फिर
पद चाप
सुनाई पड़ रहे
वसंत ऋतु के आगमन के
जब वसुंधरा
बदलेगी स्वेत साडी
करेगी श्रृंगार
उल्लसित वातावरण में
झूमने लगेंगे
मदन -रति
और अखिल विश्व
करने लगेगा
मादक नृत्य
सजने लगेंगे
बाजार
अस्तित्व में
आयेगे
अदृश्य तराजू
जो फिर से
तोलने लगेंगे
प्रेम जैसे
विराट शब्द को
उपहारों में
अधिकार भाव में
आकर्षण में
भोग -विलास में
और विश्व रहेगा
अतृप्त का अतृप्त
फिर सिसकेगी
प्रेम की असली परिभाषा
क्योकि
जिसने उसे जान लिया
उसके लिए
हर मौसम वसंत का है
जिसने नहीं जाना
उसके लिए
चार दिन के
वसंत में भी क्या है ?
पद चाप
सुनाई पड़ रहे
वसंत ऋतु के आगमन के
जब वसुंधरा
बदलेगी स्वेत साडी
करेगी श्रृंगार
उल्लसित वातावरण में
झूमने लगेंगे
मदन -रति
और अखिल विश्व
करने लगेगा
मादक नृत्य
सजने लगेंगे
बाजार
अस्तित्व में
आयेगे
अदृश्य तराजू
जो फिर से
तोलने लगेंगे
प्रेम जैसे
विराट शब्द को
उपहारों में
अधिकार भाव में
आकर्षण में
भोग -विलास में
और विश्व रहेगा
अतृप्त का अतृप्त
फिर सिसकेगी
प्रेम की असली परिभाषा
क्योकि
जिसने उसे जान लिया
उसके लिए
हर मौसम वसंत का है
जिसने नहीं जाना
उसके लिए
चार दिन के
वसंत में भी क्या है ?
मैं प्रेम हूँ ….. चौक गए …सच!
मैं वहीं प्रेम हूँ जिसे तुम सदियों से ढूंढते आ रहे हो ,कितनी जगहों पर कितने
रिश्तों में कितनी जड़ और चेतन वस्तुओं में
तुमने मुझे ढूँढने का प्रयास किया है…..यहाँ वहाँ इधर –उधर सर्वत्र
व्याप्त होते हुए भी मैं सदा तुम्हारे लिए एक अबूझ पहेली ही रहा जिसको तुम तरह –तरह
से परिभाषित करते रहे और जितना परिभाषित करते रहे उतना उलझते रहे
मैं वहीं प्रेम हूँ जिसे तुम सदियों से ढूंढते आ रहे हो ,कितनी जगहों पर कितने
रिश्तों में कितनी जड़ और चेतन वस्तुओं में
तुमने मुझे ढूँढने का प्रयास किया है…..यहाँ वहाँ इधर –उधर सर्वत्र
व्याप्त होते हुए भी मैं सदा तुम्हारे लिए एक अबूझ पहेली ही रहा जिसको तुम तरह –तरह
से परिभाषित करते रहे और जितना परिभाषित करते रहे उतना उलझते रहे
ये
लुका –छिपी मुझे दरसल भाती बहुत है मैं
किसी कमसिन अल्हड नायिका की तरह
मुस्कुराता हूँ जब तुम मुझे पा के अतृप्त , भोग कर अभोगे ,जान कर
अनजान रह जाते हो …आश्चर्य जितना तुम मुझे परिभाषाओं से बाँधने का प्रयास
करते हो उतना ही मैं परिभाषा से रहित हो जाता हूँ क्योकि बंधन मुझे पसंद नहीं |मैं
तुम्हारे हर रिश्ते में हूँ कहीं माता –पिता का प्यार ,कहीं बहन –भाई का स्नेह
,कहीं बच्चों की किलकारी तो कहीं पति –पत्नी का दाम्पत्य |इतने रिश्तों में होते
हुए भी तुम अतृप्त हो क्यों ?उत्तर सरल है जब भी तुम किसी रिश्ते में अधिकार और
वर्चस्व की भावना ले आते हो ,मेरा दम घुटने लगता है ,बस सतह पर अपना प्रतिबिम्ब छोड़
