने के बाद आखिरकार उसने एक ऐसा निर्णय लिया कि विनोद जी को भी को
समस्या न हो और उसे भी अपने ऊपर गर्व हो सके।
  
       
                     
   
पति के न चाहते हुए घर के बाहर निकल कर वो कुछ कर नहीं सकती थी।
इसीलिये उसने अपने बचपन के शौक लेखन में हाथ आज़माने की सोची।हालांकि वो जानती थी
की पति को उसका लिखना पसंद नहीं आएगा
?लोगों
की वाहवाही वो सह नहीं पाएंगे।
  और अगर
उसका लेखन सफल हुआ तो
?तो उसके पैसों को लेकर भी विवाद उठेगा। विनोद किसी भी हालत में पत्नी
की कमाई को घर में नहीं रखना
  चाहेंगे।
यहीं से शुरू हुई स्नेहा की कात्यायनी बनने की कहानी। ये सफर भी आसान नहीं था
स्नेहा ने लिखना आरम्भ कर दिया। संवेदनशील ह्रदय और भाषा पर पकड़ उसका साथ दे रहे
थे।वो रोज चार -पांच घंटे लिखती। कुछ लिखा उसे सही लगता
,कुछ
उसके अनुसार न होता तो वह पन्ने  फाड़ देती।
पति से छुप -छुप कर यह सब काम चल रहा था। कभी -कभी विनोद जी उसे लिखते हुए देख भी
लेते तो सोचते की अपनी बोरियत दूर करने के लिए लिख रही है उसके आदेशों का उलंघन
नहीं हो रहा है तो उन्हें कोई तकलीफ नहीं थी। अथक परिश्रम के बाद कोई आठ महीने में
स्नेहा उर्फ़ कात्यायनी का पहला उपन्यास “स्त्री “तैयार हुआ। बहुधा लोग
सोचते है की लिखना  आसान काम है  स्नेहा
भी पहले यही सोचती थी जब वो दूसरों के उपंन्यास पढ़ा करती थी। पर जब उसने खुद लिखा
तब उसे समझ आया कि पात्रों को गढ़ना उनके साथ डूबना उतराना उनके दर्द उनकी तकलीफ को
महसूस करना कोई आसान काम नहीं। लिखना जितना मुश्किल है उससे ज्यादा मुश्किल है उसे
प्रकाशित कराना। स्नेहा एक प्रकाशक से दूसरे प्रकाशक के यहाँ चक्कर लगाती रही। .
…………
हर जगह ना हर जगह ना| कोई प्रकाशक नए लेखक की रचना पर पैसा लगाना ही
नहीं चाहता था
,दुर्भाग्य की बात है कि अपने देश भारत में भी अंग्रेजी के उपन्यासों
को छापने को सब तैयार मिल जाएंगे क्योंकि  विश्व भर में पाठक मिल जायेंगे।
 पर
हिंदी  की रचना ?
?निराश हताश स्नेहा घर आकर फूट -फूट कर रोने लगी क्या करे वो किसके
आगे हाथ फैलाये किससे विनती करे कि मेरी किताब छपवा दो
?स्नेहा
की एक सहेली थी जिस को स्नेहा ने अपने इस राज के बारे में बताया था। बड़ी आशा से स्नेहा
अपनी सहेली रति के घर गयी। रति बड़ी आत्मीयता से उससे मिली पर रति की बातों से
स्नेहा को पता चला कि उसके पति को शेयर मार्किट में बहुत हानि हुई है। रति के घर
की ऐसी हालत देख कर स्नेहा समझ गयी कि इस समय रति उसकी मदद नहीं कर सकती है। लेकिन
रति ने उसे एक राह जरूर दिखाई “तूअपना पैसा खर्च करके छपवा ले “. स्नेहा
मुस्कुरा कर रति को धन्यवाद कर वापस आ गयी।  अपना पैसा
,कहाँ
है उसके पास अपना पैसा
?विनोद  पैसे को वो खर्च नहीं कर सकती क्योंकि अगर उन्हें पता चल
गया तो उसकी शामत आ जाएगी। सारी
  रात स्नेहा बिस्तर पर
लेते -लेते करवटें बदलती रही। सोचती रही.
क्या
उसकी इतनी सारी  मेहनत
  बेकार
चली जाएगी
?क्या उसका स्वाबलंबन का स्वप्न स्वप्न ही रह जाएगा।
       
                   
बगल
में विनोद जी आराम से खर्राटे भर रहे थे। उन्हें स्नेहा की मानसिक स्तिथि का जरा
भी अंदाज़ा नहीं था। कभी -कभी जो व्यक्ति हमारे बिलकुल पास होता है वो वास्तव में
हमसे मीलों दूर होता है। दिखाई देने का अपना एक विज्ञान है पर मन का विज्ञान वो तो
सबसे अनूठा है। हर व्यक्ति के मन में एक अलग ही संसार है दूसरे के मन के संसार से
सर्वथा भिन्न। हम खुद ईश्वर की एक स्रष्टि और हमारे मन के अंदर एक और श्रष्टि। खैर
स्नेहा के मन के संसार में उथल -पुथल मची हुई थी। रोते -रोते तकिया गीला हो गया
तभी अचानक से स्नेहा को उस हार की याद आई जो माँ ने उसे दिया था। दरसल स्नेहा के
पिता ने अपनी जमा पूँजी से बस एक ही हल्का सा हार बनवा पाया था। वो हार माँ के पास
ही था। अभी पिछली बार जब वो मायके गयी थी तो माँ ने वो हार उसे दे दिया।
 उसने मना  किया कहा “माँ ये हार
तुम्हारा है और तुम्हारे बाद हम चारों बहनों की संपत्ति है। मैं अकेले इसे कैसे ले
लू
?मैं तो सोच रही थी …………. माँ ने बीच में ही बात काटते हुए
कहा “मुझे भी
 पता है यह सब की संपत्ति है। पर मैंने इस बारे
में बहुत सोच -समझ कर निर्णय लिया है। तेरी तीनों बहनों का कन्यादान तो तेरे पिता
ने किया है उनकी शादी के एल्बम में उनकी फोटो भी है पर तू। ………..  माँ कुछ रुक कर बोली “तू ही अभागी रह गयी
जिसका कन्यादान वो न कर सके। मैं जानती हूँ पैसे की तेरे पास कोई कमी नहीं है। पर
…………. पर तू इस हार को अपने पिता के वो हाथ समझ कर लेले जो कन्यादान के
समय उठता वो फोटो समझ कर लेले जो तेरी शादी के एल्बम में भी होती वो ख़ुशी और दुःख
मिश्रित आंसूं समझ कर लेले जो तेरी विदा के समय तेरे पिता की आँखों से छलकते अपने
पिता का आशीर्वाद समझ कर लेले अपने पिता  की निशानी समझ कर ले ले कहते हुए
माँ ने उसे जोर से भींच लिया। बहुत देर तक वो माँ के सीने से लग कर बैठी रही।
दोनों माँ बेटी की आँखों से गंगा -जमुना बह रही थी
,और
……….
 और
शायद वो अदृश्य सरस्वती भी जो जो उसके पिता की आत्मा की आँखों से बह रही होगी।इन
आँसुओ के संगम में सरस्वती का भी मिलन
  है
ये न गंगा जान सकी ना जमुना।
       
