“माँ सीरियस है जल्दी आ जाओ।” भैया के ये शब्द बार बार कानों में गूंज रहे थे मगर आँखों और दिमाग में कुछ और ही मंजर थे।25 साल पहले ऐसा ही एक फोन मां के पास भी आया था – तब दादी सीरियस थीं।अंतिम सांस लेती मेरी दादी बस जैसे मेरी माँ की ही बाट देख रही थी।माँ के हाथों में उन्होंने दम तोड़ दिया। मेरे final exams चल रहे थे।पर माँ चाहने पर भी 15 दिन से पहले नहीं आ सकीं।दादी जीवित थीं तब माँ वहाँ थी तो उनका वहाँ 12 दिन तक रूकना और तमाम रीति रिवाज निभाना जरूरी था।सामाजिक रीति रिवाजों ने मेरे भविष्य की,सपनों की बलि ले ली।माँ की अनुपस्थिति में पढ़ना और घर भी देखना मैं ठीक से न कर सकी।
पड़ोसियों और दोस्तों ने हर सम्भव मदद की पर माँ तो माँ ही होती है। हर समय खाने पीने का पढ़ने का इतना ध्यान रखती थीं।उनके बिना मेरे exams ठीक नहीं हो सकते थे और न हुए।result खराब हुआ और मुझे अपने सपनों से समझौता करना पड़ा। मैं जीवन भर माँ को इस बात के लिए माफ न कर सकी। हमेशा एक तल्खी सी रहती थी मुझमें,पर माँ ने कभी सफाई देने की कोशिश भी नहीं की।
आज इतिहास फिर अपने आप को दोहराने पर अड़ा है।पर मैं कुछ और ही सोच रही थी।मैंने भैया को फोन किया।माँ से बात करना चाही।माँ ने फोन पर अस्पष्ट शब्दों में बस इतना ही कहा “मेरे मरने पर ही आना अनु….. जिन्दा पर मत आना।तू भी मेरी तरह फस गई तो अपने आप को माफ नहीं कर पाएगी जिन्दगी भर।” फोन मेरे हाथ से छूट गया और आँसुओं का एक सैलाब मेरे मन की सारी तल्खी लेकर बह निकला। मैं तड़प उठी माँ से मिलने को। बेहूदा सामाजिक रीति रिवाजों को तोड़ कर,अपनी माँ और बेटी,दोनों के प्रति अपनी भावनाओं और जिम्मेदारी को पूरी तरह से निभाने का निर्णय लेकर मैं अपना bag तैयार करते समय काफी हल्का महसूस कर रही थी।मैं बस जल्दी से माँ के पास जाना चाहती थी।
शिवानी जैन शर्मा
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अच्छी रचना!!
man ko chhu lene wali …