मैं निकल कर भाग जाता हूँ ,और सतह के जल से तुम तृप्त नहीं होते |
फिर तुम मुझे
प्रकृति में सिद्ध करते हो कि मैं झरनों
की झम –झम में नदियाँ की कल –कल में फूलों की खुश्बूँ में हूँ तो मैं पाषाण
प्रतिमा में प्रवेश कर साक्षात् ईश्वर बन
जाता हूँ ,जब तुम मुझे सुख –सुविधाओं
में सिद्ध करते हो तो मैं अलमस्त कबीर की
फटी झोली बन जाता हूँ ….तुम हार नहीं मानते तुम मुझे देह को भोगते हुए देहातीत
होने को सिद्ध करते हो |मैं फिर मुस्कुरा कर कहता हूँ अरे ! मैं तो वो राधा हूँ,जो
प्रेम की सम्पूर्णता में पुकारती है “आदि
मैं न होती राधे –कृष्ण की रकार पे ,तो मेरी जान राधे –कृष्ण “आधे कृष्ण” रहते “
राधा किसी दूसरे
की पत्नी बच्चों की माँ , अपने कृष्ण हजारों मील दूर ,कहाँ है देह ?यहाँ तो देह का
सानिध्य नहीं है ….राधा के लिए कृष्ण देह नहीं हैं अपतु राधा के लिए कृष्ण के अतिरिक्त कोई दूसरी देह ही
नहीं है ,न जड़ न चेतन |तभी तो जब एक चाकर ने
कृष्ण के परलोक पलायन का दुखद समाचार
राधा को दिया ,हे राधे कृष्ण चले गए … मुस्कुरा कर कह उठी राधा “परिहास करता है ,कहाँ गए कृष्ण
,कहाँ जा सकते हैं वो तो कण –कण में हैं ,पत्ते –पत्ते में हैं ,उनके अतिरिक्त कुछ है क्या ? राधा के
लिए कृष्ण ,कृष्ण नहीं हैं ,अपितु कृष्ण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है ,स्वयं
राधा भी राधा नहीं रहीं वो कृष्ण हो गयी …. सारे भेद ही मिट गए…. लोक –काल से परे हो गया
,पूज्य हो गया ये प्रेम | पर ठहरो नहीं,
यहीं पर मत अटको अभी मेरे पिटारे में बताने को और भी बहुत कुछ है ….. मैं तुलसी
का वो पत्ता हूँ जो कृष्ण के वजन से भी गुरु हो गया ,हाँ !उस कृष्ण के वजन से
जिनके पलड़े को सत्यभामा का अभिमान व्
अहंकार मिश्रित प्रेम अपने व् सारे द्वारिका के स्वर्ण आभूषणों के भार से जरा भी न झुका सका |
लुका –छिपी मुझे दरसल भाती बहुत है मैं
किसी कमसिन अल्हड नायिका की तरह
मुस्कुराता हूँ जब तुम मुझे पा के अतृप्त , भोग कर अभोगे ,जान कर
अनजान रह जाते हो …आश्चर्य जितना तुम मुझे परिभाषाओं से बाँधने का प्रयास
करते हो उतना ही मैं परिभाषा से रहित हो जाता हूँ क्योकि बंधन मुझे पसंद नहीं |मैं
तुम्हारे हर रिश्ते में हूँ कहीं माता –पिता का प्यार ,कहीं बहन –भाई का स्नेह
,कहीं बच्चों की किलकारी तो कहीं पति –पत्नी का दाम्पत्य |इतने रिश्तों में होते
हुए भी तुम अतृप्त हो क्यों ?उत्तर सरल है जब भी तुम किसी रिश्ते में अधिकार और
वर्चस्व की भावना ले आते हो ,मेरा दम घुटने लगता है ,बस सतह पर अपना प्रतिबिम्ब छोड़
मैं निकल कर भाग जाता हूँ ,और सतह के जल से तुम तृप्त नहीं होते |