                     
 
स्नेहा वो हार घर ले आई।तबसे जाने कैसा रिश्ता उसका उस हार के साथ
जुड़ गया। वह उस हार को अपने पिता के हाथ समझने लगी। जब भी उदास होती उस हार को
निकालती छूती
  प्यार से सहलाती अपने गाल पर लगाती आँखों पर
लगाती घंटों निहारती रहती। “पिता के हाथ “माँ के ये शब्द उसे अच्छी तरह
याद थे। अब उसे यह हार पिता के हाथ ही लगने लगा था जो हर मुसीबत में उसके पास है
सहायता करने के लिए।
        पता
नहीं कैसे एक अटूट सा रिश्ता हो गया उसके और उस हार के बीच। उसने उस हार को कभी
पहना नहीं था उसने सदा उस हार से अहसास किया था उस प्यार का जो उसे जीवन पथ में
अकेला छोड़ कर आगे बढ़ गया था। अचानक ही स्नेहा ने करवट ली। छी छी वो उस हार के बारे
में क्यों सोच रही है। नहीं
,नहीं वो इतना नहीं गिर
सकती। अपने स्वार्थ  के लिए अपने स्वाभिमान
के लिए। हाय राम ! ये उसने क्या सोच डाला। स्नेहा हड़बड़ा कर बैठ गयी। उसने अपना सर
पकड़ लिया। ऐे सी चल रहा था पर स्नेहा ऐसे पसीना -पसीना हो रही थी जैसे किसी ने उसे
सहारा  रेगिस्तान में खड़ा कर दिया हो। उसकी तेज साँसों की आवाज़ सुन कर विनोद
जी भी उठ बैठे।

       
                     
         
क्या हुआ नेहू ?विनोद
जी ने बड़े प्यार से उसके कंधे पर हाथ रख कर पूछा। “कोई बुरा सपना देख लिया
क्या “
?विनोद जी ने सोचा कि जरूर स्नेहा ने माँ के बारे में कोई बुरा सपना
देख लिया होगा। अक्सर ऐसा होता है कि जब हमारे घर में कोई व्यक्ति बीमार होता और
दिन भर हम उसकी चिंता करते हैंतो रात भर किसी अनिष्ट की आशंका से बुरे स्वप्न
हमारा पीछा करते हैं.विनोद जी ने भी यही सोचा।  वो बड़े प्रेम से स्नेहा का
हाथ अपने हाथ में ले कर बोले “माँ बिलकुल ठीक होंगी हम कल ही चलकर उनसे मिल
आएंगे ” अभी सो जाओ अभी आधी रात बाकी है कहकर विनोद जी सो गए। स्नेहा भी लेट
गयी उसने आँखे बंद कर ली पर मन ………मन तो विमान से भी तीव्र गति से चल रहा
था। स्नेहा के मन ही मन अंतर्द्वंद चल रहा था। स्नेहा के अंदर से जैसे दो स्नेह
उत्पन्न हो गयी।
…………एक बुद्धि के आधार पर तर्क दे रही थी “उसने इतनी मेहनत  से उपन्यास लिखा है ,उसके
पिता भी तो अपनी बेटी को सफल देखना चाहते होंगे। इसीलिये गरीबी में भी उन्होंने
अपनी  उच्च शिक्षा दिलवाई। जब वो छोटी थी तो उसकी छोटी -छोटी जीत पर उसके
पिता के चहरे पर कितनी चमक आ जाती थी। आज जब उसे अपने को सिद्ध करने का अवसर मिला
है तो वो कितने खुश होंगे। वहीँ दूसरी स्नेहा रोने लगती कहती” ये हार नहीं
मेरे पिता के हाथ हैं उनका आशीर्वाद है “उस अनमोल वस्तु का मोल लेकर  मैं अपने सपनों में रंग नहीं भर सकती।
 बुद्धि और ह्रदय की जंग लड़ते -लड़ते स्नेहा की कब आँख लग गयी उसे पता ही नहीं
चला। स्नेहा ने बड़ा ही विचित्र सपना देखा। उसने सपने में अपने पिता को देखा जो बड़े
प्यार से उसके सर पर हाथ फेर रहे थे पिताजी उससे कह रहे थे “स्नेहा बेटी मैं
जनता हूँ तुम किस उलझन में हो
,मैं बचपन से ही तुम्हारी
प्रतिभा
,तुम्हारी अपने दम  पर कुछ
करने की इक्षा और अपने स्वाभिमान को जीवित रखने की भावना से परिचित हूँ।
 मुझे अफ़सोस है की विनोद जी तुम्हारी इस इक्षा को नही
  समझ
सके पर मैं
मैं तो  समझता हूँ.तुम उस
निर्जीव हार के लिए दुखी हो रही हो।  माता -पिता की सबसे बड़ी संपत्ति उनकी
संतान की ख़ुशी होती है अगर तुम खुश हो तो मैं भी खुश हूँ.उसे मेरी निशानी मत
समझना। मेरी निशानी तो तुम हो जीती जागती।मैं तुमसे दूर कहाँ हूँ। मैं तुम्हारे
रक्त में हर समय बह रहां हूँ जाओ उस हार को बेच कर मेरी इच्छा पूरी करो । मुझे भी
अपनी बेटी पर गर्व करने का मौका तो दो। सुबह  विनोदजी की आवाज़ पर स्नेह जागी |
आज
हमारी नेहु को क्या हो गया
,रोज तो घड़ीं के काटों के साथ उठ जाती थी।स्नेह
जल्दी से उठ गयी। मन काफी हल्का लग रहा था। नाश्ता बना कर वह हार लेकर सुनार के
पास गयी। हार बेचकर जो पैसे मिले उन्हें प्रकाशक को अपनी पुस्तक छापने के लिए दे
दिए। और साथ ही साथ प्रकाशक से यह वादा भी कर लिया कि वो जिस कात्यायनी
 नाम
से लिख रही है उस का पता न किसी पाठक को और ना किसी पत्रकार  को  बताएं।
 
