बैसाखियाँ
जब
जीवन के पथ पर
गर्म रेत सी
लगने लगती दहकती जमीन
जब बर्दाश्त के बाहर हो जाते है
दर्द भरी लू के थपेड़े
संभव नहीं दिखता
एक पग भी आगे बढ़ना
और रेंगना
बिलकुल असंभव
तब ढूढता है मन बैसाखियाँ
२ )
ठीक उसी समय
बैसाखियाँ ढूंढ रही होती हैं लाचार
लाचारों के बिना खतरे में होता है उनका वजूद
आ जाती हैं देने सहारा
गड जाती हैं बाजुओं में
एक टीभ सी उठती है
सीने के बीचो -बीच
विवशता है
सहनी ही है यह गडन
लाचारी ,और बेबसी से भरी नम आँखें
बहुधा नजरंदाज करती हैं बैसाखियाँ
३ )
मानता है अपंग
लौटा नहीं जा सकता अतीत में
न मांग कर लाये जा सकते हैं
दबे कुचले पाँव
जीवन है तो चलना है
गर
जारी रखनी है यात्रा
आगे की तरफ
तो जरूरी है लेना
बैसाखियों का सहारा
४ )
बैसाखियाँ कभी हौसला नहीं देती
वो देती है सहारा
कराती हैं अहसास
अपाहिज होने का
जब
आदत सी बन जाती हैं बैसाखियाँ
तब मुस्कुराती हैं अपने वजूद पर
कि कभी -कभी भाता है उनको
देखना
गिरना -पड़ना और रेंगना
की बढ़ जाता है
उनका कुछ कद
साथ ही बढ़ जाती है
लाचार के बाजुओ की गडन
५ )
बैसाखियाँ
प्रतीक हैं अपंगता की
बैसाखियाँ
प्रतीक हैं अहंकार की
बैसाखियाँ
प्रतीक हैं शोषण की
फिर भी आज हर मोड़ पर मिल जाती हैं बैसाखियाँ
बिना किसी रंग भेद के
बिना किसी लिंग भेद के
देने को सहारा
या एक दर्द भरी गडन
जो रह ही जाती है ताउम्र
६ )
बैसाखियाँ सदा से थी ,है और रहेंगी
जब -जब
भावुक लोग
महसूस करेगे
अपने पांवों को कुचला हुआ
तब -तब वजूद में आयेगी बैसाखियाँ
इतरायेंगी बैसाखियाँ
सहारा देकर
स्वाभिमान छीन ले जायेंगी बैसाखियाँ
जब तक
भावनाओं के दंगल में
हारा ,पंगु हुआ पथिक
अपने आँसू
खुद पोछना
नहीं सीख जाएगा
तब तक बैसाखियों का कारोबार
यूँ ही फलता -फूलता जाएगा
वंदना बाजपेई
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