फिर तुम मुझे
प्रकृति में सिद्ध करते हो कि मैं झरनों
की झम –झम में नदियाँ की कल –कल में फूलों की खुश्बूँ में हूँ तो मैं पाषाण
प्रतिमा में प्रवेश कर साक्षात् ईश्वर बन
जाता हूँ ,जब तुम मुझे सुख –सुविधाओं
में सिद्ध करते हो तो मैं अलमस्त कबीर की
फटी झोली बन जाता हूँ ….तुम हार नहीं मानते तुम मुझे देह को भोगते हुए देहातीत
होने को सिद्ध करते हो |मैं फिर मुस्कुरा कर कहता हूँ अरे ! मैं तो वो राधा हूँ,जो
प्रेम की सम्पूर्णता में पुकारती है “आदि
मैं न होती राधे –कृष्ण की रकार पे ,तो मेरी जान राधे –कृष्ण “आधे कृष्ण” रहते “
राधा किसी दूसरे
की पत्नी बच्चों की माँ , अपने कृष्ण हजारों मील दूर ,कहाँ है देह ?यहाँ तो देह का
सानिध्य नहीं है ….राधा के लिए कृष्ण देह नहीं हैं अपतु राधा के लिए कृष्ण के अतिरिक्त कोई दूसरी देह ही
नहीं है ,न जड़ न चेतन |तभी तो जब एक चाकर ने
कृष्ण के परलोक पलायन का दुखद समाचार
राधा को दिया ,हे राधे कृष्ण चले गए … मुस्कुरा कर कह उठी राधा “परिहास करता है ,कहाँ गए कृष्ण
,कहाँ जा सकते हैं वो तो कण –कण में हैं ,पत्ते –पत्ते में हैं ,उनके अतिरिक्त कुछ है क्या ? राधा के
लिए कृष्ण ,कृष्ण नहीं हैं ,अपितु कृष्ण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है ,स्वयं
राधा भी राधा नहीं रहीं वो कृष्ण हो गयी …. सारे भेद ही मिट गए…. लोक –काल से परे हो गया
,पूज्य हो गया ये प्रेम | पर ठहरो नहीं,
यहीं पर मत अटको अभी मेरे पिटारे में बताने को और भी बहुत कुछ है ….. मैं तुलसी
का वो पत्ता हूँ जो कृष्ण के वजन से भी गुरु हो गया ,हाँ !उस कृष्ण के वजन से
जिनके पलड़े को सत्यभामा का अभिमान व्
अहंकार मिश्रित प्रेम अपने व् सारे द्वारिका के स्वर्ण आभूषणों के भार से जरा भी न झुका सका |
विज्ञान ने भी मुझे जानने समझने की कोशिश की है…कभी कहता है मैं
मष्तिष्क के हाइपोथेलेमस में हूँ तो कभी कहता है मैं मात्र एक रसायन हूँ ….मैं
फिर मुस्कुरा उठता हूँ ….जनता हूँ विरोधाभास मेरा स्वाभाव है …. जितना गूंढ
उतना सुलभ , जितना सूक्ष्म उतना व्यापक,
जितना जटिल उतना सरल …. तभी तो लेने में नहीं देने में बढ़ता हूँ ….. इतना कि
व्यक्ति में क्या समष्टि में न समाये …. ज्ञानी जान न पाए मुझे पर कबीर गा उठते
हैं “पोथी पढ़ी –पढ़ी जग मुआ पंडित भया न कोय ,ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय
“|ये ढाई अक्षर समझना ही तो दुष्कर है क्योंकि इसके बाद ज्ञान के सारे द्वार खुल
जाते हैं ,आनद के सारे द्वार खुल जाते हैं |कितने विचारक तुम्हे मेरा अर्थ समझाने
का प्रयास करते हैं …. पर मैं गूंगे का गुड हूँ जिसने जान लिया उसके लिए समझाना
आसान नहीं ….