ख़ैर ,स्त्री उपन्यास
छ्प कर आ गया । उसकी पहली प्रति स्नेहा  ने
अपने पिता को समर्पित कर दी। एक प्रति अपने साथ घर ले आई। उसे ऐसा
 महसूस
हो रहा था जैसे अस्पताल से अपना बच्चा  घर ले आ रही हो। ख़ुशी के मारे पाॅव
जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। खाने की मेज पर उपन्यास रख कर वो कपड़े बदलने चली गयी।तभी
विनोद्जी ने आकर उपन्यास उठा लिया।
स्त्रीउन्होंने
जोर से यह नाम पढ़ा। फिर विनोदजी बोले
तुम
यह फेमिनिस्ट विचारधारा वाली लेखिकाओं की कहानियाँ मत पढ़ा करो। ज्यादातर इनकी अपने
पतिओं से पटती नहीं है और दूसरों का घर तुड़वाने के लिए स्त्रीवादिता का झंडा हाथ
में लेकर घूमती हैं। अपने उपन्यास पर पहली ऐसी प्रतिक्रिया पर भी स्नेहा  को हैरानी नहीं हुई बल्कि वो शांत स्वर में धीरे
से बोली
नहीं कात्यायनी जी स्त्रीवादी नहीं हैं वो तो बस स्त्री के संघर्ष के
बारे में लिखतीं हैं। आप स्वयं पढ़ कर देख लीजिये। न बाबा न तुम्हारे उपन्यास
तुम्हीं को मुबारक हो
,मेरे पास इतना फालतू समय नहीं है कि मैं हर ऐरे -गैरे को पढता फिरू
विनोद जी हंस कर बोले।
स्नेह को बात चुभी तो जरूर पर वो मुस्कुरा कर टाल गयी।
       
                     
                     
           
स्नेहा  की प्रतिभा कहे ,उसकी
भाषा पर पकड़ कहे या पिता का आशीर्वाद कहे या उसका भाग्य स्नेहा का पहला उपन्यास
हाथो हाथ बिक गया। प्रकाशक खुद मिठाई ले कर उसके घर आया। अगले उपन्यास के लिए
अग्रिम चेक भी दे दी। फिर दूसरा
,तीसरा और चौथा उपन्यास।
कात्यायनी दिन प्रतिदिन प्रसिद्ध होती जा रही थी शायद ही ऐसा कोई हिंदी प्रेमी हो
जिसने कात्यायनी का उपन्यास न पढ़ा हो सब ठीक चल रहा था। कात्यायनी अपनी जगह स्नेहा
 अपनी
जगह। पर।
पर अब यह साहित्य अकादमी पुरूस्कार।अब वो क्या करे अगर किसी को
कात्यायनी बना कर भेज देगी और वो पत्रकारों के पैने सवालों का जवाब न दे पायी तो
स्नेहा पकड़ी जाएगी। झूठ खुल जायेगा। अब एक को तो रास्ते से हटना ही होगा
,कात्यायनी
या स्नेहां। कात्यायनी को पाठक इतनी आसानी से भूलेंगे नहीं। कात्यायनी को पाठक
इतनी आसानी से भूलेंगे नहीं प्रकाशक के यहाँ पत्रों के ढेर लग जायेंगे। और स्नेहा ……..वो
भी तो नहीं मरना चाहती वो भी तो अपने पति विनोद जी से बहुत प्रेम करती है। राहुल
,पारुल
ये घर सब उसे बहुत प्यारा है। केवल अपने अस्तित्व के लिए अपनी प्रतिभा को समाज में
लाने के लिए उसने दो रूप धरे थे।  पर अब वो किस रूप का चयन करे और किस रूप को
हमेशा -हमेशा के लिए भूल जाये। तकदीर ने उसे दो रहे पर लाकर खड़ा
  कर
दिया है।
  
       
                     
                     
               
