मायके आई हुई बेटियाँ , फिर से अपने बचपन में लौट आती है , और जाते समय आँचल के छोर में चार दाने चावल के साथ बाँध कर ले जाती है थोडा सा स्नेह जो सुसराल में उन्हें साल भर तरल बनाये रखने के लिए जरूरी होता है |
कविता -मायके आई हुई बेटियाँ
(१ )
बेटी की विदाई के बाद
अक्सर खखोरती है माँ
बेटी के पुराने खिलौनो के डिब्बे
उलट – पलट कर देखती है
लिखी -पड़ी गयी
डायरियों के हिस्से
बिखेरकर फिर
तहाती है पुराने दुपट्टे
तभी तीर सी
गड जाती हैं
कलेजे में
वो गांठे
जो बेटियों के दुप्पटे पर
माँ ही लगाती आई हैं
सदियों से
यह कहते हुए
“बेटियाँ तो सदा पराई होती हैं ”
(२ )
बेटी के मायके आने की
खबर से
पुनः खिल उठती है
बूढी बीमार माँ
झुर्री भरे हाथों से
पीसती है दाल
मिगौड़ी -मिथौरी
बुकनू ,पापड ,आचार
के सजने लगते हैं मर्तबान
छिपा कर दुखों की सलवटे
बदल देती हैं
पलंग की चादर
कुछ जोड़ -तोड़ से
खाली कर देतीं है
एक कोना अलमारी का
गुलदान में सज जाते है
कुछ चटख रंगों के फूल
भर जाती है रसोई
बेटी की पसंद के
व्यंजनों की खशबू से
और हो जाता है
सब कुछ पहले जैसा
हुलस कर मिलती चार आँखों में
छिप जाता है
एक झूठ
(३ )
मायके आई हुई बेटियाँ
नहीं माँगती हैं
संपत्ति में अपना हिस्सा
न उस दूध -भात का हिसाब
जो चुपके से
अपनी थाली से निकालकर
रख दियाथा भाई की थाली में
न दिखाती हैं लेख -जोखा
भाई के नाम किये गए व्रतों का
न करनी होती है वसूली
मायके की उन चिंताओं की
जिसमें काटी होती हैं
कई रातें
अपलक
आसमान निहारते हुए
मायके आई हुई बेटियाँ
बस इतना ही
सुनना चाहती है
भाई के मुँह से
जब मन आये चली आना
ये घर
तुम्हारा अपना ही है
(४ )
अकसर बेटियों के
आँचल के छोर पर
बंधी रहती है एक गाँठ
जिसमें मायके से विदा करते समय
माँ ने बाँध दिए थे
दो चावल के दाने
पिता का प्यार
और भाई का लाड
धोते पटकते
निकल जाते है ,चावल के दाने
परगोत्री घोषित करते हुए
पर बंधी रह जाती है
गाँठ
मन के बंधन की तरह
ये गाँठ
कभी नहीं खुलती
ये गाँठ
कभी नहीं खुलेगी
(५ )
जब भी जाती हूँ
मायके
न जाने कितने सपने भरे आँखों में
हुलस कर दिखाती हूँ
बेटी का हाथ पकड़
ये देखो
वो आम का पेड़
जिस पर चढ़कर
तोड़ते थे कच्ची अमियाँ
खाते थे डाँट
पड़ोस वाले चाचा की
ये देखो
बरगद का पेड़
जिसकी जटाओं पर बांधा था झूला
झूलते थे
भर कर लम्बी -लम्बी पींगें
वो देखो खूँटी पर टँगी
बाबूजी की बेंत
जिसे अल -सुबह हाथो में पकड़
जाते थे सैर पर
आँखें फाड़ -फाड़ कर देखती है बिटियाँ
यहाँ -वहाँ ,इधर -उधर
फिर झटक कर मेरा हाथ
झकझोरती है जोर से
कहाँ माँ कहाँ
कहाँ है आम का पेड़ और ठंडी छाँव
वहां खड़ी है ऊँची हवेली
जो तपती है धूप में
कहाँ है बरगद का पेड़
वहां तो है
ठंडी बीयर की दुकान
जहाँ झूलते नहीं झूमते हैं
और नाना जी की बेंत भी तो नहीं
वहां टंगी है एक तस्वीर
पहाड़ों की
झट से गिरती हूँ मैं पहाड़ से
चीखती हूँ बेतहाशा
नहीं है ,नहीं है
पर मुझे तो दिखाई दे रही है साफ़ -साफ़
शायद नहीं हैं
पर है …. मेरी स्मृतियों में
इस होने और नहीं होने की कसक
तोड़ देती है मुझे
टूट कर बिखर जाता है सब
फिर समेटती हूँ
तिनका -तिनका
सजा देती हूँ जस का तस
झूठ ही सही
पर !हाँ … अब यह है
क्योंकि इसका होना
बहुत जरूरी है
मेरे होने के लिए
वंदना बाजपेयी
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लाजवाब लिखा है आपने वंदना जी … कविता को पढ़ कर लगा जैसे उसे जी रही हूँ साथ साथ मेरे मायके में मेरे बचपन में ले गई यह कविता मुझे
धन्यवाद सरिता जी
आदरणीय वन्दना जी — आपके साथ- साथ हाथ पकड़ कर मैं भी यादों के गलियारे से मायके जा पंहुची | आँखे नम और एक एक शब्द मानो मन में उतरता जा रहा था | हर लडकी की यही कहानी है ना कम ना ज्यादा | इस हृदयस्पर्शी रचना के लिए हार्दिक आभार बहना | मायके की पीड हर नारी के मन में एक जैसी ही है | सादर और सस्नेह ——
धन्यवाद रेनू जी
सभी रचनाएँ माँ को छू के गुज़र जाती हैं …
बेटियाँ दिल में रहती हैं ।.. और कभी पराई नहि होती …
धन्यवाद दिगंबर जी