फिर भी प्रयास जारी रखे गए क्योंकि जिसने पा लिया उसने जान लिया
प्रेम को पाना मतलब आनंद को पाना उसे बांटने में आनन्द आने लगा …. अरे ! मैं ही
तो वो प्याला हूँ जो एक बार भर जाए तो छलकता रहता है युगों –युगों तक कभी रिक्त
नहीं होता |रिश्तों के बंधन हैं मर्यादाएं पर मैं कोई बंधन नहीं मानता …. अपने
शुद्ध रूप में जो सात्विक है मैं सबके लिए एक सामान हूँ रिश्तों –नातों के लिए ही
नहीं समस्त सृष्टि के लिए |कभी अनुभव किये हैं अपने आंसूं ,सुख के मीठे से ,दुःख
के जहरीले ,कडवे से और तीसरे स्नेह के ,कुछ अबूझ से जो आत्मा को तृप्त करते हैं एक
विचित्र सा आनंद प्रदान करते हैं जैसे किसी ने आत्मा को छू लिया है…. क्योकि यहाँ सिर्फ देना ही देना है
लेने की भावना नहीं |मेरे इस शुद्ध सात्विक रूप को ही ऋषि मुनियों ने जाना है ,आनंद
का अनुभव किया है किसी ने तुम्हे यह कह
कर समझाने का प्रयास किया है सबमें स्वयं को देखो तभी परस्पर झगडे –फसाद
,सीमाओं को तोड़ कर मुझे पा सकोगे |तो किसी ने यह कह कर समझाने का प्रयास किया है
अपने अन्दर गहरे उतरो ,सबको खुद में देखो …उस बूँद की तरह जो सागर का हिस्सा भी
है ,और स्वयं सागर भी …. क्योकि असली अर्थ ही मिटना है,अहंकार का मिटना है
,अभिमान का मिटना है मैं का मिटना है और
समष्टि में एकाकार हो जाना एक रंग हो जाना
है …. ज्यू जर्दी हरदी तजे, तजे सफेदी चून |समझ सको तो समझो कि “प्रेम
गली अति सांकरी जामे दुई न समाय “यहाँ दुई का अर्थ दो व्यक्तियों से नहीं है वर्ना तो बंध गया प्रेम शेष रही फिर से अतृप्ति
,फिर से प्यास …..अपितु यहाँ दुई का
अर्थ उस दृष्टिकोण से है जो सबमें मैं या मुझमें सब का भाव उत्त्पन्न करता है
,जहाँ कोई बंधन नहीं है बस आनंद ही आनद है |
मष्तिष्क के हाइपोथेलेमस में हूँ तो कभी कहता है मैं मात्र एक रसायन हूँ ….मैं
फिर मुस्कुरा उठता हूँ ….जनता हूँ विरोधाभास मेरा स्वाभाव है …. जितना गूंढ
उतना सुलभ , जितना सूक्ष्म उतना व्यापक,
जितना जटिल उतना सरल …. तभी तो लेने में नहीं देने में बढ़ता हूँ ….. इतना कि
व्यक्ति में क्या समष्टि में न समाये …. ज्ञानी जान न पाए मुझे पर कबीर गा उठते
हैं “पोथी पढ़ी –पढ़ी जग मुआ पंडित भया न कोय ,ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय
“|ये ढाई अक्षर समझना ही तो दुष्कर है क्योंकि इसके बाद ज्ञान के सारे द्वार खुल
जाते हैं ,आनद के सारे द्वार खुल जाते हैं |कितने विचारक तुम्हे मेरा अर्थ समझाने
का प्रयास करते हैं …. पर मैं गूंगे का गुड हूँ जिसने जान लिया उसके लिए समझाना
आसान नहीं ….