फर्श
साफ़ हो कर चमकने लगी।  फर्श में स्नेहा को अपना अक्स दिखाई देने लगा। उसे
देखते ही स्नेहा वर्तमान में लौट आई। क्या इस फर्श की तरह उसका जीवन भी चमक पायेगा
?स्नेहा खुद से ही प्रश्न कर रही थी। अरे तुम अभी तक ये ही साफ़ कर रही
हो मैं तो चाय के सपने देखते हुए आ रहा था. विनोद जी की आवाज़ पर स्नेहा की तन्द्रा
टूटी उसने मुँह ऊपर उठा के देखा विनोदजी
 उसे
ही देख
  रहे थे। पर उसका चेहरा देखकर विनोदजी को कुछ
अजीब सा लगा।
क्या बात है ,हमारी बेगम का मूड उखड़ा है अरे कप ही तो टूटा है नया ले लेंगे
तुम्हारे पति के पास इतनी भी पैसों की कमी नहीं है।
 विनोदजी
उसके मन को हल्का करने की कोशिश कर रहे थे। स्नेह ने चाय परोसी। दोनों ने साथ-साथ
चाय पी। स्नेह चाय के हर घूँट के साथ अपने फैसले को अपनी ही कसौटी पर कस रही थी।
चाय खत्म होने तक उसने
फैसला ले लिया। वो स्नेहा  को नहीं मरने
देगी। वह अपने घर को कभी नहीं टूटने देगी। वो कात्यायनी का किस्सा यहीं खत्म कर
देगी। उसके अंदर जो अपने को सिद्ध करने की कुलबुलाहट थी बैचैनी थी  वो अब खत्म हो गयी है। उसने खुद को सिद्ध कर
दिया है। अब वो खुश है।आज ही वो प्रकाशक को फोन करके बता देगी क्षमा माँग
  लेगी।कात्यायनी
की यात्रा यहीं तक थी
 विनोद जी के घर से बाहर जाते ही उसने प्रकाशक
को फ़ोन कर दिया। स्नेहा खुश थी वो काफी हल्का महसूस कर रही थी। उसने सोचा कि चलो
आज विनोद जी की पसंद का गाज़र का हलुआ बनाती हूँ।।स्नेहा गाज़र छील
  ही
रही थी कि तभी दरवाजे की घंटी बजी “टिंग -टांग “स्नेहा ने हाथ धो कर
दरवाज़ा खोला साम
,ने प्रकाशक महोदय खड़े थे। स्नेहा ने उन्हें प्रणाम कर अंदर बिठाया।
बातचीत का सिलसिला चालू हो गया।
प्रकाशक :ये आपने इतनी
आसानी से सब खत्म कर दिया। आपको उन पाठकों पर जरा भी दया नहीं आई जो आपसे बेहद
प्यार करते हैं
,और आप के हर उपन्यास की दिल खोल कर प्रशंशा करते हैं। वो सब आप को
देखना चाहते हैं
,मिलना चाहते हैं और आप ?
स्नेहा :मॅाफ कीजियेगा
मेरा सफर यहीं तक था।
प्रकाशक :ये क्या कह
रहीं हैं आप
?सफर यहीं तक था। लोग पूंछेंगे ,अकादमी
वाले पूछेंगे
 । हम क्या जवाब देंगे।
स्नेहा :आप कह दीजियेगा
कात्यायनी अपनी अनाम दुनियाँ
  में खुश है। उसे न
पुरूस्कार चाहिए न……….
प्रकाशक :(बीच में बात
काटते हुए )वाह आप ने कहा और हो गया। लोग हमारे प्रकाशन पर चढ़ बैठेंगे
,नारे
बाज़ी होगी। हमारा तो भठ्ठा बैठ जायेगा। मैं तो सबको आप का परिचय दे दूंगा।
स्नेहा :पर ……पर
आपने तो वादा किया था।
प्रकाशक :वादा किया था
लेकिन मैं उस वादे के नाम पर उन लोगों के पेट पर लात नहीं मार सकता जो मेरे
प्रकाशन में काम करते हैं। लोग दवाब डालेंगे। मेरा प्रकाशन बंद हो जाएगा। आप समझती
क्यों नहीं
?
स्नेहा :मैंने कहा न मैं
अब और नहीं लिखूंगी। ये सफर यहीं तक ख़त्म।
प्रकाशक :मैं मानता हूँ
मेरे प्रकाशन का नाम आप के उपन्यासों की वजह से बढ़ा है। अब जब मेरे प्रकाशन की
लेखिका को इतना सम्मान मिल रहा है
,तो
मैं कैसे इस अवसर को जाने दूँ
?इस प्रचार के बाद मेरे
प्रकाशन की और पुस्तके भी लोग पढ़ेंगे। नए लेखकों को सबको फायदा होगा।
स्नेहा :मैं कुछ नहीं
जानती। मैं अपने फैसले पर अडिग हूँ।
प्रकाशक :आप जाने चाहे न
जाने पर मैं  इस सुनहरे मौके को हाथ से
नहीं जाने दूँगा। आप का नाम उजागर कर दूँगा। अगर आप आगे नहीं भी लिखेंगी तो भी इस
विवाद से
  मेरे प्रकाशन का फायदा होगा। खूब नाम उछलेगा।
मैं अपना फायदा देखू या
आप की ईक्षा
………………(थोड़ा  रूककर)आप
की
 मजबूरी !
       
                     
                     
       
प्रकाशक हाथ जोड़ कर चला
गया। स्नेहा वहीँ सोफे पर पसरी बैठी रही। सोचने लगी अब स्नेहा को ही जाना होगा।
 ये घर ये द्वार विनोद जी सब छोड़ कर। उदास मन के साथ स्नेहा उठ कर रसोई में
चली गयी। अरे आज तुमने दरवाज़ा बंद नहीं  कोई आ जाता तो
? विनोदजी
ने दरवाज़े से घुसते ही प्रश्न किया। स्नेहा
 ने
आँखें उठाकर विनोद जी को
 देखा न जाने कितने  भाव उसके मन में उमड़ने
लगे। आँखे अनायास ही डबडबा गयी। तुम्हारी आँखों में आंसूं क्या हुआ
?पूछते
हुए विनोद जी ने उसे सीने से लगा दिया। विनोद जी सीने से लगी स्नेहा के आँखों से
आँसू  निकलते जा रहे थे। वो सोच रही थी कि “विनोद तुम्हारे दो रूप हैं
एक वो जो अपनी पत्नी स्नेहा से बेहद प्यार करता हैऔर एक वो जो अपनी पत्नी की कुछ
करने की ईक्षा
,उसके स्वाभिमान की रक्षा और उसकी प्रतिभा का धुर विरोधी है। तुम्हारे
इन दो रूपों से सामंजस्य बिठाने की खातिर मुझे भी दो रूप रखने पड़े। काश हम एक ही
रूप में होते तो हम एक रह पाते।
       
                     
                     
           
विनोद
ने महसूस किया की उसकी कमीज गीली हो गयी है। उसने स्नेहा को देख कर कहा “नेहू
तुम्हें किसी भी बात की परेशानी हो तो मुझे बताओ
,मैं
तुम्हारी समस्या सुलझाऊंगा “
  स्नेहा
उसकी तरफ एक विरक्ति से भरी मुस्कान देकर धन्यवाद कह कर चली गयी। विनोद जी को उसका
यह व्यवहार थोड़ा अजीब लगा
,पर उन्होंने कुछ न कहने का निर्णय लिया। उन्होंने सोचा कुछ देर बाद
अपने आप सब ठीक हो जाएगा। रात में जब विनोद जी सो गए तो स्नेहा धीरे से उठ कर अपना
बैग पैक करने लगी। अब स्नेहा इस घर से जायेगी और कात्यायनी ही रहेगी। क्या
विडम्बना है दो रूपों को जीते -जीते हम यह भूल जाते हैं की हमारा असली रूप क्या है
?यही हाल इस समय स्नेहा का है वह अतीत की यादों में खोती  जा
रही है। वह विनोद जी के साथ बिताये सारे पल समेट  लेना चाहती है। अंत में स्नेहा  एक चिट्ठी विनोद जी के नाम लिख कर बिस्तर पर रख
देती है और घर के बाहर निकल जाती है।
       
                     
                     
                     
 