फिर भी प्रयास जारी रखे गए क्योंकि जिसने पा लिया उसने जान लिया
प्रेम को पाना मतलब आनंद को पाना उसे बांटने में आनन्द आने लगा …. अरे ! मैं ही
तो वो प्याला हूँ जो एक बार भर जाए तो छलकता रहता है युगों –युगों तक कभी रिक्त
नहीं होता |रिश्तों के बंधन हैं मर्यादाएं पर मैं कोई बंधन नहीं मानता …. अपने
शुद्ध रूप में जो सात्विक है मैं सबके लिए एक सामान हूँ रिश्तों –नातों के लिए ही
नहीं समस्त सृष्टि के लिए |कभी अनुभव किये हैं अपने आंसूं ,सुख के मीठे से ,दुःख
के जहरीले ,कडवे से और तीसरे स्नेह के ,कुछ अबूझ से जो आत्मा को तृप्त करते हैं एक
विचित्र सा आनंद प्रदान करते हैं जैसे किसी ने आत्मा को छू लिया है…. क्योकि यहाँ सिर्फ देना ही देना है
लेने की भावना नहीं |मेरे इस शुद्ध सात्विक रूप को ही ऋषि मुनियों ने जाना है ,आनंद
का अनुभव किया है किसी ने तुम्हे यह कह
कर समझाने का प्रयास किया है सबमें स्वयं को देखो तभी परस्पर झगडे –फसाद
,सीमाओं को तोड़ कर मुझे पा सकोगे |तो किसी ने यह कह कर समझाने का प्रयास किया है
अपने अन्दर गहरे उतरो ,सबको खुद में देखो …उस बूँद की तरह जो सागर का हिस्सा भी
है ,और स्वयं सागर भी …. क्योकि असली अर्थ ही मिटना है,अहंकार का मिटना है
,अभिमान का मिटना है मैं का मिटना है और
समष्टि में एकाकार हो जाना एक रंग हो जाना
है …. ज्यू जर्दी हरदी तजे, तजे सफेदी चून |समझ सको तो समझो कि “प्रेम
गली अति सांकरी जामे दुई न समाय “यहाँ दुई का अर्थ दो व्यक्तियों से नहीं है वर्ना तो बंध गया प्रेम शेष रही फिर से अतृप्ति
,फिर से प्यास …..अपितु यहाँ दुई का
अर्थ उस दृष्टिकोण से है जो सबमें मैं या मुझमें सब का भाव उत्त्पन्न करता है
,जहाँ कोई बंधन नहीं है बस आनंद ही आनद है |
हां मैं वही प्रेम हूँ जिसे जब जब तुमने जानने समझने का
प्रयास किया ,तो शब्दों अक्षरों और भावो
में उलझ गए| जान लो जहाँ मैं हूँ वहाँ आनंद है …. तुम अक्सर मोह में मुझे
ढूंढते हो …परन्तु मुझमें और मोह में
वही भेद है जो सुख और आनंद में है …. आनंद पूरा भरा प्याला है जो रिक्त नहीं
होता छलकता है और सुख आधा भरा हुआ जो हमेशा खोने या खाली होने के भय से भरा हुआ
ठीक मोह की तरह जहाँ पाने की बेचैनी है तड़प है ,शुद्ध प्रेम रूप में मैं इससे
परे हूँ ….अब और न उलझाते हुए बता ही दूं जिसे तुम समझने के लिए बेकरार हो मैं
प्रेम तुम्हारे अन्दर विद्यमान हूँ तुम भटक रहे हो ठीक वैसे ही जैसे”
कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूंढें वन माहि “….. मैं तुम्हारी आत्मा में हूँ | इतना
तो जानते ही हो की इस ब्रह्माण्ड में सब
कुछ चलायमान है ,कुछ भी स्थिर नहीं है,पृथ्वी,तारे गृह –उपगृह ,गलेक्सी आदि –आदि ,जड़ वस्तुओं में
इलेक्ट्रान घूम रहे हैं ….. तुम्हारे अन्दर की चेतना ,तुम्हारी आत्मा के स्पंदन
की शुद्ध आवृति भी प्रेम है ,पर तुमने उसे बाँध रखा है व्यक्तिगत प्रेम के छोटे –छोटे
टुकड़ों में ,स्पंदन का आयाम घट जाता है आवृति बाधित होती है …….इसीलिए युगों
से ऋषि –मुनि विचारक समझाते रहे व्यक्तिगत प्रेम के खांचे से निकल कर समष्टि से
प्रेम करो …. इतना कि स्वयं प्रेम हो जाओ और आत्मा अपनी शुद्ध आवृति से स्पंदन
करती हुई पुरे कॉसमॉस की आवृति से एकात्म बना ले |
यहीं से खुलते हैं आनद के द्वार ,यहाँ कुछ भी
अप्राप्य नहीं है ,कोई तड़प नहीं है| अपने जीवन में कई बार कभी भजन गाते हुए कभी नृत्य करते हुए ,कभी
बच्चों के साथ खेलते हुए इसका अनुभव किया होगा पर फिर किसी नकात्मक विचार ने ,किसी
डर ने किसी भय ने प्रेम को बाधित किया होगा |इसलिए संशय छोड़ कर प्रेम हो जाओ, सोते
जागते ,खाते –पीते ,हँसते –बोलते भर जाओ मेरे मीठे अहसास से , कण कण में मुझे
महसूस करो ,उस रोटी के कौर में जो तुम खाते हो ,उस पानी में जो तुम पीते हो ,फूलों
में हवाओं में ,मनुष्य पशु पक्षी हर वक्त ,हर घडी सिर्फ और सिर्फ मुझे महसूस करो
|भर जाने दो मेरे मीठे अहसास से अपनी आत्मा को ,मत बाधित करो करने दो उसे अपनी
शुद्ध आवृति पर कम्पन |फिर देखना खुल जायेंगे कॉसमॉस की ऊर्जा के सरे द्वार ,और जब
एक ही आवृति पर कम्पन करने लगेगा अखिल ब्रह्माण्ड तो कुछ भी अप्राप्य नहीं रहेगा
,अतृप्त नहीं रहेगा …सारे भय संशय मिट
जायेंगे .खुल जायेंगे खुशियों के सारे
द्वार ,चहुँ दिश आनंद ही आनंद नृत्य करेगा|हां ! अगर आनंद पाना चाहते हो तो
जान लो मैं प्रेम हूँ एक शुद्ध अहसास
….. जिसे हर पल अपनी रूह में महसूस करो
प्रयास किया ,तो शब्दों अक्षरों और भावो
में उलझ गए| जान लो जहाँ मैं हूँ वहाँ आनंद है …. तुम अक्सर मोह में मुझे
ढूंढते हो …परन्तु मुझमें और मोह में
वही भेद है जो सुख और आनंद में है …. आनंद पूरा भरा प्याला है जो रिक्त नहीं
होता छलकता है और सुख आधा भरा हुआ जो हमेशा खोने या खाली होने के भय से भरा हुआ
ठीक मोह की तरह जहाँ पाने की बेचैनी है तड़प है ,शुद्ध प्रेम रूप में मैं इससे
परे हूँ ….अब और न उलझाते हुए बता ही दूं जिसे तुम समझने के लिए बेकरार हो मैं
प्रेम तुम्हारे अन्दर विद्यमान हूँ तुम भटक रहे हो ठीक वैसे ही जैसे”
कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूंढें वन माहि “….. मैं तुम्हारी आत्मा में हूँ | इतना
तो जानते ही हो की इस ब्रह्माण्ड में सब
कुछ चलायमान है ,कुछ भी स्थिर नहीं है,पृथ्वी,तारे गृह –उपगृह ,गलेक्सी आदि –आदि ,जड़ वस्तुओं में
इलेक्ट्रान घूम रहे हैं ….. तुम्हारे अन्दर की चेतना ,तुम्हारी आत्मा के स्पंदन
की शुद्ध आवृति भी प्रेम है ,पर तुमने उसे बाँध रखा है व्यक्तिगत प्रेम के छोटे –छोटे