स्नेहा उदास मन से बैग ले कर रति के यहाँ पहुँच जाती है। रति पहले तो
अचानक उसे देखकर हैरान हो जाती है फिर अंदर बुला कर सब बात पूंछती है। स्नेहा रति को
रोते -रोते सब बता
  देती है। रति उसे आश्वासन देती है कि वो जब तक
चाहे वहां रह सकती है। इधर सुबह विनोद जी उठते हैं। बिस्तर पर स्नेहा को नहीं देख
कर चौंकते हैं। फिर सोचते हैं शायद चाय बना रही होगी। पर रसोई से तो कोई खट -पट की
आवाज़ नहीं आ रही है। नेहू
,नेहू ,विनोद जी आवाज़ लगाते हैंपर कोई उत्तर नहीं। थोड़ा सशंकित हो कर विनोद
जी उठते हैं.इधर -उधर देखते हैं। तभी उन्हें बिस्तर पर रखी चिठ्ठी  दिख जाती
है।वह चिठ्ठी उठा कर पढ़ने लगते हैं
,  




प्रिय विनोदजी ,
       
   
मैं आपको आज कुछ बताना चाहती हूँ।मेरी इतनी हिम्मत नहीं थी कि खुद
आपसे कह सकूँ। शूरू से ही मेरे अंदर अपनी बात आपसे कहने की हिम्मत नहीं थी
, आज
इसिलिए पत्र लिखकर आपको बता रहीं हूँ। विनोदजी जिस कात्यायनी से आप मिलना चाहते थे
,जिसे देखना चाहते थे और जिस कात्यायनी के उपन्यासों से घर भरा पड़ा है
वो कोई और नहीं मैं ही हूँ। मैं जानती हूँ यह पढ़कर आपको गहरा धक्का लगा होगा।
मैंने यह बात आपसे क्यों छिपाई इसकी वजह भी आप जानते हैं। आप मुझे अपनी पत्नी के
अतिरिक्त और किसी रूप में देखना नहीं चाहते थे। आपसे जब भी मैंने इस बारे में बात
की कि मैं अपने दम पर कुछ करना चाहती हूँ आप हमेशा नाराज़ हो गए
,यहां
तक की आप ने मुझसे घर छोड़ कर जाने को भी कहा.मैं आप से बहुत प्रेम करती हूँ इसलिए घर
 को छोड़ कर जाने का ख्याल भी नहीं कर सकी।
पर मेरे मन के एक भूचाल सा मचा हुआ था
,पता
नहीं क्यों ऐसा लगता था की मन में बहुत कुछ दबा है जिसका निकलना बहुत जरूरी है।
कहते हैं अगर माँ के पेट में उसका बच्चा भी नौ महीने से ऊपर रह जाए तो माँ और
बच्चे दोनों की जान को खतरा हो जाता है और मैं तो इस विचार रुपी बच्चे को न जाने
कब से अपने मन में दबाये रही। जब असहय वेदना होने लगी
,जब
मेरी जान पर बन पड़ी तो मुझे जन्म देना ही पड़ा।
…………कात्यायनी
को। नाम और पैसा दोनों मुझे नहीं चाहिए था। नाम तो मैं ले ही चुकी थी कात्यायनी का
और उपन्यासों से अर्जित धनराशि मैं अनाथाश्रम में भेज देती थी। मुझे चाहिए था एक
सम्मान
,दूसरों की नज़रों में नहीं अपनी नज़र में।  समाज तो एक प्रतिष्ठित
व्यापारी की पत्नी के रूप में मुझे सम्मान दे रहा था पर। …. पर अपनी नज़र में मैं
बहुत छोटी होती जा रही थी। अपनी शिक्षा
,अपनी
प्रतिभा अपना अस्तित्व सब कुछ बेमानी लगने लगा था। आपसे छुप कर ये सब किया इसका
मुझे अफ़सोस है। फिर भी इन उपन्यासों को लिखकर और अपने विचारों को बाँट  असीम
शांति प्राप्त
  हुई। मैंने पुरूस्कार के
लिए मना  किया था पर मुझ पर जनता का
प्रकाशक का दवाब है। मैं यह अच्छीतरह से जानती हूँ कि आप मुझे इस रूप में कभी
स्वीकार नहीं करेंगे अतः घर छोड़ कर जा रहीं हूँ मैं भी दो रूपों को जीते -जीते थक
गयी हूँ फिर भी मुझे कहीं न कहीं उम्मीद है
    
कि आप अपनी नेहू उर्फ़
स्नेहा उर्फ़ कात्यायनी को पुनः
 अपनाएंगे 
       
                     
                     
                     
                 
आपकी
नेहू
 
पत्र पढ़ कर विनोद जी
आगबबूला हो गए। क्रोध से उनके हाथ कांपने लगे। साँसे तेज हो गयी। ने हू
 उउउउउउउउउउउउउउउउउउउ
  गुस्से में चीखते हुए विनोद जी बोले “तेरी इतनी हिम्मत मुझसे छिप छिप
कर कात्यायनी बनकर लिख रही थी। क्या औरत है इसे पति का प्रेम नहीं औरों की वाहवाही
चाहिये। क्या -क्या नहीं किया मैंने इसके लिए पर इसे दूसरों से सम्मान चाहिए था।
 एक  का प्रेम इसे पूरा नहीं पड़
  रहा था।  मैं मैं
कुछ था ही नहीं इसके लिए। तेजी से चलकर विनोद जी शेल्फ के पास गए और कात्यायनी की
सारी  किताबे निकाल -निकाल कर फेंकनी शुरू
कर दी। ये ले
,ये ले तेरा सम्मान ……… धड़ाक ,ये
,ये ले तेरी औकात। ……… फटाक ,ये
ये ले और सम्मान ले। ………. पट -पट -पट
,ये
ले विचारों की अभिव्यक्ति। ………. भटाक फिर वहीँ किताबों के ढेर के बीच सर पर
हाथ रख कर रोने लगे “क्या किस्मत पायी है मैंने एक पत्नी ईश्वर के पासस चली
गयी और दूसरी जिसे इतना प्यार दिया वो।
………छी
,थू ,,जिसे मैंने गले का हार बना कर रखा वो रास्ते का पत्थर निकली ,जिसे
ठोकर खाकर खुद किसी ईमारत की नीव बनना पसंद है पर किसी की अंगूठी का हीरा बनना
पसंद नहीं। जाओ स्नेहा जी जाओ
,समाज में तुम्हारी बहुत
इज़्ज़त है बहुत चाहने वाले हैं
,पर मैं उस स्त्री को
अपने दिल में जगह नहीं दे सकता जिसके इतने प्रशंशक
  हों। स्नेहा जी। मैडम
जी पत्र तो आपने खूब लिखा है
,लेखिका हो लिख ही लोगी।
मैं कोई लेखक नहीं
,भावनात्मक पत्र लिखना मुझे नहीं आता.मुझे सीधी -सीधी बात कहना आता है
“मेरे दिल में और मेरे घर में अब तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है।
       