टुकड़ों में ,स्पंदन का आयाम घट जाता है आवृति बाधित होती है …….इसीलिए युगों
से ऋषि –मुनि विचारक समझाते रहे व्यक्तिगत प्रेम के खांचे से निकल कर समष्टि से
प्रेम करो …. इतना कि स्वयं प्रेम हो जाओ और आत्मा अपनी शुद्ध आवृति से स्पंदन
करती हुई पुरे कॉसमॉस की आवृति से एकात्म बना ले |
यहीं से खुलते हैं आनद के द्वार ,यहाँ कुछ भी
अप्राप्य नहीं है ,कोई तड़प नहीं है| अपने जीवन में कई बार कभी भजन गाते हुए कभी नृत्य करते हुए ,कभी
बच्चों के साथ खेलते हुए इसका अनुभव किया होगा पर फिर किसी नकात्मक विचार ने ,किसी
डर ने किसी भय ने प्रेम को बाधित किया होगा |इसलिए संशय छोड़ कर प्रेम हो जाओ, सोते
जागते ,खाते –पीते ,हँसते –बोलते भर जाओ मेरे मीठे अहसास से , कण कण में मुझे
महसूस करो ,उस रोटी के कौर में जो तुम खाते हो ,उस पानी में जो तुम पीते हो ,फूलों
में हवाओं में ,मनुष्य पशु पक्षी हर वक्त ,हर घडी सिर्फ और सिर्फ मुझे महसूस करो
|भर जाने दो मेरे मीठे अहसास से अपनी आत्मा को ,मत बाधित करो करने दो उसे अपनी
शुद्ध आवृति पर कम्पन |फिर देखना खुल जायेंगे कॉसमॉस की ऊर्जा के सरे द्वार ,और जब
एक ही आवृति पर कम्पन करने लगेगा अखिल ब्रह्माण्ड तो कुछ भी अप्राप्य नहीं रहेगा
,अतृप्त नहीं रहेगा …सारे भय संशय मिट
जायेंगे .खुल जायेंगे खुशियों के सारे
द्वार ,चहुँ दिश आनंद ही आनंद नृत्य करेगा|हां ! अगर आनंद पाना चाहते हो तो
जान लो मैं प्रेम हूँ एक शुद्ध अहसास
….. जिसे हर पल अपनी रूह में महसूस करो
व्यक्ति
के लिए नहीं समष्टि के लिए ,कण –कण के लिए |
के लिए नहीं समष्टि के लिए ,कण –कण के लिए |
एक
कोशिश है ….. करके देखो ………..
वंदना बाजपेयी
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चाहिए बस एक स्नेह भरा हाथ
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आपको लेख “सिर्फ अहसास हूँ मैं…….. रूह से महसूस करो “ कैसा लगा | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें
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अद्वितीय संपादकीय ।
धन्यवाद आशा जी
अद्वितीय, अनुपम लेख दीदी ! अभिनंदन ! आपको मेरा खूब सारा प्यार….सादर।
धन्यवाद मीना जी आपको भी ढेर सारा प्यार
आदरणीय वंदना जी — सुंदर लेखन ! प्रेम अपरिभाषेय रहा है हमेशा और दिव्य रूप में ही अमर रहा है| दुष्यंत कुमार जी की पंक्तियाँ क्या खूब हैं !!!!!!!!!! —
सरे राह कुछ भी कहा नहीं, कभी उसके घर में गया नहीं
मैं जनम-जनम से उसी का हूँ, उसे आज तक ये पता नहीं
उसे पाक़ नज़रों से चूमना भी इबादतों में शुमार है
कोई फूल लाख क़रीब हो, कभी मैंने उसको छुआ नहीं–
सादर —-
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ रेनू जी , धन्यवाद