                     
                     
                   
उधर
स्नेहा जानती है कि विनोद जी उसे नहीं अपनाएंगे फिर भी पता नहीं क्यों उसे लग रहा
है शायद।
शायद वो फोन करे। बार -बार अपना मोबाइल उठा कर देख लेती है कही कोई
मिस्ड कॉल तो नहीं है
,कभी बैटरी निकाल कर दोबारा लगाती है कभी सिम कार्ड निकाल करे दोबारा
लगाती है। कि कहीं फोन खराब तो नहीं हो गया। रति सुबह से उसे यह सब करते हुए देख
रही है। अब तो रात का दस बज गया है आखिरकार उससे नहीं गया।
स्नेह
तू कब तक विनोदजी के फ़ोन का इंतज़ार करती रहेगी वो नहीं आने वाला
रति
ने स्नेह से कहा।
     
स्नेहा:-मैंमैं
कहाँ इंतज़ार कर रहीं हूँ
,वो तो चेक कर रही थी कहीं फ़ोन ख़राब तो नहीं हो गया। कभी-कभी ख़राब हो
जाता है
।स्नेहा  अवसाद पूर्ण हँसी
हँसती है। तभी अचानक फ़ोन की घंटी बजती है। स्नेहा तेजी से फ़ोन उठाती है। जल्दी फ़ोन
उठाने मे उसका हाथ सोफे से टकरा जाता है। दो चूड़ियाँ टूट जाती हैं हाथ से हल्का सा
खून बहने लगता है पर इससे बेखबर स्नेहा फ़ोन अपने कान पर रखकर हर्ष शोक भय मिश्रित
आवाज से कहती है
हैलो‘-  
हैलो
माँ
,आप कहाँ हों माँ,आप ठीक तो हो,यह
क्या हो रहा है माँ
?” –राहुल ने
चिंतातुर आवाज़ में प्रश्नों की झडी
  लगा दी।
 ”मैं
ठीक हूँ। मैं रति मौसी के यहाँ हूँ तुमने इस समय कैसे फ़ोन किया।क्या बात है
,तुम
ठीक तो हो
?”-उत्तर देते हुए स्नेहा ने खुद एक साथ कई प्रश्न पूछ डाले।
 राहुल-
माँ अभी पापा से बात हो रही थी वो अआप्के बारे में क्या-क्या बता रहे
थे। क्या यह सच है
?”   
स्नेहा-मुझे
नहीं पता विनोदजी ने तुम्हे क्या बताया पर अगर तुम यह जानना चाहते हो कि कि
कात्यायनी कौन है तो यह सच है की कात्यायनी मैं ही हूँ।
”  
राहुल-माँ
आप.
……… ”
स्नेहा-बेटा
मुझे यह रूप रखना पड़ा क्योंकि तुम्हारे पापा नहीं चाहते थे कि मैं कुछ लिखूँ कुछ
करूँ आगे बढूँ।
”  
राहुल-क्यों
माँ पापा के इतने गंदे विचार,
मुझे
आज उन्हें पापा कहते हुए शर्म आ रही है।
” 
स्नेहा -चुप राहुल,मैं
यह कतई
 बर्दाश्त नहीं करुँगी की तुम अपने पिता के बारे
मे कुछ अनाप-शनाप बोलो। वो तुम्हे बहुत प्यार करते हैं तुम्हे उनकी इज़्ज़त करनी
चाहिए। यह मेरा मामला है।
 
राहुल :पर माँ। …………… 
स्नेहा :पर वार कुछ
नहीं। हाँ ! पारुल को कुछ मत बताना वो बेकार परेशान होगी।
 
राहुल :माँ !मेरी दीदी
से इस बारे में बात हो चुकी है। वो। …. वो भी शायद आपसे बात करे। माँ आप चिंता
मत करिये मैं आप के साथ हूँ। नौकरी लगते ही मैं आप को अपने साथ ले जाऊँगा। ठीक है
अब रखता हूँ।
 
       
                     
                     
           
फोन
रख कर स्नेहा सोचने लगी। …………. पति का सहारा छोड़ कर बेटे का सहारा मिलेगा।
ये सहारा शब्द ही तो उसे तोड़ देता है। और अब तो उसने अपनी कश्ती बीच समुन्द्र में
दाल दी है जब तक कोई उसे बचाएगा बहुत देर हो जायेगी। उसे खुद ही हाथ पैर मारने
हैं।  फोन की घंटी फिर बज उठी। अबकी
  फोन
पर पारुल है।
 
पारुल :माँ मेरी राहुल
से बात हुई है। हम दोनों आप के साथ हैं। हम दोनों मिल कर पापा को समझायेंगे। सब
ठीक हो जाएगा।
 
स्नेहा :किसी को समझाने
की जरूरत नहीं है यह मेरी लड़ाई है और मैं खुद ही लड़ूंगी।
 
पारुल :आप ऐसा क्यों कह
रहीं हैं माँ। पापा गलत हैं। मैं और राहुल
…………… 
स्नेहा :(बीच में बात
काटते हुए ) राहुल नहीं समझेगा। लड़का है ना पर तुम शायद समझ जाओ। मेरी लड़ाई
तुम्हारे पापा से नहीं है। वो एक अच्छे पति हैं एक अच्छे पिता हैं। वो मुझे और मैं
उन्हें बहुत प्यार करते हैं।
 
पारुल :तो फिर ?
स्नेहा :मेरी लड़ाई उस
पुरुष से है जो स्त्री को दोयम दर्जे का समझता है। वो अपनी पत्नी को कमतर देखना
चाहता है। उसे अपनी पत्नी से प्रेम करना तो आता है पर उसके सम्मान
,  स्वाभिमान
व् सपनों की रक्षा करना नहीं चाहता।
 
पारुल :ओह माँ ! यू आर
सो ग्रेट
 
स्नेहा :नहीं बेटा ,मैं
महान नहीं हूँ पहले मैंने भी कात्यायनी को ख़त्म करने की सोची थी। पर जब बात नही
  बनी तो। …………तो
भी मैं रो -धोकर तुम्हारे पिता से माफ़ी मांग सकती थी। और यह कह सकती थी कि अब आगे
से नहीं लिखूँगी।।मैं जानती हूँ उन पर मेरी दलीले असर नहीं करती पर शायद मेरे आँसू
असर कर जाते।
 
पारुल :तो फिर आप यहाँ
क्यों चली आई माँ
?
स्नेहा :पारुल मैंने इस
विषय पर बहुत सोचा।  मैं कोई अकेली ऐसी औरत तो नहीं जो दोहरा चरित्र जी रही
होगी। मेरी तरह लाखों स्नेहा होंगी जिसने अपने अंदर की कात्यायनी को मार दिया
होगा। या फिर कात्यायनी और स्नेहा के बीच पेंडुलम की तरह नाच रही होंगी।
………………थोड़ा
रूककर
,मैं जानती हूँ तुम्हारे पापा नहीं समझेंगे। पर
अगर एक भी स्नेहा अपना दोहरा मुखौटा उतार पाएगी
,या
एक भी विनोद अपनी पत्नी के सपनों को समझ पायेगा
,तो
ये मेरी जीत होगी।
 
पारुल :मैं जानती हूँ
माँ। इसी स्त्री संघर्ष को ही तो आपने उपन्यासों में स्वर दिया है।
 
स्नेहां :हां पारुल !
जिन चरित्रों को मैंने रचा था
,आज उन्हें जी रही हूँ।
पता नहीं क्यों।
………… पर ये सच है की आज मेरे अंदर स्त्री चेतना
जागृत हो गयी है
,लगता है यह मेरी अकेले की लड़ाई नहीं है। समस्त स्त्री समाज की लड़ाई
है। यही से एक नया इतिहास जन्म लेगा। मुझ जैसी हर लेखिका पर स्त्रियों
  के
सपनों विचारों
,संघर्षों के आंदोलन का बीड़ा उठाने का उत्तरदायित्व है।  
 
पारुल : माँ मैं आप से
सहमत हूँ। कहकर पारुल ने फोन रख दिया।
 
       
                     
                     
             
पारुल
से तो स्नेहा ने कह
  दिया पर उसे कहीं न कहीं
अब भी विनोद जी का इंतज़ार है। पति -पत्नी का रिश्ता शायद ईश्वर का बनाया वो अनमोल
रिश्ता है जो एक झटके में अलग हो नहीं सकता और अगर कर दो तो एक कसक एक टीस
  सी
बनी रहती है। स्नेहा के साथ भी तो यही है। विनोद जी अगर समझ पाते ………….
उसे सपने देखने
,पंख लगाने और मुट्ठी भर आकाश मांगने की सजा मिल रही है। क्या विनोद
जी उसे इतनी आसानी से भूल जाएंगे
?स्नेहा
खुद से प्रश्न कर रही है खैर दो दिन बाद पुरूस्कार वितरण समारोह है उसे जल्दी से
जल्दी अपने को सामान्य करना होगा। अब फैसला  लिया है तो ले लिया है। दो दिन
सोचते विचारते कब बीत गए पता ही नहीं चला। स्नेहा पुरूस्कार वितरण के लिए तैयार हो
रही है। सिन्दूर
,बोइडी ,चूड़ी सब पहन रही है पति के प्रतीक चिन्ह ,पर
है क्या वो। …………. एक परित्यक्ता। पी -पी -पी शायद बाहर टैक्सी आ गयी।
स्नेहा अपना पर्स उठा कर चल देती है।
 
       
                     
                     
                     
रति
हंसती हुई अपनी सहेली का गाल चूम लेती है। क्या लग रही हो स्नेहा। ४५ की हो और ३२
से ज्यादा की तो बिलकुल नहीं लगती। हां मौसी ! आप बहुत अच्छी लग रहीं हैं
,बच्चों
ने हाँ में हाँ मिलायी। रति हंस कर बोली “इसीलिए तो शायद विनोद्जी तुम्हे
डब्बे में बंद कर लेना चाहते थे। भाई उनकी भी क्या गलती है। रति ने यह बात कही तो
जाक़ में थी पर स्नेहा को तीर की तरह चुभ गयी। रति उसके चेहरे के भाव पढ़ कर
अपनी गलती समझ गयी। सॉरी ! मेरा वो मतलब नहीं था
,रति
ने स्पष्ट किया। स्नेहा :मुझे पता है
,पर
एक अकेली तू ही तो नहीं है। अब तो ऐसे विचित्र -विचत्र प्रश्नों के उत्तर देने ही
पड़ें गी। अच्छा चलती हूँ।
 कहकर स्नेहा टैक्सी में बैठ गयी  .
सफर शुरू  हो गया एक नया सफर …… कात्यायनी
का सफर.
…………… 




       
                     
टैक्सी
आगे बढ़ती जा रही है और स्नेहा विचारों में खोती
  जा रही है.थोड़ी देर के
लिए वो कात्यायनी हो जाती है जिसे वहां सम्मान मिलेगा जो भाषण देगी
,जानी
-मानी शख्शियत बन जायेगी। गर्व से उसकी गर्दन तन जाती
  है। उसे अपने पिता दिखाई
देने लगते हैं जो खुशी से उसे आशीर्वाद दे रहे हैं। उनकी आत्मा कितनी संतुष्ट लग
रही है। खटाक। ………. गाडी का ब्रेक लगा और कात्यायनी स्नेहा बन जाती है।
जिसका घर छूट गया
,पति का प्यार ,उसका साथ छूट गया।
स्नेहा की आँखे डबडबा
  जाती हैं। कुछ पाने के
लिए कुछ खोना पड़ता है पर इतना कुछ। क्यों ये कसक है
,क्यों
ये पीड़ा
,क्यों मन टूट रहा है ,काश
विनोद जी उसे समझ पाते
,काश विनोद जी इस समय उसके बगल में बैठे होते ,तो
शायद वो दुनिया की सबसे सुखी स्त्री होती। समारोह स्थल आ गया। गाडी रुक गयी।
आयोजनकर्ताओं नें गुलदस्ता देकर उसका स्वागत किया। स्नेहा मंच पर जा रही है।
पुरूस्कार
,दुशाला ,सम्मान पात्र ,तालियों की गड़गड़ाहट
कैमरे की क्लिक।
……… क्लिक। शायद यह कोई और ही दुनिया है सपनों की दुनियाँ अरमानों की
दुनियाँ। स्नेहा पुरिकार ले कर मंच से उतरती है। पत्रकार उससे बात करना चाहते हैं।
वो क्षमा मांग कर कहती है आज नहीं
,आज
मुझे अकेला छोड़ दे। मैं कल आपसे बात करूंगी। कहकर स्नेहा टैक्सी में
  बैठ
जाती है.थोड़ी दूर पर एक पार्क के पास टैक्सी रुकवा कर वहीँ उतर
  जाती है। उसका मन एकांत
में रोने का है ऐसे आंसू उसके मन में भरे हैं जिसमें ख़ुशी व् गम दोनों हैं।
 
       
                     
       
पार्क में नीचे देख कर
चलते हुए किसी से टकरा जाती है। सॉरी कहकर जैसे ही ऊपर देखती ही तो देखती ही रह
जाती है
,सामने विनोद जी खड़े  हैं दोनों थोड़ी देर तक तक एक दूसरे को
देखते ही रहे निस्तब्ध
,मौन ,निःशब्द।  जैसे ही स्नेहा वापस जाने के लिए मुड़ती है विनोद जी
की आवाज़ पर ठिठक जाती है।  विनोद जी कहना शुरू करते हैं “स्नेहा मैं
समारोह स्थल से तुम्हारा पीछा कर रहा था
,,दरसल
तुम तो अपनी बात पत्र में लिख कर चली आई
,पर
मैं अपनी बात नहीं कह पाया था। आज मैं अपनी बात कहना चाहता हूँ। स्नेहा मुड़
 कर
विनोद जी की तरफ देखने लगती है।
 
ये सच है स्नेहा मुझे
तुम्हारा काम करना
,अपनी अलग पहचान बनाना बिलकुल भी पसंद नहीं था। जब तुम घर छोड़ कर गयी
थी तो तुम्हारी हकीकत जान कर मैं गुस्से और नफरत में खौल रहा था। मैं तुम्हारी हर
याद को घर से मिटा देना चाहता था। मैंने तुम्हारी चीजे तोड़ी
,फेंकी।
इसी क्रम में जब मैं तुम्हारे उपन्यास फाड़ रहा था तो कुछ पंक्तियों पर मेरी नज़र पड
 गयी जिसमे तुमने लिखा था “जैसे एक
बच्चे का अपनी माँ के साथ रिश्ता होता है जब वो कुछ नया करता है तो दौड़ कर सबसे
पहले अपनी माँ को दिखाता है। माँ तारीफ़ कर देती है तो बच्चे को लगता है जैसे
दुनियां
  जीत
ली। वो बाल मन होता है जो माँ की प्रशंसा से ऊर्जा लेता है ….. विवाह के बाद कुछ
ऐसा ही रिश्ता स्त्री का अपने पति से जुड़ जाता है
  …………नया
व्यंजन बनाने से लेकर हवाई जहाज़ बनाने तक वह सबसे पहले पति की तरफ देखती है
,उसकी
प्रशंशा उसके स्वाभिमान को बढ़ा देती है उसमें शक्ति आ जाती है दुनियां।  का
सामना करने की।  वो स्त्री चाहे पत्थर तोड़ने वाली हो या देश की राष्ट्रपति
  अपनी
हर उपलब्धि पर सबसे पहले अपने पति की तरफ देखती है। सवाल उठता है क्यों
?उत्तर
है सदियों से जो स्त्री सृष्टि का सृजन करती रही है उसे अपने सपनों के सृजन का
अधिकार नहीं है।  वो औरत जो सपने देखना चाहती है हर दिन डरती है   कि
कहीं मुट्ठी भर आकाश पाने के लिए उसके पैरों के नीचे की जमीन न खिसक जाए
,उसके
आँगन की तुलसी न सुख जाये
,उसके द्वारे की अल्पना का रंग ना उड़ जाए।    
     
       
                     
                     
 
पता नहीं इन पंक्तियों में क्या जादू था कि मैं तुम्हारे उपन्यास
पढता गया एक के बाद एक
,और मुझे तुम्हारे दर्द तुम्हारे संघर्ष तुम्हारी तकलीफ एक के बाद एक
तुम्हारे पत्रों के माध्यम से समझ आन लगे। कितनी गहराई है तुम्हारे अन्दर जिसे मैं
कांच की गुड़ियाँ समझता था उसके अन्दर तो पूरा समंदर भरा पड़ा है
,जिसे
रोक पाना मेरे बस की बात नहीं। तुम सुन रही हो न
?विनोद
जी ने प्रश्न किया। हूँ ! स्नेहा ने सर हिलाते हुए उत्तर दिया। विनोद जी ने कहना
जारी रखा :मैं गलत था स्नेहा
,मैं एक फूल को अपने घर
के अन्दर कैद कर देना चाहता था।  यस !आई वास रांग। मैं सोचता था कि पति
-पत्नी का रिश्ता तलवार व् म्यान की तहर होता है दरसल पति -पत्नी का रिश्ता जल   और मेघ  की तरह होता है
,दोनों
का अलग -अलग अस्तिव भी है और दोनों एक दूसरे के पूरक भी हैं और इसी में जीवन नदी
का सतत प्रवाह भी है  है। अब मैं तुम्हारे सपनों  का भी साथी बनूगा । हर
कदम पर तुम्हारे साथ चलूँगा। मेरे साथ घर चलो।  मैं तुमसे क्षमा माँगता हूँ
कहते हुए विनोद जी ने स्नेहा के हाथ से पुरूस्कार ले लिया और दूसरा हाथ पकड़ कर आगे
बढ़ने लगे।
 

       
                     
           
स्नेहा को लगने लगा सारा
वातावरण सुगन्धित हो गया है। विवाह वाले मंत्रोच्चार सुनाई पड़ने लगे। आज  जिसने उस का हाथ थामा है वह केवल पति के रूप में
उसको प्रेम ही नहीं करेगा बल्कि उसकी भावनाओं को भी समझेगा
,उसके
सपनो में भी उसका भागीदार बनेगा। मंत्रमुग्ध सी स्नेहा पति का हाथ थामे आगे बढती
जा रही है। आज उसे एक ही दिन में दो पुरूस्कार मिल गए हैं।
 

वंदना बाजपेयी 
कार्यकारी सम्पादक 
“अटूट बंधन “हिंदी मासिक पत्रिका 

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